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Sunday, April 4, 2021

मुंशी प्रेमचंद | ग़बन | उपन्यास | poemgazalshayari.in

 गबन

प्रेमचन्द

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गबन

बरसात के िदिन ह, सावन का महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई ह । रह-रहकर िरमिझिम वषा

होने लगती है । अभी तीसरा पहर है; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी । आमों के बाग़ में झिूला पड़ा

हुआ है । लड़िकयाँ भी झिूल रहीं ह और उनकी माताएँ भी । दिो-चार झिूल रहीं ह, दिो चार झिुला रही ह । कोई

कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में मिहलाआं की बाल-स्मृतितयाँ भी जाग उठती ह । ये फुहार

मानो िचताआं को ह्रदिय से धो डालती ह । मानो मुरझिाए हुए मन को भी हरा कर देती ह । सबके िदिल उमंगों से

भरे हुए ह । घानी सािडयों ने प्रकृतित की हिरयाली से नाता जोड़ा है ।

इसी समय एक िबसाती आकर झिूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झिूला बंदि हो गया। छोटी -बडी

सबों ने आकर उसे घेर िलया। िबसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दिमकती चीजें िनकालकर िदिखाने

लगा। कच्चे मोितयों के गहने थ, कच्चे लैस और गोट, रंगीन मोजे, खूबसूरत गुिडयां और गुिडयों के गहने, बच्चों

के लट्टू और झिुनझिुने। िकसी ने कोई चीज ली, िकसी ने कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बािलका ने वह

चीज पसंदि की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदिर थी। वह िगरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। मां से

बोली--अम्मां, मैं यह हार लूंगी।

मां ने िबसाती से पूछा--बाबा, यह हार िकतने का है - िबसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा—

खरीदि तो बीस आने की है, मालिकन जो चाहें दे दें।

माता ने कहा—यह तो बडा महंगा है। चार िदिन में इसकी चमक-दिमक जाती रहेगी।

िबसाती ने मािमक भाव से िसर िहलाकर कहा--बहूजी, चार िदिन में तो िबिटया को असली चन्द्रहार िमल

जाएगा! माता के ह्रदिय पर इन सह्रदियता से भरे हुए शब्दिों ने चोट की। हार ले िलया गया।

बािलका के आनंदि की सीमा न थी। शायदि हीरों के हार से भी उसे इतना आनंदि न होता। उसे पहनकर वह

सारे गांव में नाचती िगरी। उसके पास जो बाल-संपित्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे िप्रय यही िबल्लौर का

हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी।

महाशय दिीनदियाल प्रयाग के छोट - से गांव में रहते थ। वह िकसान न थ पर खेती करते थ। वह जमींदिार

न थ पर जमींदिारी करते थ। थानेदिार न थ पर थानेदिारी करते थ। वह थ जमींदिार के मुख्तार। गांव पर उन्हीं की

धाक थी। उनके पास चार चपरासी थ, एक घोडा, कई गाएं- - भैंसें। वेतन कुल पांच रूपये पाते थ, जो उनके

तंबाकू के खचर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मागर्च थ, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं

की लडकी थी। पहले उसके तीन भाई और थ, पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता--तेरे भाई क्या

हुए, तो वह बडी सरलता से कहती--बडी दूर खेलने गए ह। कहते ह, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदिमी को

इतना िपटवाया था िक वह मर गया था। उसके तीन वषर्च के अंदिर तीनों लङके जाते रहे। तब से बेचारे बहुत

संभलकर चलते थ। फूंक - फूंककर पांव रखते, दूध के जले थ, छाछ भी फूंक - फूंककर पीते थ। माता और िपता

के जीवन में और क्या अवलंब? दिीनदियाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के िलए कोई न कोई आभूषण जरूर

लाते। उनकी व्यावहािरक बुिद्धि में यह िवचार ही न आता था िक जालपा िकसी और चीज से अिधक प्रसन्न हो

सकती है। गुिडयां और िखलौने वह व्यथर्च समझिते थ, इसिलए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके

िखलौने थ। वह िबल्लौर का हार, जो उसने िबसाती से िलया था, अब उसका सबसे प्यारा िखलौना था। असली

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हार की अिभलाषा अभी उसके मन में उदिय ही नहीं हुई थी। गांव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पडता,

तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आंखों में जंचता ही न था। एक िदिन दिीनदियाल लौट, तो

मानकी के िलए एक चन्द्रहार लाए। मानकी को यह साके बहुत िदिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई।

जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, िपता से बोली--बाबूजी, मुझिे भी ऐसा ही हार ला दिीिजए।

दिीनदियाल ने मुस्कराकर कहा—ला दूंगा, बेटी!

कब ला दिीिजएगा

बहुत जल्दिी ।

बाप के शब्दिों से जालपा का मन न भरा।

उसने माता से जाकर कहा—अम्मांजी, मुझिे भी अपना सा हार बनवा दिो।

मां—वह तो बहुत रूपयों में बनेगा, बेटी!

जालपा—तुमने अपने िलए बनवाया है, मेरे िलए क्यों नहीं बनवातीं?

मां ने मुस्कराकर कहा—तेरे िलए तेरी ससुराल से आएगा।

यह हार छ सौ में बना था। इतने रूपये जमा कर लेना, दिीनदियाल के िलए आसान न था। ऐसे कौन बडे

ओहदेदिार थ। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई जीवन में िफर कभी इतने रूपये आयेंग, इसमें उन्हें

संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्दि उसके ह्रदिय में अंिकत हो गए। ससुराल उसके िलए अब उतनी

भंयकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आएगा, वहां के लोग उसे माता-िपता से अिधक प्यार करग, तभी तो जो

चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से आएगी।

लेिकन ससुराल से न आए तो उसके सामने तीन लड़िकयों के िववाह चुके थ, िकसी की ससुराल से चन्द्रहार

न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो- उसने सोचा--तो क्या माताजी अपना हार मुझिे दे देंगी?

अवश्य दे देंगी।

इस तरह हंसते-खेलते सात वषर्च कट गए। और वह िदिन भी आ गया, जब उसकी िचरसंिचत अिभलाषा पूरी

होगी।

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दिो

मुंशी दिीनदियाल की जान - पहचान के आदििमयों में एक महाशय दियानाथ थ, बडे ही सज्जन और सह्रदिय

कचहरी में नौकर थ और पचास रूपये वेतन पाते थ। दिीनदियाल अदिालत के कीड़े थ। दियानाथ को उनसे सैकड़ों

ही बार काम पड़ चुका था। चाहते, तो हजारों वसूल करते, पर कभी एक पैसे के भी रवादिार नहीं हुए थ।

दिीनदियाल के साथ ही उनका यह सलूक न था?-यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी िक वह बहुत ऊँचे

आदिशर्च के आदिमी हों, पर िरश्वत को हराम समझिते थ। शायदि इसिलए िक वह अपनी आंखों से इस तरह के दिृतश्य

देख चुके थ। िकसी को जेल जाते देखा था, िकसी को संतान से हाथ धोते, िकसी को दुर्व्यर्चसनों के पंजे में फंसते।

ऐसी उन्हें कोई िमसाल न िमलती थी, िजसने िरश्वत लेकर चैन िकया हो उनकी यह दिृतढ़ धारणा हो गई थी िक

हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते इस जमाने में पचास रुपए की भुगुत ही क्या

पांच आदििमयों का पालन बडी मुिश्कल से होता था। लङके अच्छे कपड़ों को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती, पर

दियानाथ िवचिलत न होते थ। बडा लड़का दिो ही महीने तक कालेज में रहने के बादि पढ़ना छोड़ बैठा। िपता ने

साफ कह िदिया--मैं तुम्हारी िडग्री के िलए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने

पुरूषाथर्च से पढ़ो। बहुतों ने िकया है, तुम भी कर सकते हो । लेिकन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दिो साल

से वह िबलकुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर - सपाट करता और मां और छोट भाइयों पर रोब जमाता। दिोस्तों

की बदिौलत शौक पूरा होता रहता था। िकसी का चेस्टर मांग िलया और शाम को हवा खाने िनकल गए। िकसी

का पंपःशू पहन िलया, िकसी की घड़ी कलाई पर बांधा ली। कभी बनारसी फैशन में िनकले, कभी लखनवी फैशन

मेंब दिस िमत्रों ने एक-एक कपडा बनवा िलया, तो दिस सूट बदिलने का उपाय हो गया। सहकािरता का यह

िबलकुल नया उपयोग था। इसी युवक को दिीनदियाल ने जालपा के िलए पसंदि िकया। दियानाथ शादिी नहीं करना

चाहते थ। उनके पास न रूपये थ और न एक नए पिरवार का भार उठाने की िहम्मत, पर जागश्वरी ने ित्रया-हठ

से काम िलया और इस शिक्त के सामने पुरूष को झिुकना पड़ा। जागश्वरी बरसों से पुत्रवधू के िलए तड़प रही थी।

जो उसके सामने बहुएं बनकर आइ, वे आज पोते िखला रही ह, िफर उस दुर्िखया को कैसे धैयर्च होता। वह कुछकुछ िनराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी िक कहीं से बात आए। दिीनदियाल ने संदेश भेजा, तो उसको आंखें-

सी िमल गई। अगर कहीं यह िशकार हाथ से िनकल गया, तो िफर न जाने िकतने िदिनों और राह देखनी पड़े।

कोई यहां क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदिादि। लङके पर कौन रीझिता है। लोग तो धन देखते ह, इसिलए

उसने इस अवसर पर सारी शिक्त लगा दिी और उसकी िवजय हुई।

दियानाथ ने कहा, भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझिमें समाई नहीं है। जो आदिमी अपने पेट की िफक

नहीं कर सकता, उसका िववाह करना मुझिे तो अधमर्च-सा मालूम होता है। िफर रूपये की भी तो िफक है। एक

हजार तो टीमटाम के िलए चािहए, जोड़े और गहनों के िलए अलग। (कानों पर हाथ रखकर) ना बाबा! यह बोझि

मेरे मान का नहीं।

जागश्वरी पर इन दिलीलों का कोई असर न हुआ, बोली—वह भी तो कुछ देगा-

मैं उससे मांगने तो जाऊंगा नहीं।

तुम्हारे मांगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुदि ही देंग। लडकी के ब्याह में पैसे का मुंह कोई नहीं देखता।

हां, मकदूर चािहए, सो दिीनदियाल पोढ़े आदिमी ह। और िफर यही एक संतान है; बचाकर रखेंग, तो िकसके िलए?

दियानाथ को अब कोई बात न सूझिी, केवल यही कहा--वह चाहे लाख दे दें, चाहे एक न दें, मैं न कहूंगा िक दिो, न

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कहूंगा िक मत दिो। कजर्च मैं लेना नहीं चाहता, और लूं, तो दूंगा िकसके घर से?

जागश्वरी ने इस बाधा को मानो हवा में उडाकर कहा--मुझिे तो िवश्वास है िक वह टीके में एक हजार से

कम न देंग। तुम्हारे टीमटाम के िलए इतना बहुत है। गहनों का प्रबंध िकसी सराफ से कर लेना। टीके में एक

हजार देंग, तो क्या द्वार पर एक हजार भी न देंग- वही रूपये सराफ को दे देना। दिो-चार सौ बाकी रहे, वह

धीरे-धीरे चुक जाएंग। बच्चा के िलए कोई न कोई द्वार खुलेगा ही।

दियानाथ ने उपेक्षा-भाव से कहा--'खुल चुका, िजसे शतरंज और सैर-सपाट से फुरसत न िमले, उसे सभी

द्वार बंदि िमलेंग।

जागश्वरी को अपने िववाह की बात यादि आई। दियानाथ भी तो गुलछरे उडाते थ लेिकन उसके आते ही

उन्हें चार पैसे कमाने की िफक कैसी िसर पर सवार हो गई थी। साल-भर भी न बीतने पाया था िक नौकर हो

गए। बोली--बहू आ जाएगी, तो उसकी आंखें भी खुलेंगी, देख लेना। अपनी बात यादि करो। जब तक गले में जुआ

नहीं पडा है, तभी तक यह कुलेलें ह। जुआ पडा और सारा नशा िहरन हुआ। िनकम्मों को राह पर लाने का इससे

बढ़कर और कोई उपाय ही नहीं।

जब दियानाथ परास्त हो जाते थ, तो अख़बार पढ़ने लगते थ। अपनी हार को िछपाने का उनके पास यही

संकेत था।

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तीन

मुंशी दिीनदियाल उन आदििमयों में से थ, जो सीधों के साथ सीधे होते ह, पर टढ़ों के साथ टढ़े ही नहीं,

शैतान हो जाते ह। दियानाथ बडा-सा मुंह खोलते, हजारों की बातचीत करते, तो दिीनदियाल उन्हें ऐसा चकमा देते

िक वह उम- भर यादि करते। दियानाथ की सज्जनता ने उन्हें वशीभूत कर िलया। उनका िवचार एक हजार देने का

था, पर एक हजार टीके ही में दे आए। मानकी ने कहा--जब टीके में एक हजार िदिया, तो इतना ही घर पर भी

देना पड़ेगा। आएगा कहां से- दिीनदियाल िचढ़कर बोले--भगवान मािलक है। जब उन लोगों ने उदिारता िदिखाई

और लड़का मुझिे सौंप िदिया, तो मैं भी िदिखा देना चाहता हूं िक हम भी शरीफ ह और शील का मूल्य पहचानते

ह। अगर उन्होंने हेकड़ी जताई होती, तो अभी उनकी खबर लेता।

दिीनदियाल एक हजार तो दे आए, पर दियानाथ का बोझि हल्का करने के बदिले और भारी कर िदिया। वह

कजर्च से कोसों भागते थ। इस शादिी में उन्होंने िमयां की जूती िमयां की चांदि वाली नीित िनभाने की ठानी थी पर

दिीनदियाल की सह्रदियता ने उनका संयम तोड़ िदिया। वे सारे टीमटाम, नाच-तमाश, िजनकी कल्पना का उन्होंने

गला घोंट िदिया था, वही रूप धारण करके उनके सामने आ गए। बंधा हुआ घोडाथान से खुल गया, उसे कौन रोक

सकता है। धूमधाम से िववाह करने की ठन गई। पहले जोडे--गहने को उन्होंने गौण समझि रखा था, अब वही

सबसे मुख्य हो गया। ऐसा चढ़ावा हो िक मड़वे वाले देखकर भङक उठं। सबकी आंखें खुल जाएं । कोई तीन हजार

का सामान बनवा डाला। सराफ को एक हजार नगदि िमल गए, एक हजार के िलए एक सप्ताह का वादिा हुआ, तो

उसने कोई आपित्ति न की। सोचा--दिो हजार सीधे हुए जाते ह, पांच-सात सौ रूपये रह जाएंग, वह कहां जाते ह।

व्यापारी की लागत िनकल आती है, तो नगदि को तत्काल पाने के िलए आग्रह नहीं करता। िफर भी चन्द्रहार की

कसर रह गई। जडाऊ चन्द्रहार एक हजार से नीचे अच्छा नहीं िमल सकता था। दियानाथ का जी तो लहराया िक

लग हाथ उसे भी ले लो, िकसी को नाक िसकोड़ने की जगह तो न रहेगी, पर जागश्वरी इस पर राजी न हुई।

बाजी पलट चुकी थी। दियानाथ ने गमर्च होकर कहा--तुम्हें क्या, तुम तो घर में बैठी रहोगी। मौत तो मेरी होगी,

जब उधार के लोग नाकभौं िसकोड़ने लगंग।

जागश्वरी--दिोग कहां से, कुछ सोचा है?

दियानाथ--कम-से-कम एक हजार तो वहां िमल ही जाएंग।

जागश्वरी--खून मुंह लग गया क्या?

दियानाथ ने शरमाकर कहा--नहीं-नहीं, मगर आिखर वहां भी तो कुछ िमलेगा?

जागश्वरी--वहां िमलेगा, तो वहां खचर्च भी होगा। नाम जोड़े गहने से नहीं होता, दिान-दििक्षणा से होता है।

इस तरह चन्द्रहार का प्रस्ताव रद्द हो गया।

मगर दियानाथ िदिखावे और नुमाइश को चाहे अनावश्यक समझिं, रमानाथ उसे परमावश्यक समझिता था।

बरात ऐसे धूम से जानी चािहए िक गांव-भर में शोर मच जाय। पहले दूल्हे के िलए पालकी का िवचार था।

रमानाथ ने मोटर पर जोर िदिया। उसके िमत्रों ने इसका अनुमोदिन िकया, प्रस्ताव स्वीकृतत हो गया। दियानाथ

एकांतिप्रय जीव थ, न िकसी से िमत्रता थी, न िकसी से मेल-जोल। रमानाथ िमलनसार युवक था, उसके िमत्र ही

इस समय हर एक काम में अग्रसर हो रहे थ। वे जो काम करते, िदिल खोल कर। आितशबािजयां बनवाई, तो

अव्वल दिजे की। नाच ठीक िकया, तो अव्वल दिजे का; बाजे-गाजे भी अव्वल दिजे के, दिोयम या सोयम का वहां

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िजक ही न था। दियानाथ उसकी उच्छृतंखलता देखकर िचितत तो हो जाते थ पर कुछ कह न सकते थ। क्या कहते!

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चार

नाटक उस वक्त पास होता है, जब रिसक समाज उसे पंसदि कर लेता है। बरात का नाटक उस वक्त पास

होता है, जब राह चलते आदिमी उसे पंसदि कर लेते ह। नाटक की परीक्षा चार-पांच घंट तक होती रहती है, बरात

की परीक्षा के िलए केवल इतने ही िमनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दिौड़धूप और तैयारी का

िनबटारा पांच िमनटों में हो जाता है। अगर सबके मुंह से वाह-वाह िनकल गया, तो तमाशा पास नहीं तो !

रूपया, मेहनत, िफक, सब अकारथ। दियानाथ का तमाशा पास हो गया। शहर में वह तीसरे दिजे में आता, गांव में

अव्वल दिजे में आया। कोई बाजों की धोंधों-पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को आंखें गाड़-गाड़कर

देख रहा था। कुछ लोग फुलवािरयों के तख्त देखकर लोट-लोट जाते थ। आितशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी।

हवाइयां जब सकै से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले, कुमकुमे-से िबखर जाते, जब चिखयां

छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर िनकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थ। वाह, क्या कारीगरी है! जालपा

के िलए इन चीजों में लेशमात्र भी आकषर्चण न था। हां, वह वर को एक आंख देखना चाहती थी, वह भी सबसे

िछपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहां। द्वारचार के समय उसकी सिखयां उसे छत पर खींच ले गई

और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा िवराग, सारी उदिासीनता, सारी मनोव्यथा मानो छू-मंतर हो गई थी।

मुंह पर हषर्च की लािलमा छा गई। अनुराग स्फूित का भंडार है।

द्वारचार के बादि बरात जनवासे चली गई। भोजन की तैयािरयां होने लगीं। िकसी ने पूिरयां खाई, िकसी ने

उपलों पर िखचड़ी पकाई। देहात के तमाशा देखने वालों के मनोरंजन के िलए नाच-गाना होने लगा। दिस बजे

सहसा िफर बाजे बजने लग। मालूम हुआ िक चढ़ावा आ रहा है। बरात में हर एक रस्म डंके की चोट पर अदिा

होती है। दूल्हा कलेवा करने आ रहा है, बाजे बजने लग। समधी िमलने आ रहा है, बाजे बजने लग। चढ़ावा

ज्योंही पहुंचा, घर में हलचल मच गई। स्त्री-पुरूष, बूढ़े-जवान, सब चढ़ावा देखने के िलए उत्सुक हो उठे। ज्योंही

िकिश्तयां मंडप में पहुंचीं, लोग सब काम छोड़कर देखने दिौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मानकी प्यास

से बेहाल हो रही थी, कंठ सूखा जाता था, चढ़ावा आते ही प्यास भाग गई। दिीनदियाल मारे भूख-प्यास के

िनजीव-से पड़े थ, यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दिौड़े। मानकी एक-एक चीज़ को िनकाल-िनकालकर देखने

और िदिखाने लगी। वहां सभी इस कला के िवशषज्ञ थ। मदिोऊ ने गहने बनवाए थ, औरतों ने पहने थ, सभी

आलोचना करने लग। चूहेदिन्ती िकतनी सुंदिर है, कोई दिस तोले की होगी वाह! साढे। ग्यारह तोले से रत्तिी-भर भी

कम िनकल जाए, तो कुछ हार जाऊं! यह शरदिहां तो देखो, क्या हाथ की सफाई है! जी चाहता है कारीगर के

हाथ चूम लें। यह भी बारह तोले से कम न होगा। वाह! कभी देखा भी है, सोलह तोले से कम िनकल जाए, तो

मुंह न िदिखाऊं। हां, माल उतना चोखा नहीं है। यह कंगन तो देखो, िबलकुल पक्की जडाई है, िकतना बारीक काम

है िक आंख नहीं ठहरती! कैसा दिमक रहा है। सच्चे नगीने ह। झिूठे नगीनों में यह आब कहां। चीज तो यह गुलूबंदि

है, िकतने खूबसूरत फूल ह! और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे ह! िकसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा। क्या

बंगािलयों ने कारीगरी का ठेका ले िलया है, हमारे देश में एक-से-एक कारीगर पड़े हुए ह। बंगाली सुनार बेचारे

उनकी क्या बराबरी करग। इसी तरह एक-एक चीज की आलोचना होती रही। सहसा िकसी ने कहा--चन्द्रहार

नहीं है क्या!

मानकी ने रोनी सूरत बनाकर कहा--नहीं, चन्द्रहार नहीं आया।

एक मिहला बोली--अरे, चन्द्रहार नहीं आया?

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दिीनदियाल ने गंभीर भाव से कहा--और सभी चीजें तो ह, एक चन्द्रहार ही तो नहीं है।

उसी मिहला ने मुंह बनाकर कहा--चन्द्रहार की बात ही और है!

मानकी ने चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा--बेचारी के भाग में चन्द्रहार िलखा ही नहीं है।

इस गोलाकार जमघट के पीछे अंधेरे में आशा और आकांक्षा की मूित - सी जालपा भी खड़ी थी। और सब

गहनों के नाम कान में आते थ, चन्द्रहार का नाम न आता था। उसकी छाती धक-धक कर रही थी। चन्द्रहार नहीं

है क्या? शायदि सबके नीचे हो इस तरह वह मन को समझिाती रही। जब मालूम हो गया चन्द्रहार नहीं है तो

उसके कलेजे पर चोट-सी लग गई। मालूम हुआ, देह में रक्त की बूंदि भी नहीं है। मानो उसे मूच्छा आ जायगी।

वह उन्मादि की सी दिशा में अपने कमरे में आई और फूट-फूटकर रोने लगी। वह लालसा जो आज सात वषर्च हुए,

उसके ह्रदिय में अंकुिरत हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदिी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया। वह

हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा जल गया?-केवल उसकी राख रह गई। आज ही के िदिन पर तो उसकी समस्त

आशाएं अवलंिबत थीं। दुर्दिैव ने आज वह अवलंब भी छीन िलया। उस िनराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने

लगा िक अपना मुंह नोच डाले। उसका वश चलता, तो वह चढ़ावे को उठाकर आग में गंक देती। कमरे में एक

आले पर िशव की मूित रक्खी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका िक उसकी आशाआं की भांित वह भी चूरचूर हो गई। उसने िनश्चय िकया, मैं कोई आभूषण न पहनूंगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है। जो रूप-

िवहीन हों, वे अपने को गहने से सजाएं, मुझिे तो ईश्वर ने यों ही सुंदिरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर भी बुरी न

लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, िजसमें रूपये खचर्च होते थ, उसका नाम ही न िलया। अगर िगनती ही िगनानी थी,

तो इतने ही दिामों में इसके दूने गहने आ जाते!

वह इसी कोध में भरी बैठी थी िक उसकी तीन सिखयां आकर खड़ी हो गई। उन्होंने समझिा था, जालपा को

अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें देखते ही आंखें पोंछ डालीं और मुस्कराने लगी।

राधा मुस्कराकर बोली--जालपा— मालूम होता है, तूने बडी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक

नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साध पूरी हो गई। जालपा ने अपनी लंबी-लंबी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे

दिीन -नजर से देखा, मानो जीवन में अब उसके िलए कोई आशा नहीं है?

हां बहन, सब साध पूरी हो गई। इन शब्दिों में िकतनी अपार ममान्तक वेदिना भरी हुई थी, इसका अनुमान

तीनों युवितयों में कोई भी न कर सकी । तीनों कौतूहल से उसकी ओर ताकने लगीं, मानो उसका आशय उनकी

समझि में न आया हो बासन्ती ने कहा--जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लूं।

शहजादिी बोली--चढ़ावा ऐसा ही होना चािहए, िक देखने वाले भड़क उठं।

बासन्ती--तुम्हारी सास बडी चतुर जान पड़ती ह, कोई चीज नहीं छोड़ी।

जालपा ने मुंह उधरकर कहा--ऐसा ही होगा।

राधा--और तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।

शहजादिी--एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसकी जगह गुलूबंदि तो है।

जालपा ने वकोिक्त के भाव से कहा--हां, देह में एक आंख के न होने से क्या होता है, और सब अंग होते

ही ह, आंखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या!

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बालकों के मुंह से गंभीर बातें सुनकर जैसे हमें हंसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुंह से यह लालसा

से भरी हुई बातें सुनकर राधा और बासन्ती अपनी हंसी न रोक सकीं। हां, शहजादिी को हंसी न आई। यह

आभूषण लालसा उसके िलए हंसने की बात नहीं, रोने की बात थी। कृतित्रम सहानुभूित िदिखाती हुई बोली--सब न

जाने कहां के जंगली ह िक और सब चीजें तो लाए, चन्द्रहार न लाए, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी

आते ह तो पूछती हूं िक तुमने यह कहां की रीित िनकाली है?-ऐसा अनथर्च भी कोई करता है।

राधा और बासन्ती िदिल में कांप रही थीं िक जालपा कहीं ताड़ न जाय। उनका बस चलता तो शहजादिी का

मुंह बंदि कर देतीं, बार-बार उसे चुप रहने का इशारा कर रही थीं, मगर जालपा को शहजादिी का यह व्यंग्य,

संवेदिना से पिरपूणर्च जान पड़ा। सजल नेत्र होकर बोली--क्या करोगी पूछकर बहन, जो होना था सो हो गया!

शहजादिी--तुम पूछने को कहती हो, मैं रूलाकर छोडूंगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था, उस वक्त

मन ऐसा खका हुआ िक सारे गहनों पर लात मार दूं। जब तक कंगन न बन गए, मैं नींदि भर सोई नहीं।

राधा--तो क्या तुम जानती हो, जालपा का चन्द्रहार न बनेगा।

शहजादिी--बनेगा तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दिस-पांच की चीज़ तो है नहीं, िक जब चाहा

बनवा िलया, सैकड़ों का खचर्च है, िफर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं िमलते।

जालपा का भग्न ह्रदिय शहजादिी की इन बातों से मानो जी उठा, वह रूंधे कंठ से बोली--यही तो मैं भी

सोचती हूं बहन, जब आज न िमला, तो िफर क्या िमलेगा!

राधा और बासन्ती मन-ही-मन शहजादिी को कोस रही थीं, और थप्पड़ िदिखा-िदिखाकर धमका रही थीं,

पर शहजादिी को इस वक्त तमाश का मजा आ रहा था। बोली--नहीं, यह बात नहीं है जल्ली; आग्रह करने से सब

कुछ हो सकता है, सास-ससुर को बार-बार यादि िदिलाती रहना। बहनोईजी से दिो-चार िदिन रूठे रहने से भी

बहुत कुछ काम िनकल सकता है। बस यही समझि लो िक घरवाले चैन न लेने पाएं, यह बात हरदिम उनके ध्यान

में रहे। उन्हें मालूम हो जाय िक िबना चन्द्रहार बनवाए कुशल नहीं। तुम ज़रा भी ढीली पड़ीं और काम िबगडा।

राधा ने हंसी को रोकते हुए कहा--इनसे न बने तो तुम्हें बुला लें, क्यों - अब उठोगी िक सारी रात उपदेश

ही करती रहोगी!

शहजादिी--चलती हूं, ऐसी क्या भागड़ पड़ी है। हां, खूब यादि आई, क्यों जल्ली, तेरी अम्मांजी के पास बडा

अच्छा चन्द्रहार है। तुझिे न देंगी।

जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा--क्या कहूं बहन, मुझिे तो आशा नहीं है।

शहजादिी--एक बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के िदिन बैठे ह।

जालपा--मुझिसे तो न कहा जायगा।

शहजादिी--मैं कह दूंगी।

जालपा--नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मैं ज़रा उनके मातृतस्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूं।

बासन्ती ने शहजादिी का हाथ पकड़कर कहा--अब उठेगी भी िक यहां सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

शहजादिी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली--नहीं, अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों

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पड़ती हूं।

शहजादिी--जब यह दिोनों चुड़ैलें बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर िसखाती हूं और यह दिोनों मुझि पर झिल्लाती

ह। सुन नहीं रही हो, मैं भी िवष की गांठ हूं।

बासन्ती--िवष की गांठ तो तू है ही।

शहजादिी--तुम भी तो ससुराल से सालभर बादि आई हो, कौन-कौन-सी नई चीजें बनवा लाई।

बासन्ती--और तुमने तीन साल में क्या बनवा िलया।

शहजादिी--मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

राधा--प्रेम के सामने गहनों का कोई मूल्य नहीं।

शहजादिी--तो सूखा प्रेम तुम्हीं को गले।

इतने में मानकी ने आकर कहा--तुम तीनों यहां बैठी क्या कर रही हो , चलो वहां लोग खाना खाने आ रहे

ह।

तीनों युवितयां चली गई। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी?-

गहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।

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पांच

महाशय दियानाथ िजतनी उमंगों से ब्याह करने गए थ, उतना ही हतोत्साह होकर लौट। दिीनदियाल ने खूब

िदिया, लेिकन वहां से जो कुछ िमला, वह सब नाच-तमाश, नेगचार में खचर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर

पछताते, क्यों िदिखावे और तमाश में इतने रूपये खचर्च िकए। इसकी जरूरत ही क्या थी, ज्यादिा-से- ज्यादिा लोग

यही तो कहते--महाशय बडे कृतपण ह। उतना सुन लेने में क्या हािन थी? मैंने गांव वालों को तमाशा िदिखाने का

ठेका तो नहीं िलया था। यह सब रमा का दुर्स्साहस है। उसी ने सारे खचर्च बढ़ा-बढ़ाकर मेरा िदिवाला िनकाल

िदिया। और सब तकाजे तो दिस-पांच िदिन टल भी सकते थ, पर सराफ िकसी तरह न मानता था। शादिी के सातव

िदिन उसे एक हजार रूपये देने का वादिा था। सातव िदिन सराफ आया, मगर यहां रूपये कहां थ? दियानाथ में

लल्लो-चप्पो की आदित न थी, मगर आज उन्होंने उसे चकमा देने की खूब कोिशश की। िकस्त बांधकर सब रूपये

छः महीने में अदिा कर देने का वादिा िकया। िफर तीन महीने पर आए, मगर सराफ भी एक ही घुटा हुआ आदिमी

था, उसी वक्त टला, जब दियानाथ ने तीसरे िदिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादिा िकया और यह भी

उसकी सज्जनता ही थी। वह तीसरा िदिन भी आ गया, और अब दियानाथ को अपनी लाज रखने का कोई उपाय न

सूझिता था। कोई चलता हुआ आदिमी शायदि इतना व्यग्र न होता, हीले-हवाले करके महाजन को महीनों टालता

रहता; लेिकन दियानाथ इस मामले में अनाड़ी थ।

जागश्वरी ने आकर कहा--भोजन कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।

दियानाथ ने इस तरह गदिर्चन उठाई, मानो िसर पर सैकड़ों मन का बोझि लदिा हुआ है। बोले--तुम लोग जाकर

खा लो, मुझिे भूख नहीं है।

जागश्वरी--भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था! इस तरह दिाना-पानी छोड़ देने से महाजन

के रूपये थोड़े ही अदिा हो जाएंग।

दियानाथ--मैं सोचता हूं, उसे आज क्या जवाब दूंगा- मैं तो यह िववाह करके बुरा फंस गया। बहू कुछ गहने

लौटा तो देगी।

जागश्वरी--बहू का हाल तो सुन चुके, िफर भी उससे ऐसी आशा रखते हो उसकी टक है िक जब तक

चन्द्रहार न बन जायगा, कोई गहना ही न पहनूंगी। सारे गहने संदूक में बंदि कर रखे ह। बस, वही एक िबल्लौरी

हार गले में डाले हुए है। बहुएं बहुत देखीं, पर ऐसी बहू न देखी थी। िफर िकतना बुरा मालूम होता है िक कल की

आई बहू, उससे गहने छीन िलए जाएं।

दियानाथ ने िचढ़कर कहा--तुम तो जले पर नमक िछड़कती हो बुरा मालूम होता है तो लाओ एक हजार

िनकालकर दे दिो, महाजन को दे आऊं, देती हो? बुरा मुझिे खुदि मालूम होता है, लेिकन उपाय क्या है? गला कैसे

छूटगा?

जागश्वरी--बेट का ब्याह िकया है िक ठट्ठा है? शादिी-ब्याह में सभी कज़र्च लेते ह, तुमने कोई नई बात नहीं

की। खाने-पहनने के िलए कौन कजर्च लेता है। धमात्मा बनने का कुछ फल िमलना चािहए या नहीं- तुम्हारे ही दिजे

पर सत्यदेव ह, पक्का मकान खडाकर िदिया, जमींदिारी खरीदि ली, बेटी के ब्याह में कुछ नहीं तो पांच हज़ार तो

खचर्च िकए ही होंग।

दियानाथ--जभी दिोनों लङके भी तो चल िदिए!

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जागश्वरी--मरना-जीना तो संसार की गित है, लेते ह, वह भी मरते ह,नहीं लेते, वह भी मरते ह। अगर

तुम चाहो तो छः महीने में सब रूपये चुका सकते हो'

दियानाथ ने त्योरी चढ़ाकर कहा--जो बात िजदिगी?भर नहीं की, वह अब आिखरी वक्त नहीं कर सकता

बहू से साफ-साफ कह दिो, उससे पदिा रखने की जरूरत ही क्या है, और पदिा रह ही िकतने िदिन सकता है। आज

नहीं तो कल सारा हाल मालूम ही हो जाएगा। बस तीन-चार चीजें लौटा दे, तो काम बन जाय। तुम उससे एक

बार कहो तो।

जागश्वरी झिुंझिलाकर बोली--उससे तुम्हीं कहो, मुझिसे तो न कहा जायगा।

सहसा रमानाथ टिनस-रैकेट िलये बाहर से आया। सफेदि टिनस शटर्च था, सफेदि पतलून, कैनवस का जूता,

गोरे रंग और सुंदिर मुखाकृतित पर इस पहनावे ने रईसों की शान पैदिा कर दिी थी। रूमाल में बेले के गजरे िलये हुए

था। उससे सुगंध उड़ रही थी। माता-िपता की आंखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था, िक जागश्वरी ने

टोका--इन्हीं के तो सब कांट बोए हुए ह, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते?(रमा से) तुमने नाच-तमाश में बारह-तेरह

सौ रूपये उडा िदिए, बतलाओ सराफ को क्या जवाब िदिया जाय- बडी मुिश्कलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी

हुआ, मगर बहू से गहने मांग कौन- यह सब तुम्हारी ही करतूत है।

रमानाथ ने इस आक्षेप को अपने ऊपर से हटाते हुए कहा--मैंने क्या खचर्च िकया- जो कुछ िकया बाबूजी ने िकया।

हां, जो कुछ मुझिसे कहा गया, वह मैंने िकया।

रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यिदि दियानाथ की इच्छा न होती तो रमा क्या कर सकता था?

जो कुछ हुआ उन्हीं की अनुमित से हुआ। रमानाथ पर इल्जाम रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी

बोले--मैं तुम्हें इल्जाम नहीं देता भाई। िकया तो मैंने ही, मगर यह बला तो िकसी तरह िसर से टालनी

चािहए। सराफ का तकाजा है। कल उसका आदिमी आवेगा। उसे क्या जवाब िदिया जाएगा? मेरी समझि में तो यही

एक उपाय है िक उतने रूपये के गहने उसे लौटा िदिए जायें। गहने लौटा देने में भी वह झिंझिट करेगा, लेिकन दिसबीस रूपये के लोभ में लौटाने पर राजी हो जायगा। तुम्हारी क्या सलाह है?

रमानाथ ने शरमाते हुए कहा--मैं इस िवषय में क्या सलाह दे सकता हूं, मगर मैं इतना कह सकता हूं िक

इस प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्मां तो जानती ह िक चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे िकतना

बुरा लगा था। प्रण कर िलया है, जब तक चन्द्रहार न बन जाएगा, कोई गहना न पहनूंगी।

जागश्वरी ने अपने पक्ष का समथर्चन होते देख, खुश होकर कहा--यही तो मैं इनसे कह रही हूं।

रमानाथ--रोना-धोना मच जायगा और इसके साथ घर का पदिा भी खुल जायगा।

दियानाथ ने माथा िसकोड़कर कहा--उससे पदिा रखने की जरूरत ही क्या! अपनी यथाथर्च िस्थित को वह

िजतनी ही जल्दिी समझि ले, उतना ही अच्छा।

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छः

रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जीभ उडाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं।

जमींदिारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में रूपये ह, उनका सूदि आता है। जालपा से अब अगर गहने की

बात कही गई, तो रमानाथ को वह पूरा लबािडया समझिेगी। बोला--पदिा तो एक िदिन खुल ही जायगा, पर इतनी

जल्दिी खोल देने का नतीजा यही होगा िक वह हमें नीच समझिने लगगी। शायदि अपने घरवालों को भी िलख भेजे।

चारों तरफ बदिनामी होगी।

दियानाथ--हमने तो दिीनदियाल से यह कभी न कहा था िक हम लखपती ह।

रमानाथ--तो आपने यही कब कहा था िक हम उधार गहने लाए ह और दिो-चार िदिन में लौटा देंग! आिखर

यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के िलए ही िकया था या कुछ और?

दियानाथ--तो िफर िकसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा। िबना मांग काम नहीं चल सकता कल या तो

रूपये देने पड़ंग, या गहने लौटाने पड़ंग। और कोई राह नहीं।

रमानाथ ने कोई जवाब न िदिया। जागश्वरी बोली--और कौन-सा बहाना िकया जायगा- अगर कहा जाय,

िकसी को मंगनी देना है, तो शायदि वह देगी नहीं। देगी भी तो दिो-चार िदिन में लौटाएंग कैसे ?

दियानाथ को एक उपाय सूझिा।बोले--अगर उन गहनों के बदिले मुलम्मे के गहने दे िदिए जाएं? मगर तुरंत ही

उन्हें ज्ञात हो गया िक यह लचर बात है, खुदि ही उसका िवरोध करते हुए कहा--हां, बादि मुलम्मा उड़ जायगा तो

िफर लिज्जत होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझिे तो यही सूझिता है, यह सारी िस्थित उसे समझिा दिी

जाय। ज़रा देर के िलए उसे दुर्ख तो जरूर होगा,लेिकन आग के वास्ते रास्ता साफ हो जाएगा।

संभव था, जैसा दियानाथ का िवचार था, िक जालपा रो-धोकर शांत हो जायगी, पर रमा की इसमें

िकरिकरी होती थी। िफर वह मुंह न िदिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदिारी क्या हुई- बैंक के

रूपये क्या हुए, तो उसे क्या जवाब देगा- िवरक्त भाव से बोला--इसमें बेइज्जती के िसवा और कुछ न होगा।

आप क्या सराफ को दिो-चार-छः महीने नहीं टाल सकते?आप देना चाहें, तो इतने िदिनों में हजार-बारह सौ रूपये

बडी आसानी से दे सकते ह।

दियानाथ ने पूछा--कैसे ?

रमानाथ--उसी तरह जैसे आपके और भाई करते ह!

दियानाथ--वह मुझिसे नहीं हो सकता।

तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दियानाथ ने अपना फैसला सुना िदिया। जागश्वरी और रमा को यह फैसला

मंजूर न था। इसिलए अब इस गुत्थी के सुलझिाने का भार उन्हीं दिोनों पर था। जागश्वरी ने भी एक तरह से िनश्चय

कर िलया था। दियानाथ को झिख मारकर अपना िनयम तोड़ना पड़ेगा। यह कहां की नीित है िक हमारे ऊपर संकट

पडा हुआ हो और हम अपने िनयमों का राग अलापे जायं। रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था िक

िपताजी ने जो काम कभी नहीं िकया, वह आज न करग। उन्हें जालपा से गहने मांगने में कोई संकोच न होगा

और यही वह न चाहता था। वह पछता रहा था िक मैंने क्यों जालपा से डींगं मारीं। अब अपने मुंह की लाली

रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा की अनुपम छिव ने पहले ही िदिन उस पर मोिहनी डाल दिी थी। वह

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अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुंदिरी के योग्य था? जालपा के िपता पांच रूपये

के नौकर थ, पर जालपा ने कभी अपने घर में झिाडू न लगाई थी। कभी अपनी धोती न छांटी थी। अपना िबछावन

न िबछाया था। यहां तक िक अपनी के धोती की खींच तक न सी थी। दियानाथ पचास रूपये पाते थ, पर यहां

केवल चौका-बासन करने के िलए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर

और देहात का फकर्क क्या जाने! शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पडा था। वह कई बार पित और सास से

साश्चयर्च पूछ चुकी थी, क्या यहां कोई नौकर नहीं है? जालपा के घर दूध-दिही-घी की कमी नहीं थी। यहां बच्चों

को भी दूध मयस्सर न था। इन सारे अभावों की पूित के िलए रमानाथ के पास मीठी-मीठी बडी- बडी बातों के

िसवा और क्या था। घर का िकराया पांच रूपया था, रमानाथ ने पंद्रह बतलाए थ। लड़कों की िशक्षा का खचर्च

मुिश्कल से दिस रूपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाए थ। उस समय उसे इसकी ज़रा भी शंका न थी, िक एक

िदिन सारा भंडा फट जायगा। िमथ्या दूरदिशी नहीं होता, लेिकन वह िदिन इतनी जल्दिी आयगा, यह कौन जानता

था। अगर उसने ये डींगं न मारी होतीं, तो जागश्वरी की तरह वह भी सारा भार दियानाथ पर छोड़कर िनिश्चन्त

हो जाता, लेिकन इस वक्त वह अपने ही बनाए हुए जाल में फंस गया था। कैसे िनकले! उसने िकतने ही उपाय

सोचे, लेिकन कोई ऐसा न था, जो आग चलकर उसे उलझिनों में न डाल देता, दिलदिल में न फंसा देता। एकाएक

उसे एक चाल सूझिी। उसका िदिल उछल पडा, पर इस बात को वह मुंह तक न ला सका, ओह!

िकतनी नीचता है! िकतना कपट! िकतनी िनदिर्चयता! अपनी प्रेयसी के साथ ऐसी धूतर्चता! उसके मन ने उसे

िधक्काराब अगर इस वक्त उसे कोई एक हजार रूपया दे देता, तो वह उसका उमभर के िलए गुलाम हो जाता।

दियानाथ ने पूछा--कोई बात सूझिी?मुझिे तो कुछ नहीं सूझिता।

कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा।आप ही सोिचए, मुझिे तो कुछ नहीं सूझिता।

क्यों नहीं उससे दिो-तीन गहने मांग लेते?तुम चाहो तो ले सकते हो,

हमारे िलए मुिश्कल है।

मुझिे शमर्च आती है।

तुम िविचत्र आदिमी हो, न खुदि मांगोग न मुझिे मांगने दिोग, तो आिखर यह नाव कैसे चलेगी? मैं एक बार

नहीं, हजार बार कह चुका िक मुझिसे कोई आशा मत रक्खो। मैं अपने आिखरी िदिन जेल में नहीं काट सकता इसमें

शमर्च की क्या बात है, मेरी समझि में नहीं आता। िकसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते?तुम्हीं अपनी मां से

पूछो।

जागश्वरी ने अनुमोदिन िकया--मुझिसे तो नहीं देखा जाता था िक अपना आदिमी िचता में पडा रहे, मैं गहने

पहने बैठी रहूं। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते?एक-एक करके सब िनकल गए। िववाह में पांच हजार से

कम का चढ़ावा नहीं गया था, मगर पांच ही साल में सब स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी नसीब

न हुआ।

दियानाथ ज़ोर देकर बोले--शमर्च करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा!

रमानाथ ने झिंपते हुए कहा--मैं मांग तो नहीं सकता, किहए उठा लाऊं।

यह कहते-कहते लज्जा, क्षोभ और अपनी नीचता के ज्ञान से उसकी आंखें सजल हो गई।

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दियानाथ ने भौंचक्ध होकर कहा--उठा लाओग, उससे िछपाकर?

रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा--और आप क्या समझि रहे ह?

दियानाथ ने माथ पर हाथ रख िलया, और एक क्षण के बादि आहत कंठ से बोले--नहीं, मैं ऐसा न करने

दूंगा। मैंने छल कभी नहीं िकया, और न कभी करूंगा। वह भी अपनी बहू के साथ! िछः-िछः, जो काम सीधे से

चल सकता है, उसके िलए यह फरेब- कहीं उसकी िनगाह पड़ गई, तो समझिते हो, वह तुम्हें िदिल में क्या

समझिेगी? मांग लेना इससे कहीं अच्छा है।

रमानाथ--आपको इससे क्या मतलब। मुझिसे चीज़ं ले लीिजएगा, मगर जब आप जानते थ, यह नौबत

आएगी, तो इतने जेवर ले जाने की जरूरत ही क्या थी ? व्यथर्च की िवपित्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छा

था िक आसानी से िजतना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ िक पेट में पीडा होने लग?मैं

तो समझि रहा था िक आपने कोई मागर्च िनकाल िलया होगा। मुझिे क्या मालूम था िक आप मेरे िसर यह मुसीबतों

की टोकरी पटक देंग। वरना मैं उन चीज़ों को कभी न ले जाने देता।

दियानाथ कुछ लिज्जत होकर बोले--इतने पर भी चन्द्रहार न होने से वहां हाय-तोबा मच गई।

रमानाथ--उस हाय-तोबा से हमारी क्या हािन हो सकती थी। जब इतना करने पर भी हाय-तोबा मच

गई, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदिनामी हुई, इधर यह आफत िसर पर आई। मैं यह नहीं िदिखाना

चाहता िक हम इतने फटहाल ह। चोरी हो जाने पर तो सब्र करना ही पड़ेगा।

दियानाथ चुप हो गए। उस आवेश में रमा ने उन्हें खूब खरी-खरी सुनाई और वह चुपचाप सुनते रहे।

आिखर जब न सुना गया, तो उठकर पुस्तकालय चले गए। यह उनका िनत्य का िनयम था। जब तक दिो-चार पत्रपित्रकाएं न पढ़लें, उन्हें खाना न हजम होता था। उसी सुरिक्षत गढ़ी में पहुंचकर घर की िचताआं और बाधाआं से

उनकी जान बचती थी। रमा भी वहां से उठा, पर जालपा के पास न जाकर अपने कमरे में गया। उसका कोई

कमरा अलग तो था नहीं, एक ही मदिाना कमरा था, इसी में दियानाथ अपने दिोस्तों से गप-शप करते, दिोनों लङके

पढ़ते और रमा िमत्रों के साथ शतरंज खेलता। रमा कमरे में पहुंचा, तो दिोनों लङके ताश खेल रहे थ। गोपी का

तेरहवां साल था, िवश्वम्भर का नवां। दिोनों रमा से थरथर कांपते थ। रमा खुदि खूब ताश और शतरंज खेलता, पर

भाइयों को खेलते देखकर हाथ में खुजली होने लगती थी। खुदि चाहे िदिनभर सैर - सपाट िकया करे, मगर क्या

मजाल िक भाई कहीं घूमने िनकल जायं। दियानाथ खुदि लड़कों को कभी न मारते थ। अवसर िमलता, तो उनके

साथ खेलते थ। उन्हें कनकौवे उडाते देखकर उनकी बाल-प्रकृतित सजग हो जाती थी। दिो-चार पेंच लडादेते।

बच्चों के साथ कभी-कभी गुल्ली-डंडा भी खेलते थ। इसिलए लङके िजतना रमा से डरते, उतना ही िपता से प्रेम

करते थ।

रमा को देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे िछपा िदिया और पढ़ने लग। िसर झिुकाए चपत की

प्रतीक्षा कर रहे थ, पर रमानाथ ने चपत नहीं लगाई, मोढ़े पर बैठकर गोपीनाथ से बोला--तुमने भंग की दुर्कान

देखी है न, नुक्कड़ पर?

गोपीनाथ प्रसन्न होकर बोला--हां, देखी क्यों नहीं। जाकर चार पैसे का माजून ले लो, दिौड़े हुए आना। हां,

हलवाई की दुर्कान से आधा सेर िमठाई भी लेते आना। यह रूपया लो।

कोई पंद्रह िमनट में रमा ये दिोनों चीज़ं ले, जालपा के कमरे की ओर चला। रात के दिस बज गए थ। जालपा

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खुली हुई छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चांदिनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुंबदि और वृतक्ष स्वप्न-

िचत्रों से लगते थ। जालपा की आंखें चंद्रमा की ओर लगी हुई थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चंद्रमा की ओर

उड़ी जा रही हूं। उसे अपनी नाक में खुश्की, आंखों में जलन और िसर में चक्कर मालूम हो रहा था। कोई बात

ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत यादि करने पर भी यादि न आती थी। एक बार घर की यादि आ गई, रोने

लगी। एक ही क्षण में सहेिलयों की यादि आ गई, हंसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली िलये, मुस्कराता

हुआ आया और चारपाई पर बैठ गया।

जालपा ने उठकर पूछा--पोटली में क्या है?

रमानाथ--बूझि जाओ तो जानूं ।

जालपा--हंसी का गोलगप्पा है! (यह कहकर हंसने लगी।)

रमानाथ—मलतब?

जालपा--नींदि की गठरी होगी!

रमानाथ--मलतब?

जालपा--तो प्रेम की िपटारी होगी!

रमानाथ- ठीक, आज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊंगा।

जालपा िखल उठी। रमा ने बडे अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू िकए, फूलों के शीतल कोमल

स्पशर्च से जालपा के कोमल शरीर में गुदिगुदिी-सी होने लगी। उन्हीं फूलों की भांित उसका एक-एक रोम प्रफुिल्लत

हो गया।

रमा ने मुस्कराकर कहा--कुछ उपहार?

जालपा ने कुछ उत्तिर न िदिया। इस वेश में पित की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच हुआ। उसकी बडी इच्छा

हुई िक ज़रा आईने में अपनी छिव देखे। सामने कमरे में लैंप जल रहा था, वह उठकर कमरे में गई और आईने के

सामने खड़ी हो गई। नश की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ िक मैं सचमुच फूलों की देवी हूं। उसने पानदिान उठा

िलया और बाहर आकर पान बनाने लगी। रमा को इस समय अपने कपट-व्यवहार पर बडी ग्लािन हो रही थी।

जालपा ने कमरे से लौटकर प्रेमोल्लिसत नजरों से उसकी ओर देखा, तो उसने मुंह उधर िलया। उस सरल िवश्वास

से भरी हुई आंखों के सामने वह ताक न सका। उसने सोचा--मैं िकतना बडा कायर हूं। क्या मैं बाबूजी को साफसाफ जवाब न दे सकता था?मैंने हामी ही क्यों भरी- क्या जालपा से घर की दिशा साफ-साफ कह देना मेरा

कतर्चव्य न था - उसकी आंखें भर आई। जाकर मुंडेर के पास खडा हो गया। प्रणय के उस िनमर्चल प्रकाश में उसका

मनोिवकार िकसी भंयकर जंतु की भांित घूरता हुआ जान पड़ता था। उसे अपने ऊपर इतनी घृतणा हुई िक एक

बार जी में आया, सारा कपट-व्यवहार खोल दूं, लेिकन संभल गया। िकतना भयंकर पिरणाम होगा। जालपा की

नज़रों से िफर जाने की कल्पना ही उसके िलए असह्य थी।

जालपा ने प्रेम-सरस नजरों से देखकर कहा - मेरे दिादिाजी तुम्हें देखकर गए और अम्मांजी से तुम्हारा

बखान करने लग, तो मैं सोचती थी िक तुम कैसे होग। मेरे मन में तरह-तरह के िचत्र आते थ। '

रमानाथ ने एक लंबी सांस खींची। कुछ जवाब न िदिया।

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जालपा ने िफर कहा - मेरी सिखयां तुम्हें देखकर मुग्ध हो गई। शहजादिी तो िखड़की के सामने से हटती ही

न थी। तुमसे बातें करने की उसकी बडी इच्छा थी। जब तुम अंदिर गए थ तो उसी ने तुम्हें पान के बीड़े िदिए थ,

यादि है?'

रमा ने कोई जवाब न िदिया ।

जालपा--अजी, वही जो रंग-रूप में सबसे अच्छी थी, िजसके गाल पर एक ितल था, तुमने उसकी ओर बडे

प्रेम से देखा था, बेचारी लाज के मारे गड़ गई थी। मुझिसे कहने लगी, जीजा तो बडे रिसक जान पड़ते ह। सिखयों

ने उसे खूब िचढ़ाया, बेचारी रूआंसी हो गई। यादि है? '

रमा ने मानो नदिी में डूबते हुए कहा--मुझिे तो यादि नहीं आता।'

जालपा--अच्छा, अबकी चलोग तो िदिखा दूंगी। आज तुम बाज़ार की तरफ गए थ िक नहीं?'

रमा ने िसर झिुकाकर कहा--आज तो फुरसत नहीं िमली।'

जालपा--जाओ, मैं तुमसे न बोलूंगी! रोज हीले-हवाले करते हो अच्छा, कल ला दिोग न?'

रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के िलए इतनी िवकल हो रही है। इसे क्या मालूम िक

दुर्भाग्य इसका सवर्चस्व लूटने का सामान कर रहा है। िजस सरल बािलका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना

चािहए था, उसी का सवर्चस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है! वह इतना व्यग्र हुआ,िक जी में आया, कोठे से

कूदिकर प्राणों का अंत कर दे।

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सात

आधी रात बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भांित एक वृतक्ष की आड़ से झिांक रहा था। जालपा पित के गले

में हाथ डाले हुए िनद्रा में मग्न थी। रमा मन में िवकट संकल्प करके धीरे से उठा, पर िनद्रा की गोदि में सोए हुए

पुष्प प्रदिीप ने उसे अिस्थर कर िदिया। वह एक क्षण खडा मुग्ध नजरों से जालपा के िनद्रा-िवहिसत मुख की ओर

देखता रहा। कमरे में जाने का साहस न हुआ। िफर लेट गया।

जालपा ने चौंककर पूछा--कहां जाते हो, क्या सवेरा हो गया?

रमानाथ--अभी तो बडी रात है।

जालपा--तो तुम बैठे क्यों हो?

रमानाथ--कुछ नहीं, ज़रा पानी पीने उठा था।

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बांहें डाल दिीं और उसे सुलाकर कहा--तुम इस तरह मुझि पर टोना

करोग, तो मैं भाग जाऊंगी। न जाने िकस तरह ताकते हो, क्या करते हो, क्या मंत्र पढ़ते हो िक मेरा मन चंचल

हो जाता है। बासन्ती सच कहती थी, पुरूषों की आंख में टोना होता है।

रमा ने फट हुए स्वर में कहा--टोना नहीं कर रहा हूं, आंखों की प्यास बुझिा रहा हूं।

दिोनों िफर सोए, एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा िचता में मग्न।

तीन घंट और गुजर गए। द्वादिशी के चांदि ने अपना िवश्व-दिीपक बुझिा िदिया। प्रभात की शीतल-समीर प्रकृतित

को मदि के प्याले िपलाती िफरती थी। आधी रात तक जागने वाला बाज़ार भी सो गया। केवल रमा अभी तक

जाग रहा था। मन में भांित-भांित के तकर्क-िवतकर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था और िफर लेट जाता था।

आिखर जब चार बजने की आवाज़ कान में आई, तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुंचा। गहनों का

संदूकचा आलमारी में रक्खा हुआ था, रमा ने उसे उठा िलया, और थरथर कांपता हुआ नीचे उतर गया। इस

घबराहट में उसे इतना अवकाश न िमला िक वह कुछ गहने छांटकर िनकाल लेता। दियानाथ नीचे बरामदे में सो

रहे थ। रमा ने उन्हें धीरे-से जगाया, उन्होंने हकबकाकर पूछा —कौन

रमा ने होंठ पर उंगली रखकर कहा--मैं हूं। यह संदूकची लाया हूं। रख लीिजए।

दियानाथ सावधन होकर बैठ गए। अभी तक केवल उनकी आंखें जागी थीं, अब चेतना भी जाग्रत हो गई।

रमा ने िजस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी, उन्होंने समझिा था िक यह आवेश में ऐसा कह रहा है।

उन्हें इसका िवश्वास न आया था िक रमा जो कुछ कह रहा है, उसे भी पूरा कर िदिखाएगा। इन कमीनी चालों से

वह अलग ही रहना चाहते थ। ऐसे कुित्सत कायर्च में पुत्र से साठ-गांठ करना उनकी अंतरात्मा को िकसी तरह

स्वीकार न था।

पूछा--इसे क्यों उठा लाए?

रमा ने धृष्टता से कहा--आप ही का तो हुक्म था।

दियानाथ--झिूठ कहते हो!

रमानाथ--तो क्या िफर रख आऊं?

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रमा के इस प्रश्न ने दियानाथ को घोर संकट में डाल िदिया। झिंपते हुए बोले--अब क्या रख आओग, कहीं

देख ले, तो गजब ही हो जाए। वही काम करोग, िजसमें जग-हंसाई हो खड़े क्या हो, संदूकची मेरे बडे संदूक में

रख आओ और जाकर लेट रहो कहीं जाग पड़े तो बस! बरामदे के पीछे दियानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदिार

का पुराना संदूक रखा था। रमा ने संदूकची उसके अंदिर रख दिी और बडी फुती से ऊपर चला गया। छत पर

पहुंचकर उसने आहट ली, जालपा िपछले पहर की सुखदि िनद्रा में मग्न थी।

रमा ज्योंही चारपाई पर बैठा, जालपा चौंक पड़ी और उससे िचमट गई।

रमा ने पूछा--क्या है, तुम चौंक क्यों पड़ीं?

जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नजरों से ताककर कहा--कुछ नहीं, एक स्वप्न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो,

िकतनी रात है अभी?

रमा ने लेटते हुए कहा--सवेरा हो रहा है, क्या स्वप्न देखती थीं?

जालपा--जैसे कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाए िलये जाता हो।

रमा का ह्रदिय इतने जोर से धक-धक करने लगा, मानो उस पर हथौड़े पड़ रहे ह। खून सदिर्च हो गया। परंतु

संदेह हुआ, कहीं इसने मुझिे देख तो नहीं िलया। वह ज़ोर से िचल्ला पडा--चोर! चोर! नीचे बरामदे में दियानाथ

भी िचल्ला उठे--चोर! चोर! जालपा घबडाकर उठी। दिौड़ी हुई कमरे में गई, झिटके से आलमारी खोली। संदूकची

वहां न थी? मूिछत होकर िफर पड़ी।

सवेरा होते ही दियानाथ गहने लेकर सराफ के पास पहुंचे और िहसाब होने लगा। सराफ के पंद्रह सौ रू.

आते थ, मगर वह केवल पंद्रह सौ रू. के गहने लेकर संतुष्ट न हुआ। िबके हुए गहनों को वह बके पर ही ले सकता

था। िबकी हुई चीज़ कौन वापस लेता है। रोकड़ पर िदिए होते, तो दूसरी बात थी। इन चीज़ों का तो सौदिा हो

चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापािरक िसद्धिान्त की बातें कीं,दियानाथ को कुछ ऐसा िशकंजे में कसा िक बेचारे को

हां-हां करने के िसवा और कुछ न सूझिा। दिफ्तर का बाबू चतुर दुर्कानदिार से क्या पेश पाता - पंद्रह सौ रू. में

पच्चीस सौ रू. के गहने भी चले गए, ऊपर से पचास रू. और बाकी रह गए। इस बात पर िपता-पुत्र में कई िदिन

खूब वादि-िववादि हुआ। दिोनों एकदूसरे को दिोषी ठहराते रहे। कई िदिन आपस में बोलचाल बंदि रही, मगर इस

चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुिलस को खबर हो जाती, तो भंडा फट जाने का भय था। जालपा से यही कहा

गया िक माल तो िमलेगा नहीं, व्यथर्च का झिंझिट भले ही होगा। जालपा ने भी सोचा, जब माल ही न िमलेगा, तो

रपट व्यथर्च क्यों की जाय।

जालपा को गहनों से िजतना प्रेम था, उतना कदिािचत संसार की और िकसी वस्तु से न था, और उसमें

आश्चयर्च की कौन-सी बात थी। जब वह तीन वषर्च की अबोध बािलका थी, उस वक्त उसके िलए सोने के चूड़े

बनवाए गए थ। दिादिी जब उसे गोदि में िखलाने लगती, तो गहनों की ही चचा करती--तेरा दूल्हा तेरे िलए बडे

सुंदिर गहने लाएगा। ठुमक-ठुमककर चलेगी। जालपा पूछती--चांदिी के होंग िक सोने के, दिादिीजी?

दिादिी कहती--सोने के होंग बेटी, चांदिी के क्यों लाएगा- चांदिी के लाए तो तुम उठाकर उसके मुंह पर पटक

देना।

मानकी छेड़कर कहती--चांदिी के तो लाएगा ही। सोने के उसे कहां िमले जाते ह!

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जालपा रोने लगती, इस बूढ़ी दिादिी, मानकी, घर की महिरयां, पड़ोिसनें और दिीनदियाल--सब हंसते। उन

लोगों के िलए यह िवनोदि का अशष भंडार था। बािलका जब ज़रा और बडी हुई, तो गुिडयों के ब्याह करने लगी।

लडके की ओर से चढ़ावे जाते, दुर्लिहन को गहने पहनाती, डोली में बैठाकर िवदिा करती, कभी-कभी दुर्लिहन

गुिडया अपने गुये दूल्हे से गहनों के िलए मान करती, गुड्डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न

करता था। उन्हीं िदिनों िबसाती ने उसे वह चन्द्रहार िदिया, जो अब तक उसके पास सुरिक्षत था। ज़रा और बडी

हुई तो बडी-बूिढ.यों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी। मिहलाआं के उस छोट-से संसार में इसके िसवा और

कोई चचा ही न थी। िकसने कौन-कौन गहने बनवाए, िकतने दिाम लग, ठोस ह या पोले, जडाऊ ह या सादे, िकस

लडकी के िववाह में िकतने गहने आए? इन्हीं महत्वपूणर्च िवषयों पर िनत्य आलोचना-प्रत्यालोचना, टीका-िटप्पणी

होती रहती थी। कोई दूसरा िवषय इतना रोचक, इतना ग्राह्य हो ही नहीं सकता था। इस आभूषण-मंिडत संसार

में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभािवक ही था।

महीने-भर से ऊपर हो गया। उसकी दिशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ खाती-पीती है, न िकसी से हंसती-

बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नजरों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझिाकर हार गया,

पड़ोिसनें समझिाकर हार गई, दिीनदियाल आकर समझिा गए, पर जालपा ने रोग- शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में

िकसी पर िवश्वास नहीं है, यहां तक िक रमा से भी उदिासीन रहती है। वह समझिती है, सारा घर मेरी उपेक्षा कर

रहा है। सबके- सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे ह। जब इनके पास इतना धन है, तो िफर मेरे गहने क्यों नहीं

बनवाते? िजससे हम सबसे अिधक स्नेह रखते ह, उसी पर सबसे अिधक रोष भी करते ह। जालपा को सबसे

अिधक कोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-िपता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल

सकता, पर यह कुछ कहें भी- इनके मुंह में तो दिही जमा हुआ है। मुझिसे प्रेम होता, तो यों िनिश्चत न बैठे रहते।

जब तक सारी चीज़ं न बनवा लेते, रात को नींदि न आती। मुंह देखे की मुहब्बत है, मां-बाप से कैसे कहें, जाएंग

तोअपनी ही ओर, मैं कौन हूं! वह रमा से केवल िखची ही न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दिोचार जली-

कटी सुना देती। बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता! गरीब अपनी ही लगाई हुई आग में जला जाता था। अगर

वह जानता िक उन डींगों का यह फल होगा, तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। िचता और ग्लािन उसके ह्रदिय

को कुचले डालती थी। कहां सुबह से शाम तक हंसी-कहकहे, सैर - सपाट में कटते थ, कहां अब नौकरी की तलाश

में ठोकर खाता िफरता था। सारी मस्ती गायब हो गई। बार-बार अपने िपता पर कोध आता, यह चाहते तो दिो-

चार महीने में सब रूपये अदिा हो जाते, मगर इन्हें क्या िफक! मैं चाहे मर जाऊं पर यह अपनी टक न छोड़ंग।

उसके प्रेम से भरे हुए, िनष्कपट ह्रदिय में आग-सी सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझिाया हुआ मुख देखकर

उसके मुंह से ठंडी सांस िनकल जाती थी। वह सुखदि प्रेम-स्वप्न इतनी जल्दि भंग हो गया, क्या वे िदिन िफर कभी

आएंग- तीन हज़ार के गहने कैसे बनेंग- अगर नौकर भी हुआ, तो ऐसा कौन-सा बडा ओहदिा िमल जाएगा- तीन

हज़ार तो शायदि तीन जन्म में भी न जमा हों। वह कोई ऐसा उपाय सोच िनकालना चाहता था, िजसमें वह

जल्दि-से- जल्दि अतुल संपित्ति का स्वामी हो जाय। कहीं उसके नाम कोई लाटरी िनकल आती! िफर तो वह जालपा

को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट

बनाना आ जाता तो अवश्य बनाकर चला देता।एक िदिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा -मारा िफरता

रहा।

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आठ

शतरंज की बदिौलत उसका िकतने ही अच्छे-अच्छे आदििमयों से पिरचय था, लेिकन वह संकोच और डर के

कारण िकसी से अपनी िस्थित प्रकट न कर सकता था। यह भी जानता था िक यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है,

जब तक िकसी के समाने मदिदि के िलए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी, िफर कोईबात भी न पूछेगा। कोई ऐसा

भलामानुस न दिीखता था, जो कुछ िबना कहे ही जान जाए, और उसे कोई अच्छी-सी जगह िदिला दे। आज उसका

िचत्ति बहुत िखकै था। िमत्रों पर ऐसा कोध आ रहा था िक एक-एक को फटकारे और आएं तो द्वार से दुर्त्कार दे।

अब िकसी ने शतरंज खेलने को बुलाया, तो ऐसी फटकार सुनाऊंगा िक बचा यादि कर, मगर वह ज़रा ग़ौर करता

तो उसे मालूम हो जाता िक इस िवषय में िमत्रों का उतना दिोष न था, िजतना खुदि उसका। कोई ऐसा िमत्र न था,

िजससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदित थी। घर की असली दिशा को वह सदिैव बदिनामी की

तरह िछपाता रहा। और यह उसी का फल था िक इतने िमत्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह िकसी से अपनी

मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस की भांित अंदिर घुटकर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुंह

लटकाए हुए बैठ गया।

जागश्वरी ने पानी लाकर रख िदिया और पूछा--आज तुम िदिनभर कहां रहे?लो हाथ- मुंह धो डालो। रमा ने

लोटा उठाया ही था िक जालपा ने आकर उग्र भाव से कहा--मुझिे मेरे घर पहुंचा दिो, इसी वक्त!

रमा ने लोटा रख िदिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा, मानो उसकी बात समझि में न आई हो।

जागश्वरी बोली--भला इस तरह कहीं बहू-बेिटयां िवदिा होती ह, कैसी बात कहती हो, बहू?

जालपा--मैं उन बहू-बेिटयों में नहीं हूं। मेरा िजस वक्त जी चाहेगा, जाऊंगी, िजस वक्त जी चाहेगा,

आऊंगी। मुझिे िकसी का डर नहीं है। जब यहां कोई मेरी बात नहीं पूछता, तो मैं भी िकसी को अपना नहीं

समझिती। सारे िदिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हूं। कोई झिांकता तक नहीं। मैं िचिडया नहीं हूं, िजसका

िपजडादिाना-पानी रखकर बंदि कर िदिया जाय। मैं भी आदिमी हूं। अब इस घर में मैं क्षण-भर न रूकूंगी। अगर कोई

मुझिे भेजने न जायगा, तो अकेली चली जाउंगी। राह में कोई भेिडया नहीं बैठा है, जो मुझिे उठा ले जाएगा और

उठा भी ले जाए, तो क्या ग़म। यहां कौन-सा सुख भोग रही हूं।

रमा ने सावधन होकर कहा--आिख़र कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

जालपा--बात कुछ नहीं हुई, अपना जी है। यहां नहीं रहना चाहती।

रमानाथ--भला इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंग, कुछ यह भी तो सोचो!

जालपा--यह सब कुछ सोच चुकी हूं, और ज्यादिा नहीं सोचना चाहती। मैं जाकर अपने कपड़े बांधाती हूं

और इसी गाड़ी से जाऊंगी।

यह कहकर जालपा ऊपर चली गई। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला, इसे कैसे शांत करूं।

जालपा अपने कमरे में जाकर िबस्तर लपेटने लगी िक रमा ने उसका हाथ पकड़ िलया और बोला--तुम्हें मेरी

कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो!

जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा--तुम्हारी कसम की हमें कुछ परवा नहीं है।

उसने अपना हाथ छुडािलया और िफर िबछावन लपेटने लगी। रमा िखिसयाना-सा होकर एक िकनारे

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खडाहो गया। जालपा ने िबस्तरबंदि से िबस्तरे को बांधा और िफर अपने संदूक को साफ करने लगी। मगर अब

उसमें वह पहले-सी तत्परता न थी, बार-बार संदूक बंदि करती और खोलती।

वषा बंदि हो चुकी थी, केवल छत पर रूका हुआ पानी टपक रहा था। आिख़र वह उसी िबस्तर के बंडल पर

बैठ गई और बोली--तुमने मुझिे कसम क्यों िदिलाई? रमा के ह्रदिय में आशा की गुदिगुदिी हुई। बोला--इसके िसवा

मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या उपाय था?

जालपा--क्या तुम चाहते हो िक मैं यहीं घुट-घुटकर मर जाऊं?

रमानाथ--तुम ऐसे मनहूस शब्दि क्यों मुंह से िनकालती हो? मैं तो चलने को तैयार हूं, न मानोगी तो

पहुंचाना ही पड़ेगा। जाओ, मेरा ईश्वर मािलक है, मगर कम-से-कम बाबूजी और अम्मां से पूछ लो।

बुझिती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली--वह मेरे कौन होते ह,जो उनसे पूछूँ?

रमानाथ--कोई नहीं होते?

जालपा--कोई नहीं! अगर कोई होते, तो मुझिे यों न छोड़ देते। रूपये रखते हुए कोई अपने िप्रयजनों का कष्ट

नहीं देख सकता ये लोग क्या मेरे आंसू न पोंछ सकते थ? मैं िदिन-के िदिन यहां पड़ी रहती हूं, कोई झिूठों भी पूछता

है? मुहल्ले की िस्त्रयां िमलने आती ह, कैसे िमलूं ? यह सूरत तो मुझिसे नहीं िदिखाई जाती। न कहीं आना न जाना,

न िकसी से बात न चीत, ऐसे कोई िकतने िदिन रह सकता है? मुझिे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आिखर

दिो लङके और भी तो ह, उनके िलए भी कुछ जोड़ंग िक तुम्हीं को दे दें!

रमा को बडी-बडी बातें करने का िफर अवसर िमला। वह खुश था िक इतने िदिनों के बादि आज उसे प्रसन्न

करने का मौका तो िमलाब बोला--िप्रये, तुम्हारा ख्याल बहुत ठीक है। जरूर यही बात है। नहीं तो ढाई-तीन

हज़ार उनके िलए क्या बडी बात थी? पचासों हजार बैंक में जमा ह, दिफ्तर तो केवल िदिल बहलाने जाते ह।

जालपा--मगर ह मक्खीचूस पल्ले िसरे के!

रमानाथ--मक्खीचूस न होते, तो इतनी संपित्ति कहां से आती!

जालपा--मुझिे तो िकसी की परवा नहीं है जी, हमारे घर िकस बात की कमी है! दिाल-रोटी वहां भी िमल

जायगी। दिो-चार सखी-सहेिलयां ह, खेत- खिलहान ह, बाग-बगीचे ह, जी बहलता रहेगा।

रमानाथ--और मेरी क्या दिशा होगी, जानती हो? घुल-घुलकर मर जाऊंगा। जब से चोरी हुई, मेरे िदिल पर

जैसी गुजरती है, वह िदिल ही जानता है। अम्मां और बाबूजी से एक बार नहीं, लाखों बार कहा, ज़ोर देकर कहा

िक दिो-चार चीज़ं तो बनवा ही दिीिजए, पर िकसी के कान पर जूं तक न रगी। न जाने क्यों मुझिसे आंखें उधर कर

लीं।

जालपा--जब तुम्हारी नौकरी कहीं लग जाय, तो मुझिे बुला लेना।

रमानाथ--तलाश कर रहा हूं। बहुत जल्दि िमलने वाली है। हज़ारों बड़े-बडे आदििमयों से मुलाकात है,

नौकरी िमलते क्या देर लगती है, हां, ज़रा अच्छी जगह चाहता हूं।

जालपा--मैं इन लोगों का रूख समझिती हूं। मैं भी यहां अब दिावे के साथ रहूंगी। क्यों, िकसी से नौकरी के

िलए कहते नहीं हो?

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रमानाथ--शमर्च आती है िकसी से कहते हुए।

जालपा--इसमें शमर्च की कौन-सी बात है - कहते शमर्च आती हो, तो खत िलख दिो।

रमा उछल पडा, िकतना सरल उपाय था और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझिी थी। बोला--हां,

यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई, कल जरूर िलखूंगा।

जालपा--मुझिे पहुंचाकर आना तो िलखना। कल ही थोड़े लौट आओग।

रमानाथ--तो क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझिे नौकरी िमल चुकी और मैं खत िलख चुका! इस िवयोग

के दुर्ःख में बैठकर रोऊंगा िक नौकरी ढूंढूगा। नहीं, इस वक्त जाने का िवचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं

भाग जाऊंगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे िसवा और कौन बैठा हुआ है, िजसके िलए यहां पडा-सडा करूं।

हटो तो ज़रा मैं िबस्तर खोल दूं।

जालपा ने िबस्तर पर से ज़रा िखसककर कहा--मैं बहुत जल्दि चली आऊंगी। तुम गए और मैं आई।

रमा ने िबस्तर खोलते हुए कहा--जी नहीं, माफ कीिजए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो

सहेिलयों के साथ िवहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहां मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में िफर

कैसे कदिम रक्खा जायगा।

जालपा ने एहसान जताते हुए कहा--आपने मेरा बंधा-बंधाया िबस्तर खोल िदिया, नहीं तो आज िकतने

आनंदि से घर पहुंच जाती। शहजादिी सच कहती थी, मदिर्च बडे टोनहे होते ह। मैंने आज पक्का इरादिा कर िलया था

िक चाहे ब्रह्मा भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दिो ही िमनट में मेरे सारे मनसूबे चौपट कर िदिए। कल

खत िलखना जरूर। िबना कुछ पैदिा िकए अब िनवाह नहीं है।

रमानाथ--कल नहीं, मैं इसी वक्त जाकर दिो-तीन िचिट्ठयां िलखता हूं।

जालपा--पान तो खाते जाओ।

रमानाथ ने पान खाया और मदिाने कमरे में आकर खत िलखने बैठे। मगर िफर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए

और एक तरफ को चल िदिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरूष से क्या नहीं करा सकता।

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नौ

रमा के पिरिचतों में एक रमेश बाबू म्यूिनिसपल बोडर्च में हेड क्लकर्क थ। उम तो चालीस के ऊपर थी, पर थ

बडे रिसक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दिफ्तर भी भूल जाते। न आग नाथ न पीछे पगहा। जवानी

में स्त्री मर गई थी, दूसरा िववाह नहीं िकया। उस एकांत जीवन में िसवा िवनोदि के और क्या अवलंब था। चाहते

तो हज़ारों के वारे-न्यारे करते, पर िरश्वत की कौड़ी भी हराम समझिते थ। रमा से बडा स्नेह रखते थ। और कौन

ऐसा िनठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई िदिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थ।

शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दिो-एक बार आया अवश्य, पर िबसात पर

न बैठा रमेश बाबू ने मुहरे िबछा िदिए। उसको पकड़कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा।

बहू आई है, उसका मुंह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा िक इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया,

उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर िक वह क्यों आने लगा, रह गए। कहां जायं- िसनेमा ही देख आव- िकसी तरह

समय तो कट। िसनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था, पर इस वक्त उन्हें िसनेमा के िसवा और कुछ न सूझिा। कपड़े पहने

और जाना ही चाहते थ िक रमा ने कमरे में कदिम रखा। रमेश उसे देखते ही गंदि की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा

पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले--आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर्र! तुम तो इस बुड्ढे को िबलकुल

भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओग? प्रेिमका की रसीली बातों का आनंदि यहां कहां? चोरी का कुछ पता

चला?

रमानाथ--कुछ भी नहीं।

रमेश--बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं िलखाई, नहीं सौ-दिो सौ के मत्थ और जाते। बहू को तो बडा

दुर्ःख हुआ होगा?

रमानाथ--कुछ पूिछए मत, तभी से दिाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं

भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।

रमेश--बाबूजी के पास क्या काई का खजाना रक्खा हुआ है? अभी चारपांच हज़ार खचर्च िकए ह, िफर कहां

से लाकर गहने बनवा दें? दिस-बीस हज़ार रूपये होंग, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने ह और नौकरी का भरोसा

ही क्या पचास रू. होता ही क्या है?

रमानाथ--मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और

मौज उडाते थ, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?

रमेश ने ताक पर से मुहरे और िबसात उतारते हुए कहा--आओ एक बाजी हो जाए, िफर इस मामले को

सोच, इसे िजतना आसान समझि रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे ह।

रमानाथ--मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश

िठकाने नहीं होंग।

रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे िबछाते हुए कहा--आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, िफर सोच, क्या हो

सकता है।

रमानाथ--ज़रा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता िक िसर मुडाते ही ओले पड़ंग, तो मैं िववाह के नज़दिीक ही

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न जाता!

रमेश--अजी, दिो-चार चालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जायगा। ज़रा अक्ल की गांठ तो खुले।

बाज़ी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बादि रमेश बाबू ने रमा का रूख पीट िलया।

रमानाथ--ओह, क्या गलती हुई!

रमेश बाबू की आंखों में नश की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके िलए शराब से कम मादिक न था।

बोले--बोहनी तो अच्छी हुई! तुम्हारे िलए मैं एक जगह सोच रहा हूं। मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रूपये।

वह रंगी दिाढ़ी वाले खां साहब नहीं ह, उनसे काम नहीं होता। कई बार बचा चुका हूं। सोचता था, जब तक िकसी

तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदिमी

ह। वह तो कई बार कह चुके ह, मुझिे छुट्टी दिीिजए।तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो।

यह कहते-कहते रमा का फीला मार िलया। रमा ने फीले को िफर उठाने की चेष्टा करके कहा--आप मुझिे बातों में

लगाकर मेरे मुहरे उडाते जाते ह, इसकी सनदि नहीं, लाओ मेरा फीला।

रमेश--देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदिस्ती तो नहीं उठाया। हां, तो तुम्हें वह

जगह मंजूर है?

रमानाथ--वेतन तो तीस है।

रमेश--हां, वेतन तो कम है, मगर शायदि आग चलकर बढ़जाय। मेरी तो राय है, कर लो।

रमानाथ--अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूंगा।

रमेश--जगह आमदिनी की है। िमयां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम.ए., एल.एल. बी. करा

िलया। दिो कॉलेज में पढ़ते ह। लड़िकयों की शािदियां अच्छे घरों में कीं। हां, ज़रा समझि-बूझिकर काम करने की

जरूरत है।

रमानाथ--आमदिनी की मुझिे परवा नहीं, िरश्वत कोई अच्छी चीज़ तो है नहीं।ट

रमेश--बहुत खराब, मगर बाल-बच्चों वाले आदिमी क्या कर। तीस रूपयों में गुज़र नहीं हो सकती। मैं

अकेला आदिमी हूं। मेरे िलए डेढ़सौ काफी ह। कुछ बचा भी लेता हूं, लेिकन िजस घर में बहुत से आदिमी हों,

लड़कों की पढ़ाई हो, लड़िकयों की शािदियां हों, वह आदिमी क्या कर सकता है। जब तक छोट-छोट आदििमयों का

वेतन इतना न हो जाएगा िक वह भलमनसी के साथ िनवाह कर सकें, तब तक िरश्वत बंदि न होगी। यही रोटी-

दिाल, घी-दूध तो वह भी खाते ह। िफर एक को तीस रूपये और दूसरे को तीन सौ रूपये क्यों देते हो? रमा का

फजी िपट गया, रमेश बाबू ने बडे ज़ोर से कहकहा माराब

रमा ने रोष के साथ कहा--अगर आप चुपचाप खेलते ह तो खेिलए, नहीं मैं जाता हूं। मुझिे बातों में लगाकर

सारे मुहरे उडा िलए!

रमेश--अच्छा साहब, अब बोलूं तो ज़बान पकड़ लीिजए। यह लीिजए, शह! तो तुम कल अजी दे दिो।

उम्मीदि तो है, तुम्हें यह जगह िमल जाएगी, मगर िजस िदिन जगह िमले, मेरे साथ रात-भर खेलना होगा।

रमानाथ--आप तो दिो ही मातों में रोने लगते ह।

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रमेश--अजी वह िदिन गए, जब आप मुझिे मात िदिया करते थ। आजकल चन्द्रमा बलवान ह। इधर मैंने एक

मां िस' िकया है। क्या मजाल िक कोई मात दे सके। िफर शह!

रमानाथ--जी तो चाहता है, दूसरी बाज़ी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।

रमेश--देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे ह। खेल लो, िदिल का अरमान िनकल जाय। यह शह और मात!

रमानाथ--अच्छा कल की रही। कल ललकार कर पांच मातें न दिी हों तो किहएगा।

रमेश--अजी जाओ भी, तुम मुझिे क्या मात दिोग! िहम्मत हो, तो अभी सही!

रमानाथ--अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंग, मगर मैं पांच बािज़यों से कम न खेलूंगा!

रमेश--पांच नहीं, तुम दिस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो िफर खाना खा लें। तब िनिश्चन्त होकर

बैठं। तुम्हारे घर कहलाए देता हूं िक आज यहीं सोएंग, इंतज़ार न कर।

दिोनों ने भोजन िकया और िफर शतरंज पर बैठेब पहली बाज़ी में ग्यारह बज गए। रमेश बाबू की जीत

रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाज़ी खत्म हुई तो दिो बज गए।

रमानाथ--अब तो मुझिे नींदि आ रही है।

रमेश--तो मुंह धो डालो, बरग रक्खी हुई है। मैं पांच बािज़यां खेले बगैर सोने न दूंगा।

रमेश बाबू को यह िवश्वास हो रहा था िक आज मेरा िसतारा बुलंदि है। नहीं तो रमा को लगातार तीन

मात देना आसान न था। वह समझि गए थ, इस वक्त चाहे िजतनी बािज़यां खेलूं, जीत मेरी ही होगी मगर जब

चौथी बाज़ी हार गए, तो यह िवश्वास जाता रहा। उलट यह भय हुआ िक कहीं लगातार हारता न जाऊं। बोले--

अब तो सोना चािहए।

रमानाथ--क्यों, पांच बािजयां पूरी न कर लीिजए?

रमेश--कल दिफ्तर भी तो जाना है।

रमा ने अिधक आग्रह न िकया। दिोनों सोए।

रमा यों ही आठ बजे से पहले न उठता था, िफर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दिस बजे तक

सोने का अिधकार था। रमेश िनयमानुसार पांच बजे उठ बैठे, स्नान िकया, संध्या की, घूमने गए और आठ बजे

लौट, मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आिखर जब साढ़े नौ बज गए तो उन्होंने उसे जगाया।

रमा ने िबभड़कर कहा--नाहक जगा िदिया, कैसी मजे क़ी नींदि आ रही थी।

रमेश--अजी वह अजी देना है िक नहीं तुमको?

रमानाथ--आप दे दिीिजएगा।

रमेश--और जो कहीं साहब ने बुलाया, तो मैं ही चला जाऊंगा?

रमानाथ--ऊंह, जो चाहे कीिजएगा, मैं तो सोता हूं।

रमा िफर लेट गया और रमेश ने भोजन िकया, कपड़े पहने और दिफ्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त

रमानाथ हड़बडाकर उठा और आंखें मलता हुआ बोला--मैं भी चलूंगा।

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रमेश--अरे मुंह-हाथ तो धो ले, भले आदिमी!

रमानाथ--आप तो चले जा रहे ह।

रमेश--नहीं, अभी पंद्रह-बीस िमनट तक रूक सकता हूं, तैयार हो जाओ।

रमानाथ--मैं तैयार हूं। वहां से लौटकर घर भोजन करूंगा।

रमेश--कहता तो हूं, अभी आधा घंट तक रूका हुआ हूं।

रमा ने एक िमनट में मुंह धोया, पांच िमनट में भोजन िकया और चटपट रमेश के साथ दिफ्तर चला।

रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा--घर क्या बहाना करोग, कुछ सोच रक्खा है?

रमानाथ--कह दूंगा, रमेश बाबू ने आने नहीं िदिया।

रमेश--मुझिे गािलयां िदिलाओग और क्या िफर कभी न आने पाओग।

रमानाथ--ऐसा स्त्री-भक्त नहीं हूं। हां, यह तो बताइए, मुझिे अज़ी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?

रमेश--और क्या तुम समझिते हो, घर बैठे जगह िमल जायगी? महीनों दिौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीिसयों

िसफािरशं लानी पडंगी। सुबह-शाम हािज़री देनी पड़ेगी। क्या नौकरी िमलना आसान है?

रमानाथ--तो मैं ऐसी नौकरी से बाज़ आया। मुझिे तो अज़ी लेकर जाते ही शमर्च आती है।खुशामदें कौन

करेगा- पहले मुझिे क्लकों पर बडी हंसी आती थी, मगर वही बला मेरे िसर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बताएंग?

रमेश--बुरी तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते ह।

रमानाथ--तो िफर मैं घर जाता हूं। यह सब मुझिसे न बरदिाश्त होगा।

रमेश--पहले सब ऐसे ही घबराते ह, मगर सहते-सहते आदित पड़ जाती है। तुम्हारा िदिल धड़क रहा होगा

िक न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम मेरी भी थी, और शादिी हुए तीन ही महीने हुए

थ। िजस िदिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था मानो फांसी पाने जा रहा हूं;मगर तुम्हें डरने का

कोई कारण नहीं है। मैं सब ठीक कर दूंगा।

रमानाथ--आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंग!

रमेश--पूरे पच्चीस हो गए, साहब! बीस बरस तो स्त्री का देहांत हुए हो गए। दिस रूपये पर नौकर हुआ

था!

रमानाथ--आपने दूसरी शादिी क्यों नहीं की- तब तो आपकी उम पच्चीस से ज्यादिा न रही होगी।

रमेश ने हंसकर कहा--बरफी खाने के बादि गुड़ खाने को िकसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के

बादि झिोंपडा िकसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृतप्त कर देता है। तुम तो मुझिे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया

हूं, लेिकन मैं तुमसे सच कहता हूं, इस िवधुर-जीवन में मैंने िकसी स्त्री की ओर आंख तक नहीं उठाई। िकतनी ही

सुंदििरयां देखीं, कई बार लोगों ने िववाह के िलए घेरा भी, लेिकन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर

स्मृतितयों में मेरे िलए प्रेम का सजीव आनंदि भरा हुआ है। यों बातें करते हुए, दिोनों आदिमी दिफ्तर पहुंच गए।

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दिस

रमा दिफ्तर से घर पहुंचा, तो चार बज रहे थ। वह दिफ्तर ही में था िक आसमान पर बादिल िघर आए।

पानी आया ही चाहता था, पर रमा को घर पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी िक उससे रूका न गया। हाते के

बाहर भी न िनकलने पाया था िक जोर की वषा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह

लथपथ हो गया। िफर भी वह कहीं रूका नहीं। नौकरी िमल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंदि इस दिौंगड़े

की क्या परवाह कर सकता था? वेतन

तो केवल तीस ही रूपये थ, पर जगह आमदिनी की थी। उसने मन-ही-मन िहसाब लगा िलया था िक

िकतना मािसक बचत हो जाने से वह जालपा के िलए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रूपये महीने

भी बच जायं, तो पांच साल में जालपा गहनों से लदि जाएगी। कौन-सा आभूषण िकतने का होगा, इसका भी

उसने अनुमान कर िलया था। घर पहुंचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुंच गया।

जालपा उसे देखते ही बोली--यह भीग कहां गए, रात कहां गायब थ?

रमानाथ--इसी नौकरी की िफक में पडा हुआ हूं। इस वक्त दिफ्तर से चला आता हूं। म्युिनिसपैिलटी के

दिफ्तरमें मुझिे एक जगह िमल गई।

जालपा ने उछलकर पूछा--सच! िकतने की जगह है?

रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नजरों में

तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला--अभी तो चालीस िमलेंग, पर जल्दि तरक्की होगी। जगह आमदिनी की है।

जालपा ने उसके िलए िकसी बडे पदि की कल्पना कर रक्खी थी। बोली--चालीस में क्या होगा? भला साठसभार तो होते!

रमानाथ--िमल तो सकती थी सौ रूपये की भी, पर यहां रौब है, और आराम है। पचास-साठ रूपये ऊपर

से िमल जाएंग।

जालपा--तो तुम घूस लोग, गरीबों का गला काटोग?

रमा ने हंसकर कहा--नहीं िप्रये, वह जगह ऐसी नहीं िक गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े-बडे महाजनों से

रकमें िमलेंगी और वह खुशी से गले लगायेंग।

मैं िजसे चाहूं िदिनभर दिफ्तर में खडा रक्खूं, महाजनों का एक-एक िमनट एक-एक अशरफी के बराबर है।

जल्दि-से-जल्दि अपना काम कराने के िलए वे खुशामदि भी करग, पैसे भी देंग।

जालपा संतुष्ट हो गई, बोली--हां, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।

रमानाथ--वह तो करूंगा ही।

जालपा--अभी अम्मांजी से तो नहीं कहा?जाकर कह आओ। मुझिे तो सबसे बडी खुशी यही है िक अब

मालूम होगा िक यहां मेरा भी कोई अिधकार है।

रमानाथ--हां, जाता हूं, मगर उनसे तो मैं बीस ही बतलाऊंगा।

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जालपा ने उल्लिसत होकर कहा--हां जी, बिल्क पंद्रह ही कहना, ऊपर की आमदिनी की तो चचा ही करना

व्यथर्च है। भीतर का िहसाब वे ले सकते ह। मैं सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊंगी।

इतने में डािकए ने पुकारा। रमा ने दिरवाज़े पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पासर्चल आया था। महाशय

दिीनदियाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश घर में आए और जालपा के हाथों में रखकर बोले--तुम्हारे घर से आया

है, देखो इसमें क्या है?

रमा ने चटपट कैंची िनकाली और पासर्चल खोलाब उसमें देवदिार की एक िडिबया िनकली। उसमें एक

चन्द्रहार रक्खा हुआ था। रमा ने उसे िनकालकर देखा और हंसकर बोला--ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली, चीज तो

बहुत अच्छी मालूम होती है।

जालपा ने कुंिठत स्वर में कहा--अम्मांजी को यह क्या सूझिी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी।

अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दिो।

रमा ने िविस्मत होकर कहा--लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज न होंगी?

जालपा ने नाक िसकोड़कर कहा--मेरी बला से, रानी रूठंगी अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी दिया के िबना भी

जीती रह सकती हूं। आज इतने िदिनों के बादि उन्हें मुझि पर दिया आई है। उस वक्त दिया न आई थी, जब मैं उनके

घर से िवदिा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं िकसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके ओढ़ने-

पहनने के िदिन ह। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से रहोग, तो मुझिे बहुत गहने िमल जाएंग। मैं अम्मांजी को यह

िदिखाना चाहती हूं िक जालपा तुम्हारे गहनों की भूखी नहीं है।

रमा ने संतोष देते हुए कहा--मेरी समझि में तो तुम्हें हार रख लेना चािहए। सोचो, उन्हें िकतना दुर्ःख

होगा। िवदिाई के समय यिदि न िदिया तो, तो अच्छा ही िकया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।

जालपा--मैं इसे लूंगी नहीं, यह िनश्चय है।

रमानाथ--आिखर क्यों?

जालपा--मेरी इच्छा!

रमानाथ--इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?

जालपा रूंधे हुए स्वर में बोली--कारण यही है िक अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही ह, बहुत संभव है िक

इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं िक इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंदि होगा।

देने वाले का ह्रदिय देखना चािहए। प्रेम से यिदि वह मुझिे एक छल्ला भी दे दें, तो मैं दिोनों हाथों से ले लूं। जब

िदिल पर जब्र करके दुर्िनया की लाज से या िकसी के िधक्कारने से िदिया, तो क्या िदिया। दिान िभखािरिनयों को

िदिया जाता है। मैं िकसी का दिान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।

माता के प्रित जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। द्वेष तकर्क और प्रमाण नहीं सुनता।

रमा ने हार ले िलया और चारपाई से उठता हुआ बोला--ज़रा अम्मां और बाबू जी को तो िदिखा दूं। कम-से-कम

उनसे पूछ तो लेना ही चािहए। जालपा ने हार उसके हाथ से छीन िलया और बोली--वे लोग मेरे कौन होते ह,

जो मैं उनसे पूछूं - केवल एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझिे कुछ नहीं समझिते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं

समझिती।

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यह कहते हुए उसने हार को उसी िडब्बे में रख िदिया, और उस पर कपडा लपेटकर सीने लगी। रमा ने एक

बार डरते-डरते िफर कहा--ऐसी जल्दिी क्या है, दिस-पांच िदिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खाितर हो

जाएगी। इस पर जालपा ने कठोर नजरों से देखकर कहा--जब तक मैं इसे लौटा न दूंगी, मेरे िदिल को चैन न

आएगा। मेरे ह्रदिय में कांटा-सा खटकता रहेगा। अभी पासर्चल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दिो। एक क्षण में

पासर्चल तैयार हो गया और रमा उसे िलये हुए िचितत भाव से नीचे चला।

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ग्यारह

महाशय दियानाथ को जब रमा के नौकर हो जाने का हाल मालूम हुआ, तो बहुत खुश हुए। िववाह होते ही

वह इतनी जल्दि चेतेगा इसकी उन्हें आशा न थी। बोले--’जगह तो अच्छी है। ईमानदिारी से काम करोग, तो िकसी

अच्छे पदि पर पहुंच जाओग। मेरा यही उपदेश है िक पराए पैसे को हराम समझिना।’

रमा के जी में आया िक साफ कह दूं--’अपना उपदेश आप अपने ही िलए रिखए, यह मेरे अनुकूल नहीं है।’

मगर इतना बेहया न था।

दियानाथ ने िफर कहा--’यह जगह तो तीस रूपये की थी, तुम्हें बीस ही रूपए िमले?’

रमानाथ--’नए आदिमी को पूरा वेतन कैसे देते, शायदि साल-छः महीने में बढ़ जाय। काम बहुत है।’

दियानाथ--’तुम जवान आदिमी हो, काम से न घबडाना चािहए।’

रमा ने दूसरे िदिन नया सूट बनवाया और फैशन की िकतनी ही चीज़ं खरीदिीं। ससुराल से िमले हुए रूपये

कुछ बच रहे थ। कुछ िमत्रों से उधार ले िलए। वह साहबी ठाठ बनाकर सारे दिफ्तरपर रोब जमाना चाहता था।

कोई उससे वेतन तो पूछेगा नहीं, महाजन लोग उसका ठाठ-बाट देखकर सहम जाएंग। वह जानता था, अच्छी

आमदिनी तभी हो सकती है जब अच्छा ठाठ हो, सड़क के चौकीदिार को एक पैसा काफी समझिा जाता है, लेिकन

उसकी जगह साजर्जंट हो, तो िकसी की िहम्मत ही न पड़ेगी िक उसे एक पैसा िदिखाए। फटहाल िभखारी के िलए

चुटकी बहुत समझिी जाती है, लेिकन गरूए रेशम धारण करने वाले बाबाजी को लजाते-लजाते भी एक रूपया

देना ही पड़ता है। भेख और भीख में सनातन से िमत्रता है।

तीसरे िदिन रमा कोट-पैंट पहनकर और हैट लगाकर िनकला, तो उसकी शान ही कुछ और हो गई।

चपरािसयों ने झिुककर सलाम िकए। रमेश बाबू से िमलकर जब वह अपने काम का चाजर्च लेने आया, तो देखा एक

बरामदे में फटी हुई मैली दिरी पर एक िमयां साहब संदूक पर रिजस्टर फैलाए बैठे ह और व्यापारी लोग उन्हें

चारों तरफ से घेरे खड़े ह। सामने गािडयों, ठेलों और इक्कों का बाज़ार लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की

जल्दिी मचा रहे ह। कहीं लोगों में

गाली-गलौज हो रही है, कहीं चपरािसयों में हंसी-िदिल्लगी। सारा काम बड़े ही अव्यविस्थत रूप से हो रहा

है। उस फटी हुई दिरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला--’क्या

मुझिे भी इसी मैली दिरी पर िबठाना चाहते ह?एक अच्छी-सी मेज़ और कई कुिसयां िभजवाइए और चपरािसयों

को हुक्म दिीिजए िक एक आदिमी से ज्यादिा मेरे सामने

न आने पावे। रमेश बाबू ने मुस्कराकर मेज़ और कुिसयां िभजवा दिीं। रमा शान से कुसी पर बैठा बूढ़े

मुंशीजी उसकी उच्छृतंखलता पर िदिल में हंस रहे थ। समझि गए, अभी नया जोश है, नई सनक है। चाजर्च दे िदिया।

चाजर्च में था ही क्या, केवल आज की आमदिनी का िहसाब समझिा देना था। िकस िजस पर िकस िहसाब से चुंगी ली

जाती है, इसकी छपी हुई तािलका मौजूदि थी, रमा आधा घंट में अपना काम समझि गया। बूढ़े मुंशीजी ने यद्यपिप

खुदि ही यह जगह छोड़ी थी, पर इस वक्त जाते हुए उन्हें दुर्ःख हो रहा था। इसी जगह वह तीस साल से बराबर

बैठते चले आते थ। इसी जगह की बदिलौत उन्होंने धन और यश दिोनों ही कमाया था। उसे छोड़ते हुए क्यों न

दुर्ःख होता। चाजर्च देकर जब वह िवदिा होने लग तो रमा उनके साथ जीने के नीचे तक गया। खां साहब उसकी इस

नमता से प्रसन्न हो गए। मुस्कराकर बोले--’हर एक िबल्टी पर एक आना बंधा हुआ है, खुली हुई बात है। लोग

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शौक से देते ह। आप अमीर आदिमी ह, मगर रस्म न िबगािडएगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है, तो उसका

बंधना मुिश्कल हो जाता है। इस एक आने में आधा चपरािसयों का हक है। जो बडे बाबू पहले थ, वह पचीस

रूपये महीना लेते थ, मगर यह कुछ नहीं लेते।’

रमा ने अरूिच प्रकट करते हुए कहा--’गंदिा काम है, मैं सगाई से काम करना चाहता हूं।’

बूढ़े िमयां ने हंसकर कहा--’अभी गंदिा मालूम होता है, लेिकन िफर इसी में मज़ा आएगा।’

खां साहब को िवदिा करके रमा अपनी कुसी पर आ बैठा और एक चपरासी से बोला--’इन लोगों से कहो,

बरामदे के नीचे चले जाएं । एक-एक करके नंबरवार आव, एक कागज पर सबके नाम नंबरवार िलख िलया

करो।’

एक बिनया, जो दिो घंट से खडा था, खुश होकर बोला--’हां सरकार, यह बहुत अच्छा होगा।’

रमानाथ--’जो पहले आवे, उसका काम पहले होना चािहए। बाकी लोग अपना नंबर आने तक बाहर रहें।

यह नहीं िक सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जाएं और पहले वाले खड़े मुंह ताकते रहें। ’

कई व्यापािरयों ने कहा--’हां बाबूजी, यह इंतजाम हो जाए, तो बहुत अच्छा हो भभ्भड़ में बडी देर हो जाती है।’

इतना िनयंत्रण रमा का रोब जमाने के िलए काफी था। विणक-समाज में आज ही उसके रंग-ढंग की

आलोचना और प्रशंसा होने लगी। िकसी बड़े कॉलेज के प्रोफसर को इतनी ख्याित उमभर में न िमलती। दिो-चार

िदिन के अनुभव से ही रमा को सारे दिांव-घात मालूम हो गए। ऐसी-ऐसी बातें सूझि गई जो खां साहब को ख्वाब

में भी न सूझिी थीं। माल की तौल, िगनती और परख में इतनी धांधली थी िजसकी कोई हदि नहीं। जब इस

धांधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते ह, तो रमा िबल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो

जाय, िजसमें आधा आना चपरािसयों का है। माल की तौल और परख में दिृतढ़ता से िनयमों का पालन करके वह

धन और कीित, दिोनों ही कमा सकता है। यह अवसर वह क्यों छोड़ने लगा – िवशषकर जब बडे बाबू उसके गहरे

दिोस्त थ। रमेश बाबू इस नए रंग ईट की कायर्च-पटुता पर मुग्ध हो गए। उसकी पीठ ठोंककर बोले--’कायदे के

अंदिर रहो और जो चाहो करो। तुम पर आंच तक न आने पायेगी।’

रमा की आमदिनी तेज़ी से बढ़ने लगी। आमदिनी के साथ प्रभाव भी बढ़ा। सूखी कलम िघसने वाले दिफ्तरके

बाबुआं को जब िसगरेट, पान, चाय या जलपान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में

सभी हाथ धो सकते थ। सारे दिफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो वह ठीकरा समझिता है! क्या

िदिल है िक वाह! और जैसा िदिल है, वैसी ही ज़बान भी। मालूम होता है, नस-नस में शराफत भरी हुई है। बाबुआं

का जब यह हाल था, तो चपरािसयों और मुहिररों का पूछना ही क्या? सब-के-सब रमा के िबना दिामों गुलाम थ।

उन गरीबों की आमदिनी ही नहीं, प्रितष्ठा भी खूब बढ़ गई थी। जहां गाड़ीवान तक फटकार िदिया करते थ, वहां

अब अच्छे-अच्छे की गदिर्चन पकड़कर नीचे ढकेल देते थ। रमानाथ की तूती बोलने लगी।

मगर जालपा की अिभलाषाएं अभी एक भी पूरी न हुई। नागपंचमी के िदिन मुहल्ले की कई युवितयां

जालपा के साथ कजली खेलने आइ, मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं िनकली। भादिों में जन्माष्टमी का

उत्सव आया। पड़ोस ही में एक सेठजी रहते थ, उनके यहां बडी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता था। वहां से सास

और बहू को बुलावा आया। जागश्वरी गई, जालपा ने जाने से इंकार िकया। इन तीन महीनों में उसने रमा से एक

बार भी आभूषण की चचा न की,पर उसका यह एकांत-प्रेम, उसके आचरण से उत्तिेजक था। इससे ज्यादिा उत्तिेजक

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वह पुराना सूची-पत्र था, जो एक िदिन रमा कहीं से उठा लाया था। इसमें भांित- भांित के सुंदिर आभूषणों के

नमूने बने हुए थ। उनके मूल्य भी िलखे हुए थ। जालपा एकांत में इस सूची-पत्र को बडे ध्यान से देखा करती। रमा

को देखते ही वह सूची-पत्र िछपा लेती थी। इस हािदिक कामना को प्रकट करके वह अपनी हंसी न उड़वाना

चाहती थी।

रमा आधी रात के बादि लौटा, तो देखा, जालपा चारपाई पर पड़ी है। हंसकर बोला-बडा अच्छा गाना हो

रहा था। तुम नहीं गई; बड़ी गलती की।’

जालपा ने मुंह उधर िलया, कोई उत्तिर न िदिया।

रमा ने िफर कहा--’यहां अकेले पड़े-पड़े तुम्हारा जी घबराता रहा होगा! ’

जालपा ने तीव्र स्वर में कहा--’तुम कहते हो, मैंने गलती की, मैं समझिती हूं, मैंने अच्छा िकया। वहां

िकसके मुंह में कािलख लगती।’

जालपा ताना तो न देना चाहती थी, पर रमा की इन बातों ने उसे उत्तिेिजत कर िदिया। रोष का एक कारण

यह भी था िक उसे अकेली छोड़कर सारा घर उत्सव देखने चला गया। अगर उन लोगों के ह्रदिय होता, तो क्या

वहां जाने से इंकार न कर देते?

रमा ने लिज्जत होकर कहा--’कािलख लगने की तो कोई बात न थी, सभी जानते ह िक चोरी हो गई है,

और इस ज़माने में दिो-चार हज़ार के गहने बनवा लेना, मुंह का कौर नहीं है।’

चोरी का शब्दि ज़बान पर लाते हुए, रमा का ह्रदिय धड़क उठा। जालपा पित की ओर तीव्र दिृतिष्ट से देखकर

रह गई। और कुछ बोलने से बात बढ़ जाने का भय था, पर रमा को उसकी दिृतिष्ट से ऐसा भािसत हुआ, मानो उसे

चोरी का रहस्य मालूम है और वह केवल संकोच के कारण उसे खोलकर नहीं कह रही है। उसे उस स्वप्न की बात

भी यादि आई, जो जालपा ने चोरी की रात को देखा था। वह दिृतिष्ट बाण के समान उसके ह्रदिय को छेदिने लगी;

उसने सोचा, शायदि मुझिे भम हुआ। इस दिृतिष्ट में रोष के िसवा और कोई भाव नहीं है, मगर यह कुछ बोलती क्यों

नहीं- चुप क्यों हो गई?उसका चुप हो जाना ही गजब था। अपने मन का संशय िमटाने और जालपा के मन की

थाह लेने के िलए रमा ने मानो डुब्बी मारी--’यह कौन जानता था िक डोली से उतरते ही यह िवपित्ति तुम्हारा

स्वागत करेगी।’

जालपा आंखों में आंसू भरकर बोली--’तो मैं तुमसे गहनों के िलए रोती तो नहीं हूं। भाग्य में जो िलखा था,

वह हुआ। आग भी वही होगा, जो िलखा है। जो औरतें गहने नहीं पहनतीं, क्या उनके िदिन नहीं कटते?’

इस वाक्य ने रमा का संशय तो िमटा िदिया, पर इसमें जो तीव्र वेदिना िछपी हुई थी, वह उससे िछपी न

रही। इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने पर भी वह सौ रूपये से अिधक संग्रह न कर सका था। बाबू लोगों के

आदिर-सत्कार में उसे बहुत-कुछ फलना पड़ता था; मगर िबना िखलाए-िपलाए काम भी तो न चल सकता था।

सभी उसके दुर्श्मन हो जाते और उसे उखाड़ने की घातें सोचने लगते। मुफ्त का धन अकेले नहीं हजम होता, यह

वह अच्छी तरह जानता था। वह स्वयं एक पैसा भी व्यथर्च खचर्च न करता। चतुर व्यापारी की भांित वह जो कुछ

खचर्च करता था, वह केवल कमाने के िलए। आश्वासन देते हुए बोला--’ईश्वर ने चाहा तो दिो-एक महीने में कोई

चीज़ बन जाएगी।’

जालपा--’मैं उन िस्त्रयों में नहीं हूं, जो गहनों पर जान देती ह। हां, इस तरह िकसी के घर आते-जाते शमर्च

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आती ही है।’

रमा का िचत्ति ग्लािन से व्याकुल हो उठा। जालपा के एक-एक शब्दि से िनराशा टपक रही थी। इस अपार

वेदिना का कारण कौन था?क्या यह भी उसी का दिोष न था िक इन तीन महीनों में उसने कभी गहनों की चचा

नहीं की?जालपा यिदि संकोच के कारण इसकी चचा न करती थी, तो रमा को उसके आंसू पोंछने के िलए, उसका

मन रखने के िलए, क्या मौन के िसवा दूसरा उपाय न था?मुहल्ले में रोज़ ही एक-न-एक उत्सव होता रहता है,

रोज़ ही पासपड़ोस की औरतें िमलने आती ह, बुलावे भी रोज आते ही रहते ह, बेचारी जालपा कब तक इस

प्रकार आत्मा का दिमन करती रहेगी, अंदिर-ही-अंदिर कुढती रहेगी। हंसने-बोलने को िकसका जी नहीं चाहता,

कौन कैिदियों की तरह अकेला पडा रहना पसंदि करता है? मेरे ही कारण तो इसे यह भीषण यातना सहनी पड़

रही है। उसने सोचा, क्या िकसी सराफ से गहने उधार नहीं िलए जा सकते?कई बडे सराफों से उसका पिरचय

था, लेिकन उनसे वह यह बात कैसे कहता- कहीं वे इंकार कर दें तो- या संभव है, बहाना करके टाल दें। उसने

िनश्चय िकया िक अभी उधार लेना ठीक न होगा। कहीं वादे पर रूपये न दे सका, तो व्यथर्च में थुक्का-फजीहत

होगी। लिज्जत होना पड़ेगा। अभी कुछ िदिन और धैयर्च से काम लेना चािहए। सहसा उसके मन में आया, इस िवषय

में जालपा की राय लूं। देखूं वह क्या कहती है। अगर उसकी इच्छा हो तो िकसी सराफ से वादे पर चीज़ं ले ली

जायं, मैं इस अपमान और संकोच को सह लूंगा। जालपा को संतुष्ट करने के िलए िक उसके गहनों की उसे िकतनी

िफक है! बोला--’तुमसे एक सलाह करना चाहता हूं। पूछूं या न पूछूं। ’

जालपा को नींदि आ रही थी, आंखें बंदि िकए हुए बोली--’अब सोने दिो भई, सवेरे उठना है।’

रमानाथ--’अगर तुम्हारी राय हो, तो िकसी सराफ से वादे पर गहने बनवा लाऊं। इसमें कोई हजर्च तो है

नहीं।’

जालपा की आंखें खुल गई। िकतना कठोर प्रश्न था। िकसी मेहमान से पूछना--’किहए तो आपके िलए

भोजन लाऊं, िकतनी बडी अिशष्टता है। इसका तो यही आशय है िक हम मेहमान को िखलाना नहीं चाहते। रमा

को चािहए था िक चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना चािहए था

िक दिाम देकर लाया हूं। तब वह अलबत्तिा खुश होती। इस िवषय में उसकी सलाह लेना, घाव पर नमक िछड़कना

था। रमा की ओर अिवश्वास की आंखों से देखकर बोली--’मैं तो गहनों के िलए इतनी उत्सुक नहीं हूं।’

रमानाथ--’नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हजर्च है िक िकसी सराफ से चीजें ले लूं। धीरे-धीरे उसके रूपये

चुका दूंगा।’

जालपा ने दिृतढ़ता से कहा--’नहीं, मेरे िलए कजर्च लेने की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूं िक तुम्हें नोचखसोटकर अपना रास्ता लूं। मुझिे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझिे सारी उम बे-गहनों के रहना पड़े,

तो भी मैं कुछ लेने को न कहूंगी। औरतें गहनों की इतनी भूखी नहीं होतीं। घर के प्रािणयों को संकट में डालकर

गहने पहनने वाली दूसरी होंगी। लेिकन तुमने तो पहले कहा था िक जगह बडी आमदिनी की है, मुझिे तो कोई

िवशष बचत िदिखाई नहीं देती।’

रमानाथ--’बचत तो जरूर होती और अच्छी होती, लेिकन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाए। सब

शैतान िसर पर सवार रहते ह। मुझिे पहले न मालूम था िक यहां इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।’

जालपा--’तो अभी कौन-सी जल्दिी है, बनते रहेंग धीरे-धीरे।’

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रमानाथ--’खैर, तुम्हारी सलाह है, तो एक-आधा महीने और चुप रहता हूं। मैं सबसे पहले कंगन

बनवाऊंगा।’

जालपा ने गदिगदि होकर कहा--’तुम्हारे पास अभी इतने रूपये कहां होंग?’

रमानाथ--’इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसंदि है?’

जालपा अब अपने कृतित्रम संयम को न िनभा सकी। आलमारी में से आभूषणों का सूची-पत्र िनकालकर रमा

को िदिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना लाकर रक्खा हुआ है, सुनार बैठा हुआ है, केवल

िडज़ाइन ही पसंदि करना बाकी है। उसने सूची के दिो िडज़ाइन पसंदि िकए। दिोनों वास्तव में बहुत ही सुंदिर थ। पर

रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाट में आ गया। एक- एक हज़ार का था, दूसरा आठ सौ का।

रमानाथ--’ऐसी चीज़ं तो शायदि यहां बन भी न सकें, मगर कल मैं ज़रा सराफ की सैर करूंगा।’

जालपा ने पुस्तक बंदि करते हुए करूण स्वर में कहा--’इतने रूपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंग? उंह,

बनेंग-बनेंग, नहीं कौन कोई गहनों के िबना मरा जाता है।’

रमा को आज इसी उधेड़बुन में बडी रात तक नींदि न आई। ये जडाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर

िकतने िखलेंग। यह मोह-स्वप्न देखते-देखते उसे न जाने कब नींदि आ गई।

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बारह

दूसरे िदिन सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता िलया। उनके यहां भी जन्माष्टमी में झिांकी होती

थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था, पर उनकी स्त्री उत्सव मनाती थी, उसी की यादिगार में अब तक यह

उत्सव मनाते जाते थ। रमा को देखकर बोले--’आओ जी, रात क्यों नहीं आए? मगर यहां गरीबों के घर क्यों

आते। सेठजी की झिांकी कैसे छोड़ देते। खूब बहार रही होगी!

रमानाथ--’आपकी-सी सजावट तो न थी, हां और सालों से अच्छी थी। कई कत्थक और वेश्याएं भी आई

थीं। मैं तो चला आया था; मगर सुना रातभर गाना होता रहा।’

रमेश--’सेठजी ने तो वचन िदिया था िक वेश्याएं न आने पावगी, िफर यह क्या िकया। इन मूखो के हाथों

िहन्दू-धमर्च का सवर्चनाश हो जायगा। एक तो वेश्याआं का नाम यों भी बुरा, उस पर ठाकुरद्वारे में! िछः-िछः, न

जाने इन गधों को कब अक्ल आवेगी।’

रमानाथ--’वेश्याएं न हों, तो झिांकी देखने जाय ही कौन- सभी तो आपकी तरह योगी और तपस्वी नहीं

ह।’

रमेश--’मेरा वश चले, तो मैं कानून से यह दुर्राचार बंदि कर दूं। खैर, फुरसत हो तो आओ एक-आधा बाज़ी

हो जाय।’

रमानाथ--’और आया िकसिलए हूं; मगर आज आपको मेरे साथ ज़रा सराफ तक चलना पड़ेगा। यों कई

बडी-बडी कोिठयों से मेरा पिरचय है; मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी।’

रमेश--’चलने को चला चलूंगा, मगर इस िवषय में मैं िबलकुल कोरा हूं।न कोई चीज बनवाई न खरीदिी।

तुम्हें क्या कुछ लेना है?’

रमानाथ--’लेना-देना क्या है, ज़रा भाव-ताव देखूंगा।’

रमेश--’मालूम होता है, घर में फटकार पड़ी है।’

रमानाथ--’जी, िबलकुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती। मैं कभी पूछता भी हूं, तो मना

करती ह, लेिकन अपना कतर्चव्य भी तो कुछ है। जब से गहने चोरी चले गए, एक चीज़ भी नहीं बनी।’

रमेश--’मालूम होता है, कमाने का ढंग आ गया। क्यों न हो, कायस्थ के बच्चे हो िकतने रूपये जोड़ िलए?’

रमानाथ--’रूपये िकसके पास ह, वादे पर लूंगा। ’

रमेश--’इस ख़ब्त में न पड़ो। जब तक रूपये हाथ में न हों, बाज़ार की तरफ जाओ ही मत। गहनों से तो

बुड्ढे नई बीिवयों का िदिल खुश िकया करते ह, उन बेचारों के पास गहनों के िसवा होता ही क्या है। जवानों के

िलए और बहुत से लटके ह। यों मैं चाहूं, तो दिो-चार हज़ार का माल िदिलवा सकता हूं,मगर भई, कज़र्च की लत बुरी

है।’

रमानाथ-- ’मैं दिो-तीन महीनों में सब रूपये चुका दूंगा। अगर मुझिे इसका िवश्वास न होता, तो मैं िजक ही

न करता।’

रमेश--’तो दिो-तीन महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते? कज़र्च से बडा पाप दूसरा नहीं। न इससे बडी

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िवपित्ति दूसरी है। जहां एक बार धड़का खुला िक तुम आए िदिन सराफ की दुर्कान पर खड़े नज़र आओग। बुरा न

मानना। मैं जानता हूं, तुम्हारी आमदिनी अच्छी है, पर भिवष्य के भरोसे पर और चाहे जो काम करो, लेिकन कजर्च

क़भी मत लो। गहनों का मज़र्च न जाने इस दििरद्र देश में कैसे फैल गया। िजन लोगों के भोजन का िठकाना नहीं, वे

भी गहनों के पीछे प्राण देते ह। हर साल अरबों रूपये केवल सोना-चांदिी खरीदिने में व्यय हो जाते ह। संसार के

और िकसी देश में इन धातुआं की इतनी खपत नहीं। तो बात क्या है? उन्नत देशों में धन व्यापार में लगता है,

िजससे लोगों की परविरश होती है, और धन बढ़ता है। यहां धन! ऋंगार में खचर्च होता है, उसमें उन्नित और

उपकार की जो दिो महान शिक्तयां ह, उन दिोनों ही का अंत हो जाता है। बस यही समझि लो िक िजस देश के

लोग िजतने ही मूखर्च होंग, वहां जेवरों का प्रचार भी उतना ही अिधक होगा। यहां तो खैर नाक-कान िछदिाकर ही

रह जाते ह, मगर कई ऐसे देश भी ह, जहां होंठ छेदिकर लोग गहने पहनते ह।

रमा ने कौतूहल से कहा-- यादि नहीं आता, पर शायदि अफ्रीका हो, हमें यह सुनकर अचंभा होता है, लेिकन

अन्य देश वालों के िलए नाक-कान का िछदिना कुछ कम अचंभे की बात न होगी। बुरा मरज है, बहुत ही बुरा। वह

धन, जो भोजन में खचर्च होना चािहए, बाल-बच्चों का पेट काटकर गहनों की भेंट कर िदिया जाता है। बच्चों को

दूध न िमले न सही। घी की गंध तक उनकी नाक में न पहुंचे, न सही। मेवों और फलों के दिशर्चन उन्हें न हों, कोई

परवा नहीं, पर देवीजी गहने जरूर पहनेंगी और स्वामीजी गहने जरूर बनवाएंग। दिस-दिस, बीस-बीस रूपये पाने

वाले क्लको को देखता हूं, जो सड़ी हुई कोठिरयों में पशुआं की भांित जीवन काटते ह, िजन्हें सवेरे का जलपान तक

मयस्सर नहीं होता, उन पर भी गहनों की सनक सवार रहती है। इस प्रथा से हमारा सवर्चनाश होता जा रहा है। मैं

तो कहता हूं, यह गुलामी पराधीनता से कहीं बढ़कर है। इसके कारण हमारा िकतना आित्मक, नैितक, दिैिहक,

आिथक और धािमक पतन हो रहा है, इसका अनुमान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते।

रमानाथ-- ‘मैं तो समझिता हूं, ऐसा कोई भी देश नहीं, जहां िस्त्रयां गहने न पहनती हों। क्या युरोप में

गहनों का िरवाज नहीं है?’

रमेश-- ‘तो तुम्हारा देश युरोप तो नहीं है। वहां के लोग धानी ह। वह धन लुटाएं, उन्हें शोभा देता है। हम

दििरक ह, हमारी कमाई का एक पैसा भी फजूल न खचर्च होना चािहए।’

रमेश बाबू इस वादि-िववादि में शतरंज भूल गए। छुट्टी का िदिन था ही,दिो-चार िमलने वाले और आ गए,

रमानाथ चुपके से िखसक आया। इस बहस में एक बात ऐसी थी, जो उसके िदिल में बैठ गई। उधार गहने लेने का

िवचार उसके मन से िनकल गया। कहीं वह जल्दिी रूपया न चुका सका, तो िकतनी बडी बदिनामी होगी। सराट्ठ

तक गया अवश्य, पर िकसी दुर्कान में जाने का साहस न हुआ। उसने िनश्चय िकया, अभी तीन-चार महीने तक

गहनों का नाम न लूंगा।

वह घर पहुंचा, तो नौ बज गए थ। दियानाथ ने उसे देखा तो पूछा—‘आज सवेरे-सवेरे कहां चले गए थ?’

रमानाथ—‘ज़रा बडे बाबू से िमलने गया था।’

दियानाथ—‘घंट-आधा घंट के िलए पुस्तकालय क्यों नहीं चले जाया करते। गप-शप में िदिन गंवा देते हो

अभी तुम्हारी पढ़ने-िलखने की उम है। इम्तहान न सही, अपनी योग्यता तो बढ़ा सकते हो एक सीधा-सा खत

िलखना पड़ जाता है, तो बगलें झिांकने लगते हो असली िशक्षा स्कूल छोड़ने के बादि शुरू होती है, और वही हमारे

जीवन में काम भी आती है। मैंने तुम्हारे िवषय में कुछ ऐसी बातें सुनी ह, िजनसे मुझिे बहुत खेदि हुआ है और तुम्हें

समझिा देना मैं अपना धमर्च समझिता हूं। मैं यह हरिगज नहीं चाहता िक मेरे घर में हराम की एक कौड़ी भी आए।

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मुझिे नौकरी करते तीस साल हो गए। चाहता, तो अब तक हज़ारों रूपये जमा कर लेता, लेिकन मैं कसम खाता हूं

िक कभी एक पैसा भी हराम का नहीं िलया। तुममें यह आदित कहां से आ गई, यह मेरी समझि में नहीं आता। ’

रमा ने बनावटी कोध िदिखाकर कहा—‘िकसने आपसे कहा है? ज़रा उसका नाम तो बताइए? मूंछें उखाड़ लूं

उसकी! ’

दियानाथ—‘िकसी ने भी कहा हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। तुम उसकी मूंछें उखाड़ लोग, इसिलए

बताऊंगा नहीं, लेिकन बात सच है या झिूठ, मैं इतना ही पूछना चाहता हूं।’

रमानाथ—‘िबलकुल झिूठ! ’

दियानाथ—‘िबलकुल झिूठ? ’

रमानाथ—‘जी हां, िबलकुल झिूठ? ’

दियानाथ—‘तुम दिस्तूरी नहीं लेते? ’

रमानाथ—‘दिस्तूरी िरश्वत नहीं है, सभी लेते ह और खुल्लम-खुल्ला लेते ह। लोग िबना मांग आप-ही-आप

देते ह, मैं िकसी से मांगने नहीं जाता। ’

दियानाथ—‘सभी खुल्लम-खुल्ला लेते ह और लोग िबना मांग देते ह, इससे तो िरश्वत की बुराई कम नहीं हो

जाती।’

रमानाथ—‘दिस्तूरी को बंदि कर देना मेरे वश की बात नहीं। मैं खुदि न लूं, लेिकन चपरासी और मुहिरर का

हाथ तो नहीं पकड़ सकता आठ-आठ, नौ नौ पाने वाले नौकर अगर न लें, तो उनका काम ही नहीं चल सकता मैं

खुदि न लूं, पर उन्हें नहीं रोक सकता ।’

दियानाथ ने उदिासीन भाव से कहा—‘मैंने समझिा िदिया, मानने का अिख्तयार तुम्हें है।’

यह कहते हुए दियानाथ दिफ्तर चले गए। रमा के मन में आया, साफ कह दे, आपने िनस्पृतह बनकर क्या कर

िलया, जो मुझिे दिोष दे रहे ह। हमेशा पैसे-पैसे को मुहताज रहे। लड़कों को पढ़ा तक न सके। जूते-कपड़े तक न

पहना सके। यह डींग मारना तब शोभा देता, जब िक नीयत भी साफ रहती और जीवन भी सुख से कटता।

रमा घर में गया तो माता ने पूछा—‘आज कहां चले गए बेटा, तुम्हारे बाबूजी इसी पर िबगड़ रहे थ।‘

रमानाथ—‘इस पर तो नहीं िबगड़ रहे थ, हां, उपदेश दे रहे थ िक दिस्तूरी मत िलया करो। इससे आत्मा

दुर्बर्चल होती है और बदिनामी होती है।’

जागश्वरी—‘तुमने कहा नहीं, आपने बडी ईमानदिारी की तो कौन-से झिंडे गाड़ िदिए! सारी िजदिगी पेट

पालते रहे।’

रमानाथ—‘कहना तो चाहता था, पर िचढ़जाते। जैसे आप कौड़ी-कौड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझिे भी

बनाना चाहते ह। आपको लेने का शऊर तो है नहीं। जब देखा िक यहां दिाल नहीं गलती , तो भगत बन गए। यहां

ऐसे घोंघा- बसंत नहीं ह। बिनयों से रूपये एंठने के िलए अक्ल चािहए, िदिल्लगी नहीं है! जहां िकसी ने भगतपन

िकया और मैं समझि गया, बुद्धिू है। लेने की तमीज नहीं, क्या करे बेचारा। िकसी तरह आंसू तो पोंछे।’

जागश्वरी—‘बस-बस यही बात है बेटा, िजसे लेना आवेगा, वह जरूर लेगा। इन्हें तो बस घर में कानून

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बघारना आता है और िकसी के सामने बात तो मुंह से िनकलती नहीं। रूपये िनकाल लेना तो मुिश्कल है।’

रमा दिफ्तर जाते समय ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जालपा ने उसे तीन िलफाफे डाक में छोड़ने के िलए िदिए।

इस वक्त उसने तीनों िलफाफे जेब में डाल िलए, लेिकन रास्ते में उन्हें खोलकर िचिट्ठयां पढ़ने लगा। िचिट्ठयां क्या

थीं, िवपित्ति और वेदिना का करूण िवलाप था, जो उसने अपनी तीनों सहेिलयों को सुनाया था। तीनों का िवषय

एक ही था। केवल भावों का अंतर था,’िजदिगी पहाड़ हो गई है, न रात को नींदि आती है न िदिन को आराम,

पितदेव को प्रसन्न करने के िलए, कभी-कभी हंस-बोल लेती हूं पर िदिल हमेशा रोया करता है। न िकसी के घर

जाती हूं, न िकसी को मुंह िदिखाती हूं। ऐसा जान पड़ता है िक यह शोक मेरी जान ही लेकर छोड़ेगा। मुझिसे वादे

तो रोज िकए जाते ह, रूपये जमा हो रहे ह, सुनार ठीक िकया जा रहा है, िडजाइन तय िकया जा रहा है, पर यह

सब धोखा है और कुछ नहीं।’

रमा ने तीनों िचिट्ठयां जेब में रख लीं। डाकखाना सामने से िनकल गया, पर उसने उन्हें छोडा नहीं। यह

अभी तक यही समझिती है िक मैं इसे धोखा दे रहा हूं- क्या करूं, कैसे िवश्वास िदिलाऊं- अगर अपना वश होता तो

इसी वक्त आभूषणों के टोकरे भर-भर जालपा के सामने रख देता, उसे िकसी बड़े सराफ की दुर्कान पर ले जाकर

कहता, तुम्हें जो-जो चीजें लेनी हों, ले लो। िकतनी अपार वेदिना है, िजसने िवश्वास का भी अपहरण कर िलया है।

उसको आज उस चोट का सच्चा अनुभव हुआ, जो उसने झिूठी मयादिा की रक्षा में उसे पहुंचाई थी। अगर वह

जानता, उस अिभनय का यह फल होगा, तो कदिािचत् अपनी डींगों का परदिा खोल देता। क्या ऐसी दिशा में भी,

जब जालपा इस शोक-ताप से फुंकी जा रही थी, रमा को कज़र्च लेने में संकोच करने की जगह थी? उसका ह्रदिय

कातर हो उठा। उसने पहली बार सच्चे ह्रदिय से ईश्वर से याचना की,भगवन्, मुझिे चाहे दिंड देना, पर मेरी जालपा

को मुझिसे मत छीनना। इससे पहले मेरे प्राण हर लेना। उसके रोम-रोम से आत्मध्विन-सी िनकलने लगी--ईश्वर,

ईश्वर! मेरी दिीन दिशा पर दिया करो। लेिकन इसके साथ ही उसे जालपा पर कोध भी आ रहा था। जालपा ने क्यों

मुझिसे यह बात नहीं कही। मुझिसे क्यों परदिा रखा और मुझिसे परदिा रखकर अपनी सहेिलयों से यह दुर्खडा रोया ?

बरामदे में माल तौला जा रहा था। मेज़ पर रूपये-पैसे रखे जा रहे थ और रमा िचता में डूबा बैठा हुआ था।

िकससे सलाह ले, उसने िववाह ही क्यों िकया- सारा दिोष उसका अपना था। जब वह घर की दिशा जानता था,

तो क्यों उसने िववाह करने से इंकार नहीं कर िदिया? आज उसका मन काम में नहीं लगता था। समय से पहले ही

उठकर चला आया।

जालपा ने उसे देखते ही पूछा, ‘मेरी िचिट्ठयां छोड़ तो नहीं दिीं? ‘

रमा ने बहाना िकया, ‘अरे इनकी तो यादि ही नहीं रही। जेब में पड़ी रह गई।’

जालपा—‘यह बहुत अच्छा हुआ। लाओ, मुझिे दे दिो, अब न भेजूंगी।’

रमानाथ—‘क्यों, कल भेज दूंगा।’

जालपा—‘नहीं, अब मुझिे भेजना ही नहीं है, कुछ ऐसी बातें िलख गई थी,जो मुझिे न िलखना चािहए थीं।

अगर तुमने छोड़ दिी होती, तो मुझिे दुर्ःख होता। मैंने तुम्हारी िनदिा की थी। यह कहकर वह मुस्कराई।

रमानाथ—‘जो बुरा है, दिगाबाज है, धूतर्च है, उसकी िनदिा होनी ही चािहए।’

जालपा ने व्यग्र होकर पूछा—‘तुमने िचिट्ठयां पढ़लीं क्या?’

रमा ने िनद्यपसंकोच भाव से कहा,हां, यह कोई अक्षम्य अपराध है?’

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जालपा कातर स्वर में बोली,तब तो तुम मुझिसे बहुत नाराज होग?’

आंसुआं के आवेग से जालपा की आवाज़ रूक गई। उसका िसर झिुक गया और झिुकी हुई आंखों से आंसुआं की

बूंदें आंचल पर िफरने लगीं। एक क्षण में उसने स्वर को संभालकर कहा,’मुझिसे बडा भारी अपराध हुआ है। जो

चाहे सज़ा दिो; पर मुझिसे अप्रसन्न मत हो ईश्वर जानते ह, तुम्हारे जाने के बादि मुझिे िकतना दुर्ःख हुआ। मेरी

कलम से न जाने कैसे ऐसी बातें िनकल गई।’

जालपा जानती थी िक रमा को आभूषणों की िचता मुझिसे कम नहीं है, लेिकन िमत्रों से अपनी व्यथा कहते

समय हम बहुधा अपना दुर्ःख बढ़ाकर कहते ह। जो बातें परदे की समझिी जाती ह, उनकी चचा करने से एक तरह

का अपनापन जािहर होता है। हमारे िमत्र समझिते ह, हमसे ज़रा भी दुर्राव नहीं रखता और उन्हें हमसे

सहानुभूित हो जाती है। अपनापन िदिखाने की यह आदित औरतों में कुछ अिधक होती है।

रमा जालपा के आंसू पोंछते हुए बोला—‘मैं तुमसे अप्रसन्न नहीं हूं, िप्रये! अप्रसन्न होने की तो कोई बात

ही नहीं है। आशा का िवलंब ही दुर्राशा है, क्या मैं इतना नहीं जानता। अगर तुमने मुझिे मना न कर िदिया होता,

तो अब तक मैंने िकसी-न-िकसी तरह दिो-एक चीजें अवश्य ही बनवा दिी होतीं। मुझिसे भूल यही हुई िक तुमसे

सलाह ली। यह तो वैसा ही है जैसे मेहमान को पूछ-पूछकर भोजन िदिया जाय। उस वक्त मुझिे यह ध्यान न रहा

िक संकोच में आदिमी इच्छा होने पर भी ‘नहीं-नहीं’ करता है। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें बहुत िदिनों तक इंतजार न

करना पड़ेगा।’

जालपा ने सिचत नजरों से देखकर कहा,तो क्या उधार लाओग?’

रमानाथ—‘हां, उधार लाने में कोई हजर्च नहीं है। जब सूदि नहीं देना है, तो जैसे नगदि वैसे उधार। ऋण से

दुर्िनया का काम चलता है। कौन ऋण नहीं लेता!हाथ में रूपया आ जाने से अलल्ले-तलल्ले खचर्च हो जाते ह। कजर्च

िसर पर सवार रहेगा, तो उसकी िचता हाथ रोके रहेगी।‘

जालपा—‘मैं तुम्हें िचता में नहीं डालना चाहती। अब मैं भूलकर भी गहनों का नाम न लूंगी।’

रमानाथ—‘नाम तो तुमने कभी नहीं िलया, लेिकन तुम्हारे नाम न लेने से मेरे कतर्चव्य का अंत तो नहीं हो

जाता। तुम कजर्च से व्यथर्च इतना डरती हो रूपये जमा होने के इंतजार में बैठा रहूंगा, तो शायदि कभी न जमा होंग।

इसी तरह लेतेदेते साल में तीन-चार चीज़ं बन जाएंगी।’

जालपा—‘मगर पहले कोई छोटी-सी चीज़ लाना।’

रमानाथ—‘हां, ऐसा तो करूंगा ही।’

रमा बाज़ार चला, तो खूब अंधेरा हो गया था। िदिन रहते जाता तो संभव था, िमत्रों में से िकसी की िनगाह

उस पर पड़ जाती। मुंशी दियानाथ ही देख लेते। वह इस मामले को गुप्त ही रखना चाहता था।

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तेरह

सराफे में गंगू की दुर्कान मशहूर थी। गंगू था तो ब्राह्मण, पर बडा ही व्यापारकुशल! उसकी दुर्कान पर

िनत्य गाहकों का मेला लगा रहता था। उसकी कमर्चिनष्ठा गाहकों में िवश्वास पैदिा करती थी। और दुर्कानों पर ठग

जाने का भय था। यहां िकसी तरह का धोखा न था। गंगू ने रमा को देखते ही मुस्कराकर कहा, ‘आइए बाबूजी,

ऊपर आइए। बडी दिया की। मुनीमजी, आपके वास्ते पान मंगवाओ। क्या हुक्म है बाबूजी, आप तो जैसे मुझिसे

नाराज ह। कभी आते ही नहीं, गरीबों पर भी कभी-कभी दिया िकया कीिजए।‘

गंगू की िशष्टता ने रमा की िहम्मत खोल दिी। अगर उसने इतने आग्रह से न बुलाया होता तो शायदि रमा को

दुर्कान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न हुआ था। दुर्कान पर जाकर बोला,

‘यहां हम जैसे मजदूरों का कहां गुज़र है, महाराज! गांठ में कुछ हो भी तो!

गंगू—‘यह आप क्या कहते ह सरकार, आपकी दुर्कान है, जो चीज़ चािहए ले जाइए, दिाम आग-पीछे िमलते

रहेंग। हम लोग आदिमी पहचानते ह बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धान्य भाग िक आप हमारी दुर्कान पर आए

तो। िदिखाऊं कोई जडाऊ चीज़? कोई कंगन, कोई हार- अभी हाल ही में िदिल्ली से माल आया है।’

रमानाथ—‘कोई हलके दिामों का हार िदिखाइए।’

गंगू—‘यही कोई सात-आठ सौ तक?’

रमानाथ—‘अजी नहीं, हदि चार सौ तक।’

गंगू—‘मैं आपको दिोनों िदिखाए देता हूं। जो पसंदि आव, ले लीिजएगा। हमारे यहां िकसी तरह का दिफलगसल नहीं बाबू साहब! इसकी आप ज़रा भी िचता न कर। पांच बरस का लड़का हो या सौ बरस का बूढ़ा, सबके

साथ एक बात रखते ह। मािलक को भी एक िदिन मुंह िदिखाना है, बाबू!’

संदूक सामने आया, गंगू ने हार िनकाल-िनकालकर िदिखाने शुरू िकए। रमा की आंखें खुल गई, जी लोटपोट हो गया। क्या सगाई थी! नगीनों की िकतनी सुंदिर सजावट! कैसी आब-ताब! उनकी चमक दिीपक को मात

करती थी। रमा ने सोच रखा था सौ रूपये से ज्यादिा उधार न लगाऊंगा, लेिकन चार सौ वाला हार आंखों में कुछ

जंचता न था। और जेब में द्दः तीन सौ रूपये थ। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसंदि न िकया, तो

फायदिा ही क्या? ऐसी चीज़ ले जाऊं िक वह देखते ही भड़क उठे। यह जडाऊ हार उसकी गदिर्चन में िकतनी शोभा

देगा। वह हार एक सहस्र मिण-रंिजत नजरों से उसके मन को खींचने लगा। वह अिभभूत होकर उसकी ओर ताक

रहा था, पर मुंह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रूपये उधार लगाने से इंकार कर

िदिया, तो उसे िकतना लिज्जत होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा, ‘आपके लायक तो बाबूजी

यही चीज़ है, अंधेरे घर में रख दिीिजए, तो उजाला हो जाय।‘

रमानाथ—‘पसंदि तो मुझिे भी यही है, लेिकन मेरे पास कुल तीन सौ रूपये ह, यह समझि लीिजए।

शमर्च से रमा के मुंह पर लाली छा गई। वह धड़कते हुए ह्रदिय से गंगू का मुंह देखने लगा।गंगू ने िनष्कपट

भाव से कहा, ‘बाबू साहब, रूपये का तो िज़क ही न कीिजए। किहए दिस हज़ार का माल साथ भेज दूं। दुर्कान

आपकी है, भला कोई बात है? हुक्म हो, तो एक-आधा चीज़ और िदिखाऊं? एक शीशफूल अभी बनकर आया है,

बस यही मालूम होता है, गुलाब का फल िखला हुआ है। देखकर जी खुश हो जाएगा। मुनीमजी, ज़रा वह

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शीशफूल िदिखाना तो। और दिाम का भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगा।‘

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘महाराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उल्ट छुरे से न मूंड़ लेना, गहनों के मामले में

िबलकुल अनाड़ी हूं। ‘

गंगू—‘ऐसा न कहो बाबूजी, आप चीज़ ले जाइए, बाज़ार में िदिखा लीिजए, अगर कोई। ढाई सौ से कौड़ी कम में

दे दे, तो मैं मुफ्त दे दूंगा। शीशफूल आया, सचमुच गुलाब का फूल था, िजस पर हीरे की किलयां ओस की बूंदिों के

समान चमक रही थीं। रमा की टकटकी बंध गई, मानो कोई अलौिकक वस्तु सामने आ गई हो ।

गंगू—‘बाबूजी, ढाई सौ रूपये तो कारीगर की सगाई के इनाम ह। यह एक चीज़ है।‘

रमानाथ—‘हां, है तो सुंदिर, मगर भाई ऐसा न हो, िक कल ही से दिाम का तकाजा करने लगो। मैं खुदि ही

जहां तक हो सकेगा, जल्दिी दे दूंगा।‘

गंगू ने दिोनों चीजें दिो सुंदिर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दिीं। िफर मुनीमजी से नाम टंकवाया और

पान िखलाकर िवदिा िकया। रमा के मनोल्लास की इस समय सीमा न थी, िकतु यह िवशुद्धि उल्लास न था, इसमें

एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंदि न था िजसने माता से पैसे मांगकर िमठाई ली हो;

बिल्क उस बालक का, िजसने पैसे चुराकर ली हो, उसे िमठाइयां मीठी तो लगती ह, पर िदिल कांपता रहता है िक

कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लग। साढ़े छः सौ रूपये चुका देने की तो उसे िवशष िचता न थी, घात लग जाय

तो वह छः महीने में चुका देगा। भय यही था िक बाबूजी सुनेंग तो जरूर नाराज़ होंग, लेिकन ज्यों-ज्यों आग

बढ़ता था, जालपा को इन आभूषणों से सुशोिभत देखने की उत्कंठा इस शंका पर िवजय पाती थी। घर पहुंचने की

जल्दिी में उसने सड़क छोड़ दिी, और एक गली में घुस गया। सघन अंधेरा छाया हुआ था। बादिल तो उसी वक्त

छाए हुए थ, जब वह घर से चला था। गली में घुसा ही था, िक पानी की बूंदि िसर पर छरे की तरह पड़ी। जब

तक छतरी खोले, वह लथपथ हो चुका था। उसे शंका हुई, इस अंधकारमें कोई आकर दिोनों चीज़ं छीन न ले, पानी

की झिरझिर में कोई आवाज़ भी न सुने। अंधेरी गिलयों में खून तक हो जाते ह। पछताने लगा, नाहक इधर से

आया। दिो-चार िमनट देर ही में पहुंचता, तो ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामियक वृतिष्ट ने उसकी आनंदि-

कल्पनाआं में बाधा डाल दिी। िकसी तरह गली का अंत हुआ और सड़क िमली। लालटनें िदिखाई दिीं। प्रकाश िकतनी

िवश्वास उत्पन्न करने वाली शिक्त है, आज इसका उसे यथाथर्च अनुभव हुआ। वह घर पहुंचा तो दियानाथ बैठे

हुक्का पी रहे थ। वह उस कमरे में न गया। उनकी आंख बचाकर अंदिर जाना चाहता था िक उन्होंने टोका, ‘इस

वक्त कहां गए थ?‘

रमा ने उन्हें कुछ जवाब न िदिया। कहीं वह अख़बार सुनाने लग, तो घंटों की खबर लेंग। सीधा अंदिर जा

पहुंचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरंत उसके हाथ से छतरी ले ली और बोली, ‘तुम तो

िबलकुल भीग गए। कहीं ठहर क्यों न गए।‘

रमानाथ—‘पानी का क्या िठकाना, रात-भर बरसता रहे।‘

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझिा था, जालपा भी पीछेपीछे आती होगी, पर वह नीचे

बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की यादि ही नहीं है। जैसे वह िबलकुल भूल गई है िक रमा

सराफे से आया है। रमा ने कपड़े बदिले और मन में झिुंझिलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दियानाथ भोजन

करने आ गए। सब लोग भोजन करने बैठ गए। जालपा ने ज़ब्त तो िकया था, पर इस उत्कंठा की दिशा में आज

उससे कुछ खाया न गया। जब वह ऊपर पहुंची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से

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बोला, ‘आज सराफे का जाना तो व्यथर्च ही गया। हार कहीं तैयार ही न था। बनाने को कह आया हूं। जालपा की

उत्साह से चमकती हुई मुख-छिव मिलन पड़ गई, बोली, ‘वह तो पहले ही जानती थी। बनते-बनते पांच-छः

महीने तो लग ही जाएंग।‘

रमानाथ—‘नहीं जी, बहुत जल्दि बना देगा, कसम खा रहा था।‘

जालपा—‘ऊह, जब चाहे दे! ‘

उत्कंठा की चरम सीमा ही िनराशा है। जालपा मुंह उधरकर लेटने जा रही थी, िक रमा ने ज़ोर से कहकहा

मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझि गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कराती हुई बोली, ‘तुम भी बडे नटखट हो क्या

लाए?

रमानाथ—‘ कैसा चकमा िदिया?’

जालपा—‘यह तो मरदिों की आदित ही है, तुमने नई बात क्या की?’

जालपा दिोनों आभूषणों को देखकर िनहाल हो गई। ह्रदिय में आनंदि की लहर-सी उठने लगीं। वह मनोभावों

को िछपाना चाहती थी िक रमा उसे ओछी न समझिे, लेिकन एक-एक अंग िखल जाता था। मुस्कराती हुई आंखें,

दिमकते हुए कपोल और िखले हुए अधर उसका भरम गंवाए देते थ। उसने हार गले में पहना, शीशफल जूड़े में

सजाया और हषर्च से उन्मत्ति होकर बोली, ‘तुम्हें आशीवादि देती हूं, ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी करे।‘

आज जालपा की वह अिभलाषा पूरी हुई, जो बचपन ही से उसकी कल्पनाआं का एक स्वप्न, उसकी आशाआं का

कीडास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यिदि मानकी यहां होती, तो वह सबसे पहले यह हार

उसे िदिखाती और कहती, ‘तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो! ‘

रमा पर घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली

बार उसे िवजय का आनंदि प्राप्त हुआ। जालपा ने पूछा, ‘जाकर अम्मांजी को िदिखा आऊं?

रमा ने नमता से कहा, ‘अम्मां को क्या िदिखाने जाओगी। ऐसी कौन-सी बडी चीज़ं ह।

जालपा—‘अब मैं तुमसे साल-भर तक और िकसी चीज़ के िलए न कहूंगी। इसके रूपये देकर ही मेरे िदिल

का बोझि हल्का होगा।‘

रमा गवर्च से बोला, ‘रूपये की क्या िचता! ह ही िकतने! ‘

जालपा—‘ज़रा अम्मांजी को िदिखा आऊं, देखें क्या कहती ह! ‘

रमानाथ—‘मगर यह न कहना, उधार लाए ह।‘

जालपा इस तरह दिौड़ी हुई नीचे गई, मानो उसे वहां कोई िनिध िमल जायगी।

आधी रात बीत चुकी थी। रमा आनंदि की नींदि सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश की

ओर देखा। िनमर्चल चांदिनी िछटकी हुई थी,वह काितक की चांदिनी िजसमें संगीत की शांित ह, शांित का माधुयर्च

और माधुयर्च का उन्मादिब जालपा ने कमरे में आकर अपनी संदूकची खोली और उसमें से वह कांच का चन्द्रहार

िनकाला िजसे एक िदिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नए चन्द्रहार के सामने उसकी

चमक उसी भांित मंदि पड़ गई थी, जैसे इस िनमर्चल चन्द्रज्योित के सामने तारों का आलोकब उसने उस नकली हार

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को तोड़ डाला और उसके दिानों को नीचे गली में गंक िदिया, उसी भांित जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बादि कोई

उपासक िमट्टी की मूितयों को जल में िवसिजत कर देता है।

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चौदह

उस िदिन से जालपा के पित-स्नेह में सेवा-भाव का उदिय हुआ। वह स्नान करने जाता, तो उसे अपनी धोती

चुनी हुई िमलती। आले पर तेल और साबुन भी रक्खा हुआ पाता। जब दिफ्तर जाने लगता, तो जालपा उसके

कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान मांगने पर िमलते थ, अब ज़बरदिस्ती िखलाए जाते थ। जालपा उसका

रूख देखा करती। उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहां तक िक जब वह भोजन करने बैठता, तो वह पंखा झिला

करती। पहले वह बडी अिनच्छा से भोजन बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बडे प्रेम

से रसोई में जाती। चीजें अब भी वही बनती थीं, पर उनका स्वादि बढ़गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने

वह दिो गहने बहुत ही तुच्छ जंचते थ।

उधर िजस िदिन रमा ने गंगू की दुर्कान से गहने ख़रीदे, उसी िदिन दूसरे सराफों को भी उसके आभूषण-प्रेम

की सूचना िमल गई। रमा जब उधर से िनकलता, तो दिोनों तरफ से दुर्कानदिार उठ-उठकर उसे सलाम करते,

‘आइए बाबूजी, पान तो खाते जाइए। दिो-एक चीज़ं हमारी दुर्कान से तो देिखए।‘

रमा का आत्म-संयम उसकी साख को और भी बढ़ाता था। यहां तक िक एक िदिन एक दिलाल रमा के घर

पर आ पहुंचा, और उसके नहीं-नहीं करने पर भी अपनी संदूकची खोल ही दिी।

रमा ने उससे पीछा छुडाने के िलए कहा, ‘भाई, इस वक्त मुझिे कुछ नहीं लेना है। क्यों अपना और मेरा

समय नष्ट करोग। दिलाल ने बडे िवनीत भाव से कहा, ‘बाबूजी, देख तो लीिजए। पसंदि आए तो लीिजएगा, नहीं

तो न लीिजएगा। देख लेने में तो कोई हजर्च नहीं है। आिखर रईसों के पास न जायं, तो िकसके पास जायं। औरों ने

आपसे गहरी रकमें मारीं, हमारे भाग्य में भी बदिा होगा, तो आपसे चार पैसा पा जाएंग। बहूजी और माईजी को

िदिखा लीिजए! मेरा मन तो कहता है िक आज आप ही के हाथों बोहनी होगी।‘

रमानाथ—‘औरतों के पसंदि की न कहो, चीज़ं अच्छी होंगी ही। पसंदि आते क्या देर लगती है, लेिकन भाई,

इस वक्त हाथ ख़ाली है।‘

दिलाल हंसकर बोला, ‘बाबूजी, बस ऐसी बात कह देते ह िक वाह! आपका हुक्म हो जाय तो हज़ार-पांच

सौ आपके ऊपर िनछावर कर दें। हम लोग आदिमी का िमज़ाज देखते ह, बाबूजी! भगवान् ने चाहा तो आज मैं

सौदिा करके ही उठूंगा।‘

दिलाल ने संदूकची से दिो चीज़ं िनकालीं, एक तो नए फैशन का जडाऊ कंगन था और दूसरा कानों का िरग

दिोनों ही चीजें अपूवर्च थीं। ऐसी चमक थी मानो दिीपक जल रहा हो दिस बजे थ, दियानाथ दिफ्तर जा चुके थ, वह

भी भोजन करने जा रहा था। समय िबलकुल न था, लेिकन इन दिोनों चीज़ों को देखकर उसे िकसी बात की सुध

ही न रही। दिोनों केस िलये हुए घर में आया। उसके हाथ में केस देखते ही दिोनों िस्त्रयां टूट पड़ीं और उन चीज़ों को

िनकाल-िनकालकर देखने लगीं। उनकी चमक-दिमक ने उन्हें ऐसा मोिहत कर िलया िक गुण-दिोष की िववेचना

करने की उनमें शिक्त ही न रही।

जागश्वरी—‘आजकल की चीज़ों के सामने तो पुरानी चीज़ं कुछ जंचती ही नहीं।

जालपा—‘मुझिे तो उन पुरानी चीज़ों को देखकर कै आने लगती है। न जाने उन िदिनों औरतें कैसे पहनती

थीं।‘

रमा ने मुस्कराकर कहा,’तो दिोनों चीज़ं पसंदि ह न?’

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जालपा—‘पसंदि क्यों नहीं ह, अम्मांजी, तुम ले लो।’

जागश्वरी ने अपनी मनोव्यथा िछपाने के िलए िसर झिुका िलया। िजसका सारा जीवन ग!हस्थी की िचताआं

में कट गया, वह आज क्या स्वप्न में भी इन गहनों के पहनने की आशा कर सकती थी! आह! उस दुर्िखया के

जीवन की कोई साध ही न पूरी हुई। पित की आय ही कभी इतनी न हुई िक बाल-बच्चों के पालन-पोषण के

उपरांत कुछ बचता। जब से घर की स्वािमनी हुई, तभी से मानो उसकी तपश्चया का आरंभ हुआ और सारी

लालसाएं एक-एक करके धूल में िमल गई। उसने उन आभूषणों की ओर से आंखें हटा लीं। उनमें इतना आकषर्चण

था िक उनकी ओर ताकते हुए वह डरती थी। कहीं उसकी िवरिक्त का परदिा न खुल जाय। बोली,’मैं लेकर क्या

करूंगी बेटी, मेरे पहनने-ओढ़ने के िदिन तो िनकल गए। कौन लाया है बेटा? क्या दिाम ह इनके?’

रमानाथ—‘एक सराफ िदिखाने लाया है, अभी दिाम-आम नहीं पूछे, मगर ऊंचे दिाम होंग। लेना तो था ही

नहीं, दिाम पूछकर क्या करता ?’

जालपा—‘लेना ही नहीं था, तो यहां लाए क्यों?’

जालपा ने यह शब्दि इतने आवेश में आकर कहे िक रमा िखिसया गया। उनमें इतनी उत्तिेजना, इतना

ितरस्कार भरा हुआ था िक इन गहनों को लौटा ले जाने की उसकी िहम्मत न पड़ी। बोला,तो ले लूं?’

जालपा—‘अम्मां लेने ही नहीं कहतीं तो लेकर क्या करोग- क्या मुफ्त में दे रहा है?’

रमानाथ—‘समझि लो मुफ्त ही िमलते ह।‘

जालपा—‘सुनती हो अम्मांजी, इनकी बातें। आप जाकर लौटा आइए। जब हाथ में रूपये होंग, तो बहुत

गहने िमलेंग।‘

जागश्वरी ने मोहासक्त स्वर में कहा,’रूपये अभी तो नहीं मांगता?’

जालपा—‘उधार भी देगा, तो सूदि तो लगा ही लेगा?’

रमानाथ—‘तो लौटा दूं- एक बात चटपट तय कर डालो। लेना हो, ले लो, न लेना हो, तो लौटा दिो। मोह

और दुर्िवधा में न पड़ो…’

जालपा को यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुंह से उसे ऐसी आशा न थी। इंकार

करना उसका काम था, रमा को लेने के िलए आग्रह करना चािहए था। जागश्वरी की ओर लालाियत नजरों से

देखकर बोली,’लौटा दिो। रात-िदिन के तकाज़े कौन सहेगा।‘

वह केसों को बंदि करने ही वाली थी िक जागश्वरी ने कंगन उठाकर पहन िलया, मानो एक क्षण-भर पहनने

से ही उसकी साध पूरी हो जायगी। िफर मन में इस ओछेपन पर लिज्जत होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी

िक रमा ने कहा, ‘अब तुमने पहन िलया है अम्मां, तो पहने रहो मैं तुम्हें भेंट करता हूं।‘

जागश्वरी की आंखें सजल हो गई। जो लालसा आज तक न पूरी हो सकी, वह आज रमा की मातृत-भिक्त से

पूरी हो रही थी, लेिकन क्या वह अपने िप्रय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझि रख देगी ?अभी वह बेचारा

बालक है, उसकी सामथ्यर्च ही क्या है? न जाने रूपये जल्दि हाथ आएं या देर में। दिाम भी तो नहीं मालूम। अगर

ऊंचे दिामों का हुआ, तो बेचारा देगा कहां से- उसे िकतने तकाज़े सहने पड़ंग और िकतना लिज्जत होना पड़ेगा।

कातर स्वर में बोली, ‘नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन िलया था। ले जाओ, लौटा दिो।‘

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माता का उदिास मुख देखकर रमा का ह्रदिय मातृत-प्रेम से िहल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी

त्यागमूित माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा?माता के प्रित उसका कुछ कतर्चव्य भी तो है? बोला,रूपये बहुत

िमल जाएंग अम्मां, तुम इसकी िचता मत करो। जागश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी िक रमा मुझि

पर िकतना अत्याचार कर रहा है। जालपा उदिासीन भाव से बैठी थी। कदिािचत उसे भय हो रहा था िक माताजी

यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें जागश्वरी को संदेह नहीं रहा। उसने

तुरंत कंगन उतार डाला, और जालपा की ओर बढ़ाकर बोली,’मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूं, मुझिे जो कुछ

पहनना-ओढ़ना था, ओढ़-पहन चुकी। अब ज़रा तुम पहनो, देखूं,’

जालपा को इसमें ज़रा भी संदेह न था िक माताजी के पास रूपये की कमी नहीं। वह समझिी, शायदि आज

वह पसीज गई ह और कंगन के रूपए दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझिा था िक रूपये रमा को देने पड़ंग,

इसीिलए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दिाम चुका रही थीं, तो वह क्यों

इंकार करती, मगर ऊपरी मन से बोली,’ रूपये न हों, तो रहने दिीिजए अम्मांजी, अभी कौन जल्दिी है?’

रमा ने कुछ िचढ़कर कहा,’तो तुम यह कंगन ले रही हो?’

जालपा—‘अम्मांजी नहीं मानतीं, तो मैं क्या करूं?

रमानाथ—‘और ये िरग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतीं?’

जालपा—‘जाकर दिाम तो पूछ आओ।

रमा ने अधीर होकर कहा,’तुम इन चीज़ों को ले जाओ, तुम्हें दिाम से क्या मतलब!’

रमा ने बाहर आकर दिलाल से दिाम पूछा तो सन्नाट में आ गया। कंगन सात सौ के थ, और िरग डेढ़ सौ के,

उसका अनुमान था िक कंगन अिधकसे-अिधक तीन सौ के होंग और िरग चालीस-पचास रूपये के, पछताए िक

पहले ही दिाम क्यों न पूछ िलए, नहीं तो इन चीज़ों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती? उधारते हुए शमर्च

आती थी, मगर कुछ भी हो, उधारना तो पड़ेगा ही। इतना बडा बोझि वह िसर पर नहीं ले सकता दिलाल से

बोला, ‘बडे दिाम ह भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही आंका था।‘

दिलाल का नाम चरनदिास था। बोला,दिाम में एक कौड़ी फरक पड़ जाय सरकार, तो मुंह न िदिखाऊं। धनीराम की

कोठी का तो माल है, आप चलकर पूछ लें। दिमड़ी रूपये की दिलाली अलबत्तिा मेरी है, आपकी मरज़ी हो दिीिजए

या न दिीिजए।‘

रमानाथ—‘तो भाई इन दिामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी ह।‘

चरनदिास—‘ऐसी बात न किहए, बाबूजी! आपके िलए इतने रूपये कौन बडी बात है। दिो महीने भी माल

चल जाय तो उसके दूने हाथ आ जायंग। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा। यह सब रईसों के ही पसंदि की चीज़ं

ह। गंवार लोग इनकी कद्र क्या जानें।‘

रमानाथ—‘साढ़े आठ सौ बहुत होते ह भई!‘

चरनदिास—‘रूपयों का मुंह न देिखए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठंगी, तो एक िनगाह में सारे रूपये तर

जायंग।‘

रमा को िवश्वास था िक जालपा गहनों का यह मूल्य सुनकर आप ही िबचक जायगी। दिलाल से और ज्यादिा

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बातचीत न की। अंदिर जाकर बडे ज़ोर से हंसा और बोला, ‘आपने इस कंगन का क्या दिाम समझिा था, मांजी?’

जागश्वरी कोई जवाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी,इन जडाऊ चीज़ों में नाप-तौल का तो कुछ

िहसाब रहता नहीं िजतने में तै हो जाय, वही ठीक है।

रमानाथ—‘अच्छा, तुम बताओ जालपा, इस कंगन का िकतना दिाम आंकती हो? ’

जालपा—‘छः सौ से कम का नहीं।’

रमा का सारा खेल िबगड़ गया। दिाम का भय िदिखाकर रमा ने जालपा को डरा देना चाहा था, मगर छः

और सात में बहुत थोडा ही अंतर था। और संभव है चरनदिास इतने ही पर राज़ी हो जाय। कुछ झिंपकर

बोला,कच्चे नगीने नहीं ह।’

जालपा—‘कुछ भी हो, छः सौ से ज्यादिा का नहीं।’

रमानाथ—‘और िरग का? ’

जालपा—‘अिधक से अिधक सौ रूपये! ’

रमानाथ—‘यहां भी चूकीं, डेढ़सौ मांगता है।’

जालपा—‘जट्टू है कोई, हमें इन दिामों लेना ही नहीं।

रमा की चाल उल्टी पड़ी, जालपा को इन चीज़ों के मूल्य के िवषय में बहुत धोखा न हुआ था। आिख़र रमा

की आिथक दिशा तो उससे िछपी न थी, िफर वह सात सौ रूपये की चीजों के िलए मुंह खोले बैठी थी। रमा को

क्या मालूम था िक जालपा कुछ और ही समझिकर कंगन पर लहराई थी। अब तो गला छूटने का एक ही उपाय

था और वह यह िक दिलाल छः सौ पर राज़ी न हो बोला, ‘वह साढ़े आठ से कौड़ी कम न लेगा।‘

जालपा—‘तो लौटा दिो।‘

रमानाथ—‘मुझिे तो लौटाते शमर्च आती है। अम्मां, ज़रा आप ही दिालान में चलकर कह दें, हमें सात सौ से

ज्यादिा नहीं देना है। देना होता तो दे दिो, नहीं चले जाओ।‘

जागश्वरी--’हां रे, क्यों नहीं, उस दिलाल से मैं बातें करने जाऊं! ‘

जालपा—‘तुम्हीं क्यों नहीं कह देते, इसमें तो कोई शमर्च की बात नहीं।‘

रमानाथ—‘मुझिसे साफ जवाब न देते बनेगा। दुर्िनया-भर की खुशामदि करेगा। चुनी चुना,आप बडे आदिमी

ह, रईस ह, राजा ह। आपके िलए डेढ़सौ क्या चीज़ है। मैं उसकी बातों में आ जाऊंगा। ‘

जालपा—‘अच्छा, चलो मैं ही कहे देती हूं।‘

रमानाथ—‘वाह, िफर तो सब काम ही बन गया।

रमा पीछे दुर्बक गया। जालपा दिालान में आकर बोली, ‘ज़रा यहां आना जी, ओ सराफ! लूटने आए हो, या

माल बेचने आए हो! ‘

चरनदिास बरामदे से उठकर द्वार पर आया और बोला, ‘क्या हुक्म है, सरकार।

जालपा—‘माल बेचने आते हो, या जटने आते हो? सात सौ रूपये कंगन के मांगते हो? ‘

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चरनदिास—‘सात सौ तो उसकी कारीगरी के दिाम ह, हूजूर! ‘

जालपा—‘अच्छा तो जो उस पर सात सौ िनछावर कर दे, उसके पास ले जाओ। िरग के डेढ़सौ कहते हो,

लूट है क्या? मैं तो दिोनों चीज़ों के सात सौ

से अिधक न दूंगी।

चरनदिास—‘बहूजी, आप तो अंधेर करती ह। कहां साढ़े आठ सौ और कहां सात सौ? ‘

जालपा—‘तुम्हारी खुशी, अपनी चीज़ ले जाओ।‘

चरनदिास—‘इतने बडे दिरबार में आकर चीज़ लौटा ले जाऊं?’ आप यों ही पहनें। दिस-पांच रूपये की बात

होती, तो आपकी ज़बान ने उधरता। आपसे झिूठ नहीं कहता बहूजी, इन चीज़ों पर पैसा रूपया नगदि है। उसी एक

पैसे में दुर्कान का भाडा, बका-खाता, दिस्तूरी, दिलाली सब समिझिए। एक बात ऐसी समझिकर किहए िक हमें भी

चार पैसे िमल जाएं ।सवेरे-सवेरे लौटना न पड़े।

जालपा—‘कह िदिए, वही सात सौ।‘

चरनदिास ने ऐसा मुंह बनाया, मानो वह िकसी धमर्च-संकट में पड़ गया है। िफर बोला—‘सरकार, है तो

घाटा ही, पर आपकी बात नहीं टालते बनती। रूपये कब िमलेंग?’

जालपा—‘जल्दिी ही िमल जायंग।’

जालपा अंदिर जाकर बोली—‘आिख़र िदिया िक नहीं सात सौ में- डेढ़सौ साफ उडाए िलए जाता था। मुझिे

पछतावा हो रहा है िक कुछ और कम क्यों न कहा। वे लोग इस तरह गाहकों को लूटते ह।’

रमा इतना भारी बोझि लेते घबरा रहा था, लेिकन पिरिस्थित ने कुछ ऐसा रंग पकडा िक बोझि उस पर लदि

ही गया। जालपा तो खुशी की उमंग में दिोनों चीजें िलये ऊपर चली गई, पर रमा िसर झिुकाए िचता में डूबा

खडाथा। जालपा ने उसकी दिशा जानकर भी इन चीज़ों को क्यों ठुकरा नहीं िदिया, क्यों ज़ोर देकर नहीं कहा—‘ मैं

न लूंगी, क्यों दुर्िवधो में पड़ी रही। साढ़े पांच सौ भी चुकाना मुिश्कल था, इतने और कहां से आएंग।‘

असल में ग़लती मेरी ही है। मुझिे दिलाल को दिरवाजे से ही दुर्त्कार देना चािहए था। लेिकन उसने मन को

समझिाया। यह अपने ही पापों का तो प्रायिश्चत है। िफर आदिमी इसीिलए तो कमाता है। रोिटयों के लाले थोड़े ही

थ? भोजन करके जब रमा ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जालपा आईने के सामने खड़ी कानों में िरग पहन रही

थी। उसे देखते ही बोली —‘आज िकसी अच्छे का मुंह देखकर उठी थी। दिो चीज़ं मुफ्त हाथ आ गई।‘

रमा ने िवस्मय से पूछा , ‘मुफ्त क्यों? रूपये न देने पड़ंग? ‘

जालपा—‘रूपये तो अम्मांजी देंगी? ‘

रमानाथ—‘क्या कुछ कहती थीं? ‘

जालपा—‘उन्होंने मुझिे भेंट िदिए ह, तो रूपये कौन देगा? ‘

रमा ने उसके भोलेपन पर मुस्कराकर कहा, यही समझिकर तुमने यह चीज़ं ले लीं ? अम्मां को देना होता

तो उसी वक्त दे देतीं जब गहने चोरी गए थ।क्या उनके पास रूपये न थ?‘

जालपा असमंजस में पड़कर बोली, तो मुझिे क्या मालूम था। अब भी तो लौटा सकते हो कह देना, िजसके

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िलए िलया था, उसे पसंदि नहीं आया। यह कहकर उसने तुरंत कानों से िरग िनकाल िलए। कंगन भी उतार डाले

और दिोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ाई, जैसे कोई िबल्ली चूहे से खेल रही हो वह चूहे को

अपनी पकड़ से बाहर नहीं होने देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था।

क्या उसके ह्रदिय की भी यही दिशा न थी? उसके मुख पर हवाइयां उड़ रही थीं। क्यों वह रमा की ओर न देखकर

भूिम की ओर देख रही थी - क्यों िसर ऊपर न उठाती थी? िकसी संकट से बच जाने में जो हािदिक आनंदि होता

है, वह कहां था? उसकी दिशा ठीक उस माता की-सी थी, जो अपने बालक को िवदेश जाने की अनुमित दे रही हो

वही िववशता, वही कातरता, वही ममता इस समय जालपा के मुख पर उदिय हो रही थी। रमा उसके हाथ से

केसों को ले सके, इतना कडा संयम उसमें न था। उसे तकाज़े सहना, लिज्जत होना, मुंह िछपाए िफरना, िचता की

आग में जलना, सब कुछ सहना मंजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था िजससे जालपा का िदिल टूट जाए, वह

अपने को अभािगन समझिने लग। उसका सारा ज्ञान, सारी चेष्टा, सारा िववेक इस आघात का िवरोध करने लगा।

प्रेम और पिरिस्थितयों के संघषर्च में प्रेम ने िवजय पाई।

उसने मुस्कराकर कहा, ‘रहने दिो, अब ले िलया है, तो क्या लौटाएं। अम्मांजी भी हंसेंगी।

जालपा ने बनावटी कांपते हुए कंठ से कहा,अपनी चादिर देखकर ही पांव फैलाना चािहए। एक नई िवपित्ति

मोल लेने की क्या जरूरत है! रमा ने मानो जल में डूबते हुए कहा, ईश्वर मािलक है। और तुरंत नीचे चला गया।

हम क्षिणक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांित का कैसे होम कर देते ह! अगर जालपा

मोह के इस झिोंके में अपने को िस्थर रख सकती, अगर रमा संकोच के आग िसर न झिुका देता, दिोनों के ह्रदिय में

प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ-भ्रष्ट होकर सवर्चनाश की ओर न जाते। ग्यारह बज गए थ। दिफ्तर के िलए

देर हो रही थी, पर रमा इस तरह जा रहा था, जैसे कोई अपने िप्रय बंधु की दिाह-िकया करके लौट रहा हो।

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पन्द्रह

जालपा अब वह एकांतवािसनी रमणी न थी, जो िदिन-भर मुंह लपेट उदिास पड़ी रहती थी। उसे अब घर में

बैठना अच्छा नहीं लगता था। अब तक तो वह मजबूर थी, कहीं आ-जा न सकती थी। अब ईश्वर की दिया से उसके

पास भी गहने हो गए थ। िफर वह क्यों मन मारे घर में पड़ी रहती। वस्त्राभूषण कोई िमठाई तो नहीं िजसका

स्वादि एकांत में िलया जा सके। आभूषणों को संदूकची में बंदि करके रखने से क्या फायदिा। मुहल्ले या िबरादिरी में

कहीं से बुलावा आता, तो वह सास के साथ अवश्य जाती। कुछ िदिनों के बादि सास की जरूरत भी न रही। वह

अकेली आने-जाने लगी। िफर कायर्च-प्रयोजन की कैदि भी नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्र-आभूषण और शील-

िवनय ने मुहल्ले की िस्त्रयों में उसे जल्दिी ही सम्मान के पदि पर पहुंचा िदिया। उसके िबना मंडली सूनी रहती थी।

उसका कंठ-स्वर इतना कोमल था, भाषण इतना मधुर, छिव इतनी अनुपम िक वह मंडली की रानी मालूम होती

थी। उसके आने से मुहल्ले के नारी-जीवन में जान-सी पड़ गई। िनत्य ही कहीं-न-कहीं जमाव हो जाता। घंट-दिो

घंट गा- बजाकर या गपशप करके रमिणयां िदिल बहला िलया करतीं।कभी िकसी के घर, कभी िकसी के घर,

गागुन में पंद्रह िदिन बराबर गाना होता रहा। जालपा ने जैसा रूप पाया था, वैसा ही उदिार ह्रदिय भी पाया था।

पान-पत्तिों का ख़चर्च प्रायः उसी के मत्थ पड़ता। कभी-कभी गायनें बुलाई जातीं, उनकी सेवा-सत्कार का भार उसी

पर था। कभी-कभी वह िस्त्रयों के साथ गंगा-स्नान करने जाती, तांग का िकराया और गंगा-तट पर जलपान का

ख़चर्च भी उसके मत्थ जाता। इस तरह उसके दिो-तीन रूपये रोज़ उड़ जाते थ। रमा आदिशर्च पित था। जालपा अगर

मांगती तो प्राण तक उसके चरणों पर रख देता। रूपये की हैिसयत ही क्या थी? उसका मुंह जोहता रहता था।

जालपा उससे इन जमघटों की रोज़ चचा करती। उसका स्त्री-समाज में िकतना आदिर-सम्मान है, यह देखकर वह

फूला न समाता था।

एक िदिन इस मंडली को िसनेमा देखने की धुन सवार हुई। वहां की बहार देखकर सब-की-सब मुग्ध हो

गई। िफर तो आए िदिन िसनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक िसनेमा का शौक न था। शौक होता भी तो

क्या करता। अब हाथ में पैसे आने लग थ, उस पर जालपा का आग्रह, िफर भला वह क्यों न जाता- िसनेमा-गृतह

में ऐसी िकतनी ही रमिणयां िमलतीं, जो मुंह खोले िनसंकोच हंसती-बोलती रहती थीं। उनकी आज़ादिी गुप्तरूप

से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर िनकलते ही मुंह खोल लेती, मगर संकोचवश

परदेवाली िस्त्रयों के ही स्थान पर बैठती। उसकी िकतनी इच्छा होती िक रमा भी उसके साथ बैठता। आिख़र वह

उन फैशनेबुल औरतों से िकस बात में कम है? रूप-रंग में वह हेठी नहीं। सजधज में िकसी से कम नहीं। बातचीत

करने में कुशल। िफर वह क्यों परदेवािलयों के साथ बैठे। रमा बहुत िशिक्षत न होने पर भी देश और काल के

प्रभाव से उदिार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्य भक्त था, िक माता को कभी गंगा-स्नान कराने िलवा

जाता, तो पंडों तक से न बोलने देता। कभी माता की हंसी मदिाने में सुनाई देती, तो आकर िबगड़ता, तुमको ज़रा

भी शमर्च नहीं है अम्मां! बाहर लोग बैठे हुए ह, और तुम हंस रही हो, मां लिज्जत हो जाती थीं। िकतु अवस्था के

साथ रमा का यह िलहाज़ ग़ायब होता जाता था। उस पर जालपा की रूप-छटा उसके साहस को और भी

उभोिजत करती थी। जालपा रूपहीन, काली-कलूटी, फूहड़ होती तो वह ज़बरदिस्ती उसको परदे में बैठाता। उसके

साथ घूमने या बैठने में उसे शमर्च आती। जालपा-जैसी अनन्य सुंदिरी के साथ सैर करने में आनंदि के साथ गौरव भी

तो था। वहां के सभ्य समाज की कोई मिहला रूप, गठन और ऋंगारमें जालपा की बराबरी न कर सकती थी।

देहात की लडकी होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रंग गई थी, मानो जन्म से शहर ही में रहती आई है।

थोड़ी-सी कमी अंग्रेज़ी िशक्षा की थी,उसे भी रमा पूरी िकए देता था। मगर परदे का यह बंधन टूट कैसे। भवन में

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रमा के िकतने ही िमत्र, िकतनी ही जान - पहचान के लोग बैठे नज़र आते थ। वे उसे जालपा के साथ बैठे देखकर

िकतना हंसेंग। आिख़र एक िदिन उसने समाज के सामने ताल ठोंककर खड़े हो जाने का िनश्चय कर ही िलया।

जालपा से बोला, ‘आज हम-तुम िसनेमाघर में साथ बैठंग।’

जालपा के ह्रदिय में गुदिगुदिी-सी होने लगी। हािदिक आनंदि की आभा चेहरे पर झिलक उठी। बोली, ‘सच!

नहीं भाई, साथवािलयां जीने न देंगी।‘

रमानाथ—‘इस तरह डरने से तो िफर कभी कुछ न होगा। यह क्या स्वांग है िक िस्त्रयां मुंह िछपाए िचक

की आड़ में बैठी रहें।‘

इस तरह यह मामला भी तय हो गया। पहले िदिन दिोनों झिंपते रहे, लेिकन दूसरे िदिन से िहम्मत खुल गई।

कई िदिनों के बादि वह समय भी आया िक रमा और जालपा संध्या समय पाकर्क में साथ-साथ टहलते िदिखाई िदिए।

जालपा ने मुस्कराकर कहा,’कहीं बाबूजी देख लें तो?’

रमानाथ—‘तो क्या, कुछ नहीं।’

जालपा—‘मैं तो मारे शमर्च के गड़ जाऊं।’

रमानाथ-अभी तो मुझिे भी शमर्च आएगी, मगर बाबूजी खुदि ही इधर न आएंग।’

जालपा-‘और जो कहीं अम्मांजी देख लें!’

रमानाथ—‘अम्मां से कौन डरता है, दिो दिलीलों में ठीक कर दूंगा।’

दिस ही पांच िदिन में जालपा ने नए मिहला-समाज में अपना रंग जमा िलया। उसने इस समाज में इस तरह

प्रवेश िकया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार पिरषदि के मंच पर आता है। िवद्वान लोग उसकी उपेक्षा करने की

इच्छा होने पर भी उसकी प्रितभा के सामने िसर झिुका देते ह। जालपा भी ‘आई, देखा और िवजय कर िलया।’

उसके सौंदियर्च में वह गिरमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजिस्वता थी जो कुलीन मिहलाआं के लक्षण ह। पहले

ही िदिन एक मिहला ने जालपा को चाय का िनमांण दे िदिया और जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न

कर सकी। जब दिोनों प्राणी वहां से लौट, तो रमा ने िचितत स्वर में कहा, ‘तो कल इसकी चाय-पाटी में जाना

पड़ेगा?’

जालपा—‘क्या करती- इंकार करते भी तो न बनता था! ’

रमानाथ—‘तो सबेरे तुम्हारे िलए एक अच्छी-सी साड़ी ला दूं? ’

जालपा—‘क्या मेरे पास साड़ी नहीं है, ज़रा देर के िलए पचास-साठ रूपये खचर्च करने से फायदिा! ’

रमानाथ—‘तुम्हारे पास अच्छी साड़ी कहां है। इसकी साड़ी तुमने देखी?ऐसी ही तुम्हारे िलए भी लाऊंगा।’

जालपा ने िववशता के भाव से कहा,मुझिे साफ कह देना चािहए था िक फुरसत नहीं है।’

रमानाथ—‘िफर इनकी दिावत भी तो करनी पडेगी।’

जालपा—‘यह तो बुरी िवपित्ति गले पड़ी।’

रमानाथ—‘िवपित्ति कुछ नहीं है, िसफर्क यही ख़याल है िक मेरा मकान इस काम के लायक नहीं। मेज़,

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कुिसयां, चाय के सेट रमेश के यहां से मांग लाऊंगा, लेिकन घर के िलए क्या करूं ! ’

जालपा—‘क्या यह ज़रूरी है िक हम लोग भी दिावत कर?’

रमा ने ऐसी बात का कुछ उत्तिर न िदिया। उसे जालपा के िलए एक जूते की जोड़ी और सुंदिर कलाई की

घड़ी की िफक पैदिा हो गई। उसके पास कौड़ी भी न थी। उसका ख़चर्च रोज़ बढ़ता जाता था। अभी तक गहने वालों

को एक पैसा भी देने की नौबत न आई थी। एक बार गंगू महाराज ने इशारे से तकाजा भी िकया था, लेिकन यह

भी तो नहीं हो सकता िक जालपा फट हालों चाय- पाटी में जाय। नहीं, जालपा पर वह इतना अन्याय नहीं कर

सकता इस अवसर पर जालपा की रूप-शोभा का िसक्का बैठ जायगा। सभी तो आज चमाचम सािडयां पहने हुए

थीं। जडाऊ कंगन और मोितयों के हारों की भी तो कमी न थी, पर जालपा अपने सादे आवरण में उनसे कोसों

आग थी। उसके सामने एक भी नहीं जंचती थी। यह मेरे पूवर्च कमो का फल है िक मुझिे ऐसी सुंदिरी िमली। आिख़र

यही तो खाने-पहनने और जीवन का आनंदि उठाने के िदिन ह। जब जवानी ही में सुख न उठाया, तो बुढ़ापे में क्या

कर लेंग! बुढ़ापे में मान िलया धन हुआ ही तो क्या यौवन बीत जाने पर िववाह िकस काम का- साड़ी और घड़ी

लाने की उसे धुन सवार हो गई। रातभर तो उसने सब्र िकया। दूसरे िदिन दिोनों चीजें लाकर ही दिम िलया। जालपा

ने झिुंझिलाकर कहा, ‘मैंने तो तुमसे कहा था िक इन चीज़ों का काम नहीं है। डेढ़ सौ से कम की न होंगी?

रमानाथ—‘डेढ़सौ! इतना फजूल-ख़चर्च मैं नहीं हूं।‘

जालपा—‘डेढ़सौ से कम की ये चीज़ं नहीं ह।‘

जालपा ने घड़ी कलाई में बांधा ली और साड़ी को खोलकर मंत्रमुग्ध नजरों से देखा।

रमानाथ—‘तुम्हारी कलाई पर यह घड़ी कैसी िखल रही है! मेरे रूपये वसूल हो गए।

जालपा—‘सच बताओ, िकतने रूपये ख़चर्च हुए?

रमानाथ—‘सच बता दूं- एक सौ पैंतीस रूपये। पचहत्तिर रूपये की साड़ी, दिस के जूते और पचास की घड़ी।‘

जालपा—‘यह डेढ़ सौ ही हुए। मैंने कुछ बढ़ाकर थोड़े कहा था, मगर यह सब रूपये अदिा कैसे होंग? उस

चुडैल ने व्यथर्च ही मुझिे िनमंत्रण दे िदिया। अब मैं बाहर जाना ही छोड़ दूंगी।‘

रमा भी इसी िचता में मग्न था, पर उसने अपने भाव को प्रकट करके जालपा के हषर्च में बाधा न डाली।

बोला, सब अदिा हो जायगा। जालपा ने ितरस्कार के भाव से कहां,कहां से अदिा हो जाएगा, ज़रा सुनूं। कौड़ी तो

बचती नहीं, अदिा कहां से हो जायगा? वह तो कहो बाबूजी घर का ख़चर्च संभाले हुए ह, नहीं तो मालूम होता।

क्या तुम समझिते हो िक मैं गहने और सािडयों पर मरती हूं? इन चीज़ों को लौटा आओ। रमा ने प्रेमपूणर्च नजरों से

कहा, ‘इन चीज़ों को रख लो। िफर तुमसे िबना पूछे कुछ न लाऊंगा।‘

संध्या समय जब जालपा ने नई साड़ी और नए जूते पहने, घड़ी कलाई पर बांधी और आईने में अपनी सूरत

देखी, तो मारे गवर्च और उल्लास के उसका मुखमंडल प्रज्विलत हो उठा। उसने उन चीज़ों के लौटाने के िलए सच्चे

िदिल से कहा हो, पर इस समय वह इतना त्याग करने को तैयार न थी। संध्या समय जालपा और रमा छावनी की

ओर चले। मिहला ने केवल बंगले का नंबर बतला िदिया था। बंगला आसानी से िमल गया। गाटक पर साइनबोडर्च

था,’इन्दुर्भूषण, ऐडवोकेट, हाईकोटर्च’ अब रमा को मालूम हुआ िक वह मिहला पं. इन्दुर्भूषण की पत्नी थी।

पंिडतजी काशी के नामी वकील थ। रमा ने उन्हें िकतनी ही बार देखा था, पर इतने बडे आदिमी से पिरचय का

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सौभाग्य उसे कैसे होता! छः महीने पहले वह कल्पना भी न कर सकता था, िक िकसी िदिन उसे उनके घर

िनमंित्रत होने का गौरव प्राप्त होगा, पर जालपा की बदिौलत आज वह अनहोनी बात हो गई। वह काशी के बडे

वकील का मेहमान था। रमा ने सोचा था िक बहुत से स्त्री-पुरूष िनमंित्रत होंग, पर यहां वकील साहब और

उनकी पत्नी रतन के िसवा और कोई न था। रतन इन दिोनों को देखते ही बरामदे में िनकल आई और उनसे हाथ

िमलाकर अंदिर ले गई और अपने पित से उनका पिरचय कराया। पंिडतजी ने आरामकुसी पर लेट-ही-लेट दिोनों

मेहमानों से हाथ िमलाया और मुस्कराकर कहा, ‘क्षमा कीिजएगा बाबू साहब, मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। आप

यहां िकसी आिफस में ह?’

रमा ने झिंपते हुए कहा,’जी हां, म्युिनिसपल आिफस में हूं। अभी हाल ही में आया हूं। कानून की तरफ जाने

का इरादिा था, पर नए वकीलों की यहां जो हालत हो रही है, उसे देखकर िहम्मत न पड़ी। ’

रमा ने अपना महत्व बढ़ाने के िलए ज़रा-सा झिूठ बोलना अनुिचत न समझिा। इसका असर बहुत अच्छा

हुआ। अगर वह साफ कह देता, ‘मैं पच्चीस रूपये का क्लकर्क हूं, तो शायदि वकील साहब उससे बातें करने में अपना

अपमान समझिते। बोले, ‘आपने बहुत अच्छा िकया जो इधर नहीं आए। वहां दिो-चार साल के बादि अच्छी जगह

पर पहुंच जाएंग, यहां संभव है दिस साल तक आपको कोई मुकदिमा ही न िमलता।‘

जालपा को अभी तक संदेह हो रहा था िक रतन वकील साहब की बेटी है या पत्नी वकील साहब की उम

साठ से नीचे न थी। िचकनी चांदि आसपास के सफेदि बालों के बीच में वारिनश की हुई लकड़ी की भांित चमक

रही थी। मूंछें साफ थीं, पर माथ की िशकन और गालों की झिुिरयां बतला रही थीं िक यात्री संसार-यात्रा से थक

गया है। आरामकुसी पर लेट हुए वह ऐसे मालूम होते थ, जैसे बरसों के मरीज़ हों! हां, रंग गोरा था, जो साठ

साल की गमीसदिी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊंची नाक थी, ऊंचा माथा और बडी-बडी आंखें, िजनमें

अिभमान भरा हुआ था! उनके मुख से ऐसा भािसत होता था िक उन्हें िकसी से बोलना या िकसी बात का जवाब

देना भी अच्छा नहीं लगता। इसके प्रितकूल रतन सांवली, सुगिठत युवती थी, बडी िमलनसार, िजसे गवर्च ने छुआ

तक न था। सौंदियर्च का उसके रूप में कोई लक्षण न था। नाक िचपटी थी, मुख गोल, आंखें छोटी, िफर भी वह

रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूयर्चमूखी के सामने जूही का फूल। चाय आई। मेवे,

फल, िमठाई, बगर्च की कुल्फी, सब मेज़ों पर सजा िदिए गए। रतन और जालपा एक मेज़ पर बैठीं। दूसरी मेज़ रमा

और वकील साहब की थी। रमा मेज़ के सामने जा बैठा, मगर वकील साहब अभी आरामकुसी पर लेट ही हुए थ।

रमा ने मुस्कराकर वकील साहब से कहा, ‘आप भी तो आएं। ‘

वकील साहब ने लेट-लेट मुस्कराकर कहा, ‘आप शुरू कीिजए, मैं भी आया जाता हूं।‘

लोगों ने चाय पी, फल खाए, पर वकील साहब के सामने हंसते-बोलते रमा और जालपा दिोनों ही िझिझिकते

थ। िजदिािदिल बूढ़ों के साथ तो सोहबत का आनंदि उठाया जा सकता है, लेिकन ऐसे रूखे, िनजीव मनुष्य जवान

भी हों, तो दूसरों को मुदिा बना देते ह। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दिो घूंट चाय पी। दूर से बैठे तमाशा

देखते रहे। इसिलए जब रतन ने जालपा से कहा,चलो, हम लोग ज़रा बाग़ीचे की सैर कर, इन दिोनों महाशयों को

समाज और नीित की िववेचना करने दें, तो मानो जालपा के गले का गंदिा छूट गया। रमा ने िपजड़े में बंदि पक्षी

की भांित उन दिोनों को कमरे से िनकलते देखा और एक लंबी सांस ली। वह जानता िक यहां यह िवपित्ति उसके

िसर पड़ जायगी, तो आने का नाम न लेता।

वकील साहब ने मुंह िसकोड़कर पहलू बदिला और बोले, ‘मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया है, िक कोई चीज़

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हज़म ही नहीं होती। दूध भी नहीं हज़म होता। चाय को लोग न जाने क्यों इतने शौक से पीते ह, मुझिे तो इसकी

सूरत से भी डर लगता है। पीते ही बदिन में एंठन-सी होने लगती है और आंखों से िचनगािरयां-सी िनकलने लगती

ह।‘

रमा ने कहा, ‘आपने हाज़मे की कोई दिवा नहीं की? ‘

वकील साहब ने अरूिच के भाव से कहा, ‘दिवाआं पर मुझिे रत्तिी-भर भी िवश्वास नहीं। इन वैद्यप और

डाक्टरों से ज्यादिा बेसमझि आदिमी संसार में न िमलेंग। िकसी में िनदिान की शिक्त नहीं। दिो वैद्यपों, दिो डाक्टरों के

िनदिान कभी न िमलेंग। लक्षण वही है, पर एक वैद्यप रक्तदिोष बतलाता है, दूसरा िपत्तिदिोष, एक डाक्टर फेफड़े का

सूजन बतलाता है, दूसरा आमाशय का िवकार। बस, अनुमान से दिवा की जाती है और िनदिर्चयता से रोिगयों की

गदिर्चन पर छुरी ट्ठरी जाती है। इन डाक्टरों ने मुझिे तो अब तक जहन्नुम पहुंचा िदिया होता; पर मैं उनके पंजे से

िनकल भागा। योगाभ्यास की बडी प्रशंसा सुनता हूं पर कोई ऐसे महात्मा नहीं िमलते, िजनसे कुछ सीख सकूं।

िकताबों के आधार पर कोई िकया करने से लाभ के बदिले हािन होने का डर रहता है। यहां तो आरोग्य-शास्त्र का

खंडन हो रहा था, उधार दिोनों मिहलाआं में प्रगाढ़स्नेह की बातें हो रही थीं।

रतन ने मुस्कराकर कहा, ‘मेरे पितदेव को देखकर तुम्हें बडा आश्चयर्च हुआ होगा। ‘

जालपा को आश्चयर्च ही नहीं, भम भी हुआ था। बोली, ‘वकील साहब का दूसरा िववाह होगा।

रतन, ‘हां, अभी पांच ही बरस तो हुए ह। इनकी पहली स्त्री को मरे पैंतीस वषर्च हो गए। उस समय इनकी

अवस्था कुल पच्चीस साल की थी। लोगों ने समझिाया, दूसरा िववाह कर लो, पर इनके एक लड़का हो चुका था,

िववाह करने से इंकार कर िदिया और तीस साल तक अकेले रहे, मगर आज पांच वषर्च हुए, जवान बेट का देहांत

हो गया, तब िववाह करना आवश्यक हो गया। मेरे मां-बाप न थ। मामाजी ने मेरा पालन िकया था। कह नहीं

सकती, इनसे कुछ ले िलया या इनकी सज्जनता पर मुग्ध हो गए। मैं तो समझिती हूं, ईश्वर की यही इच्छा थी,

लेिकन मैं जब से आई हूं, मोटी होती चली जाती हूं। डाक्टरों का कहना है िक तुम्हें संतान नहीं हो सकती। बहन,

मुझिे तो संतान की लालसा नहीं है, लेिकन मेरे पित मेरी दिशा देखकर बहुत दुर्खी रहते ह। मैं ही इनके सब रोगों

की जड़ हूं। आज ईश्वर मुझिे एक संतान दे दे, तो इनके सारे रोग भाग जाएंग। िकतना चाहती हूं िक दुर्बली हो

जाऊं, गरम पानी से टब-स्नान करती हूं, रोज़ पैदिल घूमने जाती हूं, घी-दूध कम खाती हूं, भोजन आधा कर िदिया

है, िजतना पिरश्रम करते बनता है, करती हूं, िफर भी िदिन-िदिन मोटी ही होती जाती हूं। कुछ समझि में नहीं

आता, क्या करूं।

जालपा—‘वकील साहब तुमसे िचढ़ते होंग? ‘

रतन, ‘नहीं बहन, िबलकुल नहीं, भूलकर भी कभी मुझिसे इसकी चचा नहीं की। उनके मुंह से कभी एक

शब्दि भी ऐसा नहीं िनकला, िजससे उनकी मनोव्यथा प्रकट होती, पर मैं जानती हूं, यह िचता उन्हें मारे डालती

है। अपना कोई बस नहीं है। क्या करूं। मैं िजतना चाहूं, ख़चर्च करूं, जैसे चाहूं रहूं, कभी नहीं बोलते। जो कुछ पाते

ह, लाकर मेरे हाथ पर रख देते ह। समझिाती हूं, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत है, आराम क्यों नहीं

करते, पर इनसे घर पर बैठे रहा नहीं जाता। केवल दिो चपाितयों से नाता है। बहुत िज़दि की तो दिो चार दिाने

अंगूर खा िलए। मुझिे तो उन पर दिया आती है, अपने से जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं। आिख़र वह

मेरे ही िलए तो अपनी जान खपा रहे ह।‘

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जालपा—‘ऐसे पुरूष को देवता समझिना चािहए। यहां तो एक स्त्री मरी नहीं िक दूसरा ब्याह रच गया।

तीस साल अकेले रहना सबका काम नहीं है।‘

रतन—‘हां बहन, ह तो देवता ही। अब भी कभी उस स्त्री की चचा आ जाती है, तो रोने लगते ह। तुम्हें उनकी

तस्वीर िदिखाऊंगी। देखने में िजतने कठोर मालूम होते ह, भीतर से इनका ह्रदिय उतना ही नरम है। िकतने ही

अनाथों, िवधवाआं और ग़रीबों के महीने बांधा रक्खे ह। तुम्हारा वह कंगन तो बडा सुंदिर है! ‘

जालपा—‘हां, बडे अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।‘

रतन—‘मैं तो यहां िकसी को जानती ही नहीं। वकील साहब को गहनों के िलए कष्ट देने की इच्छा नहीं

होती। मामूली सुनारों से बनवाते डर लगता है, न जाने क्या िमला दें। मेरी सपत्नीजी के सब गहने रक्खे हुए ह,

लेिकन वह मुझिे अच्छे नहीं लगते। तुम बाबू रमानाथ से मेरे िलए ऐसा ही एक जोडाकंगन बनवा दिो।‘

जालपा—‘देिखए, पूछती हूं।‘

रतन—‘—‘आज तुम्हारे आने से जी बहुत खुश हुआ। िदिनभर अकेली पड़ी रहती हूं। जी घबडाया करता है।

िकसके पास जाऊं?’ िकसी से पिरचय नहीं और न मेरा मन ही चाहता है िक उनसे मौी करूं। दिो-एक मिहलाआं

को बुलाया, उनके घर गई, चाहा िक उनसे बहनापा जोड़ लूं, लेिकन उनके आचार-िवचार देखकर उनसे दूर

रहना ही अच्छा मालूम हुआ। दिोनों ही मुझिे उल्लू बनाकर जटना चाहती थीं। मुझिसे रूपये उधार ले गई और आज

तक दे रही ह। ऋंगार की चीज़ों पर मैंने उनका इतना प्रेम देखा, िक कहते लज्जा आती है। तुम घड़ी-आधा घड़ी

के िलए रोज़ चली आया करो बहन।‘

जालपा—‘वाह इससे अच्छा और क्या होगा.‘

रतन—‘मैं मोटर भेज िदिया करूंगी।‘

जालपा—‘क्या जरूरत है। तांग तो िमलते ही ह।‘

रतन—‘न-जाने क्यों तुम्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। तुम्हें पाकर रमानाथजी अपना भाग्य सराहते होंग।‘

जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘भाग्य-वाग्य तो कहीं नहीं सराहते, घुड़िकयां जमाया करते ह।‘

रतन—‘सच! मुझिे तो िवश्वास नहीं आता। लो, वह भी तो आ गए। पूछना,ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंग।‘

जालपा—‘(रमा से) क्यों चरनदिास से कहा जाए तो ऐसा कंगन िकतने िदिन में बना देगा! रतन ऐसा ही

कंगन बनवाना चाहती ह।‘

रमा ने तत्परता से कहा—‘हां, बना क्यों नहीं सकता इससे बहुत अच्छे बना सकता है।—‘

रतन—‘इस जोड़े के क्या िलए थ? ‘

जालपा—‘आठ सौ के थ।‘

रतन—‘कोई हरज़ नहीं, मगर िबलकुल ऐसा ही हो, इसी नमूने का।‘

रमा—‘हां-हां, बनवा दूंगा। ‘

रतन— ‘मगर भाई, अभी मेरे पास रूपये नहीं ह।

रूपये के मामले में पुरूष मिहलाआं के सामने कुछ नहीं कह सकता क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे

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पास रूपये नहीं ह। वह मर जाएगा, पर यह उज्र न करेगा। वह कज़र्च लेगा, दूसरों की खुशामदि करेगा, पर स्त्री के

सामने अपनी मजबूरी न िदिखाएगा। रूपये की चचा को ही वह तुच्छ समझिता है। जालपा पित की आिथक दिशा

अच्छी तरह जानती थी। पर यिदि रमा ने इस समय कोई बहाना कर िदिया होता, तो उसे बहुत बुरा मालूम होता।

वह मन में डर रही थी िक कहीं यह महाशय यह न कह बैठं, सराफ से पूछकर कहूंगा। उसका िदिल धड़क रहा था,

जब रमा ने वीरता के साथ कहा, —‘हां-हां, रूपये की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दिीिजएगा, तो वह खुश हो

गई।

रतन—‘तो कब तक आशा करूं? ‘

रमानाथ—‘मैं आज ही सराफ से कह दूंगा, तब भी पंद्रह िदिन तो लग हीजाएंग।‘

जालपा—‘अब की रिववार को मेरे ही घर चाय पीिजएगा। ‘

रतन ने िनमंत्रण सहषर्च स्वीकार िकया और दिोनों आदिमी िवदिा हुए। घर पहुंचे, तो शाम हो गई थी। रमेश

बाबू बैठे हुए थ। जालपा तो तांग से उतरकर अंदिर चली गई, रमा रमेश बाबू के पास जाकर बोला—‘क्या

आपको आए देर हुई?

रमेश—‘नहीं, अभी तो चला आ रहा हूं। क्या वकील साहब के यहां गए थ?‘

रमा—‘जी हां, तीन रूपये की चपत पड़ गई।‘

रमेश—‘कोई हरज़ नहीं, यह रूपये वसूल हो जाएंग। बडे आदििमयों से राहरस्म हो जाय तो बुरा नहीं है,

बड़े-बडे काम िनकलते ह। एक िदिन उन लोगों को भी तो बुलाओ।‘

रमा—‘अबकी इतवार को चाय की दिावत दे आया हूं।‘

रमेश—‘कहो तो मैं भी आ जाऊं। जानते हो न वकील साहब के एक भाई इंजीिनयर ह। मेरे एक साले बहुत िदिनों

से बेकार बैठे ह। अगर वकील साहब उसकी िसफािरश कर दें, तो ग़रीब को जगह िमल जाय। तुम ज़रा मेरा

इंट्रोडक्शन करा देना, बाकी और सब मैं कर लूंगा। पाटी का इंतजाम ईश्वर ने चाहा, तो ऐसा होगा िक मेमसाहब

खुश हो जाएंगी। चाय के सेट, शीश के रंगीन गुलदिानऔर फानूस मैं ला दूंगा। कुिसयां, मेज़ं, फशर्च सब मेरे ऊपर

छोड़ दिो। न कुली की जरूरत, न मजूर की। उन्हीं मूसलचंदि को रगदूंगा।‘

रमानाथ—‘तब तो बडा मज़ा रहेगा। मैं तो बडी िचता में पडा हुआ था।‘

रमेश—‘िचता की कोई बात नहीं, उसी लौंडे को जोत दूंगा। कहूंगा, जगह चाहते हो तो कारगुजारी

िदिखाओ। िफर देखना, कैसी दिौड़-धूप करता है।‘

रमानाथ—‘अभी दिो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके ह न?’

रमेश—‘अजी, अभी छः और बाकी ह। पूरे सात जीव ह। ज़रा बैठ जाओ, ज़रूरी चीज़ों की सूची बना ली

जाए। आज ही से दिौड़-धूप होगी, तब सब चीजें जुटा सकूंगा। और िकतने मेहमान होंग? ’

रमानाथ—‘मेम साहब होंगी, और शायदि वकील साहब भी आएं।’

रमेश—‘यह बहुत अच्छा िकया। बहुत-से आदिमी हो जाते, तो भभ्भड़ हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम

है। ठलुआं की खुशामदि करने से क्या फायदिा? ’

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दिोनों आदििमयों ने सूची तैयार की। रमेश बाबू ने दूसरे ही िदिन से सामान जमा करना शुरू िकया। उनकी

पहुंच अच्छे-अच्छे घरों में थी। सजावट की अच्छी-अच्छी चीज़ं बटोर लाए, सारा घर जगमगा उठा। दियानाथ भी

इन तैयािरयों में शरीक थ। चीज़ों को करीने से सजाना उनका काम था। कौन गमला कहां रक्खा जाय, कौन

तस्वीर कहां लटकाई जाय, कौन? सा गलीचा कहां िबछाया जाय, इन प्रश्नों पर तीनों मनुष्यों में घंटों वादि-

िववादि होता था। दिफ्तर जाने के पहले और दिफ्तर से आने के बादि तीनों इन्हीं कामों में जुट जाते थ। एक िदिन इस

बात पर बहस िछड़ गई िक कमरे में आईना कहां रखा जाय। दियानाथ कहते थ, इस कमरे में आईने की जरूरत

नहीं। आईना पीछे वाले कमरे में रखना चािहए। रमेश इसका िवरोध कर रहे थ। रमा दुर्िवधो में चुपचाप खडा

था। न इनकी-सी कह सकता था, न उनकी-सी।

दियानाथ—‘मैंने सैकड़ों अंगरेज़ों के ड्राइंग-ईम देखे ह, कहीं आईना नहीं देखा। आईना श्रंगार के कमरे में

रहना चािहए। यहां आईना रखना बेतुकी-सी बात है।‘

रमेश—‘मुझिे सैकड़ों अंगरेज़ों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं िमला है, लेिकन दिो-चार जरूर देखे ह

और उनमें आईना लगा हुआ देखा। िफर क्या यह जरूरी बात है िक इन ज़रा-ज़रा-सी बातों में भी हम अंगरेज़ों

की नकल कर- हम अंगरेज़ नहीं, िहन्दुर्स्तानी ह। िहन्दुर्स्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदिमकदि आईने रक्खे

जाते ह। यह तो आपने हमारे िबगड़े हुए बाबुआं कीसी बात कही, जो पहनावे में, कमरे की सजावट में, बोली में,

चाय और शराब में, चीनी की प्यािलयों में, ग़रज़ िदिखावे की सभी बातों में तो अंगरेज़ों का मुंह िचढ़ाते ह, लेिकन

िजन बातों ने अंगरेज़ों को अंगरेज़ बना िदिया है, और िजनकी बदिौलत वे दुर्िनया पर राज़ करते ह, उनकी हवा

तक नहीं छू जाती। क्या आपको भी बुढ़ापे में, अंगरेज़ बनने का शौक चराया है?‘

दियानाथ अंगरेजों की नकल को बहुत बुरा समझिते थ। यह चाय-पाटी भी उन्हें बुरी मालूम हो रही थी।

अगर कुछ संतोष था, तो यही िक दिो-चार बडे आदििमयों से पिरचय हो जायगा। उन्होंने अपनी िजदिगी में कभी

कोट नहीं पहना था। चाय पीते थ, मगर चीनी के सेट की कैदि न थी। कटोरा-कटोरी, िगलास, लोटा-तसला िकसी

से भी उन्हें आपित्ति न थी, लेिकन इस वक्त उन्हें अपना पक्ष िनभाने की पड़ी थी। बोले, ‘िहन्दुर्स्तानी रईसों के

कमरे में मेज़ं-कुिसयां नहीं होतीं, फशर्च होता है। आपने कुसी-मेज़ लगाकर इसे अंगरेज़ी ढंग पर तो बना िदिया, अब

आईने के िलए िहन्दुर्स्तािनयों की िमसाल दे रहे ह। या तो िहन्दुर्स्तानी रिखए या अंगरेज़ीब यह क्या िक आधा

तीतर आधा बटरब कोटपतलून पर चौगोिशया टोपी तो नहीं अच्छी मालूम होती! रमेश बाबू ने समझिा था िक

दियानाथ की ज़बान बंदि हो जायगी, लेिकन यह जवाब सुना तो चकराए। मैदिान हाथ से जाता हुआ िदिखाई िदिया।

बोले, ‘तो आपने िकसी अंगरेज़ के कमरे में आईना नहीं देखा- भला ऐसे दिस-पांच अंगरेजों के नाम तो बताइए?

एक आपका वही िकरंटा हेड क्लकर्क है, उसके िसवा और िकसी अंगरेज़ के कमरे में तो शायदि आपने कदिम भी न

रक्खा हो उसी िकरंट को आपने अंगरेज़ी रूिच का आदिशर्च समझि िलया है खूब! मानता हूं।‘

दियानाथ—‘यह तो आपकी ज़बान है, उसे िकरंटा, चमरेिशयन, िपलिपली जो चाहे कहें, लेिकन रंग को

छोड़कर वह िकसी बात में अंगरेज़ों से कम नहीं। और उसके पहले तो योरोिपयन था।

रमेश इसका कोई जवाब सोच ही रहे थ िक एक मोटरकार द्वार पर आकर रूकी, और रतनबाई उतरकर

बरामदे में आई। तीनों आदिमी चटपट बाहर िनकल आए। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर

रहा था िक कहीं कमरे में भी न चली आए, नहीं तो सारी कलई खुल जाए। आग बढ़कर हाथ िमलाता हुआ

बोला, ‘आइए, यह मेरे िपता ह, और यह मेरे दिोस्त रमेश बाबू ह, लेिकन उन दिोनों सज्जनों ने न हाथ बढ़ाया

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और न जगह से िहले। सकपकाए- से खड़े रहे। रतन ने भी उनसे हाथ िमलाने की जरूरत न समझिी। दूर ही से

उनको नमस्कार करके रमा से बोली, ‘नहीं, बैठूंगी नहीं। इस वक्त फुरसत नहीं है। आपसे कुछ कहना था।‘ यह

कहते हुए वह रमा के साथ मोटर तक आई और आिहस्ता से बोली, ‘आपने सराफ से कह तो िदिया होगा? ‘

रमा ने िनःसंकोच होकर कहा, ‘जी हां, बना रहा है।‘

रतन—‘उस िदिन मैंने कहा था, अभी रूपये न दे सकूंगी, पर मैंने समझिा शायदि आपको कष्ट हो, इसिलए

रूपये मंगवा िलए। आठ सौ चािहए न?‘

जालपा ने कंगन के दिाम आठ सौ बताए थ। रमा चाहता तो इतने रूपये ले सकता था। पर रतन की

सरलता और िवश्वास ने उसके हाथ पकड़ िलए। ऐसी उदिार, िनष्कपट रमणी के साथ वह िवश्वासघात न कर

सका। वह व्यापािरयों से दिो-दिो, चार-चार आने लेते ज़रा भी न िझिझिकता था। वह जानता था िक वे सब भी

ग्राहकों को उल्ट छुरे से मूंड़ते ह। ऐसों के साथ ऐसा व्यवहार करते हुए उसकी आत्मा को लेशमात्र भी संकोच न

होता था, लेिकन इस देवी के साथ यह कपट व्यवहार करने के िलए िकसी पुराने पापी की जरूरत थी। कुछ

सकुचाता हुआ बोला,क्या जालपा ने कंगन के दिाम आठ सौ बतलाए थ? उसे शायदि यादि न रही होगी। उसके

कंगन छः सौ के ह। आप चाहें तो आठ सौ का बनवा दूं! रतन—‘नहीं, मुझिे तो वही पसंदि है। आप छः सौ का ही

बनवाइए।‘

उसने मोटर पर से अपनी थैली उठाकर सौ-सौ रूपये के छः नोट िनकाले।

रमा ने कहा, ‘ऐसी जल्दिी क्या थी, चीज़ तैयार हो जाती, तब िहसाब हो जाता।‘

रतन—‘मेरे पास रूपये खचर्च हो जाते। इसिलए मैंने सोचा, आपके िसर पर लादि आऊं। मेरी आदित है िक जो

काम करती हूं, जल्दि-से-जल्दि कर डालती हूं। िवलंब से मुझिे उलझिन होती है।‘

यह कहकर वह मोटर पर बैठ गई, मोटर हवा हो गई। रमा संदूक में रूपये रखने के िलए अंदिर चला गया,

तो दिोनों वृतद्धि'जनों में बातें होने लगीं।

रमेश—‘देखा?‘

दियानाथ—‘जी हां, आंखें खुली हुई थीं। अब मेरे घर में भी वही हवा आ रही है। ईश्वर ही बचावे।‘

रमेश—‘बात तो ऐसी ही है, पर आजकल ऐसी ही औरतों का काम है। जरूरत पड़े, तो कुछ मदिदि तो कर

सकती ह। बीमार पड़ जाओ तो डाक्टर को तो बुला ला सकती ह। यहां तो चाहे हम मर जाएं, तब भी क्या

मजाल िक स्त्री घर से बाहर पांव िनकाले।‘

दियानाथ—‘हमसे तो भाई, यह अंगरेिज़यत नहीं देखी जाती। क्या कर। संतान की ममता है, नहीं तो यही

जी चाहता है िक रमा से साफ कह दूं, भैया अपना घर अलग लेकर रहो आंख फटी, पीर गई। मुझिे तो उन मदिो

पर कोध आता है, जो िस्त्रयों को यों िसर चढ़ाते ह। देख लेना, एक िदिन यह औरत वकील साहब को दिगा देगी।‘

रमेश—‘महाशय, इस बात में मैं तुमसे सहमत नहीं हूं। यह क्यों मान लेते हो िक जो औरत बाहर आती-

जाती है, वह जरूर ही िबगड़ी हुई है? मगर रमा को मानती बहुत है। रूपये न जाने िकसिलए िदिए? ‘

दियानाथ—‘मुझिे तो इसमें कुछ गोलमाल मालूम होता है। रमा कहीं उससे कोई चाल न चल रहा हो? ‘

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इसी समय रमा भीतर से िनकला आ रहा था। अंितम वाक्य उसके कान में पड़ गया। भौंहें चढ़ाकर बोला,

‘जी हां, जरूर चाल चल रहा हूं। उसे धोखा देकर रूपये एंठ रहा हूं। यही तो मेरा पेशा है! ‘

दियानाथ ने झिंपते हुए कहा,तो इतना िबगड़ते क्यों हो, ‘मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही।‘

रमानाथ—‘पक्का जािलया बना िदिया और क्या कहते?आपके िदिल में ऐसा शुबहा क्यों आया- आपने मुझिमें

ऐसी कौन?सी बात देखी, िजससे आपको यह ख़याल पैदिा हुआ- मैं ज़रा साफ-सुथरे कपड़े पहनता हूं, ज़रा नई

प्रथा के अनुसार चलता हूं, इसके िसवा आपने मुझिमें कौन?सी बुराई देखी- मैं जो कुछ ख़चर्च करता हूं, ईमान से

कमाकर ख़चर्च करता हूं। िजस िदिन धोखे और फरेब की नौबत आएगी, ज़हर खाकर प्राण दे दूंगा। हां, यह बात है

िक िकसी को ख़चर्च करने की तमीज़ होती है, िकसी को नहीं होती। वह अपनी सुबुिद्धि है, अगर इसे आप धोखेबाज़ी

समझिं, तो आपको अिख्तयार है। जब आपकी तरफ से मेरे िवषय में ऐसे संशय होने लग, तो मेरे िलए यही अच्छा

है िक मुंह में कािलख लगाकर कहीं िनकल जाऊं। रमेश बाबू यहां मौजूदि ह। आप इनसे मेरे िवषय में जो कुछ

चाहें, पूछ सकते ह। यह मेरे खाितर झिूठ न बोलेंग।‘

सत्य के रंग में रंगी हुई इन बातों ने दियानाथ को आश्वस्त कर िदिया। बोले, ‘िजस िदिन मुझिे मालूम हो

जायगा िक तुमने यह ढंग अिख्तयार िकया है, उसके पहले मैं मुंह में कािलख लगाकर िनकल जाऊंगा। तुम्हारा

बढ़ता हुआ ख़चर्च देखकर मेरे मन में संदेह हुआ था, मैं इसे िछपाता नहीं हूं, लेिकन जब तुम कह रहे हो तुम्हारी

नीयत साफ है, तो मैं संतुष्ट हूं। मैं केवल इतना ही चाहता हूं िक मेरा लड़का चाहे ग़रीब रहे, पर नीयत न

िबगाड़े। मेरी ईश्वर से यही प्राथर्चना है िक वह तुम्हें सत्पथ पर रक्खे।‘

रमेश ने मुस्कराकर कहा, ‘अच्छा, यह िकस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रूपये िकसिलए

िदिए! मैं िगन रहा था, छः नोट थ, शायदि सौ-सौ के थ।‘

रमानाथ—‘ठग लाया हूं।‘

रमेश—‘मुझिसे शरारत करोग तो मार बैठूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूंगा, जीते

रहो खूब जटो, लेिकन आबरू पर आंच न आने पाए । िकसी को कानोंकान ख़बर न हो ईश्वर से तो मैं डरता नहीं।

वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूंगा, मगर आदिमी से डरता हूं। सच बताओ, िकसिलए रूपये िदिए - कुछ

दिलाली िमलने वाली हो तो मुझिे भी शरीक कर लेना।‘

रमानाथ—‘जडाऊ कंगन बनवाने को कह गई ह।‘

रमेश—‘तो चलो, मैं एक अच्छे सराफ से बनवा दूं। यह झिंझिट तुमने बुरा मोल ले िलया। औरत का स्वभाव

जानते नहीं। िकसी पर िवश्वास तो इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दिो-चार रूपये अपने पास ही से खचर्च कर दिो, पर

वह यही समझिंगी िक मुझिे लूट िलया। नेकनामी तो शायदि ही िमले, हां, बदिनामी तैयार खड़ी है।‘

रमानाथ—‘आप मूखर्च िस्त्रयों की बातें कर रहे ह। िशिक्षत िस्त्रयां ऐसी नहीं होतीं।‘

ज़रा देर बादि रमा अंदिर जाकर जालपा से बोला, ‘अभी तुम्हारी सहेली रतन आई थीं।‘

जालपा—‘सच! तब तो बडा गड़बड़ हुआ होगा। यहां कुछ तैयारी तो थी ही नहीं।‘

रमानाथ—‘कुशल यही हुई िक कमरे में नहीं आई। कंगन के रूपये देने आई थीं। तुमने उनसे शायदि आठ सौ

रूपये बताए थ। मैंने छः सौ ले िलए। ‘

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जालपा ने झिंपते हुए कहा,मैंने तो िदिल्लगी की थी। जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दिी, लेिकन बहुत देर

तक उसकेमन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रूपये ले िलए होते, तो शायदि उथल-पुथल न

होती। वह अपनी सफलता पर खुश होती, पर रमा के िववेक ने उसकी धमर्च-बुिद्धि को जगा िदिया था। वह पछता

रही थी िक मैं व्यथर्च झिूठ बोली। यह मुझिे अपने मन में िकतनी नीच समझि रहे होंग। रतन भी मुझिे िकतनी बेईमान

समझि रही होगी।

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सोलह

चाय-पाटी में कोई िवशष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते की बहन और थी। वकील साहब न

आए थ। दियानाथ ने उतनी देर के िलए घर से टल जाना ही उिचत समझिाब हां, रमेश बाबू बरामदे में बराबर

खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा िक उन्हें भी पाटी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था। जालपा ने

दिोनों मेहमानों को अपनी सास से िमलाया। ये युवितयां उन्हें कुछ ओछी जान पड़ीं। उनका सारे घर में दिौड़ना,

धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, िखलिखलाकर हंसना, उन्हें हुड़दिंगपन मालूम होता

था। उनकी नीित में बहू-बेिटयों को भारी और लज्जाशील होना चािहए था। आश्चयर्च यह था िक आज जालपा भी

उन्हीं में िमल गई थी। रतन ने आज कंगन की चचा तक न की।

अभी तक रमा को पाटी की तैयािरयों से इतनी फुसर्चत नहीं िमली थी िक गंगू की दुर्कान तक जाता। उसने

समझिा था, गंगू को छः सौ रूपये दे दूंगा तो िपछले िहसाब में जमा हो जाएंग। केवल ढाई सौ रूपये और रह

जाएंग। इस नये िहसाब में छः सौ और िमलाकर िफर आठ सौ रह जाएंग। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का

सुअवसर िमल जायगा। दूसरे िदिन रमा खुश होता हुआ गंगू की दुर्कान पर पहुंचा और रोब से बोला, ‘क्या रंगढंग है महाराज, कोई नई चीज़ बनवाई है इधर?’

रमा के टालमटोल से गंगू इतना िवरक्त हो रहा था िक आज कुछ रूपये िमलने की आशा भी उसे प्रसन्न न

कर सकी। िशकायत के ढंग से बोला, ‘बाबू साहब, चीज़ं िकतनी बनीं और िकतनी िबकीं, आपने तो दुर्कान पर

आना ही छोड़ िदिया। इस तरह की दुर्कानदिारी हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहां से एक पैसा भी

नहीं िमला।

रमानाथ—‘भाई, ख़ाली हाथ दुर्कान पर आते शमर्च आती है। हम उन लोगों में नहीं ह, िजनसे तकाज़ा करना

पड़े। आज यह छः सौ रूपये जमा कर लो, और एक अच्छा-सा कंगन तैयार कर दिो।’

गंगू ने रूपये लेकर संदूक में रखे और बोला,’बन जाएंग। बाकी रूपये कब तक िमलेंग?’

रमानाथ—‘बहुत जल्दि।’

गंगू—‘हां बाबूजी, अब िपछला साफ कर दिीिजए।’

गंगू ने बहुत जल्दि कंगन बनवाने का वचन िदिया, लेिकन एक बार सौदिा करके उसे मालूम हो गया था िक

यहां से जल्दि रूपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ िक रमा रोज़ तकाज़ा करता और गंगू रोज़ हीले करके

टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दिवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लङके

बीमार हो जाते। एक महीना गुज़र गया और कंगन न बने। रतन के तकाज़ों के डर से रमा ने पाकर्क जाना छोड़

िदिया, मगर उसने घर तो देख ही रक्खा था। इस एक महीने में कई बार तकाज़ा करने आई। आिख़र जब सावन

का महीना आ गया तो उसने एक िदिन रमा से कहा, ‘वह सुअर नहीं बनाकर देता, तो तुम िकसी और कारीगर

को क्यों नहीं देते?’

रमानाथ—‘उस पाजी ने ऐसा धोखा िदिया िक कुछ न पूछो, बस रोज़ आजकल िकया करता है। मैंने बडी

भूल की जो उसे पेशगी रूपये दे िदिये। अब उससे रूपये िनकलना मुिश्कल है।‘

रतन—‘आप मुझिे उसकी दुर्कान िदिखा दिीिजए, मैं उसके बाप से वसूल कर लूंगी। तावान अलग। ऐसे

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बेईमान आदिमी को पुिलस में देना चािहए।‘

जालपा ने कहा, ‘हां और क्या सभी सुनार देर करते ह, मगर ऐसा नहीं, रूपये डकार जायं और चीज़ के

िलए महीनों दिौडाएं।

रमा ने िसर खुजलाते हुए कहा, ‘आप दिस िदिन और सब्र कर, मैं आज ही उससे रूपये लेकर िकसी दूसरे

सराफ को दे दूंगा।‘

रतन—‘आप मुझिे उस बदिमाश की दुर्कान क्यों नहीं िदिखा देते। मैं हंटर से बात करूं।‘

रमानाथ—‘कहता तो हूं। दिस िदिन के अंदिर आपको कंगन िमल जाएंग।‘

रतन—‘आप खुदि ही ढील डाले हुए ह। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंग। एक बार कड़े

पड़ जाते, तो मजाल थी िक यों हीलेहवाले करता! ‘

आिख़र रतन बडी मुिश्कल से िवदिा हुई। उसी िदिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे िदिया,िबना आधे रूपये

िलये कंगन न बन सकेंग। िपछला िहसाब भी बेबाक हो जाना चािहए।‘

रमा को मानो गोली लग गई। बोला, ‘महाराज, यह तो भलमनसी नहीं है। एक मिहला की चीज़ है,

उन्होंने पेशगी रूपये िदिए थ। सोचो, मैं उन्हें क्या मुंह िदिखाऊंगा। मुझिसे अपने रूपयों के िलए पुरनोट िलखा लो,

स्टांप िलखा लो और क्या करोग? ‘

गंगू—‘पुरनोट को शहदि लगाकर चाटूंगा क्या? आठ-आठ महीने का उधार नहीं होता। महीना, दिो महीना

बहुत है। आप तो बडे आदिमी ह, आपके िलए पांच-छः सौ रूपये कौन बडी बात है। कंगन तैयार ह।‘

रमा ने दिांत पीसकर कहा, ‘अगर यही बात थी तो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दिी? अब तक मैंने

रूपये की कोई िफक की होती न!‘

गंगू—‘मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझि रहे ह।‘

रमा िनराश होकर घर लौट आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृतत्तिांत साफ-साफ कह िदिया

होता तो उसे चाहे िकतना ही दुर्ःख होता, पर वह कंगन उतारकर दे देती, लेिकन रमा में इतना साहस न था। वह

अपनी आिथक किठनाइयों की दिशा कहकर उसके कोमल ह्रदिय पर आघात न कर सकता था। इसमें संदेह नहीं िक

रमा को सौ रूपये के करीब ऊपर से िमल जाते थ, और वह िकफायत करना जानता तो इन आठ महीनों में दिोनों

सराफों के कमसे- कम आधे रूपये अवश्य दे देता, लेिकन ऊपर की आमदिनी थी तो ऊपर का ख़चर्च भी था। जो कुछ

िमलता था, सैर - सपाट में ख़चर्च हो जाता और सराफों का देना िकसी एकमुश्त रकम की आशा में रूका हुआ था।

कौिडयों से रूपये बनाना विणकों का ही काम है। बाबू लोग तो रूपये की कौिडयां ही बनाते ह। कुछ रात जाने

पर रमा ने एक बार िफर सराफे का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, िकसी सराफ को झिांसा दूं, पर कहीं दिाल न

गली। बाज़ार में बेतार की ख़बर चला करती ह।

रमा को रातभर नींदि न आई। यिदि आज उसे एक हज़ार का रूक्का िलखकर कोई पांच सौ रूपये भी दे देता

तो वह िनहाल हो जाता, पर अपनी जान?पहचान वालों में उसे ऐसा कोई नजर न आता था। अपने िमलने वालों

में उसने सभी से अपनी हवा बांधा रक्खी थी। िखलाने-िपलाने में खुले हाथों रूपया ख़चर्च करता था। अब िकस मुंह

से अपनी िवपित्ति कहे - वह पछता रहा था िक नाहक गंगू को रूपये िदिए। गंगू नािलश करने तो जाता न था। इस

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समय यिदि रमा को कोई भयंकर रोग हो जाता तो वह उसका स्वागत करता। कम-से-कम दिस-पांच िदिन की

मुहलत तो िमल जाती, मगर बुलाने से तो मौत भी नहीं आती! वह तो उसी समय आती है, जब हम उसके िलए

िबलकुल तैयार नहीं होते। ईश्वर कहीं से कोई तार ही िभजवा दे, कोई ऐसा िमत्र भी नज़र नहीं आता था, जो

उसके नाम फजी तार भेज देता। वह इन्हीं िचताआं में करवटं बदिल रहा था िक जालपा की आंख खुल गई। रमा ने

तुरंत चादिर से मुंह िछपा िलया, मानो बेखबर सो रहा है। जालपा ने धीरे से चादिर हटाकर उसका मुंह देखा और

उसे सोता पाकर ध्यान से उसका मुंह देखने लगी। जागरण और िनद्रा का अंतर उससे िछपा न रहा। उसे धीरे से

िहलाकर बोली, ‘क्या अभी तक जाग रहे हो?‘

रमानाथ—‘क्या जाने, क्यों नींदि नहीं आ रही है। पड़े-पड़े सोचता था, कुछ िदिनों के िलए कहीं बाहर चला

जाऊं। कुछ रूपये कमा लाऊं।‘

जालपा—‘मुझिे भी लेते चलोग न?‘

रमानाथ—‘तुम्हें परदेश में कहां िलये-िलये िफरूंगा? ‘

जालपा—‘तो मैं यहां अकेली रह चुकी। एक िमनट तो रहूंगी नहीं। मगर जाओग कहां? ‘

रमानाथ—‘अभी कुछ िनश्चय नहीं कर सका हूं।‘

जालपा—‘तो क्या सचमुच तुम मुझिे छोड़कर चले जाओग? मुझिसे तो एक िदिन भी न रहा जाय। मैं समझि

गई, तुम मुझिसे मुहब्बत नहीं करते। केवल मुंह देखे की प्रीित करते हो।‘

रमानाथ—‘तुम्हारे प्रेम-पाश ही ने मुझिे यहां बांधा रक्खा है। नहीं तो अब तक कभी चला गया होता।‘

जालपा—‘बातें बना रहे हो अगर तुम्हें मुझिसे सच्चा प्रेम होता, तो तुम कोई परदिा न रखते। तुम्हारे मन में

जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझिसे िछपा रहे हो कई िदिनों से देख रही हूं, तुम िचता में डूबे रहते हो, मुझिसे

क्यों नहीं कहते। जहां िवश्वास नहीं है, वहां प्रेम कैसे रह सकता है? ‘

रमानाथ—‘यह तुम्हारा भ्रम है, जालपा! मैंने तो तुमसे कभी परदिा नहीं रखा।‘

जालपा—‘तो तुम मुझिे सचमुच िदिल से चाहते हो? ‘

रमानाथ—‘यह क्या मुंह से कहूंगा जभी! ‘

जालपा—‘अच्छा, अब मैं एक प्रश्न करती हूं। संभले रहना। तुम मुझिसे क्यों प्रेम करते हो! तुम्हें मेरी कसम

है, सच बताना।‘

रमानाथ—‘यह तो तुमने बेढब प्रश्न िकया। अगर मैं तुमसे यही प्रश्न पूछूं तो तुम मुझिे क्या जवाब दिोगी? ‘

जालपा—‘मैं तो जानती हूं।‘

रमानाथ—‘बताओ।‘

जालपा—‘तुम बतला दिो, मैं भी बतला दूं।‘

रमानाथ—‘मैं तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूं िक तुम मेरे रोम-रोम में रम रही हो।‘

जालपा—‘सोचकर बतलाओ। मैं आदिशर्च-पत्नी नहीं हूं, इसे मैं खूब जानती हूं। पित-सेवा अब तक मैंने नाम

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को भी नहीं की। ईश्वर की दिया से तुम्हारे िलए अब तक कष्ट सहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। घर-गृतहस्थी का कोई

काम मुझिे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखाब िफर तुम्हें मुझिसे क्यों प्रेम है? बातचीत में िनपुण नहीं। रूपरंग भी ऐसा आकषर्चक नहीं। जानते हो, मैं तुमसे क्यों प्रश्न कर रही हूं?‘

रमानाथ—‘क्या जाने भाई, मेरी समझि में तो कुछ नहीं आ रहा है।‘

जालपा—‘मैं इसिलए पूछ रही हूं िक तुम्हारे प्रेम को स्थायी बना सकूं।‘

रमानाथ—‘मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमान से कहता हूं। तुममें कोई कमी है, कोई दिोष है, यह बात

आज तक मेरे ध्यान में नहीं आई, लेिकन तुमने मुझिमें कौन?सी बात देखी- न मेरे पास धन है, न रूप है। बताओ?‘

जालपा—‘बता दूं? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोिहत हूं। अब तुमसे क्या िछपाऊं, जब मैं यहां आई तो

यद्यपिप तुम्हें अपना पित समझिती थी, लेिकन कोई बात कहते या करते समय मुझिे िचता होती थी िक तुम उसे

पसंदि करोग या नहीं। यिदि तुम्हारे बदिले मेरा िववाह िकसी दूसरे पुरूष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही

व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरूष का िरवाजी नाता है, पर अब मैं तुम्हें गोिपयों के कृतष्ण से भी न बदिलूंगी।

लेिकन तुम्हारे िदिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझिसे िकसी-िकसी बात में परदिा रखते हो!‘

रमानाथ—‘यह तुम्हारी केवल शंका है, जालपा! मैं दिोस्तों से भी कोई दुर्राव नहीं करता। िफर तुम तो मेरी

ह्रदियेश्वरी हो।‘

जालपा—‘मेरी तरफ देखकर बोलो, आंखें नीची करना मदिो का काम नहीं है!‘

रमा के जी में एक बार िफर आया िक अपनी किठनाइयों की कथा कह सुनाऊं, लेिकन िमथ्या गौरव ने िफर

उसकी ज़बान बंदि कर दिी। जालपा जब उससे पूछती, सराफों को रूपये देते जाते हो या नहीं, तो वह बराबर

कहता, ‘हां कुछ-न?कुछ हर महीने देता जाता हूं, पर आज रमा की दुर्बर्चलता ने जालपा के मन में एक संदेह पैदिा

कर िदिया था। वह उसी संदेह को िमटाना चाहती थी। ज़रा देर बादि उसने पूछा, ‘सराफ के तो अभी सब रूपये

अदिा न हुए होंग? ‘

रमानाथ—‘अब थोड़े ही बाकी ह।‘

जालपा—‘िकतने बाकी होंग, कुछ िहसाब-िकताब िलखते हो? ‘

रमानाथ—‘हां, िलखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंग।‘

जालपा—‘तब तो पूरी गठरी है, तुमने कहीं रतन के रूपये तो नहीं दे िदिए? ‘

रमा िदिल में कांप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आिख़र उसने यह प्रश्न पूछ ही िलया। उस

वक्त भी यिदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायदि उसके संकटों का अंत हो जाता।

जालपा एक िमनट तक अवश्य सन्नाट में आ जाती। संभव है, कोध और िनराशा के आवेश में दिो-चार कटु शब्दि

मुंह से िनकालती, लेिकन िफर शांत हो जाती। दिोनों िमलकर कोई-न? कोई युिक्त सोच िनकालते। जालपा यिदि

रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे आत्मगौरव, रमा ने यह बात सुनकर ऐसा

मुंह बना िलया मानो जालपा ने उस पर कोई िनष्ठुर प्रहार िकया हो बोला, ‘रतन के रूपये क्यों देता। आज चाहूं,

तो दिो-चार हज़ार का माल ला सकता हूं। कारीगरों की आदित देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई मशहूर

है। बस और कोई बात नहीं। दिस िदिन में या तो चीज़ ही लाऊंगा या रूपये वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें

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क्यों हुई? पराई रकम भला मैं अपने ख़चर्च में कैसे लाता।’

जालपा—‘कुछ नहीं, मैंने यों ही पूछा था।’

जालपा को थोड़ी देर में नींदि आ गई, पर रमा िफर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहां से रूपये लाए। अगर वह

रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह िकसी महाजन से रूपये िदिला देंग, लेिकन नहीं, वह उनसे िकसी तरह न

कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था। उसने प्रातःकाल नाश्ता करके दिफ्तर की राह ली। शायदि वहां कुछ प्रबंध

हो जाए! कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्यप के पास जाकर संतुष्ट हो जाता है पर यह

नहीं जानता, मैं अच्छा हूंगा या नहीं। यही दिशा इस समय रमा की थी। दिफ्तर में चपरासी के िसवा और कोई न

था। रमा रिजस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई िदिनों से मीज़ान नहीं िदिया गया था, पर बडे बाबू के

हस्ताक्षर मौजूदि थ। अब मीज़ान िदिया, तो ढाई हजार िनकले। एकाएक उसे एक बात सूझिी। क्यों न ढाई हजार

की जगह मीज़ान दिो हजार िलख दूं। रसीदि बही की जांच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूंगा,

मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस िवचार को उसने मन में िटकने न िदिया। इस भय से, कहीं िचत्ति चंचल

न हो जाए, उसने पेंिसल के अंकों पर रोशनाई उधर दिी, और रिजस्टर को दिराज में बंदि करके इधर-उधर घूमने

लगा। इक्की-दुर्क्की गािडयां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं ह, तो सोचा जल्दिी से चुंगी

देकर छुकी पर जायं। रमा ने इस कृतपा के िलए दिस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दिी

क्योंिक यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दिशा में चौबीस घंट का हजर्च

होता था, मंडी दिस-ग्यारह बजे के बादि बंदि हो जाती थी, दूसरे िदिन का इंतज़ार करना पड़ता था। अगर भाव

रूपये में आधा पाव भी िफर गया, तो सैकड़ों के मत्थ गई। दिस-पांच रूपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपित्ति

हो सकती थी। रमा को आज यह नई बात मालूम हुई। सोचा, आिख़र सुबह को मैं घर ही पर बैठा रहता हूं। अगर

यहां आकर बैठ जाऊं तो रोज़ दिसपांच रूपये हाथ आ जायं। िफर तो छः महीने में यह सारा झिगडासाफ हो जाय।

मान लो रोज़ यह चांदिी न होगी, पंद्रह न सही, दिस िमलेंग, पांच िमलेंग। अगर सुबह को रोज़ पांच रूपये िमल

जायं और इतने ही िदिनभर में और िमल जायं, तो पांच-छः महीने में मैंर् ऋण से मुक्त हो जाऊं। उसने दिराज़

खोलकर िफर रिजस्टर िनकाला। यह िहसाब लगा लेने के बादि अब रिजस्टर में हेर-उधर कर देना उसे इतना

भंयकर न जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बंदूक की आवाज़ से चौंक पड़ता है, आग चलकर गोिलयों की वषा में

भी नहीं घबडाता। रमा दिफ्तर बंदि करके भोजन करने घर जाने ही वाला था िक एक िबसाती का ठेला आ पहुंचा।

रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूंगा। िबसाती ने िमकैत करनी शुरू की। उसे कोई बडा ज़रूरी काम था। आिख़र दिस

रूपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रूपये जेब में रक्खे और घर चला। पच्चीस रूपये केवल दिो-ढाई

घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई िक वह भोजन करने

घर न गया। बाज़ार से भी कुछ नहीं मंगवाया। रूपये भुनाते हुए उसे एक रूपया कम हो जाने का ख़याल हुआ।

वह शाम तक बैठा काम करता रहा। चार रूपये और वसूल हुए। िचराग़ जले वह घर चला, तो उसके मन पर से

िचता और िनराशा का बहुत कुछ बोझि उतर चुका था। अगर दिस िदिन यही तेज़ी रही, तो रतन से मुंह चुराने की

नौबत न आएगी।

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सतरह

नौ िदिन गुजर गए। रमा रोज़ प्रातः दिफ्तर जाता और िचराग जले लौटता। वह रोज़ यही आशा लेकर जाता

िक आज कोई बडा िशकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले िदिन की तरह िफर

कभी भाग्य का सूयर्च न चमका। िफर भी उसके िलए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी िक नौ िदिनों में ही उसने सौ

रूपये जमा कर िलए थ। उसने एक पैसे का पान भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आव,

तो उसे भी उसने बातों में ही टाला। बस, कल का िदिन और था। कल आकर रतन कंगन मांगगी तो उसे वह क्या

जवाब देगा। दिफ्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था। क्या वह एक महीना-भर के िलए और न मान

जायगी। इतने िदिन वह और न बोलती तो शायदि वह उससे उऋण हो जाता। उसे िवश्वास था िक मैं उससे

िचकनी-चुपड़ी बातें करके राज़ी कर लूंगा। अगर उसने िज़दि की तो मैं उससे कह दूंगा, सराफ रूपये नहीं लौटाता।

सावन के िदिन थ, अंधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दिो-चार बािज़यां खेल आऊं,

मगर बादिलों को देख-देख रूक जाता था। इतने में रतन आ पहुंची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही

थी। आज वह लड़ने के िलए घर से तैयार होकर आई है और मुरव्वत और मुलाहजे की कल्पना को भी कोसों दूर

रखना चाहती है।

जालपा ने कहा, ‘ तुम खूब आई। आज मैं भी ज़रा तुम्हारे साथ घूम आऊंगी। इन्हें काम के बोझि से आजकल

िसर उठाने की भी फुसर्चत नहीं है।’

रतन ने िनष्ठुरता से कहा, ‘मुझिे आज तो बहुत जल्दि घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की यादि िदिलाने

आई हूं।’

रमा उसका लटका हुआ मुंह देखकर ही मन में सहम रहा था। िकसी तरह उसे प्रसन्न करना चाहता था।

बडी तत्परता से बोला, ‘जी हां, खूब यादि है, अभी सराफ की दुर्कान से चला आ रहा हूं। रोज़ सुबह-शाम घंट-भर

हािज़री देता हूं, मगर इन चीज़ों में समय बहुत लगता है। दिाम तो कारीगरी के ह। मािलयत देिखए तो कुछ नहीं।

दिो आदिमी लग हुए ह, पर शायदि अभी एक हीने से कम में चीज़ तैयार न हो, पर होगी लाजवाबब जी खुश हो

जायगा।’

पर रतन ज़रा भी न िपघली। ितनककर बोली, ‘अच्छा! अभी महीना-भर और लगगा। ऐसी कारीगरी है

िक तीन महीने में पूरी न हुई! आप उससे कह दिीिजएगा मेरे रूपये वापस कर दे। आशा के कंगन देिवयां पहनती

होंगी, मेरे िलए जरूरत नहीं!’

रमानाथ—‘एक महीना न लगगा, मैं जल्दिी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैंने अंदिाजन कह िदिया था।

अब थोड़ी ही कसर रह गई है। कई िदिन तो नगीने तलाश करने में लग गए।’

रतन—‘मुझिे कंगन पहनना ही नहीं है, भाई! आप मेरे रूपये लौटा दिीिजए, बस, सुनार मैंने भी बहुत देखे

ह। आपकी दिया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन मेरे पास होंग, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी। ’

धांधली के शब्दि पर रमा ितलिमला उठा, ‘धांधली नहीं, मेरी िहमाकत किहए। मुझिे क्या जरूरत थी िक

अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रूपये इसिलए दे िदिए िक सुनार खुश होकर जल्दिी से बना देगा। अब

आप रूपये मांग रही ह, सराफ रूपये नहीं लौटा सकता।’

रतन ने तीव्र नजरों से देखकर कहा,क्यों, रूपये क्यों न लौटाएगा? ’

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रमानाथ—‘इसिलए िक जो चीज़ आपके िलए बनाई है, उसे वह कहां बेचता िफरेगा। संभव है, साल-छः

महीने में िबक सके। सबकी पसंदि एक-सी तो नहीं होती।’

रतन ने त्योिरयां चढ़ाकर कहा,’मैं कुछ नहीं जानती, उसने देर की है, उसका दिंड भोग। मुझिे कल या तो

कंगन ला दिीिजए या रूपये। आपसे यिदि सराफ से दिोस्ती है, आप मुलािहजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह

सकते हों, तो मुझिे उसकी दुर्कान िदिखा दिीिजए।नहीं आपको शमर्च आती हो तो उसका नाम बता दिीिजए, मैं पता

लगा लूंगी। वाह, अच्छी िदिल्लगी! दुर्कान नीलाम करा दूंगी। जेल िभजवा दूंगी। इन बदिमाशों से लडाई के बगैर

काम नहीं चलता।’ रमा अप्रितभ होकर ज़मीन की ओर ताकने लगा। वह िकतनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने

रतन से रूपये िलए! बैठे-िबठाए िवपित्ति मोल ली।

जालपा ने कहा, ‘सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सराफ की दुर्कान पर ले जाते, चीज़ आंखों से देखकर इन्हें

संतोष हो जायगा।’

रतन—‘मैं अब चीज़ लेना ही नहीं चाहती।’

रमा ने कांपते हुए कहा,’अच्छी बात है, आपको रूपये कल िमल जायंग।’

रतन—‘कल िकस वक्त?’

रमानाथ—‘दिफ्तर से लौटते वक्त लेता आऊंगा।’

रतन—‘पूरे रूपये लूंगी। ऐसा न हो िक सौ-दिो सौ रूपये देकर टाल दे।’

रमानाथ—‘कल आप अपने सब रूपये ले जाइएगा।’

यह कहता हुआ रमा मरदिाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रूक्का िलखकर गोपी से

बोला,इसे रमेश बाबू के पास ले जाओ। जवाब िलखाते आना। िफर उसने एक दूसरा रूक्का िलखकर

िवश्वम्भरदिास को िदिया िक मािणकदिास को िदिखाकर जवाब लाए। िवश्वम्भर ने कहा,’पानी आ रहा है।’

रमानाथ—‘तो क्या सारी दुर्िनया बह जाएगी! दिौड़ते हुए जाओ।’

िवश्वम्भर—‘और वह जो घर पर न िमलें?’

रमानाथ—‘िमलेंग। वह इस वक्त क़हीं नहीं जाते।’

आज जीवन में पहला अवसर था िक रमा ने दिोस्तों से रूपये उधार मांग। आग्रह और िवनय के िजतने शब्दि

उसे यादि आये, उनका उपयोग िकया। उसके िलए यह िबलकुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने िलखे, वैसे

ही पत्र उसके पास िकतनी ही बार आ चुके थ। उन पत्रों को पढ़कर उसका ह्रदिय िकतना द्रिवत हो जाता था, पर

िववश होकर उसे बहाने करने पड़ते थ। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जायंग- उनकी आमदिनी ज्यादिा है, ख़चर्च

कम, वह चाहें तो रूपये का इंतजाम कर सकते ह। क्या मेरे साथ इतना सुलूक भी न करग? अब तक दिोनों लङके

लौटकर नहीं आए। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और

उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी और चल दिी। दिोनों कहां रह गए अब तक! कहीं खेलने

लग होंग। शैतान तो ह ही। जो कहीं रमेश रूपये दे दें, तो चांदिी है। मैंने दिो सौ नाहक मांग, शायदि इतने रूपये

उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। मािणक चाहे तो हज़ार-पांच

सौ दे सकता है, लेिकन देखा चािहए, आज परीक्षा हो जायगी। आज अगर इन लोगों ने रूपये न िदिए, तो िफर

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बात भी न पूछूंगा। िकसी का नौकर नहीं हूं िक जब वह शतरंज खेलने को बुलायें तो दिौडाचला जाऊं। रमा िकसी

की आहट पाता, तो उसका िदिल ज़ोर से धड़कने लगता था। आिखर िवश्वम्भर लौटा, मािणक ने िलखा

था,आजकल बहुत तंग हूं। मैं तो तुम्हीं से मांगने वाला था। रमा ने पुज़ा फाड़कर फेंक िदिया। मतलबी कहीं का!

अगर सब-इंस्पेक्टर ने मांगा होता तो पुज़ा देखते ही रूपये लेकर दिौड़े जाते। ख़ैर, देखा जायगा। चुंगी के िलए

माल तो आयगा ही। इसकी कसर तब िनकल जायगी। इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने िलखा था,मैंने अपने

जीवन में दिोचार िनयम बना िलए ह। और बडी कठोरता से उनका पालन करता हूं। उनमें से एक िनयम यह भी

है िक िमत्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूंगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेिकन कुछ िदिनों में हो जाएगा

िक जहां िमत्रों से लेन-देन शुरू हुआ, वहां मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दिोस्त हो, मैं तुमसे

दुर्श्मनी नहीं करना चाहता। इसिलए मुझिे क्षमा करो। रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक िदिया और कुसी पर

बैठकर दिीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा। दिीपक उसे िदिखाई देता था, इसमें संदेह है। इतनी ही

एकाग्रता से वह कदिािचत आकाश की काली, अभेध मेघ-रािश की ओर ताकता! मन की एक दिशा वह भी होती

है, जब आंखें खुली होती ह और कुछ नहीं सूझिता, कान खुले रहते ह और कुछ नहीं सुनाई देता।

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अठारह

संध्या हो गई थी, म्युिनिसपैिलटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कमर्चचारी एक-एक करके जा रहे थ।

मेहतर कमरों में झिाडू लगा रहा था। चपरािसयों ने भी जूते पहनना शुरू कर िदिया था। खोंचेवाले िदिनभर की

िबकी के पैसे िगन रहे थ। पर रमानाथ अपनी कुसी पर बैठा रिजस्टर िलख रहा था। आज भी वह प्रातःकाल

आया था, पर आज भी कोई बडा िशकार न फंसा, वही दिस रूपये िमलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का

उसके पास और क्या उपाय था! रमा ने रतन को झिांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था िक रतन की यह

अधीरता केवल इसिलए है िक शायदि उसके रूपये मैंने ख़चर्च कर िदिए। अगर उसे मालूम हो जाए िक उसके रूपये

तत्काल िमल सकते ह, तो वह शांत हो जाएगी। रमा उसे रूपये से भरी हुई थैली िदिखाकर उसका संदेह िमटा

देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा था। उसने आज जान-बूझिकर देर की थी।

आज की आमदिनी के आठ सौ रूपये उसके पास थ। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार

बजे उठा। उसे क्या ग़रज़ थी िक रमा से आज की आमदिनी मांगता। रूपये िगनने से ही छुट्टी िमली। िदिनभर वही

िलखते-िलखते और रूपये िगनते-िगनते बेचारे की कमर दुर्ख रही थी। रमा को जब मालूम हो गया िक खजांची

साहब दूर िनकल गए होंग, तो उसने रिजस्टर बंदि कर िदिया और चपरासी से बोला, ‘थैली उठाओ। चलकर जमा

कर आएं।’

चपरासी ने कहा, ‘खजांची बाबू तो चले गए!’

रमा ने आखें गाड़कर कहा, ‘खजांची बाबू चले गए! तुमने मुझिसे कहा क्यों नहीं- अभी िकतनी दूर गए

होंग?’

चपरासी—‘सड़क के नुक्कड़ तक पहुंचे होंग।’

रमानाथ—‘यह आमदिनी कैसे जमा होगी?’

चपरासी—‘हुकुम हो तो बुला लाऊं?’

रमानाथ—‘अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओग। हो तुम भी

िनरे बिछया के ताऊब आज ज्यादिा छान गए थ क्या? ख़ैर, रूपये इसी दिराज़ में रखे रहेंग। तुम्हारी िज़म्मेदिारी

रहेगी।’

चपरासी—‘नहीं बाबू साहब, मैं यहां रूपया नहीं रखने दूंगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रूपये उठ

जायं, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊं। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहां।’

रमानाथ—‘तो िफर ये रूपये कहां रक्खूं?’

चपरासी—‘हुजूर, अपने साथ लेते जाएं।’

रमा तो यह चाहता ही था। एक इक्का मंगवाया, उस पर रूपयों की थैली रक्खी और घर चला। सोचता

जाता था िक अगर रतन भभकी में आ गई, तो क्या पूछना! कह दूंगा, दिो-ही-चार िदिन की कसर है। रूपये सामने

देखकर उसे तसल्ली हो जाएगी।

जालपा ने थैली देखकर पूछा,क्या कंगन न िमला?’

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रमानाथ—‘अभी तैयार नहीं था, मैंने समझिा रूपये लेता चलूं िजसमें उन्हें तस्कीन हो जाय।

जालपा—‘क्या कहा सराफ ने?’

रमानाथ—‘कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतन देवी आइ नहीं?’

जालपा—‘आती ही होगी, उसे चैन कहां?’

जब िचराग जले तक रतन न आई, तो रमा ने समझिा अब न आएगी। रूपये आल्मारी में रख िदिए और

घूमने चल िदिया। अभी उसे गए दिस िमनट भी न हुए होंग िक रतन आ पहुंची और आते-ही-आते बोली,कंगन तो

आ गए होंग?’

जालपा—‘हां आ गए ह, पहन लो! बेचारे कई दिफा सराफ के पास गए। अभागा देता ही नहीं, हीले-हवाले

करता है।’

रतन—‘कैसा सराफ है िक इतने िदिन से हीले-हवाले कर रहा है। मैं जानती िक रूपये झिमेले में पड़ जाएंग,

तो देती ही क्यों। न रूपये िमलते ह, न कंगन िमलता है!’

रतन ने यह बात कुछ ऐसे अिवश्वास के भाव से कही िक जालपा जल उठी। गवर्च से बोली,आपके रूपये रखे

हुए ह, जब चािहए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आिखर जब सराफ देगा, तभी तो लाएंग?’

रतन—‘कुछ वादिा करता है, कब तक देगा?’

जालपा—‘उसके वादिों का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है।’

रतन—‘तो इसके मानी यह ह िक अब वह चीज़ न बनाएगा?’

जालपा—‘जो चाहे समझि लो!’

रतन—‘तो मेरे रूपये ही दे दिो, बाज आई ऐसे कंगन से।’

जालपा झिमककर उठी, आल्मारी से थैली िनकाली और रतन के सामने पटककर बोली, ‘ये आपके रूपये

रखे ह, ले जाइए।’

वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वही था, जो रमा ने समझिा था। उसे भ्रम हो रहा था िक इन

लोगों ने मेरे रूपये ख़चर्च कर डाले। इसीिलए वह बार-बार कंगन का तकाजा करती थी। रूपये देखकर उसका भ्रम

शांत हो गया। कुछ लिज्जत होकर बोली, ‘अगर दिो-चार िदिन में देने का वादिा करता हो तो रूपये रहने दिो।’

जालपा—‘मुझिे तो आशा नहीं है िक इतनी जल्दि दे दे। जब चीज़ तैयार हो जायगी तो रूपये मांग िलए

जाएंग।’

रतन—‘क्या जाने उस वक्त मेरे पास रूपये रहें या न रहें। रूपये आते तो िदिखाई देते ह, जाते नहीं िदिखाई

देते। न जाने िकस तरह उड़ जाते ह। अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा?’

जालपा—‘तो यहां भी तो वही हाल है। िफर पराई रकम घर में रखना जोिखम की बात भी तो है। कोई

गोलमाल हो जाए, तो व्यथर्च का दिंड देना पड़े। मेरे ब्याह के चौथ ही िदिन मेरे सारे गहने चोरी चले गए। हम लोग

जागते ही रहे, पर न जाने कब आंख लग गई, और चोरों ने अपना काम कर िलया। दिस हज़ार की चपत पड़ गई।

कहीं वही दुर्घर्चटना िफर हो जाय तो कहीं के न रहें।’

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रतन—‘अच्छी बात है, मैं रूपये िलये जाती हूं; मगर देखना िनिश्चन्त न हो जाना। बाबूजी से कह देना

सराफ का िपड न छोड़ं।’

रतन चली गई। जालपा खुश थी िक िसर से बोझि टला। बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों कठोरतम

आघात होता है, जो हमारे सच्चे िहतैषी होते ह। रमा कोई नौ बजे घूमकर लौटा, जालपा रसोई बना रही थी।

उसे देखते ही बोली, ‘रतन आई थी, मैंने उसके सब रूपये दे िदिए।’

रमा के पैरों के नीचे से िमट्टी िखसक गई। आंखें फैलकर माथ पर जा पहुंचीं। घबराकर बोला, ‘क्या कहा,

रतन को रूपये दे िदिए? तुमसे िकसने कहा था िक उसे रूपये दे देना?’

जालपा—‘उसी के रूपये तो तुमने लाकर रक्खे थ। तुम खुदि उसका इंतजार करते रहे। तुम्हारे जाते ही वह

आई और कंगन मांगने लगी। मैंने झिल्लाकर उसके रूपये फेंक िदिए।

रमा ने सावधन होकर कहा, ‘उसने रूपये मांग तो न थ?’

जालपा—‘मांग क्यों नहीं। हां, जब मैंने दे िदिए तो अलबत्तिा कहने लगी, इसे क्यों लौटाती हो, अपने पास

ही पडारहने दिो। मैंने कह िदिया, ऐसे शक्की िमज़ाज वालों का रूपया मैं नहीं रखती।’

रमानाथ—‘ईश्वर के िलए तुम मुझिसे िबना पूछे ऐसे काम मत िकया करो।’

जालपा—‘तो अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रूपये मांग लाओ, मगर अभी से रूपये घर में लाकर अपने

जी का जंजाल क्यों मोल लोग।’

रमा इतना िनस्तेज हो गया िक जालपा पर िबगड़ने की भी शिक्त उसमें न रही। रूआंसा होकर नीचे चला

गया और िस्थित पर िवचार करने लगा। जालपा पर िबगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ कह िदिया िक ये

रूपये रतन के ह, और इसका संकेत तक न िकया िक मुझिसे पूछे बगैर रतन को रूपये मत देना, तो जालपा का

कोई अपराध नहीं। उसने सोचा,इस समय झिल्लाने और िबगड़ने से समस्या हल न होगी। शांत िचत्ति होकर

िवचार करने की आवश्यकता थी। रतन से रूपये वापस लेना अिनवायर्च था। िजस समय वह यहां आई है, अगर मैं

खुदि मौजूदि होता तो िकतनी खूबसूरती से सारी मुिश्कल आसान हो जाती। मुझिको क्या शामत सवार थी िक

घूमने िनकला! एक िदिन न घूमने जाता, तो कौन मरा जाता था! कोई गुप्त शिक्त मेरा अिनष्ट करने पर उताई हो

गई है। दिस िमनट की अनुपिस्थित ने सारा खेल िबगाड़ िदिया। वह कह रही थी िक रूपये रख लीिजए। जालपा ने

ज़रा समझि से काम िलया होता तो यह नौबत काहे को आती। लेिकन िफर मैं बीती हुई बातें सोचने लगा। समस्या

है, रतन से रूपये वापस कैसे िलए जाएं ।क्यों न चलकर कहूं, रूपये लौटाने से आप नाराज हो गई ह। असल में मैं

आपके िलए रूपये न लाया था। सराफ से इसिलए मांग लाया था, िजसमें वह चीज़ बनाकर दे दे। संभव है, वह

खुदि ही लिज्जत होकर क्षमा मांग और रूपये दे दे। बस इस वक्त वहां जाना चािहए।

यह िनश्चय करके उसने घड़ी पर नज़र डाली। साढ़े आठ बजे थ। अंधकार छाया हुआ था। ऐसे समय रतन

घर से बाहर नहीं जा सकती। रमा ने साइिकल उठाई और रतन से िमलने चला।

रतन के बंगले पर आज बडी बहार थी। यहां िनत्य ही कोई-न-कोई उत्सव, दिावत, पाटी होती रहती थी।

रतन का एकांत नीरस जीवन इन िवषयों की ओर उसी भांित लपकता था, जैसे प्यासा पानी की ओर लपकता है।

इस वक्त वहां बच्चों का जमघट था। एक आम के वृतक्ष में झिूला पडा था, िबजली की बित्तियां जल रही थीं, बच्चे

झिूला झिूल रहे थ और रतन खड़ी झिुला रही थी। हू-हा मचा हुआ था। वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी

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ओवरकोट पहने बरामदे में बैठे िसगार पी रहे थ। रमा की इच्छा हुई, िक झिूले के पास जाकर रतन से बातें करे,

पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका। वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा

िदिया और बोले, ‘आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युिनिसपल बोडर्च की क्या खबर ह?’

रमा ने कुसी पर बैठते हुए कहा, ‘कोई नई बात तो नहीं हुई।‘

वकील,--‘आपके बोडर्च में लड़िकयों की अिनवायर्च िशक्षा का प्रस्ताव कब पास होगा? और कई बोडोऊ ने तो

पास कर िदिया। जब तक िस्त्रयों की िशक्षा का काफी प्रचार न होगा, हमारा कभी उद्धिार न होगा। आप तो योरप

न गए होंग? ओह! क्या आज़ादिी है, क्या दिौलत है, क्या जीवन है, क्या उत्साह है! बस मालूम होता है, यही स्वगर्च

है। और िस्त्रयां भी सचमुच देिवयां ह। इतनी

हंसमुख, इतनी स्वच्छंदि, यह सब स्त्री-िशक्षा का प्रसादि है! ‘

रमा ने समाचार-पत्रों में इन देशों का जो थोडा-बहुत हाल पढ़ा था, उसके आधार पर बोला,वहां िस्त्रयों

का आचरण तो बहुत अच्छा नहीं है।‘

वकील--‘नान्सेसं ! अपने-अपने देश की प्रथा है। आप एक युवती को िकसी युवक के साथ एकांत में िवचरते

देखकर दिांतों तले उंगली दिबाते ह। आपका अंप्तःकरण इतना मिलन हो गया है िक स्त्री-पुरूष को एक जगह

देखकर आप संदेह िकए िबना रह ही नहीं सकते, पर जहां लङके और लड़िकयां एक साथ िशक्षा पाते ह, वहां यह

जाित-भेदि बहुत महत्व की वस्तु नहीं रह जाती,आपस में स्नेह और सहानुभूित की इतनी बातें पैदिा हो जाती ह िक

कामुकता का अंश बहुत थोडारह जाता है। यह समझि लीिजए िक िजस देश में िस्त्रयों की िजतनी अिधक

स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है। िस्त्रयों को कैदि में, परदे में, या पुरूषों से कोसों दूर रखने का तात्पयर्च

यही िनकलता है िक आपके यहां जनता इतनी आचार-भ्रष्ट है िक िस्त्रयों का अपमान करने में ज़रा भी संकोच

नहीं करती। युवकों के िलए राजनीित, धमर्च, लिलत-कला, सािहत्य, दिशर्चन, इितहास, िवज्ञान और हज़ारों ही ऐसे

िवषय ह, िजनके आधार पर वे युवितयों से गहरी दिोस्ती पैदिा कर सकते ह। कामिलप्सा उन देशों के िलए आकषर्चण

का प्रधान िवषय है, जहां लोगों की मनोवृतित्तियां संकुिचत रहती ह। मैं सालभर योरप और अमरीका में रह चुका

हूं। िकतनी ही सुंदििरयों के साथ मेरी दिोस्ती थी। उनके साथ खेला हूं, नाचा भी हूं, पर कभी मुंह से ऐसा शब्दि न

िनकलता था, िजसे सुनकर िकसी युवती को लज्जा से िसर झिुकाना पड़े, और िफर अच्छे और बुरे कहां नहीं ह?’

रमा को इस समय इन बातों में कोई आनंदि न आया, वह तो इस समय दूसरी ही िचता में मग्न था। वकील साहब

ने िफर कहा,जब तक हम स्त्री-पुरूषों को अबाध रूप से अपना-अपना मानिसक िवकास न करने देंग, हम अवनित

की ओर िखसकते चले जाएंग। बंधनों से समाज का पैर न बांिधए, उसके गले में कैदिी की जंजीर न डािलए।

िवधवा-िववाह का प्रचार कीिजए, खूब ज़ोरों से कीिजए, लेिकन यह बात मेरी समझि में नहीं आती िक जब कोई

अधेड़ आदिमी िकसी युवती से ब्याह कर लेता है तो क्यों अख़बारों में इतना कुहराम मच जाता है। युरोप में अस्सी

बरस के बूढ़े युवितयों से ब्याह करते ह, सत्तिर वषर्च की वृतद्धिाएं युवकों से िववाह करती ह, कोई कुछ नहीं कहता।

िकसी को कानोंकान ख़बर भी नहीं होती। हम बूढ़ों को मरने के पहले ही मार डालना चाहते ह। हालांिक मनुष्य

को कभी िकसी सहगािमनी की जरूरत होती है तो वह बुढ़ापे में, जब उसे हरदिम िकसी अवलंब की इच्छा होती

है, जब वह परमुखापेक्षी हो जाता है। रमा का ध्यान झिूले की ओर था। िकसी तरह रतन से दिो-दिो बातें करने का

अवसर िमले। इस समय उसकी सबसे बडी यही कामना थी। उसका वहां जाना िशष्टाचार के िवरूद्धि था। आिख़र

उसने एक क्षण के बादि झिूले की ओर देखकर कहा, ‘ये इतने लङके िकधर से आ गए?’

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वकील—‘रतन बाई को बाल-समाज से बडा स्नेह है। न जाने कहां?कहां से इतने लङके जमा हो जाते ह।

अगर आपको बच्चों से प्यार हो, तो जाइए! रमा तो यह चाहता ही था, चट झिूले के पास जा पहुंचा। रतन उसे

देखकर मुस्कराई और बोली, ‘इन शैतानों ने मेरी नाक में दिम कर रक्खा है। झिूले से इन सबों का पेट ही नहीं

भरता। आइए, ज़रा आप भी बेगार कीिजए, मैं तो थक गई। यह कहकर वह पक्के चबूतरे पर बैठ गई। रमा झिोंके

देने लगा। बच्चों ने नया आदिमी देखा, तो सब-के-सब अपनी बारी के िलए उतावले होने लग। रतन के हाथों दिो

बािरयां आ चुकी थीं? पर यह कैसे हो सकता था िक कुछ लङके तो तीसरी बार झिूलें, और बाकी बैठे मुंह ताकें!

दिो उतरते तो चार झिूले पर बैठ जाते। रमा को बच्चों से नाममात्र को भी प्रेम न था पर इस वक्त फंस गया था,

क्या करता! आिख़र आधा घंट की बेगार के बादि उसका जी ऊब गया। घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थ। मतलब की

बात कैसे छेड़े। रतन तो झिूले में इतनी मग्न थी, मानो उसे रूपयों की सुध ही नहीं है। सहसा रतन ने झिूले के पास

जाकर कहा, ‘बाबूजी, मैं बैठती हूं, मुझिे झिुलाइए, मगर नीचे से नहीं, झिूले पर खड़े होकर पेंग मािरए।’

रमा बचपन ही से झिूले पर बैठते डरता था। एक बार िमत्रों ने जबरदिस्ती झिूले पर बैठा िदिया, तो उसे

चक्कर आने लगा, पर इस अनुरोध ने उसे झिूले पर आने के िलए मजबूर कर िदिया। अपनी अयोग्यता कैसे प्रकट

करे। रतन दिो बच्चों को लेकर बैठ गई, और यह गीत गाने लगी,

कदिम की डिरया झिूला पड़ गयो री, राधा रानी झिूलन आई।

रमा झिूले पर खडा होकर पेंग मारने लगा, लेिकन उसके पांव कांप रहे थ, और िदिल बैठा जाता था। जब

झिूला ऊपर से िफरता था, तो उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में चुभती चली जा रही

है,और रतन लड़िकयों के साथ गा रही थी,

कदिम की डिरया झिूला पड़ गयो री, राधा रानी झिूलन आई।

एक क्षण के बादि रतन ने कहा, ‘ज़रा और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झिूला बढ़ता ही नहीं।’

रमा ने लिज्जत होकर और ज़ोर लगाया पर झिूला न बढ़ा, रमा के िसर में चक्कर आने लगा।

रतन—‘आपको पेंग मारना नहीं आता, कभी झिूला नहीं झिूले?’

रमा ने िझिझिकते हुए कहा, ‘हां, इधर तो वषो से नहीं बैठा।’

रतन—‘तो आप इन बच्चों को संभालकर बैिठए, मैं आपको झिुलाऊंगी।’

अगर उस डाल से न छू ले तो किहएगा! रमा के प्राण सूख गए। बोला,आजतो बहुत देर हो गई है, िफर

कभी आऊंगा। ’

रतन—‘अजी अभी क्या देर हो गई है, दिस भी नहीं बजे, घबडाइए नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब

झिूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दिोनों झिूलेंग।’

रमा झिूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब िगरा, अब िगरा। वह

लड़खडाता हुआ साइिकल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा।

पांव आप ही आप पैडल घुमाते जाते थ, आधी दूर जाने के बादि उसे होश आया। उसने साइिकल घुमा दिी, कुछ दूर

चला, िफर उतरकर सोचने लगा,आज संकोच में पड़कर कैसी बाज़ी हाथ से खोई, वहां से चुपचाप अपना-सा मुंह

िलये लौट आया। क्यों उसके मुंह से आवाज़ नहीं िनकली। रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा

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उसे यादि आया, थैली में आठ सौ रूपये थ, जालपा ने झिुंझिलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दिी। शायदि, उसने

भी िगना नहीं, नहीं जरूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली िकसी को दे दे, या और रूपयों में िमला दे, तो गजब ही

हो जाए। कहीं का न रहूं। क्यों न इसी वक्त चलकर बेशी रूपये मांग लाऊं, लेिकन देर बहुत हो गई है, सबेरे िफर

आना पड़ेगा। मगर यह दिो सौ रूपये िमल भी गए, तब भी तो पांच सौ रूपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध

होगा? ईश्वर ही बेडा पार लगाएं तो लग सकता है।

सबेरे कुछ प्रबंध न हुआ, तो क्या होगा! यह सोचकर वह कांप उठा। जीवन में ऐसे अवसर भी आते ह, जब

िनराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार िफर गंगू के पास चलूं, शायदि दुर्कान पर िमल जाय,

उसके हाथ-पांव जोडूं। संभव है, कुछ दिया आ जाय। वह सराफे जा पहुंचा मगर गंगू की दुर्कान बंदि थी। वह लौटा

ही था िक चरनदिास आता हुआ िदिखाई िदिया।

रमा को देखते ही बोला,बाबूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ िदिया। किहए रूपये कब तक िमलेंग?’

रमा ने िवनम भाव से कहा, ‘अब बहुत जल्दि िमलेंग भाई, देर नहीं है। देखो गंगू के रूपये चुकाए ह, अब

की तुम्हारी बारी है।’

चरनदिास, ‘वह सब िकस्सा मालूम है, गंगू ने होिशयारी से अपने रूपये न ले िलये होते, तो हमारी तरह

टापा करते। साल-भर हो रहा है। रूपये सैकड़े का सूदि भी रिखए तो चौरासी रूपये होते ह। कल आकर िहसाब

कर जाइए, सब नहीं तो आधा-ितहाई कुछ दे दिीिजए।लेते-देते रहने से मािलक को ढाढ़स रहता है। कान में तेल

डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने लगती है िक इनकी नीयत ख़राब है। तो कल कब आइएगा?’

रमानाथ—‘भई, कल मैं रूपये लेकर तो न आ सकूंगा, यों जब कहो तब चला आऊं। क्यों, इस वक्त अपने

सेठजी से चार-पांच सौ रूपयों का बंदिोबस्त न करा दिोग?’तुम्हारी मुट्ठी भी गमर्च कर दूंगा। ’

चरनदिास—‘कहां की बात िलये िफरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंग नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक

िकया िक नािलश नहीं कर दिी। आपके पीछे मुझिे बातें सुननी पड़ती ह। क्या बडे मुंशीजी से कहना पड़ेगा?’

रमा ने झिल्लाकर कहा, ‘तुम्हारा देनदिार मैं हूं, बडे मुंशी नहीं ह। मैं मर नहीं गया हूं, घर छोड़कर भागा

नहीं जाता हूं। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो? ’

चरनदिास—‘साल-भर हुआ, एक कौड़ी नहीं िमली, अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दिो सौ की

िगकर कर रिखएगा।’

रमानाथ—‘मैंने कह िदिया, मेरे पास अभी रूपये नहीं ह।’

चरनदिास—‘रोज़ गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो, रूपये नहीं ह। कल रूपये जुटा रखना।

कल आदिमी जाएगा जरूर।’

रमा ने उसका कोई जवाब न िदिया, आग बढ़ा। इधर आया था िक कुछ काम िनकलेगा, उल्ट तकाज़ा सहना

पड़ा। कहीं दुर्ष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाज़ा न भेज दे। आग ही हो जायंग। जालपा भी समझिेगी, कैसा

लबािडया आदिमी है। इस समय रमा की आंखों से आंसू तो न िनकलते थ, पर उसका एक- एक रोआं रो रहा था।

जालपा से अपनी असली हालत िछपाकर उसने िकतनी भारी भूल की! वह समझिदिार औरत है, अगर उसे मालूम

हो जाता िक मेरे घर में भूंजी भांग भी नहीं है, तो वह मुझिे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने

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मुंह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के िलए मरा जा रहा था। इतना बडा बोझि िसर पर लेकर भी

मैंने क्यों िकफायत से काम नहीं िलया? मुझिे एक-एक पैसा दिांतों से पकड़ना चािहए था। साल-भर में मेरी

आमदिनी सब िमलाकर एक हज़ार से कम न हुई होगी। अगर िकफायत से चलता, तो इन दिोनों महाजनों के आधे-

आधे रूपये जरूर अदिा हो जाते, मगर यहां तो िसर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी िक जालपा

मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज सैर करने जाती- सैकड़ों रूपये तो तांग वाला ले गया होगा, मगर यहां

तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाज़ार जान जाय िक लाला िनरे लफंग ह, पर अपनी स्त्री न

जानने पाए! वाह री बुिद्धि, दिरवाज़े के िलए परदिों की क्या जरूरत थी! दिो लैंप क्यों लाया, नई िनवाड़ लेकर

चारपाइयां क्यों िबनवाई, उसने रास्ते ही में उन ख़चो का िहसाब तैयार कर िलया, िजन्हें उसकी हैिसयत के

आदिमी को टालना चािहए था। आदिमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी िचता नहीं रहती िक वह क्या खाता

है, िकतना खाता है, कब खाता है, लेिकन जब कोई िवकार उत्पन्न हो जाता है, तो उसे यादि आती है िक कल मैंने

पकौिडयां खाई थीं। िवजय बिहमुर्चखी होती है, पराजय अन्तमुर्चखी। जालपा ने पूछा, ‘कहां चले गए थ, बडी देर

लगा दिी।’

रमानाथ—‘तुम्हारे कारण रतन के बंगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रूपये उठाकर दे िदिए, उसमें दिो सौ

रूपये मेरे भी थ। ’

जालपा—‘तो मुझिे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था, मगर उनके पास से रूपये कहीं जा नहीं

सकते, वह आप ही भेज देंगी।’

रमानाथ—‘माना, पर सरकारी रकम तो कल दिािख़ल करनी पड़ेगी।’

जालपा—‘कल मुझिसे दिो सौ रूपये ले लेना, मेरे पास ह।’

रमा को िवश्वास न आया। बोला—‘कहीं हों न तुम्हारे पास! इतने रूपये कहां से आए? ’

जालपा—‘तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दिो सौ रूपये देने को कहती हूं।’

रमा का चेहरा िखल उठा। कुछ-कुछ आशा बंधी। दिो-सौ रूपये यह देदे, दिो सौ रूपये रतन से ले लूं, सौ

रूपये मेरे पास ह ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जाएगी, मगर यही तीन सौ रूपये कहां से आएंग? ऐसा कोई

नज़र न आता था, िजससे इतने रूपये िमलने की आशा की जा सके। हां, अगर रतन सब रूपये दे दे तो िबगड़ी

बात बन जाय। आशा का यही एक आधार रह गया था।

जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा, ‘आज िकस सोच में पड़े हो?’

रमानाथ—‘सोच िकस बात का- क्या मैं उदिास हूं?’

जालपा—‘हां, िकसी िचता में पड़े हुए हो, मगर मुझिसे बताते नहीं हो!’

रमानाथ—‘ऐसी कोई बात होती तो तुमसे िछपाता?’

जालपा—‘वाह, तुम अपने िदिल की बात मुझिसे क्यों कहोग? ऋिषयों की आज्ञा नहीं है।’

रमानाथ—‘मैं उन ऋिषयों के भक्तों में नहीं हूं।’

जालपा—‘वह तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे ह्रदिय में पैठकर देखती।’

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रमानाथ—‘वहां तुम अपनी ही प्रितमा देखतीं।’

रात को जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह िचल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा,‘क्या है? जालपा, क्या

स्वप्न देख रही हो? ’

जालपा ने इधर-उधर घबडाई हुई आंखों से देखकर कहा,‘बडे संकट में जान पड़ी थी। न जाने कैसा सपना

देख रही थी! ’

रमानाथ—‘क्या देखा?’

जालपा—‘क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी िक तुम्हें कई िसपाही पकड़े िलये जा रहे ह।

िकतना भंयकर रूप था उनका!’

रमा का खून सूख गया। दिो-चार िदिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उडा िदिया होता, इस समय वह

अपने को सशंिकत होने से न रोक सका, पर बाहर से हंसकर बोला, ‘तुमने िसपािहयों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों

पकड़े िलये जाते हो?’

जालपा—‘तुम्हें हंसी सूझि रही है, और मेरा ह्रदिय कांप रहा है।’

थोड़ी देर के बादि रमा ने नींदि में बकना शुरू िकया, ‘अम्मां, कहे देता हूं, िफर मेरा मुंह न देखोगी, मैं डूब

मरूंगा।’

जालपा को अभी तक नींदि न आई थी, भयभीत होकर उसने रमा को ज़ोर से िहलाया और बोली, ‘मुझिे तो

हंसते थ और खुदि बकने लग। सुनकर रोएं खड़े हो गए। स्वप्न देखते थ क्या? ’

रमा ने लिज्जत होकर कहा, -- हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ यादि नहीं।’

जालपा ने पूछा, ‘अम्मांजी को क्यों धमका रहे थ। सच बताओ, क्या देखते थ? ’

रमा ने िसर खुजलाते हुए कहा, ‘कुछ यादि नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।’

जालपा—‘अच्छा तो करवट सोना। िचत सोने से आदिमी बकने लगता है।’

रमा करवट पौढ़ गया, पर ऐसा जान पड़ता था, मानो िचता और शंका दिोनों आंखों में बैठी हुई िनद्रा के

आकमण से उनकी रक्षा कर रही ह। जगते हुए दिो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उंड़ेलती

हुई बोली, ‘बडी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो? ’

रमा—‘हां जी, नींदि उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दिो सौ रूपये कहां से आ गए? मुझिे इसका

आश्चयर्च है।’

जालपा—‘ये रूपये मैं मायके से लाई थी, कुछ िबदिाई में िमले थ, कुछ पहले से रक्खे थ। ’

रमानाथ—‘तब तो तुम रूपये जमा करने में बडी कुशल हो यहां क्यों नहीं कुछ जमा िकया?’

जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘तुम्हें पाकर अब रूपये की परवाह नहीं रही।’

रमानाथ—‘अपने भाग्य को कोसती होगी!’

जालपा—‘भाग्य को क्यों कोसूं, भाग्य को वह औरतें रोएं, िजनका पित िनखट्टू हो, शराबी हो, दुर्राचारी

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हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदिता रहे, बात-बात पर िबगड़े। पुरूष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास

करके भी प्रसन्न रहेगी।’

रमा ने िवनोदि भाव से कहा, ‘तो मैं तुम्हारे मन का हूं! ’

जालपा ने प्रेम-पूणर्च गवर्च से कहा, ‘मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर िनकले। मेरी तीन सहेिलयां ह।

एक का भी पित ऐसा नहीं। एक एम.ए. है पर सदिा रोगी। दूसरा िवद्वान भी है और धनी भी, पर वेश्यागामीब

तीसरा घरघुस्सू है और िबलकुल िनखट्टू…’

रमा का ह्रदिय गदिगदि हो उठा। ऐसी प्रेम की मूित और दिया की देवी के साथ उसने िकतना बडा

िवश्वासघात िकया। इतना दुर्राव रखने पर भी जब इसे मुझिसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे िनष्कपट होकर

रहता, तो मेरा जीवन िकतना आनंदिमय होता!

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उन्नीस

प्रातःकाल रमा ने रतन के पास अपना आदिमी भेजा। ख़त में िलखा, मुझिे बडा खेदि है िक कल जालपा ने

आपके साथ ऐसा व्यवहार िकया, जो उसे न करना चािहए था। मेरा िवचार यह कदिािप न था िक रूपये आपको

लौटा दूं, मैंने सराफ को ताकीदि करने के िलए उससे रूपये िलए थ। कंगन दिो-चार रोज़ में अवश्य िमल जाएंग।

आप रूपये भेज दें। उसी थैली में दिो सौ रूपये मेरे भी थ। वह भी भेिजएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए

िजतनी िवनमता उससे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रक्खी। जब तक आदिमी लौटकर न आया, वह बडी

व्यग्रता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचता, कहीं बहाना न कर दे, या घर पर िमले ही नहीं, या दिो-चार

िदिन के बादि देने का वादिा करे। सारा दिारोमदिार रतन के रूपये पर था। अगर रतन ने साफ जवाब दे िदिया, तो

िफर सवर्चनाश! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा रहे थ। आिख़र नौ बजे आदिमी लौटा। रतन ने दिो सौ

रूपये तो िदिए थ। मगर खत का कोई जवाब न िदिया था। रमा ने िनराश आंखों से आकाश की ओर देखा। सोचने

लगा, रतन ने ख़त का जवाब क्यों नहीं िदिया- मामूली िशष्टाचार भी नहीं जानती? िकतनी मक्कार औरत है!

रात को ऐसा मालूम होता था िक साधुता और सज्जनता की प्रितमा ही है, पर िदिल में यह गुबार भरा हुआ था!

शष रूपयों की िचता में रमा को नहाने-खाने की भी सुध न रही। कहार अंदिर गया, तो जालपा ने पूछा, ‘तुम्हें

कुछ काम-धंधो की भी ख़बर है िक मटरगश्ती ही करते रहोग! दिस बज रहे ह, और अभी तक तरकारी-भाजी का

कहीं पता नहीं?’

कहार ने त्योिरयां बदिलकर कहा, ‘तो का चार हाथ-गोड़ कर लेई! कामें से तो गवा रिहनब बाबू मेम

साहब के तीर रूपैया लेबे का भेिजन रहा।’

जालपा—‘कौन मेम साहब?’

कहार—‘ ‘जौन मोटर पर चढ़कर आवत ह।’

जालपा—‘तो लाए रूपये?’

कहार —‘लाए काहे नाहींब िपरथी के छोर पर तो रहत ह, दिौरत-दिौरत गोड़ िपराय लाग।’

जालपा—‘अच्छा चटपट जाकर तरकारी लाओ।’

कहार तो उधर गया, रमा रूपये िलये हुए अंदिर पहुंचा तो जालपा ने कहा, ‘तुमने अपने रूपये रतन के पास

से मंगवा िलए न? अब तो मुझिसे न लोग?’

रमा ने उदिासीन भाव से कहा, ‘मत दिो!’

जालपा—‘मैंने कह िदिया था रूपया दे दूंगी। तुम्हें इतनी जल्दि मांगने की क्यों सूझिी? समझिी होगी, इन्हें

मेरा इतना िवश्वास भी नहीं।’

रमा ने हताश होकर कहा, ‘मैंने रूपये नहीं मांग थ। केवल इतना िलख िदिया था िक थैली में दिो सौ रूपये

ज्यादे ह। उसने आप ही आप भेज िदिए।’

जालपा ने हंसकर कहा, ‘मेरे रूपये बडे भाग्यवान ह, िदिखाऊं? चुनचुनकर नए रूपये रक्खे ह। सब इसी

साल के ह, चमाचम! देखो तो आंखें ठंडी हो जाएं।

इतने में िकसी ने नीचे से आवाज़ दिी, ‘ बाबूजी, सेठ ने रूपये के िलए भेजा है।’

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दियानाथ स्नान करने अंदिर आ रहे थ, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा, ‘कौन सेठ, कैसे रूपये? मेरे यहां िकसी

के रूपये नहीं आते!’

प्यादिा—‘छोट बाबू ने कुछ माल िलया था। साल-भर हो गए, अभी तक एक पैसा नहीं िदिया। सेठजी ने

कहा है, बात िबगड़ने पर रूपये िदिए तो क्या िदिए। आज कुछ जरूर िदिलवा दिीिजए।’

दियानाथ ने रमा को पुकारा और बोले, ‘देखो, िकस सेठ का आदिमी आया है। उसका कुछ िहसाब बाकी है,

साफ क्यों नहीं कर देते?िकतना बाकी है इसका?’

रमा कुछ जवाब न देने पाया था िक प्यादिा बोल उठा, ‘पूरे सात सौ ह, बाबूजी!’

दियानाथ की आंखें फैलकर मस्तक तक पहुंच गई, ‘सात सौ! क्यों जी,यह तो सात सौ कहता है?’

रमा ने टालने के इरादे से कहा, ‘मुझिे ठीक से मालूम नहीं।’

प्यादिा—‘मालूम क्यों नहीं। पुरजा तो मेरे पास है। तब से कुछ िदिया ही नहीं,कम कहां से हो गए।’

रमा ने प्यादे को पुकारकर कहा, ‘चलो तुम दुर्कान पर, मैं खुदि आता हूं।’

प्यादिा—‘हम िबना कुछ िलए न जाएंग, साहब! आप यों ही टाल िदिया करते ह, और बातें हमको सुननी

पड़ती ह।’

रमा सारी दुर्िनया के सामने जलील बन सकता था, िकतु िपता के सामने जलील बनना उसके िलए मौत से

कम न था। िजस आदिमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, िजसे िकसी से उधार लेकर

भोजन करने के बदिले भूखों सो रहना मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशमर्च और बेगैरत हो! रमा िपता की आत्मा

का यह घोर अपमान न कर सकता था। वह उन पर यह बात प्रकट न होने देना चाहता था िक उनका पुत्र उनके

नाम को बट्टा लगा रहा है। ककर्कश स्वर में प्यादे से बोला, ‘तुम अभी यहीं खड़े हो? हट जाओ, नहीं तो धक्का

देकर िनकाल िदिए जाओग।’

प्यादिा—‘हमारे रूपये िदिलवाइए, हम चले जायं। हमें क्या आपके द्वार पर िमठाई िमलती है! ’

रमानाथ—‘तुम न जाओग! जाओ लाला से कह देना नािलश कर दें।’

दियानाथ ने डांटकर कहा, ‘क्या बेशमी की बातें करते हो जी, जब िफरह में रूपये न थ, तो चीज़ लाए ही

क्यों? और लाए, तो जैसे बने वैसे रूपये अदिा करो। कह िदिया, नािलश कर दिो। नािलश कर देगा, तो िकतनी

आबरू रह जायगी? इसका भी कुछ ख़याल है! सारे शहर में उंगिलयां उठंगी, मगर तुम्हें इसकी क्या परवा।

तुमको यह सूझिी क्या िक एकबारगी इतनी बडी गठरी िसर पर लादि ली। कोई शादिी-ब्याह का अवसर होता, तो

एक बात भी थी। और वह औरत कैसी है जो पित को ऐसी बेहूदिगी करते देखती है और मना नहीं करती। आिख़र

तुमने क्या सोचकर यह कजर्च िलया? तुम्हारी ऐसी कुछ बडी आमदिनी तो नहीं है!’

रमा को िपता की यह डांट बहुत बुरी लग रही थी। उसके िवचार में िपता को इस िवषय में कुछ बोलने का

अिधकार ही न था। िनसंकोच होकर बोला, ‘आप नाहक इतना िबगड़ रहे ह, आपसे रूपये मांगने जाऊं तो

किहएगा। मैं अपने वेतन से थोडा-थोडा करके सब चुका दूंगा।’

अपने मन में उसने कहा, ‘यह तो आप ही की करनी का फल है। आप ही के पाप का प्रायिश्चत्तिा कर रहा

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हूं।’

प्यादे ने िपता और पुत्र में वादि-िववादि होते देखा, तो चुपके से अपनी राह ली। मुंशीजी भुनभुनाते हुए

स्नान करने चले गए। रमा ऊपर गया, तो उसके मुंह पर लज्जा और ग्लािन की फटकार बरस रही थी। िजस

अपमान से बचने के िलए वह डाल-डाल, पात-पात भागता-िफरता था, वह हो ही गया। इस अपमान के सामने

सरकारी रूपयों की िफक भी ग़ायब हो गई। कज़र्च लेने वाले बला के िहम्मती होते ह। साधारण बुिद्धिका मनुष्य

ऐसी पिरिस्थितयों में पड़कर घबरा उठता है, पर बैठकबाजों के माथ पर बल तक नहीं पड़ता। रमा अभी इस

कला में दिक्ष नहीं हुआ था। इस समय यिदि यमदूत उसके प्राण हरने आता, तो वह आंखों से दिौड़कर उसका स्वागत

करता। कैसे क्या होगा, यह शब्दि उसके एक-एक रोम से िनकल रहा था। कैसे क्या होगा! इससे अिधक वह इस

समस्या की और व्याख्या न कर सकता था। यही प्रश्न एक सवर्चव्यापी िपशाच की भांित उसे घूरता िदिखाई देता

था। कैसे क्या होगा! यही शब्दि अगिणत बगूलों की भांित चारों ओर उठते नज़र आते थ। वह इस पर िवचार न

कर सकता था। केवल उसकी ओर से आंखें बंदि कर सकता था। उसका िचत्ति इतना िखन्न हुआ िक आंखें सजल हो

गई।

जालपा ने पूछा, ‘तुमने तो कहा था, इसके अब थोड़े ही रूपये बाकी ह।’

रमा ने िसर झिुकाकर कहा, ‘यह दुर्ष्ट झिूठ बोल रहा था, मैंने कुछ रूपये िदिए ह।’

जालपा—‘िदिए होते, तो कोई रूपयों का तकषज़ा क्यों करता? जब तुम्हारी आमदिनी इतनी कम थी तो

गहने िलए ही क्यों? मैंने तो कभी िज़दि न की थी। और मान लो, मैं दिो-चार बार कहती भी, तुम्हें समझि-बूझिकर

काम करना चािहए था। अपने साथ मुझिे भी चार बातें सुनवा दिीं। आदिमी सारी दुर्िनया से परदिा रखता है, लेिकन

अपनी स्त्री से परदिा नहीं रखता। तुम मुझिसे भी परदिा रखते हो अगर मैं जानती, तुम्हारी आमदिनी इतनी थोड़ी है,

तो मुझिे क्या ऐसा शौक चराया था िक मुहल्ले-भर की िस्त्रयों को तांग पर बैठा-बैठाकर सैर कराने ले जाती।

अिधक-से-अिधक यही तो होता, िक कभी-कभी िचत्ति दुर्खी हो जाता, पर यह तकाज़े तो न सहने पड़ते। कहीं

नािलश कर दे, तो सात सौ के एक हज़ार हो जाएं। मैं क्या जानती थी िक तुम मुझि से यह छल कर रहे हो कोई

वेश्या तो थी नहीं िक तुम्हें नोच-खसोटकर अपना घर भरना मेरा काम होता। मैं तो भले- बुरे दिोनों ही की

सािथन हूं। भले में तुम चाहे मेरी बात मत पूछो, बुरे में तो मैं तुम्हारे गले पडूंगी ही।’

रमा के मुख से एक शब्दि न िनकला, दिफ्तर का समय आ गया था। भोजन करने का अवकाश न था। रमा ने

कपड़े पहने, और दिफ्तर चला। जागश्वरी ने कहा, ‘क्या िबना भोजन िकए चले जाओग?’

रमा ने कोई जवाब न िदिया, और घर से िनकलना ही चाहता था िक जालपा झिपटकर नीचे आई और उसे

पुकारकर बोली, ‘मेरे पास जो दिो सौ रूपये ह, उन्हें क्यों नहीं सराफ को दे देते?’

रमा ने चलते वक्त ज़ान-बूझिकर जालपा से रूपये न मांग थ। वह जानता था, जालपा मांगते ही दे देगी,

लेिकन इतनी बातें सुनने के बादि अब रूपये के िलए उसके सामने हाथ व्लाते उसे संकोच ही नहीं, भय होता था।

कहीं वह िफर न उपदेश देने बैठ जाए,इसकी अपेक्षा आने वाली िवपित्तियां कहीं हल्की थीं। मगर जालपा ने उसे

पुकारा, तो कुछ आशा बंधीब िठठक गया और बोला, ‘अच्छी बात है, लाओ दे दिो।’

वह बाहर के कमरे में बैठ गया। जालपा दिौड़कर ऊपर से रूपये लाई और िगन-िगनकर उसकी थैली में

डाल िदिए। उसने समझिा था, रमा रूपये पाकर फूला न समाएगा, पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी तीन सौ

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रूपये की िफक करनी थी। वह कहां से आएंग? भूखा आदिमी इच्छापूणर्च भोजन चाहता है, दिो-चार फुलकों से

उसकी तुिष्ट नहीं होती। सड़क पर आकर रमा ने एक तांगा िलया और उससे जाजर्चटाउन चलने को कहा,शायदि

रतन से भेंट हो जाए। वह चाहे तो तीन सौ रूपये का बडी आसानी से प्रबंध कर सकती है। रास्ते में वह सोचता

जाता था, आज िबलकुल संकोच न करूंगा। ज़रा देर में जाजर्चटाउन आ गया। रतन का बंगला भी आया। वह

बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया, उसने भी हाथ उठाया, पर वहां उसका सारा संयम टूट

गया। वह बंगले में न जा सका। तांगा सामने से िनकल गया। रतन बुलाती, तो वह चला जाता। वह बरामदे में न

बैठी होती तब भी शायदि वह अंदिर जाता, पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया। जब तांगा गवनर्चमेंट

हाउस के पास पहुंचा, तो रमा ने चौंककर कहा, ‘चुंगी के दिफ्तर चलो। तांग वाले ने घोडा उधर मोङ िदिया।

ग्यारह बजते-बजते रमा दिफ्तर पहुंचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बडे बाबू ने

जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलाएंग। दिफ्तर में ज़रा भी िरयायत नहीं करते। तांग से उतरते ही उसने पहले अपने

कमरे की तरफ िनगाह डाली। देखा, कई आदिमी खड़े उसकी राह देख रहे ह। वह उधर न जाकर रमेश बाबू के

कमरे की ओर गया।

रमेश बाबू ने पूछा, ‘तुम अब तक कहां थ जी, ख़ज़ांची साहब तुम्हें खोजते िफरते ह?चपरासी िमला था?’

रमा ने अटकते हुए कहा, ‘मैं घर पर न था। ज़रा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बडी मुसीबत

में फंस गया हूं।’

रमेश—‘कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है।’

रमानाथ—‘जी हां, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहां काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फंसा िक वक्त

क़ी कुछ ख़बर ही न रही। जब काम ख़त्म करके उठा, तो ख़जांची साहब चले गए थ। मेरे पास आमदिनी के आठ

सौ रूपये थ। सोचने लगा इसे कहां रक्खूं, मेरे कमरे में कोई संदूक है नहीं। यही िनश्चय िकया िक साथ लेता

जाऊं। पांच सौ रूपये नकदि थ, वह तो मैंने थैली में रक्खे तीन सौ रूपये के नोट जेब में रख िलए और घर चला।

चौक में एक-दिो चीज़ं लेनी थीं। उधार से होता हुआ घर पहुंचा तो नोट गायब थ। रमेश बाबू ने आंखें गाड़कर

कहा, ‘तीन सौ के नोट गायब हो गए?’

रमानाथ—‘जी हां, कोट के ऊपर की जेब में थ। िकसी ने िनकाल िलए?’

रमेश—‘और तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?’

रमानाथ—‘क्या बताऊं बाबूजी, तब से िचत्ति की जो दिशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता तब से

अब तक इसी िफक में दिौड़ रहा हूं। कोई बंदिोबस्त न हो सका।’

रमेश—‘अपने िपता से तो कहा ही न होगा? ’

रमानाथ—‘उनका स्वभाव तो आप जानते ह। रूपये तो न देते, उल्टी डांट सुनाते।’

रमेश—‘तो िफर क्या िफक करोग?’

रमानाथ—‘आज शाम तक कोई न कोई िफक करूंगा ही।’

रमेश ने कठोर भाव धारण करके कहा, ‘तो िफर करो न! इतनी लापरवाही तुमसे हुई कैसे! यह मेरी समझि

में नहीं आता। मेरी जेब से तो आज तक एक पैसा न िगरा, आंखें बंदि करके रास्ता चलते हो या नश में थ? मुझिे

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तुम्हारी बात पर िवश्वास नहीं आता। सच-सच बतला दिो, कहीं अनाप-शनाप तो नहीं ख़चर्च कर डाले? उस िदिन

तुमने मुझिसे क्यों रूपये मांग थ? ’

रमा का चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई तो न खुल जाएगी। बात बनाकर बोला, ‘क्या सरकारी रूपया

ख़चर्च कर डालूंगा? उस िदिन तो आपसे रूपये इसिलए मांग थ िक बाबूजी को एक जरूरत आ पड़ी थी। घर में

रूपये न थ। आपका ख़त मैंने उन्हें सुना िदिया था। बहुत हंसे, दूसरा इंतजाम कर िलया। इन नोटों के गायब होने

का तो मुझिे खुदि ही आश्चयर्च है।’

रमेश—‘तुम्हें अपने िपताजी से मांगते संकोच होता हो, तो मैं ख़त िलखकर मंगवा लूं।’

रमा ने कानों पर हाथ रखकर कहा, ‘नहीं बाबूजी, ईश्वर के िलए ऐसा न कीिजएगा। ऐसी ही इच्छा हो,

तो मुझिे गोली मार दिीिजए।’

रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा, ‘तुम्हें िवश्वास है, शाम तक रूपये िमल जाएंग?’

रमानाथ—‘हां, आशा तो है।’

रमेश—‘तो इस थैली के रूपये जमा कर दिो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूं, अगर कल दिस बजे

रूपये न लाए तो मेरा दिोष नहीं। कायदिा तो यही कहता है िक मैं इसी वक्त तुम्हें पुिलस के हवाले करूं, मगर तुम

अभी लङके हो, इसिलए क्षमा करता हूं। वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में िकसी प्रकार की मुरौवत नहीं

करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यही सलूक करता, बिल्क शायदि इससे

सख्त। तुम्हारे साथ तो िफर भी बडी नमी कर रहा हूं। मेरे पास रूपये होते तो तुम्हें दे देता, लेिकन मेरी हालत

तुम जानते हो हां, िकसी का कज़र्च नहीं रखता। न िकसी को कजर्च देता हूं, न िकसी से लेता हूं। कल रूपये न आए

तो बुरा होगा। मेरी दिोस्ती भी तुम्हें पुिलस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दिोस्ती ने आज अपना हक अदिा कर

िदिया वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकिडयां होतीं।’

हथकिडयां! यह शब्दि तीर की भांित रमा की छाती में लगा। वह िसर से पांव तक कांप उठा। उस िवपित्ति

की कल्पना करके उसकी आंखें डबडबा आई। वह धीरे-धीरे िसर झिुकाए, सज़ा पाए हुए कैष्दिी की भांित जाकर

अपनी कुसी पर बैठ गया, पर यह भयंकर शब्दि बीच-बीच में उसके ह्रदिय में गूंज जाता था। आकाश पर काली

घटाएं छाई थीं। सूयर्च का कहीं पता न था, क्या वह भी उस घटारूपी कारागार में बंदि है, क्या उसके हाथों में भी

हथकिडयां ह?

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बीस

रमा शाम को दिफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दिौड़े हुए आए और कल रूपये लाने की ताकीदि की। रमा

मन में झिुंझिला उठा। आप बडे ईमानदिार की दुर्म बने ह! ढोंिगया कहीं का! अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों

के तलवे सहलाते िगरग, पर मेरा काम है, तो आप आदिशर्चवादिी बन बैठे। यह सब िदिखाने के दिांत ह, मरते समय

इसके प्राण भी जल्दिी नहीं िनकलेंग! कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार िफर रतन के पास चलूं। और ऐसा

कोई न था िजससे रूपये िमलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा, तो वह अपने बगीचे में गोल

चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुज़राती जौहरी बैठा संदूक से सुंदिर आभूषण िनकाल-िनकालकर

िदिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत खुश हुई। ‘आइये बाबू साहब, देिखए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें

लाए ह। देिखए, हार िकतना सुंदिर है, इसके दिाम बारह सौ रूपये बताते ह।’

रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा और कहा,हां, चीज़ तो अच्छी मालूम होती है!’

रतन—‘दिाम बहुत कहते ह।’

जौहरी—‘बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दिो हज़ार में ला दे, तो जो जुमाना किहए, दूं। बारह सौ मेरी

लागत बैठ गई है।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘ऐसा न किहए सेठजी, जुमाना देना पड़ जाएगा।’

जौहरी—‘बाबू साहब, हार तो सौ रूपये में भी आ जाएगा और िबलकुल ऐसा ही। बिल्क चमक-दिमक में

इससे भी बढ़कर। मगर परखना चािहए। मैंने खुदि ही आपसे मोल-तोल की बात नहीं की। मोल-तोल अनािडयों से

िकया जाता है। आपसे क्या मोल-तोल, हम लोग िनरे रोजगारी नहीं ह बाबू साहब, आदिमी का िमज़ाज देखते ह।

श्रीमतीजी ने क्या अमीराना िमज़ाज िदिखाया है िक वाह! ’

रतन ने हार को लुब्ध नजरों से देखकर कहा, ‘कुछ तो कम कीिजए, सेठजी! आपने तो जैसे कसम खा ली! ’

जौहरी—‘कमी का नाम न लीिजए, हुजूर! यह चीज़ आपकी भेंट है।’

रतन—‘अच्छा, अब एक बात बतला दिीिजए, कम-से-कम इसका क्या लेंग?’

जौहरी ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा, ‘बारह सौ रूपये और बारह कौिडयां होंगी, हुजूर, आप से कसम खाकर

कहता हूं, इसी शहर में पंद्रह सौ का बेचूंगा, और आपसे कह जाऊंगा, िकसने िलया।’

यह कहते हुए जौहरी ने हार को रखने का केस िनकाला। रतन को िवश्वास हो गया, यह कुछ कम न

करेगा। बालकों की भांित अधीर होकर बोली, ‘आप तो ऐसा समेट लेते ह िक हार को नजर लग जाएगी! ’

जौहरी—‘क्या करूं हुज़ूर! जब ऐसे दिरबार में चीज़ की कदिर नहीं होती,तो दुर्ख होता ही है।’

रतन ने कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली, ‘आप समझिते ह यह कुछ और उतरेगा?’

रमानाथ—‘मेरी समझि में तो चीज़ एक हज़ार से ज्यादिा की नहीं है।’

रतन—‘उंह, होगा। मेरे पास तो छः सौ रूपये ह। आप चार सौ रूपये का प्रबंध कर दें, तो ले लूं। यह इसी

गाड़ी से काशी जा रहा है। उधार न मानेगा। वकील साहब िकसी जलसे में गए ह, नौ-दिस बजे के पहले न लौटंग।

मैं आपको कल रूपये लौटा दूंगी।’

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रमा ने बडे संकोच के साथ कहा, ‘िवश्वास मािनए, मैं िबलकुल खाली हाथ हूं। मैं तो आपसे रूपये मांगने

आया था। मुझिे बडी सख्त जरूरत है। वह रूपये मुझिे दे दिीिजए, मैं आपके िलए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला

दूंगा। मुझिे िवश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में िमल जायगा। ’

रतन—‘चिलए, मैं आपकी बातों में नहीं आती। छः महीने में एक कंगन तो बनवा न सके, अब हार क्या

लाएंग! मैं यहां कई दुर्कानें देख चुकी हूं, ऐसी चीज़ शायदि ही कहीं िनकले। और िनकले भी, तो इसके ड्योढ़े दिाम

देने पड़ंग।’

रमानाथ—‘तो इसे कल क्यों न बुलाइए, इसे सौदिा बेचने की ग़रज़ होगी,तो आप ठहरेगा। ’

रतन—‘अच्छा किहए, देिखए क्या कहता है।’

दिोनों कमरे के बाहर िनकले, रमा ने जौहरी से कहा, ‘तुम कल आठ बजे क्यों नहीं आते?’

जौहरी—‘नहीं हुजूर, कल काशी में दिो-चार बडे रईसों से िमलना है। आज के न जाने से बडी हािन हो

जाएगी।’

रतन—‘मेरे पास इस वक्त छः सौ रूपये ह, आप हार दे जाइए, बाकी के रूपये काशी से लौटकर ले

जाइएगा। ’

जौहरी—‘रूपये का तो कोई हज़र्च न था, महीने-दिो महीने में ले लेता, लेिकन हम परदेशी लोगों का क्या

िठकाना, आज यहां ह, कल वहां ह, कौन जाने यहां िफर कब आना हो! आप इस वक्त एक हजार दे दें, दिो सौ

िफर दे दिीिजएगा। ’

रमानाथ—‘तो सौदिा न होगा।’

जौहरी—‘इसका अिख्तयार आपको है, मगर इतना कहे देता हूं िक ऐसा माल िफर न पाइएगा।’

रमानाथ—‘रूपये होंग तो माल बहुत िमल जायगा। ’

जौहरी—‘कभी-कभी दिाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं िमलता।’यह कहकर जौहरी ने िफर हार को केस

में रक्खा और इस तरह संदूक समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रूकेगा।

रतन का रोयां-रोयां कान बना हुआ था, मानो कोई कैदिी अपनी िकस्मत का फैसला सुनने को खडा हो

उसके ह्रदिय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और चेष्टा उसी हार

पर केंिद्रत हो रही थी, मानो उसके प्राण उसी हार के दिानों में जा िछपे थ, मानो उसके जन्मजन्मांतरों की संिचत

अिभलाषा उसी हार पर मंडरा रही थी। जौहरी को संदूक बंदि करते देखकर वह जलिवहीन मछली की भांित

तड़पने लगी। कभी वह संदूक खोलती, कभी वह दिराज खोलती, पर रूपये कहीं न िमले। सहसा मोटर की आवाज़

सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थ। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने

रोक दिी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा, ‘आप तो नौ बजे आने को कह गए

थ?’

वकील, ‘वहां काम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता! कोई िदिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब

मुफ्त में नाम कमाना चाहते ह। यह क्या कोई जौहरी है? ’

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जौहरी ने उठकर सलाम िकया।

वकील साहब रतन से बोले, ‘क्यों, तुमने कोई चीज़ पसंदि की ?’

रतन—‘हां, एक हार पसंदि िकया है, बारह सौ रूपये मांगते ह। ’

वकील, ‘बस! और कोई चीज़ पसंदि करो। तुम्हारे पास िसर की कोई अच्छी चीज़ नहीं है।’

रतन—‘इस वक्त मैं यही एक हार लूंगी। आजकल िसर की चीज़ं कौन पहनता है।’

वकील --‘लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख िलया, तो

कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।’

वकील साहब को रतन से पित का-सा प्रेम नहीं, िपता का-सा स्नेह था। जैसे कोई स्नेही िपता मेले में लड़कों

से पूछ-पूछकर िखलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर िखलौने लेते थ। उसके कहने भर की देर थी। उनके

पास उसे प्रसन्न करने के िलए धन के िसवा और चीज़ ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की जरूरत

थी, सदेह आधार की, िजसके सहारे वह इस जीणर्च दिशा में भी जीवन? संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे िकसी उपासक

को प्रितमा की जरूरत होती है। िबना प्रितमा के वह िकस पर फल चढ़ाए, िकसे गंगा-जल से नहलाए, िकसे

स्वािदिष्ट चीज़ों का भोग लगाए। इसी भांित वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके िलए सदेह

कल्पना मात्र थी िजससे उनकी आित्मक िपपासा शांत होती थी। कदिािचत रतन के िबना उनका जीवन उतना ही

सूना होता, िजतना आंखों के िबना मुखब।

रतन ने केस में से हार िनकालकर वकील साहब को िदिखाया और बोली, ‘इसके बारह सौ रूपये मांगते ह।’

वकील साहब की िनगाह में रूपये का मूल्य आनंदिदिाियनी शिक्त थी। अगर हार रतन को पसंदि है, तो उन्हें

इसकी परवा न थी िक इसके क्या दिाम देने पड़ंग। उन्होंने चेक िनकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा, ‘सचसच बोलो, िकतना िलखूं! ।’

जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और िहचकते हुए बोला, ‘साढ़े ग्यारह सौ कर दिीिजए।।’वकील

साहब ने चेक िलखकर उसको िदिया, और वह सलाम करके चलता हुआ। रतन का मुख इस समय वसन्त की

प्राकृतितक शोभा की भांित िवहिसत था। ऐसा गवर्च, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी न िदिखाई िदिया था। मानो

उसे संसार की संपित्ति िमल गई है। हार को गले में लटकाए वह अंदिर चली गई। वकील साहब के आचारिवचार में

नई और पुरानी प्रथाआं का िविचत्र मेल था। भोजन वह अभी तक िकसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थ। आज

रतन उनके िलए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने गई, अपनी कृततज्ञता को वह कैसे ज़ािहर करे।

रमा कुछ देर तक तो बैठा वकील साहब का युरोप-गौरव-गान सुनता रहा, अंत को िनराश होकर चल

िदिया।

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इक्कीस

अगर इस समय िकसी को संसार में सबसे दुर्खी, जीवन से िनराश, िचतािग्न में जलते हुए प्राणी की मूित

देखनी हो, तो उस युवक को देखे, जो साइिकल पर बैठा हुआ, अल्प्रेड पाकर्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त

अगर कोई काला सांप नज़र आए तो वह दिोनों हाथ फैलाकर उसका स्वागत करेगा और उसके िवष को सुधा की

तरह िपएगा। उसकी रक्षा सुधा से नहीं, अब िवष ही से हो सकती है। मौत ही अब उसकी िचताआं का अंत कर

सकती है, लेिकन क्या मौत उसे बदिनामी से भी बचा सकती है? सबेरा होते ही, यह बात घर- घर फैल

जायगी,सरकारी रूपया खा गया और जब पकडागया, तब आत्महत्या कर ली! द्दल में कलंक लगाकर, मरने के

बादि भी अपनी हंसी कराके िचताआं से मुक्त हुआ तो क्या, लेिकन दूसरा उपाय ही क्या है। अगर वह इस समय

जाकर जालपा से सारी िस्थित कह सुनाए, तो वह उसके साथ अवश्य सहानुभूित िदिखाएगी। जालपा को चाहे

िकतना ही दुर्ख हो, पर अपने गहने िनकालकर देने में एक क्षण का भी िवलंब न करेगी। गहनों को िगरवी रखकर

वह सरकारी रूपये अदिा कर सकता है। उसे अपना परदिा खोलना पड़ेगा। इसके िसवा और कोई उपाय नहीं है।

मन में यह िनश्चय करके रमा घर की ओर चला, पर उसकी चाल में वह तेज़ी न थी जो मानिसक स्फूित का

लक्षण है। लेिकन घर पहुंचकर उसने सोचा,जब यही करना है, तो जल्दिी क्या है, जब चाहूंगा मांग लूंगा। कुछ देर

गप-शप करता रहा, िफर खाना खाकर लेटा।

सहसा उसके जी में आया, क्यों न चुपके से कोई चीज़ उठा ले जाऊं?’ कुलमयादिा की रक्षा करने के िलए

एक बार उसने ऐसा ही िकया था। उसी उपाय से क्या वह प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता- अपनी जबान से तो

शायदि वह कभी अपनी िवपित्ति का हाल न कह सकेगा। इसी प्रकार आगा-पीछा में पड़े हुए सबेरा हो जायगा और

तब उसे कुछ कहने का अवसर ही न िमलेगा।

मगर उसे िफर शंका हुई, कहीं जालपा की आंख खुल जाय- िफर तो उसके िलए ित्रवेणी के िसवा और

स्थान ही न रह जायगा। जो कुछ भी हो एक बार तो यह उद्यपोग करना ही पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ

अपनी छाती पर से हटाया, और नीचे खडाहो गया। उसे ऐसा ख्याल हुआ िक जालपा हाथ हटाते ही चौंकी और

िफर मालूम हुआ िक यह भ्रम-मात्र था। उसे अब जालपा के सलूके की जेब से चािभयों का गुच्छा िनकालना था।

देर करने का अवसर न था। नींदि में भी िनम्नचेतना अपना काम करती रहती है। बालक िकतना ही ग़ािफल सोया

हो, माता के चारपाई से उठते ही जाग पड़ता है, लेिकन जब चाभी िनकालने के िलए झिुका, तो उसे जान पडा

जालपा मुस्करा रही है। उसने झिट हाथ खींच िलया और लैंप के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख की ओर देखा, जो

कोई सुखदि स्वप्न देख रही थी। उसकी स्वप्न-सुख िवलिसत छिव देखकर उसका मन कातर हो उठा। हा! इस

सरला के साथ मैं ऐसा िवश्वासघात करूं? िजसके िलए मैं अपने प्राणों को भेंट कर सकता हूं, उसी के साथ यह

कपट?

जालपा का िनष्कपट स्नेह-पूणर्च ह्रदिय मानो उसके मुखमंडल पर अंिकत हो रहा था। आह िजस समय इसे

ज्ञात होगा इसके गहने िफर चोरी हो गए, इसकी क्या दिशा होगी? पछाड़ खायगी, िसर के बाल नोचेगी। वह

िकन आंखों से उसका यह क्लेश देखेगा? उसने सोचा,मैंने इसे आराम ही कौन?सा पहुंचाया है। िकसी दूसरे से

िववाह होता, तो अब तक वह रत्नों से लदि जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आई, जहां कोई सुख नहीं,उल्ट और

रोना पड़ा।

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रमा िफर चारपाई पर लेट रहा। उसी वक्त ज़ालपा की आंखें खुल गई। उसके मुख की ओर देखकर बोली,

‘तुम कहां गए थ? मैं अच्छा सपना देख रही थी। बडा बाग़ है, और हम-तुम दिोनों उसमें टहल रहे ह। इतने में तुम

न जाने कहां चले जाते हो, एक और साधु आकर मेरे सामने खडा हो जाता है। िबलकुल देवताआं का-सा उसका

स्वरूप है। वह मुझिसे कहता है, ‘बेटी, मैं तुझिे

वर देने आया हूं। मांग, क्या मांगती है। मैं तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूं िक तुमसे पूछूं क्या मांग़ूब और तुम

कहीं िदिखाई नहीं देते। मैं सारा बाग़ छान आई। पेडों पर झिांककर देखा, तुम न-जाने कहां चले गए हो बस इतने

में नींदि खुल गई, वरदिान न मांगने पाई।

रमा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘क्या वरदिान मांगतीं?’

‘मांगती जो जी में आता, तुम्हें क्या बता दूं?’

‘नहीं, बताओ, शायदि तुम बहुत-सा धन मांगतीं।’

‘धन को तुम बहुत बडी चीज़ समझिते होग? मैं तो कुछ नहीं समझिती।’

‘हां, मैं तो समझिता हूं। िनधान रहकर जीना मरने से भी बदितर है। मैं अगर िकसी देवता को पकड़ पाऊं तो

िबना काफी रूपये िलये न मानूंब मैं सोने की दिीवार नहीं खड़ी करना चाहता, न राकट्ठलर और कारनेगी बनने की

मेरी इच्छा है। मैं केवल इतना धन चाहता हूं िक जरूरत की मामूली चीज़ों के िलए तरसना न पड़े। बस कोई

देवता मुझिे पांच लाख दे दे, तो मैं िफर उससे कुछ न मांगूंगा। हमारे ही ग़रीब मुल्क़ में ऐसे िकतने ही रईस, सेठ,

ताल्लुकेदिार ह, जो पांच

लाख एक साल में ख़चर्च करते ह, बिल्क िकतनों ही का तो माहवार खचर्च पांच लाख होगा। मैं तो इसमें

सात जीवन काटने को तैयार हूं, मगर मुझिे कोई इतना भी नहीं देता। तुम क्या मांगतीं- अच्छे-अच्छे गहने!’

जालपा ने त्योिरयां चढ़ाकर कहा, ‘क्यों िचढ़ाते हो मुझिे! क्या मैं गहनों पर और िस्त्रयों से ज्यादिा जान देती

हूं- मैंने तो तुमसे कभी आग्रह नहीं िकया?तुम्हें जरूरत हो, आज इन्हें उठा ले जाओ, मैं खुशी से दे दूंगी।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘तो िफर बतलातीं क्यों नहीं?’

जालपा—‘मैं यही मांगती िक मेरा स्वामी सदिा मुझिसे प्रेम करता रहे। उनका मन कभी मुझिसे न िगरे।’

रमा ने हंसकर कहा, ‘क्या तुम्हें इसकी भी शंका है?’

‘तुम देवता भी होते तो शंका होती, तुम तो आदिमी हो मुझिे तो ऐसी कोई स्त्री न िमली, िजसने अपने पित

की िनष्ठुरता का दुर्खडान रोया हो सालदिो साल तो वह खूब प्रेम करते ह, िफर न जाने क्यों उन्हें स्त्री से अरूिचसी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के िलए इससे बडी िवपित्ति नहीं। उस िवपित्ति से बचने के िसवा

मैं और क्या वरदिान मांगती?’ यह कहते हुए जालपा ने पित के गले में बांहें डाल दिीं और प्रणय-संिचत नजरों से

देखती हुई बोली, ‘सच बताना, तुम अब भी मुझिे वैसे ही चाहते हो, जैसे पहले चाहते थ?देखो, सच कहना,

बोलो!’

रमा ने जालपा के गले से िचमटकर कहा, ‘उससे कहीं अिधक, लाख गुना!’

जालपा ने हंसकर कहा, ‘झिूठ! िबलकुल झिूठ! सोलहों आना झिूठ!’

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रमानाथ—‘यह तुम्हारी ज़बरदिस्ती है। आिख़र ऐसा तुम्हें कैसे जान पडा?’

जालपा—‘आंखों से देखती हूं और कैसे जान पड़ा। तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। जब देखो तुम

गुमसुम रहते हो मुझिसे प्रेम होता, तो मुझि पर िवश्वास भी होता। िबना िवश्वास के प्रेम हो ही कैसे सकता है?

िजससे तुम अपनी बुरी-से-बुरी बात न कह सको, उससे तुम प्रेम नहीं कर सकते। हां, उसके साथ िवहार कर

सकते हो, िवलास कर सकते हो उसी तरह जैसे कोई वेश्या के पास जाता है। वेश्या के पास लोग आनंदि उठाने ही

जाते ह, कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। तुम्हारी भी वही दिशा है। बोलो है या नहीं? आंखें क्यों िछपाते

हो? क्या मैं देखती नहीं, तुम बाहर से कुछ घबडाए हुए आते हो? बातें करते समय देखती हूं, तुम्हारा मन िकसी

और तरफ रहता है। भोजन में भी देखती हूं, तुम्हें कोई आनंदि नहीं आता। दिाल गाढ़ी है या पतली, शाक कम है या

ज्यादिा, चावल में कनी है या पक गए ह, इस तरफ तुम्हारी िनगाह नहीं जाती। बेगार की तरह भोजन करते हो

और जल्दिी से भागते हो मैं यह सब क्या नहीं देखती- मुझिे देखना न चािहए! मैं िवलािसनी हूं, इसी रूप में तो

तुम मुझिे देखते हो मेरा काम है,िवहार करना, िवलास करना, आनंदि करना। मुझिे तुम्हारी िचताआं से मतलब!

मगर ईश्वर ने वैसा ह्रदिय नहीं िदिया। क्या करूं? मैं समझिती हूं, जब मुझिे जीवन ही व्यतीत करना है, जब मैं

केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूं, तो क्यों अपनी जान िवपित्ति में डालूं?’

जालपा ने रमा से कभी िदिल खोलकर बात न की थी। वह इतनी िवचारशील है, उसने अनुमान ही न िकया

था। वह उसे वास्तव में रमणी ही समझिता था। अन्य पुरूषों की भांित वह भी पत्नी को इसी रूप में देखता था।

वह उसके यौवन पर मुग्ध था। उसकी आत्मा का स्वरूप देखने की कभी चेष्टा ही न की। शायदि वह समझिता था,

इसमें आत्मा है ही नहीं। अगर वह रूप-लावण्य की रािश न होती, तो कदिािचत वह उससे बोलना भी पसंदि न

करता। उसका सारा आकषर्चण, उसकी सारी आसिक्त केवल उसके रूप पर थी। वह समझिता था, जालपा इसी में

प्रसन्न है। अपनी िचताआं के बोझि से वह उसे दिबाना नहीं चाहता था, पर आज उसे ज्ञात हुआ, जालपा उतनी ही

िचतनशील है, िजतना वह खुदि था। इस वक्त उसे अपनी मनोव्यथा कह डालने का बहुत अच्छा अवसर िमला

था, पर हाय संकोच! इसने िफर उसकी ज़बान बंदि कर दिी। जो बातें वह इतने िदिनों तक िछपाए रहा, वह अब

कैसे कहे? क्या ऐसा करना जालपा के आरोिपत आक्षेपों को स्वीकार करना न होगा? हां, उसकी आंखों से आज

भ्रम का परदिा उठ गया। उसे ज्ञात हुआ िक िवलास पर प्रेम का िनमाण करने की चेष्टा करना उसका अज्ञान था।

रमा इन्हीं िवचारों में पडा-पडा सो गया, उस समय आधी रात से ऊपर गुज़र गई थी। सोया तो इसी सबब

से था िक बहुत सबेरे उठ जाऊंगा, पर नींदि खुली, तो कमरे में धूप की िकरणें आ-आकर उसे जगा रही थीं। वह

चटपट उठा और िबना मुंह-हाथ धोए, कपड़े पहनकर जाने को तैयार हो गया। वह रमेश बाबू के पास जाना

चाहता था। अब उनसे यह कथा कहनी पड़ेगी। िस्थित का पूरा ज्ञान हो जाने पर वह कुछ-न? कुछ सहायता करने

पर तैयार हो जाएंग।

जालपा उस समय भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी। रमा को इस भांित जाते देखकर प्रश्न-सूचक

नजरों से देखा। रमा के चेहरे पर िचता, भय, चंचलता और िहसा मानो बैठी घूर रही थीं। एक क्षण के िलए वह

बेसुध-सी हो गई। एक हाथ में छुरी और दूसरे में एक करेला िलये हुए वह द्वार की ओर ताकती रही। यह बात

क्या है, उसे कुछ बताते क्यों नहीं- वह और कुछ न कर सके, हमदिदिी तो कर ही सकती है। उसके जी में आया,

पुकार कर पूछूं, क्या बात है? उठकर द्वार तक आई भीऋ पर रमा सड़क पर दूर िनकल गया था। उसने देखा, वह

बडी तेज़ी से चला जा रहा है, जैसे सनक गया हो न दिािहनी ओर ताकता है, न बाई ओर, केवल िसर झिुकाए,

पिथकों से टकराता, पैरगािडयों की परवा न करता हुआ, भागा चला जा रहा था। आिख़र वह लौटकर िफर

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तरकारी काटने लगी, पर उसका मन उसी ओर लगा हुआ था। क्या बात है, क्यों मुझिसे इतना िछपाते ह?

रमा रमेश के घर पहुंचा तो आठ बज गए थ। बाबू साहब चौकी पर बैठे संध्या कर रहे थ। इन्हें देखकर

इशारे से बैठने को कहा, कोई आधा घंट में संध्या समाप्त हुई, बोले, ‘क्या अभी मुंह-हाथ भी नहीं धोया, यही

लीचड़पन मुझिे नापसंदि है। तुम और कुछ करो या न करो, बदिन की सगाई तो करते रहो क्या हुआ, रूपये का कुछ

प्रबंध हुआ?’

रमानाथ—‘इसी िफक में तो आपके पास आया हूं।’

रमेश—‘तुम भी अजीब आदिमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें क्यों शमर्च आती है? यही न होगा, तुम्हें

ताने देंग, लेिकन इस संकट से तो छूट जाओग। उनसे सारी बातें साफ-साफ कह दिो। ऐसी दुर्घर्चटनाएं अक्सर हो

जाया करती ह। इसमें डरने की क्या बात है! नहीं कहो, मैं चलकर कह दूं।’

रमानाथ—‘उनसे कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता! क्या आप कुछ बंदिो।स्त नहीं कर सकते?’

रमेश—‘कर क्यों नहीं सकता, पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदिमी के साथ मुझिे कोई हमदिदिी नहीं हो

सकती। तुम जो बात मुझिसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते?मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दिो।

अगर वह रूपये न दें तब मेरे पास आना।’

रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घिनष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो सकते ह।

वह यहां से उठा, पर उसे कुछ सुझिाई न देता था। चौवैया में आकाश से िफरते हुए जल-िबदुर्आं की जो दिशा होती

है, वही इस समय रमा की हुई। दिस कदिम तेज़ी से आग चलता, तो िफर कुछ सोचकर रूक जाता और दिस-पांच

कदिम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में घुस जाता, कभी उस गली में… सहसा उसे एक बात सूझिी, क्यों न

जालपा को एक पत्र िलखकर अपनी सारी किठनाइयां कह सुनाऊं। मुंह से तो वह कुछ न कह सकता था, पर

कलम से िलखने में उसे कोई मुिश्कल मालूम नहीं होती थी। पत्र िलखकर जालपा को दे दूंगा और बाहर के कमरे

में आ बैठूंगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया, और तुरंत पत्र िलखा, ‘िप्रये, क्या

कहूं, िकस िवपित्ति में फंसा हुआ हूं। अगर एक घंट के अंदिर तीन सौ रूपये का प्रबंध न हो गया, तो हाथों में

हथकिडयां पड़ जाएंगी। मैंने बहुत कोिशश की, िकसी से उधार ले लूं, िकतु कहीं न िमल सके। अगर तुम अपने

दिो-एक जेवर दे दिो, तो मैं िगरों रखकर काम चला लूं। ज्योंही रूपये हाथ आ जाएंग, छुडा दूंगा। अगर मजबूरी न

आ पड़ती तो, तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के िलए रूष्ट न होना। मैं बहुत जल्दि छुडा दूंगा---’

अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था िक रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गए और बोले, ‘कहा उनसे तुमने?

रमा ने िसर झिुकाकर कहा, ‘अभी तो मौका नहीं िमला।

रमेश—‘तो क्या दिो-चार िदिन में मौका िमलेगा- मैं डरता हूं िक कहीं आज भी तुम यों ही ख़ाली हाथ न

चले जाओ, नहीं तो ग़जब ही हो जाय! ’

रमानाथ—‘जब उनसे मांगने का िनश्चय कर िलया, तो अब क्या िचता! ’

रमेश—‘आज मौका िमले, तो ज़रा रतन के पास चले जाना। उस िदिन मैंने िकतना जोर देकर कहा था,

लेिकन मालूम होता है तुम भूल गए।’

रमानाथ—‘भूल तो नहीं गया, लेिकन उनसे कहते शमर्च आती है।’

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रमेश—‘अपने बाप से कहते भी शमर्च आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता, तो आज हमारी

यह दिशा क्यों होती?’

रमेश बाबू चले गए, तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का िनश्चय करके घर में

गया। जालपा आज िकसी मिहला के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आ गया। उसने अपनी सबसे

सुंदिर साड़ी पहनी थी। हाथों में जडाऊ कंगन शोभा दे रहे थ, गले में चन्द्रहार, आईना सामने रखे हुए कानों में

झिूमके पहन रही थी।

रमा को देखकर बोली, ‘आज सबेरे कहां चले गए थ? हाथ-मुंह तक न धोया। िदिन?भर तो बाहर रहते ही

हो, शामसबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते, तो घर सूना-सूना लगता है। मैं अभी

सोच रही थी, मुझिे मैके जाना पड़े, तो मैं जाऊं या न जाऊं? मेरा जी तो वहां िबलकुल न लग।

रमानाथ—‘तुम तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो ।’

जालपा—‘सेठानीजी ने बुला भेजा है, दिोपहर तक चली आऊंगी।’

रमा की दिशा इस समय उस िशकारी की-सी थी, जो िहरनी को अपने शावकों के साथ िकलोल करते

देखकर तनी हुई बंदूक कंधो पर रख लेता है, और वह वात्सल्य और प्रेम की कीडादेखने में तल्लीन हो जाता है।

उसे अपनी ओर टकटकी लगाए देखकर जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘देखो,

मुझिे नज़र न लगा देना। मैं तुम्हारी आंखों से बहुत डरती हूं।’

रमा एक ही उडान में वास्तिवक संसार से कल्पना और किवत्व के संसार में जा पहुंचा। ऐसे अवसर पर

जब जालपा का रोम-रोम आनंदि से नाच रहा है, क्या वह अपना पत्र देकर उसकी सुखदि कल्पनाआं को दििलत कर

देगा? वह कौन ह्रदियहीन व्याधा है, जो चहकती हुई िचिडया की गदिर्चन पर छुरी चला देगा? वह कौन अरिसक

आदिमी है, जो िकसी प्रभात-द्दसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा- रमा इतना ह्रदियहीन, इतना अरिसक नहीं

है। वह जालपा पर इतना बडा

आघात नहीं कर सकता उसके िसर कैसी ही िवपित्ति क्यों न पड़ जाए, उसकी िकतनी ही बदिनामी क्यों न

हो, उसका जीवन ही क्यों न कुचल िदिया जाए, पर वह इतना िनष्ठुर नहीं हो सकता उसने अनुरक्त होकर

कहा,नज़र तो न लगाऊंगा, हां, ह्रदिय से लगा लूंगा। इसी एक वाक्य में उसकी सारी िचताएं, सारी बाधाएं

िवसिजत हो गई। स्नेह-संकोच की वेदिी पर उसने अपने को भेंट कर िदिया। इस अपमान के सामने जीवन के और

सारे क्लेश तुच्छ थ। इस समय उसकी दिशा उस बालक की-सी थी, जो गोड़े पर नश्तर की क्षिणक पीडा न सहकर

उसके फटने, नासूर पड़ने, वषो खाट पर पड़े रहने और कदिािचत प्राणांत हो जाने के भय को भी भूल जाता है।

जालपा नीचे जाने लगी, तो रमा ने कातर होकर उसे गले से लगा िलया और इस तरह भींच-भींचकर उसे

आिलगन करने लगा, मानो यह सौभाग्य उसे िफर न िमलेगा। कौन जानता है, यही उसका अंितम आिलगन हो

उसके करपाश मानो रेशम के सहस्रों तारों से संगिठत होकर जालपा से िचमट गए थ। मानो कोई मरणासन्न

कृतपण अपने कोष की कुजी मुट्ठी में बंदि िकए हो, और प्रितक्षण मुट्ठी कठोर पड़ती जाती हो क्या मुट्ठी को बलपूवर्चक

खोल देने से ही उसके प्राण न िनकल जाएंग?

सहसा जालपा बोली, ‘मुझिे कुछ रूपये तो दे दिो, शायदि वहां कुछ जरूरत पड़े। ’

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रमा ने चौंककर कहा, ‘रूपये! रूपये तो इस वक्त नहीं ह।’

जालपा—‘ह ह, मुझिसे बहाना कर रहे हो बस मुझिे दिो रूपये दे दिो, और ज्यादिा नहीं चाहती।’

यह कहकर उसने रमा की जेब में हाथ डाल िदिया, और कुछ पैसे के साथ वह पत्र भी िनकाल िलया।

रमा ने हाथ बढ़ाकर पत्र को जालपा से छीनने की चेष्टा करते हुए कहा, ‘काग़ज़ मुझिे दे दिो, सरकारी काग़ज़

है।’

जालपा—‘िकसका ख़त है ।ता दिो?’

जालपा ने तह िकए हुए पुरजे क़ो खोलकर कहा,यह सरकारी काग़ज़ है! झिूठे कहीं के! तुम्हारा ही िलखा---

रमानाथ—‘दे दिो, क्यों परेशान करती हो!’

रमा ने िफर काग़ज़ छीन लेना चाहा, पर जालपा ने हाथ पीछे उधरकर कहा,मैं िबना पढ़े न दूंगी। कह

िदिया ज्यादिा िज़दि करोग, तो फाड़ डालूंगी। रमानाथ—‘अच्छा फाड़ डालो।’

जालपा—‘तब तो मैं जरूर पढूंगी।’

उसने दिो कदिम पीछे हटकर िफर ख़त को खोला और पढ़ने लगी। रमा ने िफर उसके हाथ से काग़ज़ छीनने

की कोिशश नहीं की। उसे जान पडा, आसमान फट पडाहै, मानो कोई भंयकर जंतु उसे िनफलने के िलए बढ़ा

चला आता है। वह धड़-धड़ करता हुआ ऊपर से उतरा और घर के बाहर िनकल गया। कहां अपना मुंह िछपा ले-

कहां िछप जाए िक कोई उसे देख न सके।

उसकी दिशा वही थी, जो िकसी नंग आदिमी की होती है। वह िसर से पांव तक कपड़े पहने हुए भी नंगा था।

आह! सारा परदिा खुल गया! उसकी सारी कपटलीला खुल गई! िजन बातों को िछपाने की उसने इतने िदिनों चेष्टा

की, िजनको गुप्त रखने के िलए उसने कौन?कौन?सी किठनाइयां नहीं झिेलीं, उन सबों ने आज मानो उसके मुंह

पर कािलख पोत दिी। वह अपनी दुर्गर्चित अपनी आंखों से नहीं देख सकता जालपा की िससिकयां, िपता की

िझिड़िकयां, पड़ोिसयों की

कनफुसिकयां सुनने की अपेक्षा मर जाना कहीं आसान होगा। जब कोई संसार में न रहेगा, तो उसे इसकी

क्या परवा होगी, कोई उसे क्या कह रहा है। हाय! केवल तीन सौ रूपयों के िलए उसका सवर्चनाश हुआ जा रहा है,

लेिकन ईश्वर की इच्छा है, तो वह क्या कर सकता है। िप्रयजनों की नज़रों से िफरकर िजए तो क्या िजए! जालपा

उसे िकतना नीच, िकतना कपटी, िकतना धूतर्च, िकतना गपोिडया समझि रही होगी। क्या वह अपना मुंह िदिखा

सकता है?

क्या संसार में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां वह नए जीवन का सूत्रपात कर सके, जहां वह संसार से

अलग-थलग सबसे मुंह मोड़कर अपना जीवन काट सके। जहां वह इस तरह िछप जाय िक पुिलस उसका पता न

पा सके। गंगा की गोदि के िसवा ऐसी जगह और कहां थी। अगर जीिवत रहा, तो महीनेदिो महीने में अवश्य ही

पकड़ िलया जाएगा। उस समय उसकी क्या दिशा होगी,वह हथकिडयां और बेिडयां पहने अदिालत में खडा होगा।

िसपािहयों का एक दिल उसके ऊपर सवार होगा। सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जाएंग। जालपा भी

जाएगी। रतन भी जाएगी। उसके िपता, संबंधी, िमत्र, अपने-पराए,सभी िभन्न-िभन्न भावों से उसकी दुर्दिर्चशा का

तमाशा देखेंग। नहीं, वह अपनी िमट्टी यों न ख़राब करेगा, न करेगा। इससे कहीं अच्छा है, िक वह डूब मरे! मगर

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िफर ख़याल आया िक जालपा िकसकी होकर रहेगी! हाय, मैं अपने साथ उसे भी ले डूबा! बाबूजी और अम्मांजी

तो रो-धोकर सब्र कर लेंग, पर उसकी रक्षा कौन करेगा- क्या वह िछपकर नहीं रह सकता- क्या शहर से दूर

िकसी छोट-से गांव में वह अज्ञातवास नहीं कर सकता- संभव है, कभी जालपा को उस पर दिया आए, उसके

अपराधों को क्षमा कर दे। संभव है, उसके पास धन भी हो जाए, पर यह असंभव है िक वह उसके सामने आंखें

सीधी कर सके। न जाने इस समय उसकी क्या दिशा होगी! शायदि मेरे पत्र का आशय समझि गई हो शायदि

पिरिस्थित का उसे कुछ ज्ञान हो गया हो शायदि उसने अम्मां को मेरा पत्र िदिखाया हो और दिोनों घबराई हुई मुझिे

खोज रही हों। शायदि िपताजी को बुलाने के िलए लड़कों को भेजा गया हो चारों तरफ मेरी तलाश हो रही होगी।

कहीं कोई इधर भी न आता हो कदिािचत मौत को देखकर भी वह इस समय इतना भयभीत न होता, िजतना

िकसी पिरिचत को देखकर। आग-पीछे चौकन्नी आंखों से ताकता हुआ, वह उस जलती हुई धूप में चला जा रहा

था,कुछ ख़बर न थी, िकधरब सहसा रेल की सीटी सुनकर वह चौंक पड़ा। अरे, मैं इतनी दूर िनकल आया?

रेलगाड़ी सामने खड़ी थी। उसे उस पर बैठ जाने की प्रबल इच्छा हुई, मानो उसमें बैठते ही वह सारी बाधाआं से

मुक्त हो जाएगा, मगर जेब में रूपये न थ। उंगली में अंगूठी पड़ी हुई थी। उसने कुिलयों के जमादिार को बुलाकर

कहा, ‘कहीं यह अंगूठी िबकवा सकते हो? एक रूपया तुम्हें दूंगा।

मुझिे गाड़ी में जाना है। रूपये लेकर घर से चला था, पर मालूम होता है, कहीं िफर गए। िफर लौटकर जाने

में गाड़ी न िमलेगी और बडा भारी नुकसान हो जाएगा।’

जमादिार ने उसे िसर से पांव तक देखा, अंगूठी ली और स्टशन के अंदिर चला गया। रमा िटकट-घर के

सामने टहलने लगा। आंखें उसकी ओर लगी हुई थीं। दिस िमनट गुज़र गए और जमादिार का कहीं पता नहीं।

अंगूठी लेकर कहीं गायब तो नहीं हो जाएगा! स्टशन के अंदिर जाकर उसे खोजने लगा। एक कुली से पूछा, उसने

पूछा, ‘जमादिार का नाम क्या है?’रमा ने ज़बान दिांतों से काट ली।

नाम तो पूछा ही नहीं। बतलाए क्या? इतने में गाड़ी ने सीटी दिी, रमा अधीर हो उठा। समझि गया,

जमादिार ने चरका िदिया। िबना िटकट िलये ही गाड़ी में आ बैठा मन में िनश्चय कर िलया, साफ कह दूंगा मेरे पास

िटकट नहीं है। अगर उतरना भी पडा, तो यहां से दिस पांच कोस तो चला ही जाऊंगा। गाड़ी चल दिी, उस वक्त

रमा को अपनी दिशा पर रोना आ गया। हाय,

न जाने उसे कभी लौटना नसीब भी होगा या नहीं। िफर यह सुख के िदिन कहां िमलेंग। यह िदिन तो गए,

हमेशा के िलए गए। इसी तरह सारी दुर्िनया से मुंह िछपाए, वह एक िदिन मर जायगा। कोई उसकी लाश पर आंसू

बहाने वाला भी न होगा। घरवाले भी रो-धोकर चुप हो रहेंग। केवल थोड़े-से संकोच के कारण उसकी यह दिशा

हुई। उसने शुरू ही से, जालपा से अपनी सच्ची हालत कह दिी होती, तो आज उसे मुंह पर कािलख लगाकर क्यों

भागना पड़ता। मगर कहता कैसे, वह अपने को अभािगनी न समझिने लगती- कुछ न सही, कुछ िदिन तो उसने

जालपा को सुखी रक्खा। उसकी लालसाआं की हत्या तो न होने दिी। रमा के संतोष के िलए अब इतना ही काफी

था। अभी गाड़ी चले दिस िमनट भी न बीते होंग। गाड़ी का दिरवाज़ा खुला,और िटकट बाबू अंदिर आए। रमा के

चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। एक क्षण में वह उसके पास आ जाएगा। इतने आदििमयों के सामने उसे िकतना

लिज्जत होना पड़ेगा। उसका कलेजा धक-धक करने लगा। ज्यों-ज्यों िटकट बाबू उसके समीप आता था, उसकी

नाड़ी की गित तीव्र होती जाती थी। आिख़र बला िसर पर आ ही गई। िटकट बाबू ने पूछा, ‘आपका िटकट?’

रमा ने ज़रा सावधान होकर कहा, ‘मेरा िटकट तो कुिलयों के जमादिार के पास ही रह गया। उसे िटकट

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लाने के िलए रूपये िदिए थ। न जाने िकधर िनकल गया।’

िटकट बाबू को यकीन न आया, बोला, ‘मैं यह कुछ नहीं जानता। आपको अगले स्टशन पर उतरना होगा।

आप कहां जा रहे ह?’

रमानाथ—‘सफर तो बडी दूर का है, कलकत्तिा तक जाना है।‘

िटकट बाबू—‘आग के स्टशन पर िटकट ले लीिजएगा। ’

रमानाथ—‘यही तो मुिश्कल है। मेरे पास पचास का नोट था। िखड़की पर बडी भीड़ थी। मैंने नोट उस

जमादिार को िटकट लाने के िलए िदिया, पर वह ऐसा ग़ायब हुआ िक लौटा ही नहीं। शायदि आप उसे पहचानते

हों। लंबा-लंबा चेचकरू आदिमी है।‘

िटकट बाबू—‘इस िवषय में आप िलखा-पढ़ी कर सकते है? मगर िबना िटकट के जा नहीं सकते।

रमा ने िवनीत भाव से कहा, ‘भाई साहब, आपसे क्या िछपाऊं। मेरे पास और रूपये नहीं ह। आप जैसा

मुनािसब समझिं, कर।’

िटकट बाबू—‘मुझिे अफसोस है, बाबू साहब, कायदे से मजबूर हूं।’

कमरे के सारे मुसािफर आपस में कानाफूसी करने लग। तीसरा दिजा था,अिधकांश मजदूर बैठे हुए थ, जो

मजूरी की टोह में पूरब जा रहे थ। वे एक बाबू जाित के प्राणी को इस भांित अपमािनत होते देखकर आनंदि पा

रहे थ। शायदि िटकट बाबू ने रमा को धक्का देकर उतार िदिया होता, तो और भी खुश होते। रमा को जीवन में

कभी इतनी झिंप न हुई थी। चुपचाप िसर झिुकाए खडा

था। अभी तो जीवन की इस नई यात्रा का आरंभ हुआ है। न जाने आग क्या? क्या िवपित्तियां झिेलनी पडंगी।

िकस-िकसके हाथों धोखा खाना पड़ेगा। उसके जी में आया,गाड़ी से यदि पडूं, इस छीछालेदिर से तो मर जाना ही

अच्छा। उसकी आंखें भर आइ, उसने िखड़की से िसर बाहर िनकाल िलया और रोने लगा। सहसा एक बूढ़े आदिमी

ने, जो उसके पास ही बैठा हुआ था, पूछा, ‘कलकत्तिा में कहां जाओग, बाबूजी?’

रमा ने समझिा, वह गंवार मुझिे बना रहा है, झिुंझिलाकर बोला,’तुमसे मतलब, मैं कहीं जाऊंगा!’

बूढ़े ने इस उपेक्षा पर कुछ भी ध्यान न िदिया, बोला, ‘मैं भी वहीं चलूंगा। हमारा-तुम्हारा साथ हो जायगा।

िफर धीरे से बोला,िकराए के रूपये मुझिसे ले लो, वहां दे देना।’

अब रमा ने उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई साठ-सत्तिर साल का बूढ़ा घुला हुआ आदिमी था। मांस तो क्या

हिडडयां तक फूल गई थीं। मूंछ और िसर के बाल मुड़े हुए थ। एक छोटी-सी बच्ची के िसवा उसके पास कोई

असपास भी न था। रमा को अपनी ओर ताकते देखकर वह िफर बोला, ‘आप हाबडे ही उतरग या और कहीं

जाएंग?’

रमा ने एहसान के भार से दिबकर कहा, ‘बाबा, आग मैं उतर पडूंगा। रूपये का कोई बंदिोबस्त करके िफर

आऊंगा। ’

बूढ़ा—‘तुम्हें िकतने रूपये चािहए, मैं भी तो वहीं चल रहा हूं। जब चाहे दे देना। क्या मेरे दिस-पांच रूपये

लेकर भाग जाओग। कहां घर है?’

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रमानाथ—‘यहीं, प्रयाग ही में रहता हूं।’

बूढ़े ने भिक्त के भाव से कहा,मान्य है प्रयाग, धन्य है! मैं भी ित्रवेणी का स्नान करके आ रहा हूं, सचमुच

देवताआं की पुरी है। तो कै रूपये िनकालूं?’

रमा ने सकुचाते हुए कहा, ‘मैं चलते ही चलते रूपया न दे सकूंगा, यह समझि लो।’

बूढ़े ने सरल भाव से कहा, ‘अरे बाबूजी, मेरे दिस-पांच रूपये लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओग। मैंने तो

देखा, प्रयाग के पण्डे याित्रयों को िबना िलखाए - पढ़ाए रूपये दे देते ह। दिस रूपये में तुम्हारा काम चल जाएगा?’

रमा ने िसर झिुकाकर कहा, ‘हां, इतने बहुत ह।’

िटकट बाबू को िकराया देकर रमा सोचने लगा,यह बूढ़ा िकतना सरल, िकतना परोपकारी, िकतना

िनष्कपट जीव है। जो लोग सभ्य कहलाते ह, उनमें िकतने आदिमी ऐसे िनकलेंग, जो िबना जान - पहचान िकसी

यात्री को उबार लें। गाड़ी के और मुसािफर भी बूढ़े को श्र'द्धिा की नजरों से देखने लग। रमा को बूढ़े की बातों से

मालूम हुआ िक वह जाित का खिटक है, कलकत्तिा में उसकी शाक-भाजी की दुर्कान है। रहने वाला तो िबहार का

है, पर चालीस साल से कलकत्तिा ही में रोजगार कर रहा है। देवीदिीन नाम है, बहुत िदिनों से तीथर्चयात्रा की इच्छा

थी, बदिरीनाथ की यात्रा करके लौटा जा रहा है।

रमा ने आश्चयर्च से पूछा, ‘तुम बदिरीनाथ की यात्रा कर आए? वहां तो पहाड़ों की बडी-बडी चढ़ाइयां ह।’

देवीदिीन—‘भगवान की दिया होती है तो सब कुछ हो जाता है, बाबूजी! उनकी दिया चािहए।’

रमानाथ—‘तुम्हारे बाल-बच्चे तो कलकत्तिा ही में होंग?’

देवीदिीन ने रूखी हंसी हंसकर कहा, ‘बाल-बच्चे तो सब भगवान के घर गए। चार बेट थ। दिो का ब्याह हो

गया था। सब चल िदिए। मैं बैठा हुआ हूं। मुझिी से तो सब पैदिा हुए थ। अपने बोए हुए बीज को िकसान ही तो

काटता है!’यह कहकर वह िफर हंसा, ज़रा देर बादि बोला, ‘बुिढया अभी जीती ह। देखें, हम दिोनों में पहले कौन

चलता है। वह कहती है, पहले मैं जाऊंगी, मैं कहता हूं ,पहले मैं जाऊंगा। देखो िकसकी टक रहती है। बन पडा तो

तुम्हें िदिखाऊंगा। अब भी गहने पहनती है। सोने की बािलयां और सोने की हसली पहने दुर्कान पर बैठी रहती है।

जब कहा िक चल तीथर्च कर आव तो बोली, ‘तुम्हारे तीथर्च के िलए क्या दुर्कान िमट्टी में िमला दूं? यह है िजदिगी का

हाल, आज मरे िक कल मरे, मगर दुर्कान न छोड़ेगी। न कोई आग, न कोई पीछे, न कोई रोने वाला, न कोई हंसने

वाला, मगर माया बनी हुई है।अब भी एक-न?एक गहना बनवाती ही रहती है। न जाने कब उसका पेट भरेगा।

सब घरों का यही हाल है। जहां देखो,हाय गहने! हाय गहने! गहने के पीछे जान दे दें, घर के आदििमयों को भूखा

मार, घर की चीज़ं बेचब और कहां तक कहूं, अपनी आबरू तक बेच दें। छोट-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग

लगा हुआ है। कलकत्तिा में कहां काम करते हो, भैया?’

रमानाथ—‘अभी तो जा रहा हूं। देखूं कोई नौकरी-चाकरी िमलती है या नहीं?’

देवीदिीन—‘तो िफर मेरे ही घर ठहरना। दिो कोठिरयां ह, सामने दिालान है, एक कोठरी ऊपर है। आज बेचूं

तो दिस हज़ार िमलें। एक कोठरी तुम्हें दे दूंगा। जब कहीं काम िमल जाय, तो अपना घर ले लेना। पचास साल हुए

घर से भागकर हाबडे गया था, तब से सुख भी देखे, दुर्ख भी देखे। अब मना रहा हूं, भगवान् ले चलो। हां, बुिढया

को अमर कर दिो। नहीं, तो उसकी दुर्कान कौन लेगा, घर कौन लेगा और गहने कौन लेगा!

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यह कहकर देवीदिीन िफर हंसा, वह इतना हंसोड़, इतना प्रसन्निचत्ति था िक रमा को आश्चयर्च हो रहा था।

बेबात की बात पर हंसता था। िजस बात पर और लोग रोते ह, उस पर उसे हंसी आती थी। िकसी जवान को भी

रमा ने यों हंसते न देखा था। इतनी ही देर में उसने अपनी सारी जीवन?कथा कह सुनाई, िकतने ही लतीफे यादि

थ। मालूम होता था, रमा से वषो की मुलाकात है। रमा को भी अपने िवषय में एक मनगढ़ंत कथा कहनी पड़ी।

देवीदिीन—‘तो तुम भी घर से भाग आए हो? समझि गया। घर में झिगडा हुआ होगा। बहू कहती होगी,मेरे पास

गहने नहीं, मेरा नसीब जल गया। सास- बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया

होगा। रमानाथ—‘हां बाबा, बात यही है, तुम कैसे जान गए?

देवीदिीन हंसकर बोला,’यह बडा भारी काम है भैया! इसे तेली की खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी

लङके-बाले तो नहीं ह न?’

रमानाथ—‘नहीं, अभी तो नहीं ह।’

देवीदिीन—‘छोट भाई भी होंग?’

रमा चिकत होकर बोला,’हां दिादिा, ठीक कहते हो तुमने कैसे जाना?’

देवीदिीन िफर ठटठा मारकर बोला,यह सब कमों का खेल है। ससुराल धनी होगी, क्यों? ’

रमानाथ—‘हां दिादिा, है तो।’

देवीदिीन—‘मगर िहम्मत न होगी।’

रमानाथ—‘बहुत ठीक कहते हो, दिादिा। बडे कम-िहम्मत ह। जब से िववाह हुआ अपनी लडकी तक को तो

बुलाया नहीं।’

देवीदिीन--‘समझि गया भैया, यही दुर्िनया का दिस्तूर है। बेट के िलए कहो चोरी कर, भीख मांगं, बेटी के

िलए घर में कुछ है ही नहीं।’

तीन िदिन से रमा को नींदि न आई थी। िदिनभर रूपये के िलए मारा-मारा िफरता, रात-भर िचता में

पडारहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींदि आ गई। गरदिन झिुकाकर झिपकी लेने लगा। देवीदिीन ने तुरंत

अपनी गठरी खोली, उसमें से एक दिरी िनकाली, और तख्त पर िबछाकर बोला, ‘तुम यहां आकर लेट रहो, भैया!

मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूं।’

रमा लेट रहा। देवीदिीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आंखों से देखता था, मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा

हो।

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बाईस

जब रमा कोठे से धम-धम नीचे उतर रहा था, उस वक्त ज़ालपा को इसकी ज़रा भी शंका न हुई िक वह

घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही िलया था। जी ऐसा झिुंझिला रहा था िक चलकर रमा को खूब खरी-

खरी सुनाऊं। मुझिसे यह छल-कपट! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदिल गए। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ है,

सरकारी रूपये ख़चर्च कर डाले हों। यही बात है, रतन के रूपये सराफ को िदिए होंग। उस िदिन रतन को देने के

िलए शायदि वे सरकारी रूपये उठा लाए थ। यह सोचकर उसे िफर कोध आया,यह मुझिसे इतना परदिा क्यों करते

ह? क्यों मुझिसे बढ़-बढ़कर बातें करते थ? क्या मैं इतना भी नहीं जानती िक संसार में अमीर-ग़रीब दिोनों ही होते

ह?क्या सभी िस्त्रयां गहनों से लदिी रहती ह?गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और ज़रूरी कामों से रूपये

बचते ह,तो गहने भी बन जाते ह। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते! क्या

उन्होंने मुझिे ऐसी गई-गुजरी समझि िलया! उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूं, कौन से गहने

चाहते ह। पिरिस्थित की भयंकरता का अनुमान करके कोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बडी

तेज़ी से नीचे उतरीब उसे िवश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इंतज़ार कर रहे होंग। कमरे में आई तो उनका पता न

था। साइिकल रक्खी हुई थी, तुरंत दिरवाज़े से झिांका। सड़क पर भी नहीं। कहां चले गए? लडके।

दिोनों पढ़ने स्यल गए थ, िकसको भेजे िक जाकर उन्हें बुला लाए। उसके ह्रदिय में एक अज्ञात संशय अंद्दिरत

हुआ। फौरन ऊपर गई, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बांधा, िफर नीचे उतरी, सड़क पर

आकर एक तांगा िलया, और कोचवान से बोली,चुंगी कचहरी चलो। वह पछता रही थी िक मैं इतनी देर बैठी

क्यों रही। क्यों न गहने उतारकर तुरंत दे िदिए। रास्ते में वह दिोनों तरफ बडे ध्यान से देखती जाती थी। क्या

इतनी जल्दि इतनी दूर िनकल आए? शायदि देर हो जाने के कारण वह भी आज तांग ही पर गए ह, नहीं तो अब

तक जरूर िमल गए होते। तांग वाले से बोली, ‘क्यों जी, अभी तुमने िकसी बाबूजी को तांग पर जाते देखा?’

तांग वाले ने कहा,’हां माईजी, एक बाबू अभी इधर ही से गए ह।’

जालपा को कुछ ढाढ़स हुआ, रमा के पहुंचते-पहुंचते वह भी पहुंच जाएगी। कोचवान से बार-बार घोडातेज़

करने को कहती। जब वह दिफ्तर पहुंची, तो ग्यारह बज गए थ। कचहरी में सैकड़ों आदिमी इधर-उधर दिौड़ रहे थ।

िकससे पूछे? न जाने वह कहां बैठते ह। सहसा एक चपरासी िदिखलाई िदिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा, ‘सुनो

जी, ज़रा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ।

चपरासी बोला,उन्हीं को बुलाने तो जा रहा हूं। बडे बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आई ह?’

जालपा—‘हां, मैं तो घर ही से आ रही हूं। अभी दिस िमनट हुए वह घर से चले ह।’

चपरासी—‘यहां तो नहीं आए।’

जालपा बडे असमंजस में पड़ी। वह यहां भी नहीं आए, रास्ते में भी नहीं िमले, तो िफर गए कहां? उसका

िदिल बांसों उछलने लगा। आंखें भर-भर आने लगीं। वहां बडे बाबू के िसवा वह और िकसी को न जानती थी।

उनसे बोलने का अवसर कभी न पडा था, पर इस समय उसका संकोच ग़ायब हो गया। भय के सामने मन के और

सभी भाव दिब जाते ह। चपरासी से बोली,ज़रा बडे बाबू से कह दिो---नहीं चलो, मैं ही चलती हूं। बडे बाबू से

कुछ बातें करनी ह। जालपा का ठाठ-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया, उल्ट पांव बडे बाबू के

कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे हो ली। बडे बाबू खबर पाते ही तुरंत बाहर िनकल आए।

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जालपा ने कदिम आग बढ़ाकर कहा, ‘क्षमा कीिजए, बाबू साहब, आपको कष्ट हुआ। वह पंद्रह-बीस िमनट

हुए घर से चले, क्या अभी तक यहां नहीं आए?’

रमेश—‘अच्छा आप िमसेज रमानाथ ह। अभी तो यहां नहीं आए। मगर दिफ्तर के वक्त सैर - सपाट करने

की तो उसकी आदित न थी।’

जालपा ने चपरासी की ओर ताकते हुए कहा, ‘मैं आपसे कुछ अज़र्च करना चाहती हूं।’

रमेश—‘तो चलो अंदिर बैठो, यहां कब तक खड़ी रहोगी। मुझिे आश्चयर्च है िक वह गए कहां! कहीं बैठे शतरंज

खेल रहे होंग।‘

जालपा—‘नहीं बाबूजी, मुझिे ऐसा भय हो रहा है िक वह कहीं और न चले गए हों। अभी दिस िमनट हुए,

उन्होंने मेरे नाम एक पुरज़ा िलखा था। (जेब से टटोल कर) जी हां, देिखए वह पुरज़ा मौजूदि है। आप उन पर

कृतपा रखते ह, तो कोई परदिा नहीं। उनके िजम्मे कुछ सरकारी रूपये तो नहीं िनकलते!’

रमेश ने चिकत होकर कहा, ‘क्यों, उन्होंने तुमसे कुछ नहीं कहा?’

जालपा—‘कुछ नहीं। इस िवषय में कभी एक शब्दि भी नहीं कहा!’

रमेश—‘कुछ समझि में नहीं आता। आज उन्हें तीन सौ रूपये जमा करना है। परसों की आमदिनी उन्होंने

जमा नहीं की थी? नोट थ, जेब में डालकर चल िदिए। बाज़ार में िकसी ने नोट िनकाल िलए। (मुस्कराकर) िकसी

और देवी की पूजा तो नहीं करते?’

जालपा का मुख लज्जा से नत हो गया। बोली, ‘अगर यह ऐब होता, तो आप भी उस इलज़ाम से न बचते।

जेब से िकसी ने िनकाल िलए होंग। मारे शमर्च के मुझिसे कहा न होगा। मुझिसे ज़रा भी कहा होता, तो तुरंत रूपये

िनकालकर दे देती, इसमें बात ही क्या थी।’

रमेश बाबू ने अिवश्वास के भाव से पूछा, ‘क्या घर में रूपये ह?’

जालपा ने िनशंक होकर कहा, ‘तीन सौ चािहए न, मैं अभी िलये आती हूं।’

रमेश—‘अगर वह घर पर आ गए हों, तो भेज देना।’

जालपा आकर तांग पर बैठी और कोचवान से चौक चलने को कहा। उसने अपना हार बेच डालने का

िनश्चय कर िलया। यों उसकी कई सहेिलयां थीं, िजनसे उसे रूपये िमल सकते थ। िस्त्रयों में बडा स्नेह होता है।

पुरूषों की भांित उनकी िमत्रता केवल पान?पभो तक ही समाप्त नहीं हो जाती, मगर अवसर नहीं था। सराफे में

पहुंचकर वह सोचने लगी, िकस दुर्कान पर जाऊं। भय हो रहा था, कहीं ठगी न जाऊं। इस िसरे से उस िसरे तक

चक्कर लगा आई, िकसी दुर्कान पर जाने की िहम्मत न पड़ी। उधार वक्त भी िनकला जाता था। आिख़र एक

दुर्कान पर एक बूढ़े सराफ को देखकर उसका संकोच कुछ कम हुआ। सराफ बडा घाघ था, जालपा की िझिझिक और

िहचक देखकर समझि गया, अच्छा िशकार फंसा। जालपा ने हार िदिखाकर कहा,आप इसे ले सकते ह?’

सराफ ने हार को इधर-उधर देखकर कहा, ‘मुझिे चार पैसे की गुंजाइश होगी, तो क्यों न ले लूंगा। माल

चोखा नहीं है।’

जालपा—‘तुम्हें लेना है, इसिलए माल चोखा नहीं है, बेचना होता, तो चोखा होता। िकतने में लोग?’

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सराफ—‘आप ही कह दिीिजए।’

सराफ ने साढ़े तीन सौ दिाम लगाए, और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुंचा। जालपा को देर हो रही थी,

रूपये िलये और चल खड़ी हुई। िजस हार को उसने इतने चाव से ख़रीदिा था, िजसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही

में उत्पन्न हो गई थी, उसे आज आधे दिामों बेचकर उसे ज़रा भी दुर्ःख नहीं हुआ, बिल्क गवर्चमय हषर्च का अनुभव हो

रहा था। िजस वक्त रमा को मालूम होगा िक उसने रूपये दे िदिए ह, उन्हें िकतना आनंदि होगा। कहीं दिफ्तर पहुंच

गए हों तो बडा मज़ा हो यह सोचती हुई वह िफर दिफ्तर पहुंची। रमेश बाबू उसे देखते हुए बोले, ‘क्या हुआ, घर

पर िमले?’

जालपा—‘क्या अभी तक यहां नहीं आए? घर तो नहीं गए। यह कहते हुए उसने नोटों का पुिलदिा रमेश

बाबू की तरफ बढ़ा िदिया।

रमेश बाबू नोटों को िगनकर बोले, ‘ठीक है, मगर वह अब तक कहां ह। अगर न आना था, तो एक ख़त िलख देते।

मैं तो बडे संकट में पडा हुआ था। तुम बडे वक्त से आ गई। इस वक्त तुम्हारी सूझि-बूझि देखकर जी खुश हो गया।

यही सच्ची देिवयों का धमर्च है।’

जालपा िफर तांग पर बैठकर घर चली तो उसे मालूम हो रहा था, मैं कुछ ऊंची हो गई हूं। शरीर में एक

िविचत्र स्फूित दिौड़ रही थी। उसे िवश्वास था, वह आकर िचितत बैठे होंग। वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाथों

लेगी, और खूब लिज्जत करने के बादि यह हाल कहेगी, लेिकन जब घर में पहुंची तो रमानाथ का कहीं पता न था।

जागश्वरी ने पूछा, ‘कहां चली गई थीं इस धूप में?’

जालपा—‘एक काम से चली गई थी। आज उन्होंने भोजन नहीं िकया, न जाने कहां चले गए।’

जागश्वरी--’दिफ्तर गए होंग।’

जालपा—‘नहीं, दिफ्तर नहीं गए। वहां से एक चपरासी पूछने आया था।’

यह कहती हुई वह ऊपर चली गई, बचे हुए रूपये संदूक में रखे और पंखा झिलने लगी। मारे गरमी के देह

फुंकी जा रही थी, लेिकन कान द्वार की ओर लग थ। अभी तक उसे इसकी ज़रा भी शंका न थी िक रमा ने िवदेश

की राह ली है।

चार बजे तक तो जालपा को िवशष िचता न हुई लेिकन ज्यों-ज्यों िदिन ढलने लगा, उसकी िचता बढ़ने

लगी। आिख़र वह सबसे ऊंची छत पर चढ़ गई, हालांिक उसके जीणर्च होने के कारण कोई ऊपर नहीं आता था,

और वहां चारों तरफ नज़र दिौडाई, लेिकन रमा िकसी तरफ से आता िदिखाई न िदिया। जब संध्या हो गई और

रमा घर न आया, तो जालपा का जी घबराने लगा। कहां चले गए? वह दिफ्तर से घर आए िबना कहीं बाहर न

जाते थ। अगर िकसी िमत्र के घर होते, तो क्या अब तक न लौटते?मालूम नहीं, जेब में कुछ है भी या नहीं।

बेचारे िदिनभर से न मालूम कहां भटक रहे होंग। वह िफर पछताने लगी िक उनका पत्र पढ़ते ही उसने क्यों न

हार िनकालकर दे िदिया। क्यों दुर्िवधा में पड़ गई। बेचारे शमर्च के मारे घर न आते होंग। कहां जाय? िकससे पूछे?

िचराग़ जल गए, तो उससे न रहा गया। सोचा, शायदि रतन से कुछ पता चले। उसके बंगले पर गई तो

मालूम हुआ, आज तो वह इधर आए ही नहीं। जालपा ने उन सभी पाको और मैदिानों को छान डाला, जहां रमा

के साथ वह बहुधा घूमने आया करती थी, और नौ बजते-बजते िनराश लौट आई। अब तक उसने अपने आंसुआं

को रोका था, लेिकन घर में कदिम रखते ही जब उसे मालूम हो गया िक अब तक वह नहीं आए, तो वह हताश

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होकर बैठ गई। उसकी यह शंका अब दिृतढ़ हो गई िक वह जरूर कहीं चले गए। िफर भी कुछ आशा थी िक शायदि

मेरे पीछे आए हों और िफर चले गए हों। जाकर जागश्वरी से पूछा, ’वह घर आए थ, अम्मांजी?’

जागश्वरी--’यार-दिोस्तों में बैठे कहीं गपशप कर रहे होंग। घर तो सराय है। दिस बजे घर से िनकले थ, अभी

तक पता नहीं।’

जालपा—‘दिफ्तर से घर आकर तब वह कहीं जाते थ। आज तो आए नहीं। किहए तो गोपी बाबू को भेज दूं।

जाकर देखें, कहां रह गए।’

जागश्वरी--’लङके इस वक्त क़हां देखने जाएंग। उनका क्या ठीक है। थोड़ी देर और देख लो, िफर खाना

उठाकर रख देना। कोई कहां तक इंतज़ार करे।’

जालपा ने इसका कुछ जवाब न िदिया। दिफ्तर की कोई बात उनसे न कही। जागश्वरी सुनकर घबडा जाती,

और उसी वक्त रोना-पीटना मच जाता। वह ऊपर जाकर लेट गई और अपने भाग्य पर रोने लगी। रह-रहकर

िचत्ति ऐसा िवकल होने लगा, मानो कलेजे में शूल उठ रहा हो बार-बार सोचती, अगर रातभर न आए तो कल

क्या करना होगा? जब तक कुछ पता न चले िक वह िकधर गए, तब तक कोई जाय तो कहां जाय! आज उसके

मन ने पहली बार स्वीकार िकया िक यह सब उसी की करनी का फल है। यह सच है िक उसने कभी आभूषणों के

िलए आग्रह नहीं िकयाऋ लेिकन उसने कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं िकया। अगर गहने चोरी जाने के बादि

इतनी अधीर न हो गई होती, तो आज यह िदिन क्यों आता। मन की इस दुर्बर्चल अवस्था में जालपा अपने भार से

अिधक भाग अपने ऊपर लेने लगी। वह जानती थी, रमा िरश्वत लेता है,

नोच-खसोटकर रूपये लाता है। िफर भी कभी उसने मना नहीं िकया। उसने खुदि क्यों अपनी कमली के

बाहर पांव व्लाया- क्यों उसे रोज़ सैर - सपाट की सूझिती थी? उपहारों को ले-लेकर वह क्यों फली न समाती थी?

इस िजम्मेदिारी को भी इस वक्त ज़ालपा अपने ही ऊपर ले रही थी। रमानाथ ने प्रेम के वश होकर उसे प्रसन्न

करने के िलए ही तो सब कुछ करते थ। युवकों का यही स्वभाव है। िफर उसने उनकी रक्षा के िलए क्या िकया-

क्यों उसे यह समझि न आई

िक आमदिनी से ज्यादिा ख़चर्च करने का दिंड एक िदिन भोगना पड़ेगा। अब उसे ऐसी िकतनी ही बातें यादि आ

रही थीं, िजनसे उसे रमा के मन की िवकलता का पिरचय पा जाना चािहए था, पर उसने कभी उन बातों की

ओर ध्यान न िदिया।

जालपा इन्हीं िचताआं में डूबी हुई न जाने कब तक बैठी रही। जब चौकीदिारों की सीिटयों की आवाज़

उसके कानों में आई, तो वह नीचे जाकर जागश्वरी से बोली, ’वह तो अब तक नहीं आए। आप चलकर भोजन कर

लीिजए।’

जागश्वरी बैठे-बैठे झिपिकयां ले रही थी। चौंककर बोली, ’कहां चले गए थ? ’

जालपा—‘वह तो अब तक नहीं आए।’

जागश्वरी--’अब तक नहीं आए? आधी रात तो हो गई होगी। जाते वक्त तुमसे कुछ कहा भी नहीं?’

जालपा—‘कुछ नहीं।’

जागश्वरी--’तुमने तो कुछ नहीं कहा?’

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जालपा—‘मैं भला क्यों कहती।’

जागश्वरी--’तो मैं लालाजी को जगाऊं?’

जालपा—‘इस वक्त ज़गाकर क्या कीिजएगा? आप चलकर कुछ खा लीिजए न।’

जागश्वरी--’मुझिसे अब कुछ न खाया जायगा। ऐसा मनमौजी लड़का है िक कुछ कहा न सुना, न जाने कहां

जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता िक मैं इस वक्त न आऊंगा।’

जागश्वरी िफर लेट रही, मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहां तक िक सारी रात गुज़र गई,पहाड़-सी

रात िजसका एक-एक पल एक-एक वषर्च के समान कट रहा था।

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तेईस

एक सप्ताह हो गया, रमा का कहीं पता नहीं। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। बेचारे रमेश बाबू िदिन में

कई-कई बार आकर पूछ जाते ह। तरह-तरह के अनुमान हो रहे ह। केवल इतना ही पता चलता है िक रमानाथ

ग्यारह बजे रेलवे स्टशन की ओर गए थ। मुंशी दियानाथ का खयाल है, यद्यपिप वे इसे स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते

िक रमा ने आत्महत्या कर ली। ऐसी दिशा में यही होता है। इसकी कई िमसालें उन्होंने खुदि आंखों से देखी ह। सास

और ससुर दिोनों ही जालपा

पर सारा इलज़ाम थोप रहे ह। साफ-साफ कह रहे ह िक इसी के कारण उसके प्राण गए। इसने उसका

नाकों दिम कर िदिया। पूछो, थोड़ी-सी तो आपकी आमदिनी, िफर तुम्हें रोज़ सैर - सपाट और दिावत-तवाज़े की

क्यों सूझिती थी। जालपा पर िकसी को दिया नहीं आती। कोई उसके आंसू नहीं पोंछता। केवल रमेश बाबू उसकी

तत्परता और सदिबुिद्धि की प्रशंसा करते ह, लेिकन मुंशी दियानाथ की आंखों में उस कृतत्य का कुछ मूल्य नहीं। आग

लगाकर पानी लेकर दिौड़ने से कोई िनदिोष नहीं हो जाता!

एक िदिन दियानाथ वाचनालय से लौट, तो मुंह लटका हुआ था। एक तो उनकी सूरत यों ही मुहरर्चमी थी,

उस पर मुंह लटका लेते थ तो कोई बच्चा भी कह सकता था िक इनका िमज़ाज िबगडा हुआ है।

जागश्वरी ने पूछा, ‘क्या है, िकसी से कहीं बहस हो गई क्या?’

दियानाथ—‘नहीं जी, इन तकषज़ों के मारे हैरान हो गया। िजधर जाओ, उधर

लोग नोचने दिौड़ते ह, न जाने िकतना कज़र्च ले रक्खा है। आज तो मैंने साफ कह

िदिया, मैं कुछ नहीं जानता। मैं िकसी का देनदिार नहीं हूं। जाकर मेमसाहब से मांगो।

इसी वक्त ज़ालपा आ पड़ी। ये शब्दि उसके कानों में पड़ गए। इन सात िदिनों में उसकी सूरत ऐसी बदिल गई

थी िक पहचानी न जाती थी। रोते-रोते आंखें सूज आई थीं। ससुर के ये कठोर शब्दि सुनकर ितलिमला उठी, बोली,

‘जी हां । आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दिीिजए, मैं उन्हें या तो समझिा दूंगी, या उनके दिाम चुका दूंगी।’

दियानाथ ने तीखे होकर कहा, ‘क्या दे दिोगी तुम, हज़ारों का िहसाब है,सात सौ तो एक ही सराफ के ह।

अभी कै पैसे िदिए ह तुमने?’

जालपा—‘उसके गहने मौजूदि ह, केवल दिो-चार बार पहने गए ह। वह आए तो मेरे पास भेज दिीिजए।मैं

उसकी चीजें वापस कर दूंगी। बहुत होगा, दिसपांच रूपये तावान के ले लेगा।’

यह कहती हुई वह ऊपर जा रही थी िक रतन आ गई और उसे गले से लगाती हुई बोली, ‘क्या अब तक

कुछ पता नहीं चला? जालपा को इन शब्दिों में स्नेह और सहानुभूित का एक सागर उमड़ता हुआ जान पड़ा। यह

गैर होकर इतनी िचितत है, और यहां अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए ह। इन अपनों से गैर ही

अच्छे।आंखों में आंसू भरकर बोली, ‘अभी तो कुछ पता नहीं चला बहन! ‘

रतन—‘यह बात क्या हुई, कुछ तुमसे तो कहा-सुनी नहीं हुई?’

जालपा—‘ज़रा भी नहीं, कसम खाती हूं। उन्होंने नोटों के खो जाने का मुझिसे िज़क ही नहीं िकया। अगर

इशारा भी कर देते, तो मैं रूपये दे देती। जब वह दिोपहर तक नहीं आए और मैं खोजती हुई दिफ्तर गई, तब मुझिे

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मालूम हुआ, कुछ नोट खो गए ह। उसी वक्त जाकर मैंने रूपये जमा कर िदिए।’

रतन—‘मैं तो समझिती हूं, िकसी से आंखें लड़ गई। दिस-पांच िदिन में आप पता लग जायगा। यह बात सच न

िनकले, तो जो कहो दूं।’

जालपा ने हकबकाकर पूछा, ‘क्या तुमने कुछ सुना है?’

रतन—‘नहीं, सुना तो नहींऋ पर मेरा अनुमान है।’

जालपा—‘नहीं रतन—‘ मैं इस पर ज़रा भी िवश्वास नहीं करती। यह बुराई उनमें नहीं है, और चाहे

िजतनी बुराइयां हों। मुझिे उन पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है।’

रतन ने हंसकर कहा,’इस कला में ये लोग िनपुण होते ह। तुम बेचारी क्या जानो!’

जालपा दिृतढ़ता से बोली, ‘अगर वह इस कला में िनपुण होते ह, तो हम भी ह्रदिय को परखने में कम िनपुण

नहीं होतीं। मैं इसे नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थ, तो मैं भी उनकी स्वािमनी थी।’

रतन—‘अच्छा चलो, कहीं घूमने चलती हो? चलो, तुम्हें कहीं घुमा लाव।’

जालपा—‘नहीं, इस वक्त तो मुझिे फुरसत नहीं है। िफर घरवाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए ह, तब तो

जीता ही न छोड़ंग। िकधर जाने का िवचार है?’

रतन—‘कहीं नहीं, ज़रा बाज़ार तक जाना था।’

जालपा—‘क्या लेना है?’

रतन—‘जौहिरयों की दुर्कान पर एक-दिो चीज़ देखूंगी। बस, मैं तुम्हारा जैसा

कंगन चाहती हूं। बाबूजी ने भी कई महीने के बादि रूपये लौटा िदिए। अब

खुदि तलाश करूंगी।’

जालपा—‘मेरे कंगन में ऐसे कौन?से रूप लग ह। बाज़ार में उससे बहुत अच्छे िमल सकते ह।’

रतन—‘मैं तो उसी नमूने का चाहती हूं।’

जालपा—‘उस नमूने का तो बना-बनाया मुिश्कल से िमलेगा, और बनवाने में महीनों का झिंझिट। अगर सब्र

न आता हो, तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं िफर बनवा लूंगी।’

रतन ने उछलकर कहा, ‘वाह, तुम अपना कंगन दे दिो, तो क्या कहना है!मूसलों ढोल बजाऊं! छः सौ का था

न?’

जालपा—‘हां, था तो छः सौ का, मगर महीनों सराफ की दूकान की खाक छाननी पड़ी थी। जडाई तो खुदि

बैठकर करवाई थी। तुम्हारे ख़ाितर दे दूंगी। जालपा ने कंगन िनकालकर रतन के हाथों में पहना िदिए। रतन के

मुख पर एक िविचत्र गौरव का आभास हुआ, मानो िकसी कंगाल को पारस िमल गया हो यही आित्मक आनंदि की

चरम सीमा है। कृततज्ञता से भरे हुए स्वर से बोली,

‘तुम िजतना कहो, उतना देने को तैयार हूं। तुम्हें दिबाना नहीं चाहती। तुम्हारे िलए यही क्या कम है िक

तुमने इसे मुझिे दे िदिया। मगर एक बात है। अभी मैं सब रूपये न दे सकूंगी, अगर दिो सौ रूपये िफर दे दूं तो कुछ

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हरज है?’

जालपा ने साहसपूवर्चक कहा, ‘कोई हरज नहीं, जी चाहे कुछ भी मत दिो।’

रतन—‘नहीं, इस वक्त मेरे पास चार सौ रूपये ह, मैं िदिए जाती हूं। मेरे पास रहेंग तो िकसी दूसरी जगह

ख़चर्च हो जाएंग। मेरे हाथ में तो रूपये िटकते ही नहीं, करूं क्या जब तक ख़चर्च न हो जाएं, मुझिे एक िचता-सी लगी

रहती है, जैसे िसर पर कोई बोझि सवार हो जालपा ने कंगन की िडिबया उसे देने के िलए िनकाली तो उसका

िदिल मसोस उठा। उसकी कलाई पर यह कंगन देखकर रमा िकतना खुश होता था।’

आज वह होता तो क्या यह चीज़ इस तरह जालपा के हाथ से िनकल जाती! िफर कौन जाने कंगन पहनना

उसे नसीब भी होगा या नहीं। उसने बहुत ज़ब्त िकया, पर आंसू िनकल ही आए।

रतन उसके आंसू देखकर बोली, ‘इस वक्त रहने दिो बहन, िफर ले लूंगी,जल्दिी ही क्या है।’

जालपा ने उसकी ओर बक्स को बढ़ाकर कहा, ‘क्यों, क्या मेरे आंसू देखकर? तुम्हारी खाितर से दे रही हूं,

नहीं यह मुझिे प्राणों से भी िप्रय था। तुम्हारे पास इसे देखूंगी, तो मुझिे तसकीन होती रहेगी। िकसी दूसरे को मत

देना, इतनी दिया करना।‘

रतन—‘िकसी दूसरे को क्यों देने लगी। इसे तुम्हारी िनशानी समझिूंगी। आज बहुत िदिन के बादि मेरे मन की

अिभलाषा पूरी हुई। केवल दुर्ःख इतना ही है, िक बाबूजी अब नहीं ह। मेरा मन कहता है िक वे जल्दिी ही आएंग।

वे मारे शमर्च के चले गए ह, और कोई बात नहीं। वकील साहब को भी यह सुनकर बडा दुर्ःख हुआ। लोग कहते ह,

वकीलों का ह्रदिय कठोर होता है, मगर इनको

तो मैं देखती हूं, ज़रा भी िकसी की िवपित्ति सुनी और तड़प उठे।’

जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘बहन, एक बात पूछूं, बुरा तो न मानोगी? वकील साहब से तुम्हारा िदिल तो न

िमलता होगा।’

रतन का िवनोदि-रंिजत, प्रसन्न मुख एक क्षण के िलए मिलन हो उठा। मानो िकसी ने उसे उस िचर-स्नेह

की यादि िदिला दिी हो, िजसके नाम को वह बहुत पहले रो चुकी थी। बोली, ‘मुझिे तो कभी यह ख़याल भी नहीं

आया बहन िक मैं युवती हूं और वे बूढे। ह। मेरे ह्रदिय में िजतना प्रेम, िजतना अनुराग है, वह सब मैंने उनके ऊपर

अपर्चण कर िदिया। अनुराग, यौवन या रूप या धन से नहीं उत्पन्न होता। अनुराग अनुराग से उत्पन्न होता है। मेरे

ही कारण वे इस अवस्था में इतना पिरश्रम कर रहे ह, और दूसरा है ही कौन। क्या यह छोटी बात है? कल कहीं

चलोगी? कहो तो शाम को आऊं?’

जालपा—‘जाऊंगी तो मैं कहीं नहीं, मगर तुम आना जरूर। दिो घड़ी िदिल बहलेगा। कुछ अच्छा नहीं लगता।

मन डाल-डाल दिौड़ता-िफरता है। समझि में नहीं आता, मुझिसे इतना संकोच क्यों िकया- यह भी मेरा ही दिोष है।

मुझिमें जरूर उन्होंने कोई ऐसी बात देखी होगी, िजसके कारण मुझिसे परदिा करना उन्हें जरूरी मालूम हुआ। मुझिे

यही दुर्ःख है िक मैं उनका सच्चा स्नेह न पा सकी। िजससे प्रेम होता है, उससे हम कोई भेदि नहीं रखते।’

रतन उठकर चली, तो जालपा ने देखा,कंगन का बक्स मेज़ पर पडा हुआ है। बोली, ‘इसे लेती जाओ बहन,

यहां क्यों छोड़े जाती हो ।’

रतन—‘ले जाऊंगी, अभी क्या जल्दिी पड़ी है। अभी पूरे रूपये भी तो नहीं िदिए!’

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जालपा—‘नहीं, नहीं, लेती जाओ। मैं न मानूंगी।’

मगर रतन सीढ़ी से नीचे उतर गई। जालपा हाथ में कंगन िलये खड़ी रही। थोड़ी देर बादि जालपा ने संदूक

से पांच सौ रूपये िनकाले और दियानाथ के पास जाकर बोली,यह रूपये लीिजए, नारायणदिास के पास िभजवा

दिीिजए। बाकी रूपये भी मैं जल्दि ही दे दूंगी। दियानाथ ने झिंपकर कहा, ‘’रूपये कहां िमल गए?’ जालपा ने

िनसंकोच होकर कहा, ‘रतन के हाथ कंगन बेच िदिया।’ दियानाथ उसका मुंह ताकने लग।

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चौबीस

एक महीना गुजर गया। प्रयाग के सबसे अिधक छपने वाले दिैिनक पत्र में एक नोिटस िनकल रहा है, िजसमें

रमानाथ के घर लौट आने की प्रेरणा दिी गई है, और उसका पता लगा लेने वाले आदिमी को पांच सौ रूपये इनाम

देने का वचन िदिया गया है, मगर अभी कहीं से कोई ख़बर नहीं आई। जालपा िचता और दुर्ःख से घुलती चली

जाती है। उसकी दिशा देखकर दियानाथ को भी उस पर दिया आने लगी है। आिख़र एक िदिन उन्होंने दिीनदियाल को

िलखा, ‘आप आकर बहू को कुछ िदिनों के िलए ले जाइए। दिीनदियाल यह समाचार पाते ही घबडाए हुए आए, पर

जालपा ने मैके जाने से इंकार कर िदिया। दिीनदियाल ने िविस्मत होकर कहा, ‘क्या यहां पड़े-पड़े प्राण देने का

िवचार है?’

जालपा ने गंभीर स्वर में कहा, ‘अगर प्राणों को इसी भांित जाना होगा, तो कौन रोक सकता है। मैं अभी

नहीं मरने की दिादिाजी, सच मािनए। अभािगनों के िलए वहां भी जगह नहीं है।’

दिीनदियाल, ‘आिख़र चलने में हरज ही क्या है। शहजादिी और बासन्ती दिोनों आई हुई ह। उनके साथ हंसबोलकर जी बहलता रहेगा।

जालपा—‘यहां लाला और अम्मांजी को अकेली छोड़कर जाने को मेरा जी नहीं चाहता। जब रोना ही

िलखा है, तो रोऊंगी।’

दिीनदियाल, ‘यह बात क्या हुई, सुनते ह कुछ कज़र्च हो गया था, कोई कहता है, सरकारी रकम खा गए थ।‘

जालपा—‘िजसने आपसे यह कहा, उसने सरासर झिूठ कहा।‘

दिीनदियाल—‘तो िफर क्यों चले गए? ‘

जालपा—‘यह मैं िबलकुल नहीं जानती। मुझिे बार-बार खुदि यही शंका होती है।‘

दिीनदियाल—‘लाला दियानाथ से तो झिगडानहीं हुआ? ’

जालपा—‘लालाजी के सामने तो वह िसर तक नहीं उठाते, पान तक नहीं खाते, भला झिगडा क्या करग।

उन्हें घूमने का शौक था। सोचा होगा,यों तो कोई जाने न देगा, चलो भाग चलें।’

दिीनदियाल—‘ शायदि ऐसा ही हो कुछ लोगों को इधर-उधर भटकने की सनक होती है। तुम्हें यहां जो कुछ

तकलीफ हो, मुझिसे साफ-साफ कह दिो। ख़रच के िलए कुछ भेज िदिया करूं? ‘

जालपा ने गवर्च से कहा, ‘मुझिे कोई तकलीफ नहीं है, दिादिाजी! आपकी दिया से िकसी चीज़ की कमी नहीं है।

दियानाथ और जागश्वरी दिोनों ने जालपा को समझिाया, पर वह जाने पर राज़ी न हुई। तब दियानाथ

झिुंझिलाकर बोले, ‘यहां िदिन-भर पड़े-पड़े रोने से तो अच्छा है।‘

जालपा—‘क्या वह कोई दूसरी दुर्िनया है, या मैं वहां जाकर कुछ और हो जाऊंगी। और िफर रोने से क्यों

डरूं, जब हंसना था, तब हंसती थी, जब रोना है, तो रोऊंगी। वह काले कोसों चले गए हों, पर मुझिे तो हरदिम

यहीं बैठे िदिखाई देते ह। यहां वे स्वयं नहीं ह, पर घर की एक-एक चीज़ में बसे हुए ह। यहां से जाकर तो मैं

िनराशा से पागल हो जाऊंगी।‘

दिीनदियाल समझि गए यह अिभमािननी अपनी टक न छोड़ेगी। उठकर बाहर चले गए। संध्या समय चलते

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वक्त उन्होंने पचास रूपये का एक नोट जालपा की तरफ बढ़ाकर कहा, ‘इसे रख लो, शायदि कोई जरूरत पड़े।

जालपा ने िसर िहलाकर कहा, ‘मुझिे इसकी िबलकुल जरूरत नहीं है,

दिादिाजी, हां, इतना चाहती हूं िक आप मुझिे आशीवादि दें। संभव है, आपके आशीवादि से मेरा कल्याण हो।’

दिीनदियाल की आंखों में आंसू भर आए, नोट वहीं चारपाई पर रखकर बाहर चले आए।

क्वार का महीना लग चुका था। मेघ के जल-शून्य टुकड़े कभी-कभी आकाश में दिौड़ते नज़र आ जाते थ।

जालपा छत पर लेटी हुई उन मेघ-खंडों की िकलोलें देखा करती। िचता-व्यिथत प्रािणयों के िलए इससे अिधक

मनोरंजन की और वस्तु ही कौन है? बादिल के टुकड़े भांित-भांित के रंग बदिलते, भांित- भांित के रूप भरते, कभी

आपस में प्रेम से िमल जाते, कभी ईठकर अलग-अलग हो जाते, कभी दिौड़ने लगते, कभी िठठक जाते। जालपा

सोचती, रमानाथ भी कहीं बैठे यही मेघ-कीडादेखते होंग। इस कल्पना में उसे िविचत्र आनंदि िमलता। िकसी

माली को अपने लगाए पौधों से, िकसी बालक को अपने बनाए हुए घरौंदिों से िजतनी आत्मीयता होती है, कुछ

वैसा ही अनुराग उसे उन आकाशगामी जीवों से होता था। िवपित्ति में हमारा मन अंतमुर्चखी हो जाता है। जालपा

को अब यही शंका होती थी िक ईश्वर ने मेरे पापों का यह दिंड िदिया है। आिख़र रमानाथ िकसी का गला दिबाकर

ही तो रोज़ रूपये लाते थ। कोई खुशी से तो न दे देता।

यह रूपये देखकर वह िकतनी खुश होती थी। इन्हीं रूपयों से तो िनत्य शौक ऋंगारकी चीजें आती रहती

थीं। उन वस्तुआं को देखकर अब उसका जी जलता था। यही सारे दुर्द्यपखों की मूल ह। इन्हीं के िलए तो उसके पित

को िवदेश जाना पड़ा। वे चीजें उसकी आंखों में अब कांटों की तरह गड़ती थीं, उसके ह्रदिय में शूल की तरह

चुभती थीं।

आिख़र एक िदिन उसने इन चीज़ों को जमा िकया,मखमली स्लीपर,रेशमी मोज़े, तरह-तरह की बेलें, गीते,

िपन, कंिघयां, आईने, कोई कहां तक िगनाए। अच्छा-खासा एक ढेर हो गया। वह इस ढेर को गंगा में डुबा देगी,

और अब से एक नये जीवन का साूपात करेगी। इन्हीं वस्तुआं के पीछे, आज उसकी यह गित हो रही है। आज वह

इस मायाजाल को नष्ट कर डालेगी। उनमें िकतनी ही चीजें तो ऐसी सुंदिर थीं िक उन्हें ट्ठंकते मोह आता था, मगर

ग्लािन की उस प्रचंड ज्वाला को पानी के ये छींट क्या बुझिाते। आधी रात तक वह इन चीज़ों को उठा-उठाकर

अलग रखती रही, मानो िकसी यात्रा की तैयारी कर रही हो हां, यह वास्तव में यात्रा ही थी,अंधेरे से उजाले की,

िमथ्या से सत्य की। मन में सोच रही थी, अब यिदि ईश्वर की दिया हुई और वह िफर लौटकर घर आए, तो वह इस

तरह रहेगी िक थोड़े-से-थोड़े में िनवाह हो जाय। एक पैसा भी व्यथर्च न ख़चर्च करेगी। अपनी मजदूरी के ऊपर एक

कौड़ी भी घर में न आने देगी। आज से उसके नए जीवन का आरंभ होगा।

ज्योंही चार बजे, सड़क पर लोगों के आने-जाने की आहट िमलने लगी। जालपा ने बेग उठा िलया और

गंगा-स्नान करने चली। बेग बहुत भारी था, हाथ में उसे लटकाकर दिस कदिम भी चलना किठन हो गया। बार-बार

हाथ बदिलती थी। यह भय भी लगा हुआ था िक कोई देख न ले। बोझि लेकर चलने का उसे कभी अवसर न

पडाथा। इक्ध वाले पुकारते थ, पर वह इधर कान न देती थी। यहां तक िक हाथ बेकाम हो गए, तो उसने बेग को

पीठ पर रख िलया और कदिम बढ़ाकर चलने लगी। लंबा घूंघट िनकाल िलया था िक कोई पहचान न सके।

वह घाट के समीप पहुंची, तो प्रकाश हो गया था। सहसा उसने रतन को अपनी मोटर पर आते देखा। उसने

चाहा, िसर झिुकाकर मुंह िछपा ले, पर रतन ने दूर ही से पहचान िलया, मोटर रोककर बोली,कहां जा रही हो

बहन, ‘यह पीठ पर बेग कैसा है?’

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जालपा ने घूंघट हटा िलया और िनद्यपशंक होकर बोली,’गंगा-स्नान करने जा रही हूं।’

रतन—‘मैं तो स्नान करके लौट आई, लेिकन चलो, तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें घर पहुंचाकर लौट

जाऊंगी। बेग रख दिो।’

जालपा—‘नहीं-नहीं, यह भारी नहीं है। तुम जाओ, तुम्हें देर होगी। मैं चली जाऊंगी।’

मगर रतन ने न माना, कार से उतरकर उसके हाथ से बेग ले ही िलया

और कार में रखती हुई बोली, ‘क्या भरा है तुमने इसमें, बहुत भारी है। खोलकर देखूं?’

जालपा—‘इसमें तुम्हारे देखने लायक कोई चीज़ नहीं है।’

बेग में ताला न लगा था। रतन ने खोलकर देखा, तो िविस्मत होकर बोली, ‘इन चीज़ों को कहां िलये जाती

हो?’

जालपा ने कार पर बैठते हुए कहा, ‘इन्हें गंगा में बहा दूंगी।’

रतन ने िवस्मय में पड़कर कहा, ‘गंगा में! कुछ पागल तो नहीं हो गई हो चलो, घर लौट चलो। बेग रखकर

िफर आ जाना।’

जालपा ने दिृतढ़ता से कहा,नहीं रतन—‘ मैं इन चीजों को डुबाकर ही जाऊंगी।’

रतन—‘आिखर क्यों? ’

जालपा—‘पहले कार को बढ़ाओ, िफर बताऊं।’

रतन—‘नहीं, पहले बता दिो।’

जालपा—‘नहीं, यह न होगा। पहले कार को बढ़ाओ।’

रतन ने हारकर कार को बढ़ाया और बोली, ’अच्छा अब तो बताओगी? ’

जालपा ने उलाहने के भाव से कहा, ’इतनी बात तो तुम्हें खुदि ही समझि लेनी चािहए थी। मुझिसे क्या

पूछती हो अब वे चीज़ं मेरे िकस काम की ह! इन्हें देख-देखकर मुझिे दुर्ख होता है। जब देखने वाला ही न रहा, तो

इन्हें रखकर क्या करूं? ’

रतन ने एक लंबी सांस खींची और जालपा का हाथ पकड़कर कांपते हुए स्वर में बोली, ‘बाबूजी के साथ

तुम यह बहुत बडा अन्याय कर रही हो, बहन, वे िकतनी उमंग से इन्हें लाए होंग। तुम्हारे अंगों पर इनकी शोभा

देखकर िकतना प्रसन्न हुए होंग। एक-एक चीज़ उनके प्रेम की एक-एक स्मृतित है। उन्हें गंगा में बहाकर तुम उस

प्रेम का घोर अनादिर कर रही हो।’ जालपा िवचार में डूब गई। मन में संकल्प-िवकल्प होने लगा, िकतु एक ही

क्षण में वह िफर संभल गई, बोली, ‘यह बात नहीं है ।हन! जब तक ये चीजें मेरी आंखों से दूर न हो जाएंगी, मेरा

िचत्ति शांत न होगा। इसी िवलािसता ने मेरी यह दुर्गर्चित की है। यह मेरी िवपित्ति की गठरी है, प्रेम की स्मृतित नहीं।

प्रेम तो मेरे ह्रदिय पर अंिकत है।’

रतन—‘तुम्हारा ह्रदिय बडा कठोर है। जालपा, मैं तो शायदि ऐसा न कर सकती।’

जालपा—‘लेिकन मैं तो इन्हें अपनी िवपित्ति का मूल समझिती हूं।’

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एक क्षण चुप रहने के बादि वह िफर बोली, ‘उन्होंने मेरे साथ बडा अन्याय िकया है, बहन! जो पुरूष अपनी

स्त्री से कोई परदिा रखता है, मैं समझिती हूं, वह उससे प्रेम नहीं करता। मैं उनकी जगह पर होती, तो यों

ितलांजिल देकर न भागती। अपने मन की सारी व्यथा कह सुनाती और जो कुछ करती, उनकी सलाह से करती।

स्त्री और पुरूष में दुर्राव कैसा! ’

रतन ने गंभीर मुस्कान के साथ कहा, ‘ऐसे पुरूष तो बहुत कम होंग, जो स्त्री से अपना िदिल खोलते हों। जब

तुम स्वयं िदिल में चोर रखती हो, तो उनसे क्यों आशा रखती हो िक वे तुमसे कोई परदिा न रक्खें। तुम ईमान से

कह सकती हो िक तुमने उनसे परदिा नहीं रक्खा?

जालपा ने सद्दचाते हुए कहा, ‘मैंने अपने मन में चोर नहीं रखा।’

रतन ने ज़ोर देकर कहा, ‘झिूठ बोलती हो, िबलकुल झिूठ, अगर तुमने िवश्वास िकया होता, तो वे भी

खुलते।’

जालपा इस आक्षेप को अपने िसर से न टाल सकी। उसे आज ज्ञात हुआ िक कपट का आरंभ पहले उसी की

ओर से हुआ। गंगा का तट आ पहुंचा। कार रूक गई। जालपा उतरी और बेग को उठाने लगी, िकतु रतन ने उसका

हाथ हटाकर कहा, ‘नहीं, मैं इसे न ले जाने दूंगी। समझि लो िक डूब गए।’

जालपा—‘ऐसा कैसे समझि लूं।’

रतन—‘मुझि पर दिया करो, बहन के नाते।’

जालपा—‘बहन के नाते तुम्हारे पैर धो सकती हूं, मगर इन कांटों को ह्रदिय में नहीं रख सकती।’

रतन ने भौंहें िसकोड़कर कहा,िकसी तरह न मानोगी?’

जालपा ने िस्थर भाव से कहा, ‘हां, िकसी तरह नहीं।’

रतन ने िवरक्त होकर मुंह उधर िलया। जालपा ने बेग उठा िलया और तेज़ी से घाट से उतरकर जल-तट

तक पहुंच गई, िफर बेग को उठाकर पानी में फेंक िदिया। अपनी िनबर्चलता पर यह िवजय पाकर उसका मुख

प्रदिीप्त हो गया। आज उसे िजतना गवर्च और आनंदि हुआ, उतना इन चीज़ों को पाकर भी न हुआ था। उन असंख्य

प्रािणयों में जो इस समय स्नान?ध्यान कर रहे थ, कदिािचत िकसी को अपने अंप्तःकरण में प्रकाश का ऐसा अनुभव

न हुआ होगा। मानो प्रभात की सुनहरी ज्योित उसके रोम-रोम में व्याप्त हो रही है। जब वह स्नान करके ऊपर

आई, तो रतन ने पूछा, ‘डुबा िदिया?’

जालपा—‘हां।’

रतन—‘बडी िनठुर हो’

जालपा—‘यही िनठुरता मन पर िवजय पाती है। अगर कुछ िदिन पहले िनठुर हो जाती, तो आज यह िदिन

क्यों आता। कार चल पड़ी।

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पच्चीस

रमानाथ को कलकत्तिा आए दिो महीने के ऊपर हो गए ह। वह अभी तक देवीदिीन के घर पडाहुआ है। उसे

हमेशा यही धुन सवार रहती है िक रूपये कहां से आव, तरह-तरह के मंसूबे बांधाता है, भांित-भांित की कल्पनाएं

करता है, पर घर से बाहर नहीं िनकलता। हां, जब खूब अंधेरा हो जाता है, तो वह एक बार मुहल्ले के वाचनालय

में जरूर जाता है। अपने नगर और प्रांत के समाचारों के िलए उसका मन सदिैव उत्सुक रहता है। उसने वह नोिटस

देखी, जो दियानाथ ने पत्रों में छपवाई थी, पर उस पर िवश्वास न आया। कौन जाने, पुिलस ने उसे िगरफ्तार करने

के िलए माया रची हो रूपये भला िकसने चुकाए होंग? असंभव... एक िदिन उसी पत्र में रमानाथ को जालपा का

एक ख़त छपा िमला, जालपा ने आग्रह और याचना से भरे हुए शब्दिों में उसे घर लौट आने की प्रेरणा की थी।

उसने िलखा था,तुम्हारे िज़म्मे िकसी का कुछ बाकी नहीं है, कोई तुमसे कुछ न कहेगा। रमा का मन चंचल हो

उठा, लेिकन तुरंत ही उसे ख़याल आया, यह भी पुिलस की शरारत होगी। जालपा ने यह पत्र िलखा, इसका क्या

प्रमाण है? अगर यह भी मान िलया जाय िक रूपये घरवालों ने अदिा कर िदिए होंग, तो क्या इस दिशा में भी वह

घर जा सकता है। शहर भर में उसकी बदिनामी हो ही गई होगी, पुिलस में इत्तिला की ही जा चुकी होगी। उसने

िनश्चय िकया िक मैं नहीं जाऊंगा। जब तक कम-से-कम पांच हज़ार रूपये हाथ में न हो जायंग, घर जाने का नाम

न लूंगा। और रूपये नहीं िदिए गए, पुिलस मेरी खोज में है, तो कभी घर न जाऊंगा। कभी नहीं।

देवीदिीन के घर में दिो कोठिरयां थीं और सामने एक बरामदिा था। बरामदे में दुर्कान थी, एक कोठरी में

खाना बनता था, दूसरी कोठरी में बरतन?भांड़े रक्खे हुए थ। ऊपर एक कोठरी थी और छोटी-सी खुली हुई छतब

रमा इसी ऊपर के िहस्से में रहता था। देवीदिीन के रहने, सोने, बैठने का कोई िवशष स्थान न था। रात को दुर्कान

बढ़ाने के बादि वही बरामदिा शयनगृतह बन जाता था। दिोनों वहीं पड़े रहते थ। देवीदिीन का काम िचलम पीना और

िदिनभर गप्पें लडाना था।

दुर्कान का सारा काम बुिढया करती थी। मंडी जाकर माल लाना, स्टशन से माल भेजना या लेना, यह सब

भी वही कर लेती थी। देवीदिीन ग्राहकों को पहचानता तक न था। थोड़ी-सी िहदिी जानता था। बैठा-बैठा

रामायण, तोता-मैना, रामलीला या माता मिरयम की कहानी पढ़ा करता। जब से रमा आ गया है, बुडढे को

अंग्रेज़ी पढ़ने का शौक हो गया है। सबेरे ही प्राइमर लाकर बैठ जाता है, और नौ-दिस बजे तक अक्षर पढ़ता रहता

है। बीच-बीच में लतीफे भी होते जाते ह, िजनका देवीदिीन के पास अखंड भंडार है। मगर जग्गो को रमा का

आसन जमाना अच्छा नहीं लगता। वह उसे अपना मुनीम तो बनाए हुए है,िहसाब-िकताब उसी से िलखवाती है,

पर इतने से काम के िलए वह एक आदिमी रखना व्यथर्च समझिती है। यह काम तो वह गाहकों से यों ही करा लेती

थी। उसे रमा का रहना खलता था, पर रमा इतना िवनम, इतना सेवा-तत्पर, इतना धमर्चिनष्ठ है िक वह स्पष्ट रूप

से कोई आपित्ति नहीं कर सकती। हां, दूसरों पर रखकर श्लेष रूप से उसे सुनासुनाकर िदिल का गुबार िनकालती

रहती है। रमा ने अपने को ब्राह्मण कह रक्खा है और उसी धमर्च का पालन करता है। ब्राह्मण और धमर्चिनष्ठ बनकर

वह दिोनों प्रािणयों का श्रद्धिापात्र बन सकता है। बुिढया के भाव और व्यवहार को वह खूब समझिता है, पर करे

क्या? बेहयाई करने पर मजबूर है। पिरिस्थित ने उसके आत्मसम्मान का अपहरण कर डाला है। एक िदिन रमानाथ

वाचनालय में बैठा हुआ पत्र पढ़रहा था िक एकाएक उसे रतन िदिखाई पड़ गई। उसके अंदिाज़ से मालूम होता था

िक वह िकसी को खोज रही है। बीसों आदिमी बैठे पुस्तकें और पत्र पढ़रहे थ। रमा की छाती धकधक करने लगी।

वह रतन की आंखें बचाकर िसर झिुकाए हुए कमरे से िनकल गया और पीछे के अंधेरे बरामदे में, जहां पुराने टूट111 poemgazalshayari.in

फट संदूक और कुिसयां पड़ी हुई थीं, िछपा खडा रहा। रतन से िमलने और घर के समाचार पूछने के िलए उसकी

आत्मा तड़प रही थी पर मारे संकोच के सामने न आ सकता था। आह! िकतनी बातें पूछने की थीं! पर उनमें मुख्य

यही थी िक जालपा के िवचार उसके िवषय में क्या ह। उसकी िनष्ठुरता पर रोती तो नहीं है। उसकी उद्दंडता पर

क्षुब्धा तो नहीं है? उसे धूतर्च और बेईमान तो नहीं समझि रही है? दुर्बली तो नहीं हो गई है? और लोगों के क्या

भाव ह?क्या घर की तलाशी हुई? मुकदिमा चला? ऐसी ही हज़ारों बातें जानने के िलए वह िवकल हो रहा था,

पर मुंह कैसे िदिखाए ! वह झिांक-झिांककर देखता रहा। जब रतन चली गई, मोटर चल िदिया, तब उसकी जान में

जान आई। उसी िदिन से एक सप्ताह तक वह वाचनालय न गया। घर से िनकला तक नहीं।

कभी-कभी पड़े-पड़े रमा का जी ऐसा घबडाता िक पुिलस में जाकर सारी कथा कह सुनाए। जो कुछ होना

है, हो जाय। साल-दिो साल की कैदि इस आजीवन कारावास से तो अच्छी ही है। िफर वह नए िसरे से जीवन?

संग्राम में प्रवेश करेगा, हाथ-पांव बचाकर काम करेगा, अपनी चादिर के बाहर जौ-भर भी पांव न फैलाएगा,

लेिकन एक ही क्षण में िहम्मत टूट जाती। इस प्रकार दिो महीने और बीत गए। पूस का महीना आया। रमा के पास

जाड़ों का कोई कपडा न था। घर से तो वह कोई चीज़ लाया ही न था, यहां भी कोई चीज़ बनवा न सका था।

अब तक तो उसने धोती ओढ़कर िकसी तरह रातें काटीं, पर पूस के कडक। डाते जाड़े िलहाफ या कंबल के बगैर

कैसे कटते।

बेचारा रात-भर गठरी बना पडा रहता। जब बहुत सदिी लगती, तो िबछावन ओढ़ लेता। देवीदिीन ने उसे

एक पुरानी दिरी िबछाने को दे दिी थी। उसके घर में शायदि यही सबसे अच्छा िबछावन था। इस श्रेणी के लोग

चाहे दिस हज़ार के गहने पहन लें, शादिी-ब्याह में दिस हज़ार ख़चर्च कर दें, पर िबछावन गूदिडाही रक्खेंग। इस सड़ी

हुई दिरी से जाडाभला क्या जाता, पर कुछ न होने से अच्छा ही था।

रमा संकोचवश देवीदिीन से कुछ कह न सकता था और देवीदिीन भी शायदि इतना बडा ख़चर्च न उठाना

चाहता था, या संभव है, इधर उसकी िनगाह ही न जाती हो जब िदिन ढलने लगता, तो रमा रात के कष्ट की

कल्पना से भयभीत हो उठता था, मानो काली बला दिौड़ती चली आती हो रात को बार-बार िखड़की खोलकर

देखता िक सबेरा होने में िकतनी कसर है। एक िदिन शाम को वह वाचनालय जा रहा था िक उसने देखा, एक बडी

कोठी के सामने हज़ारों कंगले जमा ह। उसने सोचा,यह क्या बात है, क्यों इतने आदिमी जमा ह?भीड़ के अंदिर

घुसकर देखा, तो मालूम हुआ, सेठजी कंबलों का दिान कर रहे ह। कंबल बहुत घिटया थ, पतले और हल्ध; पर

जनता एक पर एक टूटी पड़ती थी। रमा के मन में आया, एक कंबल ले लूं। यहां मुझिे कौन जानता है। अगर कोई

जान भी जाय, तो क्या हरज़- ग़रीब ब्राह्मण अगर दिान का अिधकारी नहीं तो और कौन है। लेिकन एक ही क्षण

में उसका आत्मसम्मान जाग उठा। वह कुछ देर वहां खडा ताकता रहा, िफर आग बढ़ा। उसके माथ पर ितलक

देखकर मुनीमजी ने समझि िलया, यह ब्राह्मण है। इतने सारे कंगलों में ब्राह्मणों की संख्या बहुत कम थी। ब्राह्मणों

को दिान देने का पुण्य कुछ और ही है। मुनीम मन में प्रसन्न था िक एक ब्राह्मण देवता िदिखाई तो िदिए! इसिलए

जब उसने रमा को जाते देखा, तो बोला, ‘पंिडतजी, कहां चले, कंबल तो लेते जाइए!’ रमा मारे संकोच के गड़

गया। उसके मुंह से केवल इतना ही िनकला,’मुझिे इच्छा नहीं है।’

यह कहकर वह िफर बढ़ा, मुनीमजी ने समझिा, शायदि कंबल घिटया देखकर देवताजी चले जा रहे ह। ऐसे

आत्म-सम्मान वाले देवता उसे अपने जीवन में शायदि कभी िमले ही न थ। कोई दूसरा ब्राह्मण होता, दिो-चार

िचकनी-चुपड़ी बातें करता और अच्छे कंबल मांगता। यह देवता िबना कुछ कहे, िनव्याज भाव से चले जा रहे ह,

तो अवश्य कोई त्यागी जीव ह। उसने लपककर रमा का हाथ पकड़ िलया और बोला,’आओ तो महाराज,आपके

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िलए चोखा कंबल रक्खा है। यह तो कंगलों के िलए है। रमा ने देखा िक िबना मांग एक चीज़ िमल रही है,

ज़बरदिस्ती गले लगाई जा रही है, तो वह दिो बार और नहीं – नहीं करके मुनीम के साथ अंदिर चला गया। मुनीम

ने उसे कोठी में ले जाकर तख्त पर बैठाया और एक अच्छा-सा दिबीज कंबल भेंट िकया। रमा की संतोष वृतित्ति का

उस पर इतना प्रभाव पडा िक उसने पांच रूपये दििक्षणा भी देना चाहा,िकन्तु रमा ने उसे लेने से साफ इंकार कर

िदिया। जन्म-जन्मांतर की संिचत मयादिा कंबल लेकर ही आहत हो उठी थी। दििक्षणा के िलए हाथ फैलाना उसके

िलए असंभव हो गया।

मुनीम ने चिकत होकर कहा, ‘आप यह भेंट न स्वीकार करग, तो सेठजी को बडा दुर्ःख होगा।’

रमा ने िवरक्त होकर कहा,आपके आग्रह से मैंने कंबल ले िलया, पर दििक्षणा नहीं ले सकता मुझिे धन की

आवश्यकता नहीं। िजस सज्जन के घर िटका हुआ हूं, वह मुझिे भोजन देते ह। और मुझिे लेकर क्या करना है?’

‘सेठजी मानेंग नहीं!’

‘आप मेरी ओर से क्षमा मांग लीिजएगा। ‘

‘आपके त्याग को धन्य है। ऐसे ही ब्राह्मणों से धमर्च की मयादिा बनी हुई है। कुछ देर बैिठए तो, सेठजी आते

होंग। आपके दिशर्चन पाकर बहुत प्रसन्न होंग। ब्राह्मणों के परम भक्त ह। और ित्रकाल संध्या-वंदिन करते ह

महाराज, तीन बजे रात को गंगा-तट पर पहुंच जाते ह और वहां से आकर पूजा पर बैठ जाते ह। दिस बजे भागवत

का पारायण करते ह। भोजन पाते ह, तब कोठी में आते ह। तीन-चार बजे िफर संध्या करने चले जाते ह। आठ

बजे थोड़ी देर के िलए िफर आते ह। नौ बजे ठाकुरद्वारे में कीतर्चन सुनते ह और िफर संध्या करके भोजन पाते ह।

थोड़ी देर में आते ही होंग। आप कुछ देर बैठं, तो बडा अच्छा हो आपका स्थान कहां है?’

रमा ने प्रयाग न बताकर काशी बतलाया। इस पर मुनीमजी का आग्रह और बढ़ा, पर रमा को यह शंका हो

रही थी िक कहीं सेठजी ने कोई धािमक प्रसंग छेड़ िदिया, तो सारी कलई खुल जायगी। िकसी दूसरे िदिन आने का

वचन देकर उसने िपड छुडाया।

नौ बजे वह वाचनालय से लौटा, तो डर रहा था िक कहीं देवीदिीन ने कंबल देखकर पूछा,कहां से लाए, तो

क्या जवाब दूंगा। कोई बहाना कर दूंगा। कह दूंगा, एक पहचान की दुर्कान से उधार लाया हूं। देवीदिीन ने कंबल

देखते ही पूछा, ‘सेठ करोड़ीमल के यहां पहुंच गए क्या, महाराज?’

रमा ने पूछा, ‘कौन सेठ करोड़ीमल?’

‘अरे वही, िजसकी वह बडी लाल कोठी है।’

रमा कोई बहाना न कर सका। बोला, ‘हां, मुनीमजी ने िपड ही न छोडा! बडा धमात्मा जीव है।’

देवीदिीन ने मुस्कराकर कहा, ‘बडा धमात्मा! उसी के थामे तो यह धरती थमी है, नहीं तो अब तक िमट गई

होती!’

रमानाथ—‘काम तो धमात्माआं ही के करता है, मन का हाल ईश्वर जाने। जो सारे िदिन पूजापाठ और

दिान?व्रत में लगा रहे, उसे धमात्मा नहीं तो और क्या कहा जाय।’

देवीदिीन—‘उसे पापी कहना चािहए, महापापी, दिया तो उसके पास से होकर भी नहीं िनकली। उसकी जूट

की िमल है। मजूरों के साथ िजतनी िनदिर्चयता इसकी िमल में होती है, और कहीं नहीं होती। आदििमयों को हंटरों से

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िपटवाता है, हंटरों से। चबी-िमला घी बेचकर इसने लाखों कमा िलए। कोई नौकर एक िमनट की भी देर करे तो

तुरंत तलब काट लेता है। अगर साल में दिो-चार हज़ार दिान न कर दे, तो पाप का धन पचे कैसे! धमर्च-कमर्च वाले

ब्राह्मण तो उसके द्वार पर

झिांकते भी नहीं। तुम्हारे िसवा वहां कोई पंिडत था?’रमा ने िसर िहलाया।

‘कोई जाता ही नहीं। हां, लोभी-लंपट पहुंच जाते ह। िजतने पुजारी देखे, सबको पत्थर ही पाया। पत्थर

पूजते-पूजते इनके िदिल भी पत्थर हो जाते ह। इसके तीन तो बड़े-बडे धरमशाले ह, मुदिा है पाखंडी। आदिमी चाहे

और कुछ न करे, मन में दिया बनाए रखे। यही सौ धरम का एक धरम है।’

िदिन की रक्खी हुई रोिटयां खाकर जब रमा कंबल ओढ़कर लेटा, तो उसे बडी ग्लािन होने लगी। िरश्वत में

उसने हज़ारों रूपये मारे थ, पर कभी एक क्षण के िलए भी उसे ग्लािन न आई थी। िरश्वत बुिद्धिसे, कौशल से,

पुरूषाथर्च से िमलती है। दिान पौरूषहीन, कमर्चहीन या पाखंिडयों का आधार है। वह सोच रहा था,मैं अब इतना दिीन

हूं िक भोजन और वस्त्र के िलए मुझिे दिान लेना पड़ता

है! वह देवीदिीन के घर दिो महीने से पडाहुआ था, पर देवीदिीन उसे िभक्षुक नहीं मेहमान समझिता था।

उसके मन में कभी दिान का भाव आया ही न था। रमा के मन में ऐसा उद्वेग उठा िक इसी दिम थाने में जाकर

अपना सारा वृतत्तिांत कह सुनाए। यही न होगा, दिो-तीन साल की सज़ा हो जाएगी, िफर तो यों प्राण सूली पर न

टंग रहेंग। कहीं डूब ही क्यों न मइर्जंब इस तरह जीने से फायदिा ही क्या! न घर का हूं न घाट का। दूसरों का भार

तो क्या उठाऊंगा, अपने ही िलए दूसरों का मुंह ताकता हूं। इस जीवन से िकसका उपकार हो रहा है? िधक्कार है

मेरे जीने को! रमा ने िनश्चय िकया, कल िनद्यपशंक होकर काम की टोह में िनकलूंगा जो कुछ होना है, हो।

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छब्बीस

अभी रमा मुंह-हाथ धो रहा था िक देवीदिीन प्राइमर लेकर आ पहुंचा और बोला, ‘भैया, यह तुम्हारी

अंगरेज़ी बडी िवकट है। एस-आई-आर ‘सर’ होता है, तो पी-आई-टी ‘िपट’ क्यों हो जाता है? बी-यू-टी ‘बट’ है,

लेिकन पी-यू-टी ‘पुट’ क्यों होता है? तुम्हें भी बडी किठन लगती होगी।

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘पहले तो किठन लगती थी, पर अब तो आसान मालूम होती है।‘ देवीदिीन—‘

‘िजस िदिन पराइमर खतम होगी, महाबीरजी को सवा सेर लडडू चढ़ाऊंगा। पराई-मर का मतलब है, पराई स्त्री

मर जाय। मैं कहता हूं, हमारीमर, पराई के मरने से हमें क्या सुख! तुम्हारे बाल-बच्चे तो ह न भैया?’

रमा ने इस भाव से कहा, ‘मानो ह, पर न होने के बराबर ह, हां, ह तो!’

‘कोई िचट्ठी-चपाती आई थी?’

‘ना!’

‘और न तुमने िलखी- अरे! तीन महीने से कोई िचट्ठी ही नहीं भेजी? घबडाते न होंग लोग?’

‘जब तक यहां कोई िठकाना न लग जाय, क्या पत्र िलखूं।’

‘अरे भले आदिमी, इतना तो िलख दिो िक मैं यहां कुशल से हूं। घर से भाग आए थ, उन लोगों को िकतनी

िचता हो रही होगी! मां-बाप तो ह न?’

‘हां, ह तो।’

देवीदिीन ने िगड़िगडाकर कहा,’तो भैया, आज ही िचट्ठी डाल दिो, मेरी बात मानो।’

रमा ने अब तक अपना हाल िछपाया था। उसके मन में िकतनी ही बार इच्छा हुई िक देवीदिीन से कह दूं,

पर बात होंठों तक आकर रूक जाती थी। वह देवीदिीन के मुंह से आलोचना सुनना चाहता था। वह जानना

चाहता था िक यह क्या सलाह देता है। इस समय देवीदिीन के सद्भाव ने उसे पराभूत कर िदिया।

बोला, ‘मैं घर से भाग आया हूं, दिादिा!’

देवीदिीन ने मूंछों में मुस्कराकर कहा,’यह तो मैं जानता हूं, क्या बाप से लडाई हो गई?’

‘नहीं!’

‘मां ने कुछ कहा होगा?’

यह भी नहीं!’

‘तो िफर घरवाली से ठन गई होगी। वह कहती होगी, मैं अलग रहूंगी, तुम कहते होग मैं अपने मां-बाप से

अलग न रहूंगा। या गहने के िलए िज़दि करती होगी। नाक में दिम कर िदिया होगा। क्यों?’

रमा ने लिज्जत होकर कहा, ‘कुछ ऐसी बात थी, दिादिा! वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी, लेिकन पा

जाती थी, तो प्रसन्न हो जाती थी, और मैं प्रेम की तरंग में आगा-पीछा कुछ न सोचता था।’

देवीदिीन के मुंह से मानो आप-ही-आप िनकल आया, ‘सरकारी रकम तो नहीं उडादिी?’

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रमा को रोमांच हो आया। छाती धक-से हो गई। वह सरकारी रकम की बात उससे िछपाना चाहता था।

देवीदिीन के इस प्रश्न ने मानो उस पर छापा मार िदिया। वह कुशल सैिनक की भांित अपनी सेना को घािटयों से,

जासूसों की आंख बचाकर, िनकाल ले जाना चाहता था, पर इस छापे ने उसकी सेना को अस्त- व्यस्त कर िदिया।

उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह एकाएक कुछ िनश्चय न कर सका िक इसका क्या जवाब दूं।

देवीदिीन ने उसके मन का भाव भांपकर कहा, ‘प्रेम बडा बेढब होता है, भैया! बड़े-बडे चूक जाते ह, तुम तो

अभी लङके हो ग़बन के हज़ारों मुकदिमे हर साल होते ह। तहकीकात की जाय, तो सबका कारण एक ही

होगा,गहना। दिस-बीस वारदिात तो मैं आंखों देख चुका हूं। यह रोग ही ऐसा है। औरत मुंह से तो यही कहे जाती है

िक यह क्यों लाए, वह क्यों लाए, रूपये कहां से आवग,

लेिकन उसका मन आनंदि से नाचने लगता है। यहीं एक डाक-बाबू रहते थ। बेचारे ने छुरी से गला काट

िलया। एक दूसरे िमयां साहब को मैं जानता हूं, िजनको पांच साल की सज़ा हो गई, जेहल में मर गए। एक तीसरे

पंिडतजी को जानता हूं, िजन्होंने अफीम खाकर जान दे दिी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूं, मैं ही तीन साल की

सज़ा काट चुका हूं। जवानी की बात है, जब इस बुिढया पर जोबन था, ताकती थी तो मानो कलेजे पर तीर चला

देती थी। मैं डािकया था। मनीआडर्चर तकसीम िकया करता था। यह कानों के झिुमकों के िलए जान खा रही थी।

कहती थी, सोने ही के लूंगी। इसका बाप चौधरी था। मेवे की दुर्कान थी। िमजाज बढ़ा हुआ था। मुझि पर प्रेम का

नसा छाया हुआ था। अपनी आमदिनी की डींगं मारता रहता था। कभी फूल के हार लाता, कभी िमठाई, कभी

अतर-फुलेलब सहर का हलका था। जमाना अच्छा था। दुर्कानदिारों से जो चीज़ मांग लेता, िमल जाती थी।

आिख़र मैंने एक मनीआडर्चर पर झिूठे दिस्तखत बनाकर रूपये उडािलए। कुल तीस रूपये थ। झिुमके लाकर इसे िदिए।

इतनी खुश हुई, इतनी खुश हुई, िक कुछ न पूछो, लेिकन एक ही महीने में चोरी पकड़ ली गई। तीन साल की

सज़ा हो गई। सज़ा काटकर िनकला तो यहां भाग आया। िफर कभी घर नहीं गया। यह मुंह कैसे िदिखाता। हां, घर

पत्र भेज िदिया। बुिढया खबर पाते ही चली आई। यह सब कुछ हुआ, मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब

देखो, कुछ-नकुछ बनता ही रहता है। एक चीज़ आज बनवाई, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज़ बनवाई,

यही तार चला जाता है। एक सोनार िमल गया है, मजूरी में साफ-भाजी ले जाता है। मेरी तो सलाह है, घर पर

एक ख़त िलख दिो, लेिकन पुिलस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता िमल गया, तो काम िबगड़ जायगा। मैं न

िकसी से एक ख़त िलखाकर भेज दूं?’

रमा ने आग्रहपूवर्चक कहा, ‘नहीं, दिादिा! दिया करो। अनथर्च हो जायगा। पुिलस से ज्यादिा तो मुझिे घरवालों का

भय है।’

देवीदिीन—‘घर वाले खबर पाते ही आ जाएंग। यह चचा ही न उठेगी। उनकी कोई िचता नहीं। डर पुिलस

ही का है।’

रमानाथ—‘मैं सज़ा से िबलकुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक िदिन मुझिे वाचनालय में जान - पहचान

की एक स्त्री िदिखाई दिी। हमारे घर बहुत आती-जाती थी। मेरी स्त्री से बडी िमत्रता थी। एक बडे वकील की पत्नी

है। उसे देखते ही मेरी नानी मर गई। ऐसा िसटिपटा गया िक उसकी ओर ताकने की िहम्मतन पड़ी। चुपके से

उठकर पीछे के बरामदे में जा िछपा। अगर उस वक्त उससे दिो-चार बातें कर लेता, तो घर का सारा समाचार

मालूम हो जाता और मुझिे यह िवश्वास है िक वह इस मुलाकात की िकसी से चचा भी न करती। मेरी पत्नी से भी

न कहती, लेिकन मेरी िहम्मत ही न पड़ी। अब अगर िमलना भी चाहूं, तो नहीं िमल सकता उसका पता-िठकाना

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कुछ भी तो नहीं मालूम । देवीदिीन—‘तो िफर उसी को क्यों नहीं एक िचट्ठी िलखते?’

रमानाथ—‘िचटठी तो मुझिसे न िलखी जाएगी।’

देवीदिीन—‘तो कब तक िचट्ठी न िलखोग?’

रमानाथ—‘देखा चािहए।’

देवीदिीन—‘पुिलस तुम्हारी टोह में होगी।’

देवीदिीन िचता में डूब गया। रमा को भ्रम हुआ, शायदि पुिलस का भय इसे िचितत कर रहा है। बोला, ‘हां,

इसकी शंका मुझिे हमेशा बनी रहती है। तुम देखते हो, मैं िदिन को बहुत कम घर से िनकलता हूं, लेिकन मैं तुम्हें

अपने साथ नहीं घसीटना चाहता। मैं तो जाऊंगा ही, तुम्हें क्यों उलझिन में डालूं। सोचता हूं, कहीं और चला जाऊं,

िकसी ऐसे गांव में जाकर रहूं, जहां पुिलस की गंध भी न हो

देवीदिीन ने गवर्च से िसर उठाकर कहा, ‘मेरे बारे में तुम कुछ िचता न करो भैया, यहां पुिलस से डरने वाले

नहीं ह। िकसी परदेशी को अपने घर ठहराना पाप नहीं है। हमें क्या मालूम िकसके पीछे पुिलस है? यह पुिलस का

काम है, पुिलस जाने। मैं पुिलस का मुखिबर नहीं, जासूस नहीं, गोइंदिा नहीं। तुम अपने को बचाए रहो, देखो

भगवान क्या करते ह। हां, कहीं बुिढया से न कह देना,नहीं तो उसके पेट में पानी न पचेगा।’

दिोनों एक क्षण चुपचाप बैठे रहे। दिोनों इस प्रसंग को इस समय बंदि कर देना चाहते थ। सहसा देवीदिीन ने

कहा,क्यों भैया, कहो तो मैं तुम्हारे घर चला जाऊं। िकसी को कानों -कान खबर न होगी। मैं इधर-उधर से सारा

ब्योरा पूछ आऊंगा। तुम्हारे िपता से िमलूंगा, तुम्हारी माता को समझिाऊंगा, तुम्हारी घरवाली से बातचीत

करूंगा। िफर जैसा उिचत जान पड़े, वैसा करना।

रमा ने मन- ही-मन प्रसन्न होकर कहा, ‘लेिकन कैसे पूछोग दिादिा, लोग कहेंग न िक तुमसे इन बातों से

क्या मतलब?’

देवीदिीन ने ठट्ठा मारकर कहा, ‘भैया, इससे सहज तो कोई काम ही नहीं।‘

एक जनेऊ गले में डाला और ब्राह्मन बन गए। िफर चाहे हाथ देखो, चाहे, कुंडली बांचो, चाहे सगुन

िवचारो, सब कुछ कर सकते हो बुिढया िभक्षा लेकर आवेगी। उसे देखते ही कहूंगा, माता तेरे को पुत्र के परदेस

जाने का बडा कष्ट है, क्या तेरा कोई पुत्र िवदेस गया है? इतना सुनते ही घर-भर के लोग आ जाएंग। वह भी

आवेगी। उसका हाथ देखूंगा। इन बातों में मैं पक्का हूं भैया, तुम िनिश्चन्त रहो कुछ कमा लाऊंगा, देख लेना।

माघ-मेला भी होगा। स्नान करता आऊंगा।

रमा की आंखें मनोल्लास से चमक उठीं। उसका मन मधुर कल्पनाआं के संसार में जा पहुंचा। जालपा उसी

वक्त रतन के पास दिौड़ी जायगी। दिोनों भांित-भांित के प्रश्न करगी,क्यों बाबा, वह कहां गए ह?अच्छी तरह ह

न? कब तक घर आवग- कभी बाल-बच्चों की सुिध आती है उनको- वहां िकसी कािमनी के माया-जाल में तो

नहीं फंस गए? दिोनों शहर का नाम भी पूछेंगी।

कहीं दिादिा ने सरकारी रूपये चुका िदिए हों, तो मज़ा आ जाय। तब एक ही िचता रहेगी।

देवीदिीन बोला, ‘तो है न सलाह?’ रमानाथ—‘कहां जायंग दिादिा, कष्ट होगा।’

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‘माघ का स्नान भी तो करूंगा।कष्ट के िबना कहीं पुन्न होता है! मैं तो कहता हूं, तुम भी चलो। मैं वहां सब

रंग-ढंग देख लूंगा। अगर देखना िक मामला िटचन है, तो चैन से घर चले जाना। कोई खटका मालूम हो, तो मेरे

साथ ही लौट आना।’

रमा ने हंसकर कहा, ‘कहां की बात करते हो, दिादिा! मैं यों कभी न जाऊंगा। स्टशन पर उतरते ही कहीं

पुिलस का िसपाही पकड़ ले, तो बस!’

देवीदिीन ने गंभीर होकर कहा,’िसपाही क्या पकड़ लेगा, िदिल्लगी है! मुझिसे कहो, मैं प्रयागराज के थाने में

ले जाकर खडाकर दूं। अगर कोई ितरछी आंखों से भी देख ले तो मूंछ मुडालूं! ऐसी बात भला! सैकडों खूिनयों को

जानता हूं जो यहां कलकत्तिा में रहते ह। पुिलस के अफसरों के साथ दिावतें खाते ह, पुिलस उन्हें जानती है, िफर

भी उनका कुछ नहीं कर सकती! रूपये में बडा

बल है, भैया! ’

रमा ने कुछ जवाब न िदिया। उसके सामने यह नया प्रश्न आ खडा हुआ। िजन बातों को वह अनुभव न होने

के कारण महाकष्ट-साकेय समझिता था, उन्हें इस बूढ़े ने िनमूर्चल कर िदिया, और बूढ़ा शखीबाजों में नहीं है, वह मुंह

से जो कहता है, उसे पूरा कर िदिखाने की सामथ्यर्च रखता है। उसने सोचा, तो क्या मैं सचमुच देवीदिीन के साथ घर

चला जाऊं?’ यहां कुछ रूपये िमल जाते, तो नए सूट बनवा लेता, िफर शान से जाता। वह उस अवसर की

कल्पना करने लगा, जब वह नया सूट पहने हुए घर पहुंचेगा। उसे देखते ही गोपी और िवश्वम्भर दिौड़ंग,भैया आए,

भैया आए! दिादिा िनकल आयंग। अम्मां को पहले िवश्वास न आयगा, मगर जब दिादिा जाकर कहेंग,हां, आ तो गए,

तब वह रोती हुई द्वार की ओर चलेंगी। उसी वक्त मैं पहुंचकर उनके पैरों पर िफर पडूंगा। जालपा वहां न

आएगी। वह मान िकए बैठी रहेगी। रमा ने मन-ही-मन वह वाक्य भी सोच

िलए, जो वह जालपा को मनाने के िलए कहेगा। शायदि रूपये की चचा ही न आए। इस िवषय पर कुछ

कहते हुए सभी को संकोच होगा। अपने िप्रयजनों से जब कोई अपराध हो जाता है, तो हम उघाङ कर उसे दुर्खी

नहीं करते। चाहते ह िक उस बात का उसे ध्यान ही न आए, उसके साथ ऐसा व्यवहार करते ह िक उसे हमारी

ओर से ज़रा भी भ्रम न हो, वह भूलकर भी यह न समझिे िक मेरी अपकीित हो रही है।

देवीदिीन ने पूछा, ‘क्या सोच रहे हो? चलोग न?’

रमा ने दिबी जबान से कहा, ‘तुम्हारी इतनी दिया है, तो चलूंगा, मगर पहले तुम्हें मेरे घर जाकर पूरा-पूरा

समाचार लाना पड़ेगा। अगर मेरा मन न भरा, तो मैं लौट आऊंगा।‘

देवीदिीन ने दिृतढ़ता से कहा, ‘मंजूर।‘

रमा ने संकोच से आंखें नीची करके कहा, ‘एक बात और है?‘

देवीदिीन—‘ ‘क्या बात है? कहो।‘

‘मुझिे कुछ कपड़े बनवाने पड़ंग।’

‘बन जायेंग।’

‘मैं घर पहुंचकर तुम्हारे रूपये िदिला दूंगा ।’

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‘और मैं तुम्हारी गुरू-दििक्षणा भी वहीं दे दूंगा। ‘

‘गुरू-दििक्षणा भी मुझिी को देनी पड़ेगी। मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेज़ी पढ़ा िदिए, तुम्हारा इससे कोई उपकार

न होगा। तुमने मुझिे पाठ पढ़ाए ह, उन्हें मैं उम- भर नहीं भूल सकता मुंह पर बडाई करना खुशामदि है, लेिकन

दिादिा, मातािपता के बादि िजतना प्रेम मुझिे तुमसे है, उतना और िकसी से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बांह

पकड़ी, जब मैं बीच धार में बहा जा रहा था। ईश्वर ही

जाने, अब तक मेरी क्या गित हुई होती, िकस घाट लगा होता!’

देवीदिीन ने चुहल से कहा, ‘और जो कहीं तुम्हारे दिादिा ने मुझिे घर में न घुसने िदिया तो?’

रमा ने हंसकर कहा, ‘दिादिा तुम्हें अपना बडा भाई समझिंग, तुम्हारी इतनी ख़ाितर करग िक तुम ऊब

जाओग। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो िपएगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी िक जवान हो जाओग।‘

देवीदिीन ने हंसकर कहा, ‘तब तो बुिढया डाह के मारे जल मरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है िक

हम दिोनों यहां से अपना डेरा-डंडा लेकर चलते और वहीं अपनी िसरकी तानते। तुम लोगों के साथ िज़दिगी के

बाकी िदिन आराम से कट जातेऋ मगर इस चुड़ैल से कलकत्तिा न छोडा जायगा। तो बात पक्की हो गई न?’

‘हां, पक्की ही है।’

‘दुर्कान खुले तो चलें, कपड़े लावब आज ही िसलने को दे दें।’

देवीदिीन के चले जाने के बादि रमा बडी देर तक आनंदि-कल्पनाआं में मग्न बैठा रहा। िजन भावनाआं को

उसने कभी मन में आश्रय न िदिया था, िजनकी गहराई और िवस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था िक

उनमें िफसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-

सागर में वह आज स्वच्छंदि रूप से कीडाकरने लगा। उसे अब एक नौका िमल गई थी। वह ित्रवेणी की सैर, वह

अल्प्रेड पाकर्क की बहार, वह खुसरो बाग़ का आनंदि, वह िमत्रों के जलसे, सब यादि आ-आकर ह्रदिय को गुदिगुदिाने

लग। रमेश उसे देखते ही गले िलपट जाएंग। िमत्रगण पूछेंग, कहां गए थ, यार- खूब सैर की? रतन उसकी ख़बर

पाते ही दिौड़ी आएगी और पूछेगी,तुम कहां ठहरे थ, बाबूजी? मैंने सारा कलकत्तिा छान मारा। िफर जालपा की

मान-प्रितमा सामने आ खड़ी हुई।

सहसा देवीदिीन ने आकर कहा, ‘भैया, दिस बज गए, चलो बाज़ार होते आव।’

रमा ने चौंककर पूछा, ‘क्या दिस बज गए?’

देवीदिीन—‘ ‘दिस नहीं, ग्यारह का अमल होगा।‘

रमा चलने को तैयार हुआ, लेिकन द्वार तक आकर रूक गया।

देवीदिीन ने पूछा,’क्यों खड़े कैसे हो गए?’

‘‘तुम्हीं चले जाओ, मैं जाकर क्या करूंगा!’

‘‘क्या डर रहे हो?’

‘‘नहीं, डर नहीं रहा हूं, मगर क्या फायदिा?’

‘मैं अकेले जाकर क्या करूंगा! मुझिे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपडा पसंदि है। चलकर अपनी पसंदि से ले लो।

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वहीं दिरजी को दे देंग।’

‘तुम जैसा कपडा चाहे ले लेना। मुझिे सब पंसदि है।’

‘तुम्हें डर िकस बात का है? पुिलस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।’’

‘मैं डर नहीं रहा हूं दिादिा, जाने की इच्छा नहीं है।’

‘डर नहीं रहे हो, तो क्या कर रहे हो कह रहा हूं िक कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा िजम्मा, मुदिा

तुम्हारी जान िनकली जाती है!’

देवीदिीन ने बहुत समझिाया, आश्वासन िदिया, पर रमा जाने पर राज़ी न हुआ। वह डरने से िकतना ही इंकार

करे, पर उसकी िहम्मत घर से बाहर िनकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर िकसी िसपाही ने पकड़

िलया, तो देवीदिीन क्या कर लेगा। माना िसपाही से इसका पिरचय भी हो, तो यह आवश्यक नहीं िक वह

सरकारी मामले में मौी का िनवाह करे। यह िमकैत-खुशामदि करके रह जाएगा, जाएगी मेरे िसरब कहीं पकडा

जाऊं, तो प्रयाग के बदिले जेल जाना पड़े। आिखर देवीदिीन लाचार होकर अकेला ही गया।

देवीदिीन घंट-भर में लौटा, तो देखा, रमा छत पर टहल रहा है। बोला, ‘कुछ खबर है, कै बज गए? बारह

का अमल है। आज रोटी न बनाओग क्या? घर जाने की खुशी में खाना-पीना छोड़ दिोग?’

रमा ने झिंपकर कहा, ‘बना लूंगा दिादिा, जल्दिी क्या है।’

‘यह देखो, नमूने लाया हूं, इनमें जौन-सा पसंदि करो, ले लूं।’’

यह कह कर देवीदिीन ने ऊनी और रेशमी कपड़ों के सैकड़ों नमूने िनकालकर रख िदिए। पांच-छः रूपये गज

से कम का कोई कपडान था। रमा ने नमूनों को उलट-पलटकर देखा और बोला,इतने महंग कपड़े क्यों लाए,

दिादिा? और सस्ते न थ?’

‘सस्ते थ, मुदिा िवलायती थ।‘

‘तुम िवलायती कपड़े नहीं पहनते?’

‘इधर बीस साल से तो नहीं िलए, उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दिाम लग जाता है, पर रूपया तो

देस ही में रह जाता है।’

रमा ने लजाते हुए कहा, ‘तुम िनयम के बडे पक्के हो दिादिा! ‘

देवीदिीन की मुद्रा सहसा तेजवान हो गई। उसकी बुझिी हुई आंखें चमक उठीं। देह की नसें तन गई। अकड़कर

बोला,िजस देस में रहते ह, िजसका अन्न-जल खाते ह, उसके िलए इतना भी न कर तो जीने को िधक्कार है। दिो

जवान बेट इसी सुदेसी की भेंट कर चुका हूं,भैया! ऐसे-ऐसे पट्ठे थ, िक तुमसे क्या कहें। दिोनों िबदेसी कपड़ों की

दुर्कान पर तैनात थ। क्या मजाल थी कोई गाहक दुर्कान पर आ जाय। हाथ जोड़कर, िघिघयाकर, धमकाकर,

लजवाकर सबको उधर लेते थ। बजाजे में िसयार लोटने लग। सबों ने जाकर किमसनर से फिरयादि की। सुनकर

आग हो गया। बीस गौजी गोरे भेजे िक अभी जाकर बज़ार से पहरे उठा दिो। गोरों ने दिोनों भाइयों से कहा,यहां से

चले जाव, मुदिा वह अपनी जगह से जौ-भर न िहले। भीड़ लग गई। गोरे उन पर घोड़े चढ़ा लाते थ, पर दिोनों

चट्टान की तरह डट खड़े थ। आिख़र जब इस तरह कुछ बस न चला तो सबों ने डंडों से पीटना सुई िकया। दिोनों

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वीर डंडे खाते थ, पर जगह से न िहलते थ। जब बडा भाई िफर पडातो छोटा उसकी जगह पर आ खडा हुआ।

अगर दिोनों अपने डंडे संभाल लेते तो भैया उन बीसों को मार भगातेऋ लेिकन हाथ उठाना तो बडी बात है, िसर

तक न उठाया। अन्त में छोटा भी वहीं िफर पड़ा। दिोनों को लोगों ने उठाकर अस्पताल भेजा। उसी रात को दिोनों

िसधार गए। तुम्हारे चरन छूकर कहता हूं भैया, उस बखत ऐसा जान पड़ता था िक मेरी छाती गज-भर की हो

गई है, पांव ज़मीन पर न पड़ते थ, यही उमंग आती थी िक भगवान ने औरों को पहले न उठा िलया होता, तो

इस समय उन्हें भी भेज देता। जब अथी चली है, तो एक लाख आदिमी साथ थ। बेटों को गंगा में सौंपकर मैं सीधे

बजाजे पहुंचा और उसी जगह खडा हुआ, जहां दिोनों बीरों की लहास िगरी थी। गाहक के नाम िचिडए का पूत

तक न िदिखाई िदिया। आठ िदिन वहां से िहला तक नहीं। बस भोर के समय आधा घंट के िलए घर आता था और

नहा-धोकर कुछ जलपान करके चला जाता था। नव िदिन दुर्कानदिारों ने कसम खाई िक िवलायती कपड़े अब न

मंगावग। तब पहरे उठा िलए गए। तब से िबदेसी िदियासलाई तक घर में नहीं लाया।

रमा ने सच्चे िदिल से कहा, ‘दिादिा, तुम सच्चे वीर हो, और वे दिोनों लडके भी सच्चे योद्धिा थ। तुम्हारे

दिशर्चनों से आंखें पिवत्र होती ह।‘

देवीदिीन ने इस भाव से देखा मानो इस बडाई को वह िबलकुल अितशयोिक्त नहीं समझिता। शहीदिों की

शान से बोला,इन बड़े-बडे आदििमयों के िकए कुछ न होगा। इन्हें बस रोना आता है, छोकिरयों की भांित िबसूरने

के िसवा इनसे और कुछ नहीं हो सकता बड़े-बडे देस-भगतों को िबना िबलायती सराब के चैन नहीं आता। उनके

घर में जाकर देखो, तो एक भी देसी चीज़ न िमलेगी।

िदिखाने को दिस-बीस कुरते गाढ़े के बनवा िलए, घर का और सब सामान िबलायती है। सब-के-सब भोग-

िबलास में अंधे हो रहे ह, छोट भी और बड़े भी। उस पर दिावा यह है िक देस का उद्धिार करग। अरे तुम क्या देस

का उद्धिार करोग। पहले अपना उद्धिार तो कर लो। गरीबों को लूटकर िबलायत का घर भरना तुम्हारा काम है।

इसीिलए तुम्हारा इस देस में जनम हुआ है। हां, रोए जाव, िबलायती सराबें उडाओ, िबलायती मोटर दिौडाओ,

िबलायती मुरब्बे और अचार चक्खो, िबलायती बरतनों में खाओ, िबलायती दिवाइयां िपयो, पर देस के नाम को

रोये जाव।मुदिा इस रोने से कुछ न होगा। रोने से मां दूध िपलाती है, सेर अपना िसकार नहीं छोड़ता। रोओ उसके

सामने, िजसमें दिया और धरम हो तुम धमकाकर ही क्या कर लोग- िजस धमकी में कुछ दिम नहीं है, उस धमकी

की परवाह कौन करता है। एक बार यहां एक बडा भारी जलसा हुआ। एक

साहब बहादुर्र खड़े होकर खूब उछले-यदे, जब वह नीचे आए, तब मैंने उनसे पूछा,साहब, सच बताओ, जब

तुम सुराज का नाम लेते हो, तो उसका कौनसा रूप तुम्हारी आंखों के सामने आता है? तुम भी बडी-बडी तलब

लोग, तुम भी अंगरेज़ों की तरह बंगलों में रहोग, पहाड़ों की हवा खाओग, अंगरेज़ी ठाठ बनाए घूमोग, इस सुराज

से देस का क्या कल्यान होगा। तुम्हारी और तुम्हारे भाईबंदिों की िज़दिगी भले आराम और ठाठ से गुज़रे, पर देस

का तो कोई भला न होगा। बस, बगलें झिांकने लग। तुम िदिन में पांच बेर खाना चाहते हो, और वह भी बिढया

माल, ग़रीब िकसान को एक जून सूखा चबेना भी नहीं िमलता। उसी का रक्त चूसकर तो सरकार तुम्हें हुप्रे देती

है। तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है? अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-िबलास पर इतना

मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायगा, तब तो तुम ग़रीबों को पीसकर पी जाओग। रमा भद्र-समाज पर यह

आक्षेप न सुन सका। आिख़र वह भी तो भद्रसमाज का ही एक अंग था। बोला, ‘यह बात तो नहीं है दिादिा, िक पढ़े-

िलखे लोग िकसानों का ध्यान नहीं करते। उनमें से िकतने ही खुदि िकसान थ, या ह। उन्हें अगर िवश्वास हो जाय

िक हमारे कष्ट उठाने से िकसानों का कोई उपकार होगा और जो बचत होगी, वह िकसानों के िलए ख़चर्च की

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जायगी, तो वह खुशी से कम वेतन पर काम करग, लेिकन जब वह देखते ह िक बचत दूसरे हडप। जाते ह, तो वह

सोचते ह, अगर दूसरों को ही खाना है, तो हम क्यों न खाएं।’ देवीदिीन—‘तो सुराज िमलने पर दिस-दिस, पांचपांच हज़ार के अफसर नहीं रहेंग? वकीलों की लूट नहीं रहेगी? पुिलस की लूट बंदि हो जाएगी?’

एक क्षण के िलए रमा िसटिपटा गया। इस िवषय में उसने खुदि कभी िवचार न िकया था, मगर तुरंत ही

उसे जवाब सूझि गया। बोला, ‘दिादिा, तब तो सभी काम बहुमत से होगा। अगर बहुमत कहेगा िक कमर्चचािरयों के

वेतन घटा िदिए जाएं, तो घट जाएंग। देहातों के संगठनों के िलए भी बहुमत िजतने रूपये मांगगा, िमल जाएंग।

कुंजी बहुमत के हाथ में रहेगी, और अभी दिस-पांच बरस चाहे न हो लेिकन आग चलकर बहुमत िकसानों और

मजूरों ही का हो जाएगा। देवीदिीन ने मुस्कराकर कहा,’ भैया, तुम भी इन बातों को समझिते हो यही मैंने भी

सोचा था। भगवान करे, कुछ िदिन और िजऊं। मेरा पहला सवाल यह होगा िक िबलायती चीज़ों पर दुर्गुना

महसूल लगाया जाय और मोटरों पर चौगुना। अच्छा अब भोजन बनाओ। सांझि को चलकर कपड़े दिरजी को दे

देंग। मैं भी जब तक खा लूं।’

शाम को देवीदिीन ने आकर कहा, ‘चलो भैया, अब तो अंधेरा हो गया।’

रमा िसर पर हाथ धरे बैठा हुआ था। मुख पर उदिासी छाई हुई थी। बोला, ‘दिादिा, मैं घर न जाऊंगा।’

देवीदिीन ने चिकत होकर पूछा, ‘क्यों क्या बात हुई?’

रमा की आंखें सजल हो गई। बोला, ‘कौन?सा मुंह लेकर जाऊं, दिादिा! मुझिे तो डूब मरना चािहए था।’

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदिना जो अब तक मूिछत पड़ी थी, शीतल जल के यह छींट

पाकर सचेत हो गई और उसके कंदिन ने रमा के सारे अिस्तत्व को जैसे छेदि डाला। इसी कंदिन के भय से वह उसे

छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था। संयत िवस्मृतित से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो

कोई दुर्द्यपिखनी माता अपने बालक को इसिलए जगाते डरती हो िक वह तुरंत खाने को मांगने लगगा।

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सत्ताईस

कई िदिनों के बादि एक िदिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था िक मागर्च में उसे कई युवक

शतरंज के िकसी नक्श की बातचीत करते िमले। यह नक्शा वहां के एक िहदिी दिैिनक पत्र में छपा था और उसे हल

करने वाले को पचास रूपये इनाम देने का वचन िदिया गया था। नक्शा असाकेय-सा जान पड़ता था। कम-सेकम

इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ िक वहां के और भी िकतने ही शतरंजबाज़ों

ने उसे हल करने के िलए भरपूर ज़ोर लगाया, पर कुछ पेश न गई। अब रमा को यादि आया िक पुस्तकालय में एक

पत्र पर बहुत-से आदिमी झिुके हुए थ और उस नक्श की नकल कर रहे थ। जो आता था, दिो-चार िमनट तक वह

पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी। रमा का इनमें से िकसी से भी पिरचय न था, पर वह यह नक्शा

देखने के िलए इतना उत्सुक हो रहा था िक उससे िबना पूछे न रहा गया। बोला,आप लोगों में िकसी के पास वह

नक्शा है?

युवकों ने एक कंबलपोश आदिमी को नक्श की बात पूछते सुना तो समझिे कोई अताई होगा। एक ने रूखाई

से कहा, ‘हां, है तो, मगर तुम देखकर क्या करोग, यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे ह। एक महाशय, जो शतरंज में

अपना सानी नहीं रखते, उसे हल करने के िलए सौ रूपये अपने पास से देने को तैयार ह। ’

दूसरा युवक बोला, ‘िदिखा क्यों नहीं देते जी, कौन जाने यही बेचारे हल कर लें, शायदि इन्हीं की सूझि लड़

जाए।’ इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं व्यंग्य था, उसमें यह भाव िछपा था िक हमें िदिखाने में कोई हज्र नहीं है,

देखकर अपनी आंखों को त्रप्त कर लो मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझि ही नहीं सकते, हल क्या करग। जान -

पहचान की एक दुर्कान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा िदिखाया।

रमा को तुरंत यादि आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है। सोचने लगा, कहां देखा है?

एक युवक ने चुटकी ली, ‘आपने तो हल कर िलया होगा!’

दूसरा, ‘अभी नहीं िकया तो एक क्षण में िकए लेते ह!’

तीसरा, ‘ज़रा दिो-एक चाल बताइए तो?’

रमा ने उत्तिेिजत होकर कहा, यह मैं नहीं कहता िक मैं उसे हल कर ही लूंगा, मगर ऐसा नक्शा मैंने एक

बार हल िकया है, और संभव है, इसे भी हल कर लूं। ज़रा काग़ज़-पेंिसल दिीिजए तो नकल कर लूं।‘

युवकों का अिवश्वास कुछ कम हुआ। रमा को काग़ज़-पेंिसल िमल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर

िलया और युवकों को धन्यवादि देकर चला। एकाएक उसने िफरकर पूछा, ‘जवाब िकसके पास भेजना होगा?’

एक युवक ने कहा,’प्रजा-िमत्र’ के संपादिक के पास।’

रमा ने घर पहुंचकर उस नक्श पर िदिमाग़ लगाना शुरू िकया, लेिकन मुहरों की चालें सोचने की जगह वह

यही सोच रहा था िक यह नक्शा कहां देखा। शायदि यादि आते ही उसे नक्श का हल भी सूझि जायगा। अन्य

प्रािणयों की तरह मिस्तष्क भी कायर्च में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार िमल जाने से वह मानो

छुट्टी पा जाता है। रमा आधी रात तक नक्शा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की जो बडी-बडी माकर्के की बािजयां

खेली थीं, उन सबका नक्शा उसे यादि था, पर यह नक्शा कहां देखा?

सहसा उसकी आंखों के सामने िबजली-सी कौधं गई। खोई हुई स्मृतित िमल गई। अहा! राजा साहब ने यह

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नक्शा िदिया था। हां, ठीक है। लगातार तीन िदिन िदिमाग़ लडाने के बादि इसे उसने हल िकया था। नक्श की नकल

भी कर लाया था। िफर तो उसे एक-एक चाल यादि आ गई। एक क्षण में नक्शा हल हो गया! उसने उल्लास के

नश में ज़मीन पर दिो-तीन कुलांच लगाई, मूछों पर ताव िदिया, आईने में मुंह देखा और चारपाई पर लेट गया।

इस तरह अगर महीने में एक

नक्शा िमलता जाए, तो क्या पूछना!

देवीदिीन अभी आग सुलगा रहा था िक रमा प्रसन्न मुख आकर बोला, ‘दिादिा, जानते हो ‘प्रजा-िमत्र’

अख़बार का दिफ्तर कहां है?’

देवीदिीन—‘ ‘जानता क्यों नहीं हूं। यहां कौन अख़बार है, िजसका पता मुझिे न मालूम हो ‘प्रजा-िमत्र’ का

संपादिक एक रंगीला युवक है, जो हरदिम मुंह में पान भरे रहता है। िमलने जाओ, तो आंखों से बातें करता है,

मगर है िहम्मत का धनी, दिो बेर जेहल हो आया है।’

रमा—‘आज ज़रा वहां तक जाओग?’

देवीदिीन ने कातर भाव से कहा, ‘मुझिे भेजकर क्या करोग? मैं न जा सकूंगा। ’

‘क्या बहुत दूर है?’

‘नहीं, दूर नहीं है।’

‘िफर क्या बात है?’

देवीदिीन ने अपरािधयों के भाव से कहा, ‘बात कुछ नहीं है, बुिढया िबगड़ती है। उसे बचन दे चुका हूं िक

सुदेसी-िबदेसी के झिगड़े में न पडूंगा, न िकसी अख़बार के दिफ्तर में जाऊंगा। उसका िदिया खाता हूं, तो उसका

हुकुम भी तो बजाना पड़ेगा।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘दिादिा, तुम तो िदिल्लगी करते हो मेरा एक बडा ज़रूरी काम है। उसने शतरंज का

एक नक्शा छापा था, िजस पर पचास रूपया इनाम है। मैंने वह नक्शा हल कर िदिया है। आज छप जाय, तो मुझिे

यह इनाम िमल जाय। अख़बारों के दिफ्तर में अक्सर खुिगया पुिलस के आदिमी आतेजाते रहते ह। यही भय है।

नहीं, मैं खुदि चला जाता, लेिकन तुम नहीं जा रहे

हो तो लाचार मुझिे ही जाना पड़ेगा। बडी मेहनत से यह नक्शा हल िकया है। सारी रात जागता रहा हूं।’

देवीदिीन ने िचितत स्वर में कहा, ‘तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं।’

रमा ने हैरान होकर पूछा, ‘तो िफर? क्या डाक से भेज दूं? ’

देवीदिीन ने एक क्षण सोचकर कहा, ‘नहीं, डाक से क्या भेजोग। इधर-उधर हो जाय, तो तुम्हारी मेहनत

अकारथ जाय। रिजस्ट्री कराओ, तो कहीं परसों पहुंचेगा। कल इतवार है। िकसी और ने जवाब भेज िदिया, तो

इनाम वह मार ले जायगा। यह भी तो हो सकता है िक अख़बार वाले धांधली कर बैठं और तुम्हारा जवाब अपने

नाम से छापकर रूपया हजम कर लें।’

रमा ने दुर्िबधा में पड़कर कहा, ‘मैं ही चला जाऊंगा।’

‘तुम्हें मैं न जाने दूंगा। कहीं फंस जाओ तो बस!’

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‘फंसंना तो एक िदिन है ही। कब तक िछपा रहूंगा?’

‘तो मरने के पहले ही क्यों रोना-पीटना हो जब फंसोग, तब देखी जाएगी। लाओ, मैं चला जाऊं। बुिढया से

कोई बहाना कर दूंगा। अभी भेंट भी हो जाएगी। दिफ्तर ही में रहते भी ह। िफर घूमने-घामने चल देंग, तो दिस

बजे से पहले न लौटंग।’

रमा ने डरते-डरते कहा, ‘तो दिस बजे बादि जाना, क्या हरज है।’

देवीदिीन ने खड़े होकर कहा, ‘तब तक कोई दूसरा काम आ गया, तो आज रह जाएगा। घंट-भर में लौट

आता हूं। अभी बुिढया देर में आएगी।’यह कहते हुए देवीदिीन ने अपना काला कंबल ओढ़ा, रमा से िलफाफा िलया

और चल िदिया।

जग्गो साग-भाजी और फल लेने मंडी गई हुई थी। आधा घंट में िसर पर एक टोकरी रक्खे और एक बडा-

सा टोकरा मजूर के िसर पर रखवाए आई। पसीने से तर थी। आते ही बोली, ‘कहां गए? ज़रा बोझिा तो उतारो,

गरदिन टूट गई।’

रमा ने आग बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी िक संभाले न संभलती थी।

जग्गो ने पूछा, ‘वह कहां गए ह?’

रमा ने बहाना िकया, ‘मुझिे तो नहीं मालूम, अभी इसी तरफ चले गए ह।’

बुिढया ने मजूर के िसर का टोकरा उतरवाया और ज़मीन पर बैठकर एक टूटी-सी पंिखया झिलती हुई

बोली, ‘चरस की चाट लगी होगी और क्या, मैं मरमर कमाऊं और यह बैठे-बैठे मौज उडाएं और चरस पीएं।’

रमा जानता था, देवीदिीन चरस पीता है, पर बुिढया को शांत करने के िलए बोला, ‘क्या चरस पीते ह?

मैंने तो नहीं देखा!’

बुिढया ने पीठ की साड़ी हटाकर उसे पंखी की डंडी से खुजाते हुए कहा, ‘इनसे कौन नसा छूटा है, चरस यह

पीएं, गांजा यह पीएं, सराब इन्हें चािहए,भांग इन्हें चािहए, हां अभी तक अगीम नहीं खाई, या राम जाने खाते

हों, मैं कौन हरदिम देखती रहती हूं। मैं तो सोचती हूं कौन जाने आग क्या हो, हाथ में चार पैसे होंग, तो पराए

भी अपने हो जाएंग, पर इस भले आदिमी को रत्तिी-

भर िचता नहीं सताती। कभी तीरथ है, कभी कुछ, कभी कुछ, मेरा तो;नाक पर उंगली रखकरध्दि नाक में

दिम आ गया। भगवान उठा ले जाते तो यह कुसंग तो छूट जाती। तब यादि करग लाला! तब जग्गो कहां िमलेगी,

जो कमा-कमाकर गुलछरे उडाने को िदिया करेगी। तब रक्त के आंसू न रोएं, तो कह देना कोई कहता था। (मजूर

से) ‘कै पैसे हुए तेरे?’

मजूर ने बीड़ी जलाते हुए कहा, ‘बोझिा देख लो दिाई, गरदिन टूट गई!’

जग्गो ने िनदिर्चय भाव से कहा, ‘हां-हां, गरदिन टूट गई! बडी सुकुमार है न? यह ले, कल िफर चले आना।’

मजूर ने कहा, ‘यह तो बहुत कम है। मेरा पेट न भरेगा।’

जग्गो ने दिो पैसे और थोड़े से आलू देकर उसे िवदिा िकया और दुर्कान सजाने लगी। सहसा उसे िहसाब की

यादि आ गई। रमा से बोली, ‘भैया, ज़रा आज का खरचा तो टांक दिो। बाज़ार में जैसे आग लग गई है।’बुिढया

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छबिडयों में चीज़ं लगा-लगाकर रखती जाती थी और िहसाब भी िलखाती जाती थी। आलू, टमाटर, कद्दू, केले,

पालक, सेम, संतरे, गोभी, सब चीज़ों का तौल और दिर उसे यादि था। रमा से दिोबारा पढ़वाकर उसने सुना तब

उसे संतोष हुआ। इन सब कामों से छुट्टी पाकर उसने अपनी िचलम भरी और मोढ़े पर बैठकर पीने लगी, लेिकन

उसके अंदिाज से मालूम होता था िक वह तंबाकू का रस लेने के िलए नहीं, िदिल को जलाने के िलए पी रही है।

एक क्षण के बादि बोली, ‘दूसरी औरत होती तो घड़ी-भर इसके साथ िनबाह न होता, घड़ी- भर, पहर रात से

चक्की में जुत जाती हूं और दिस बजे रात तक दुर्कान पर बैठी सती होती रहती हूं। खाते-पीते बारह बजते ह तब

जाकर चार पैसे िदिखाई देते ह, और जो कुछ कमाती हूं, यह नसे में बरबादि कर देता है। सात कोठरी में िछपा के

रक्खूं, पर इसकी िनगाह पहुंच जाती है। िनकाल लेता है। कभी एकाध चीज़-बस्त बनवा लेती हूं तो वह आंखों में

गड़ने लगती है। तानों से छेदिने लगता है। भाग में लड़कों का सुख भोगना नहीं बदिा था, तो क्या करूं! छाती फाड़

के मर जाऊं? मांग से मौत भी तो नहीं िमलती। सुख भोगना िलखा होता, तो जवान बेट चल देते, और इस

िपयक्कड़ के हाथों मेरी यह सांसत होती! इसी ने सुदेसी के झिगड़े में पड़कर मेरे लालों की जान ली। आओ, इस

कोठरी में भैया, तुम्हें मुग्दिर की जोड़ी िदिखाऊं। दिोनों इस जोड़ी से पांच-पांच सौ हाथ उधरते थ।‘

अंधेरी कोठरी में जाकर रमा ने मुग्दिर की जोड़ी देखी। उस पर वािनश थी, साफ-सुथरी मानो अभी िकसी

ने उधरकर रख िदिया हो बुिढया ने सगवर्च नजरों से देखकर कहा,लोग कहते थ िक यह जोड़ी महा ब्राह्मन को दे दे,

तुझिे देख-देख कलक होगा। मैंने कहा,यह जोड़ी मेरे लालों की जुफल जोड़ी है। यही मेरे दिोनों लाल ह। बुिढया के

प्रित आज रमा के ह्रदिय में असीम श्रद्धिा जाग्रत हुई। िकतना पावन धैयर्च है, िकतनी िवशाल वत्सलता, िजसने

लकड़ी के इन दिो टुकड़ों को जीवन प्रदिान कर िदिया है। रमा ने जग्गो को माया और लोभ में डूबी हुई, पैसे पर

जान देने वाली, कोमल भावों से सवर्चथा िवहीन समझि रक्खा था। आज उसे िविदित हुआ िक उसका ह्रदिय िकतना

स्नेहमय, िकतना कोमल, िकतना मनस्वी है। बुिढया ने उसके मुंह की ओर देखा, तो न जाने क्यों उसका मात!-

ह्रदिय उसे गले लगाने के िलए अधीर हो उठा। दिोनों के ह्रदिय प्रेम के सूत्र में बंध गए। एक ओर पुत्र-स्नेह था,

दूसरी ओर मातृत-भिक्त। वह मािलन्य जो अब तक गुप्त भाव से दिोनों को पृतथक िकए हुए था, आज एकाएक दूर

हो गया। बुिढया ने कहा, ‘मुंह-हाथ धो िलया है न बेटा, बडे मीठे संतरे लाई हूं, एक लेकर चखो तो।’

रमा ने संतरा खाते हुए कहा, ‘आज से मैं तुम्हें अम्मां कहा करूंगा।’

बुिढया के शुष्क, ज्योितहीन, ठंडे, कृतपण नजरों से मोती के-से दिो िबदुर् िनकल पड़े।

इतने में देवीदिीन दिबे पांव आकर खडाहो गया। बुिढया ने तड़पकर पूछा,यह इतने सबेरे िकधर सवारी गई

थी सरकार की?’

देवी ने सरलता से मुस्कराकर कहा, ‘कहीं नहीं, ज़रा एक काम से चला गया था।’

‘क्या काम था, ज़रा मैं भी तो सुनूं, या मेरे सुनने लायक नहीं है?’

‘पेट में दिरदि था, ज़रा वैदिजी के पास चूरन लेने गया था।’

‘झिूठे हो तुम, उड़ो उससे जो तुम्हें जानता न हो चरस की टोह में गए थ तुम।’

‘नहीं, तेरे चरन छूकर कहता हूं। तू झिूठ-मूठ मुझिे बदिनाम करती है।’

‘तो िफर कहां गए थ तुम?’

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‘बता तो िदिया। रात खाना दिो कौर ज्यादिा खा गया था, सो पेट फूल गया,और मीठा-मीठा---’

‘झिूठ है, िबलकुल झिूठ! तुम चाहे झिूठ बोलो, तुम्हारा मुंह साफ कहे देता है, यह बहाना है, चरस, गांजा,

इसी टोह में गए थ तुम। मैं एक न मानूंगी। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे की सूझिती है, यहां मेरी मरन हुई जाती है।

सबेरे के गए-गए नौ बजे लौट ह, जानो यहां कोई इनकी लौंडी है।’

देवीदिीन ने एक झिाडू लेकर दुर्कान में झिाडू लगाना शुरू िकया, पर बुिढया ने उसके हाथ से झिाडू छीन िलया

और पूछा,तुम अब तक थ कहां? जब तक यह न बताओग, भीतर घुसने न दूंगी।

देवीदिीन ने िसटिपटाकर कहा, ‘क्या करोगी पूछकर, एक अख़बार के दिफ्तर में तो गया था। जो चाहे कर

ले।’

बुिढया ने माथा ठोंककर कहा, ‘तुमने िफर वही लत पकड़ी? तुमने कान न पकडाथा िक अब कभी अख़बारों

के नगीच न जाऊंगा। बोलो, यही मुंह था िक कोई और!’

‘तू बात तो समझिती नहीं, बस िबगड़ने लगती है।'

‘खूब समझिती हूं। अख़बार वाले दिंगा मचाते ह और ग़रीबों को जेहल ले जाते ह। आज बीस साल से देख

रही हूं। वहां जो आता-जाता है, पकड़ िलया जाता है। तलासी तो आए िदिन हुआ करती है। क्या बुढ़ापे में जेहल

की रोिटयां तोड़ोग?’

देवीदिीन ने एक िलफाफा रमानाथ को देकर कहा, ‘यह रूपये ह भैया, िगन लो। देख, यह रूपये वसूल करने

गया था। जी न मानता हो, तो आधे ले ले!’

बुिढया ने आंखें गाड़कर कहा, ‘अच्छा! तो तुम अपने साथ इस बेचारे को भी डुबाना चाहते हो तुम्हारे

रूपये में आग लगा दूंगी। तुम रूपये मत लेना, भैया! जान से हाथ धोओग। अब सेंतमेंत आदिमी नहीं िमलते, तो

सब लालच िदिखाकर लोगों को फंसाते ह। बाज़ार में पहरा िदिलावग, अदिालत में गवाही करावग! फेंक दिो उसके

रूपये, िजतने रूपये चाहो, मुझिसे ले जाओ।’

जब रमानाथ ने सारा वृतत्तिांत कहा, तो बुिढया का िचत्ति शांत हुआ। तनी हुई भव ढीली पड़ गई, कठोर मुद्रा

नमर्च हो गई। मेघ-पट को हटाकर नीला आकाश हंस पड़ा। िवनोदि करके बोली, ‘इसमें से मेरे िलए क्या लाओग,

बेटा?’

रमा ने िलफाफा उसके सामने रखकर कहा, ‘तुम्हारे तो सभी ह, अम्मां! मैं रूपये लेकर क्या करूंगा?’

‘घर क्यों नहीं भेज देते। इतने िदिन आए हो गए, कुछ भेजा नहीं।’

‘मेरा घर यही है, अम्मां! कोई दूसरा घर नहीं है।’

बुिढया का मातृतत्व वंिचत ह्रदिय गद्गदि हो उठा। इस मात!-भिक्त के िलए िकतने िदिनों से उसकी आत्मा

तड़प रही थी। इस कृतपण ह्रदिय में िजतना प्रेम संिचत हो रहा था, वह सब माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध

की भांित बाहर िनकलने के िलए आतुर हो गया। उसने नोटों को िगनकर कहा, ‘पचास ह, बेटा! पचास मुझिसे

और ले लो। चाय का पतीला रखा हुआ है। चाय की दुर्कान खोल दिो। यहीं एक तरफ चारपांच मोढ़े और मेज़ रख

लेना। दिो-दिो घंट सांझि-सवेरे बैठ जाओग तो गुज़र भर को िमल जायगा। हमारे िजतने गाहक आवग, उनमें से

िकतने ही चाय भी पी लेंग।’

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देवीदिीन बोला, ‘तब चरस के पैसे मैं इस दुर्कान से िलया करूंगा!’

बुिढया ने िवहंिसत और पुलिकत नजरों से देखकर कहा, ‘कौड़ी-कौड़ी का िहसाब लूंगी। इस उधर में न

रहना।’

रमा अपने कमरे में गया, तो उसका मन बहुत प्रसन्न था। आज उसे कुछ वही आनंदि िमल रहा था, जो

अपने घर भी कभी न िमला था। घर पर जो स्नेह िमलता था, वह उसे िमलना ही चािहए था। यहां जो स्नेह

िमला, वह मानो आकाश से टपका था। उसने स्नान िकया, माथ पर ितलक लगाया और पूजा का स्वांग भरने बैठा

िक बुिढया आकर बोली,बेटा, तुम्हें रसोई बनाने में बडी तकलीफ होती है। मैंने एक ब्राह्मनी ठीक कर दिी है।

बेचारी बडी ग़रीब है। तुम्हारा भोजन बना िदिया करेगी। उसके हाथ का तो तुम खा लोग, नेम-करम से रहती है

बेटा,ऐसी बात नहीं है। मुझिसे रूपये-पैसे उधार ले जाती है। इसी से राजी हो गई है।’

उन वृतद्धि आंखों से प्रगाढ़, अखंड मात!त्व झिलक रहा था, िकतना िवशुद्धि, पिवत्र! ऊंच-नीच और जाितमयादिा का िवचार आप ही आप िमट गया। बोला, ‘जब तुम मेरी माता हो गई तो िफर काहे का छूत-िवचार! मैं

तुम्हारे ही हाथ का खाऊंगा। ’

बुिढया ने जीभ दिांतों से दिबाकर कहा, ‘अरे नहीं बेटा! मैं तुम्हारा धरम न लूंगी, कहां तुम बराम्हन और

कहां हम खिटक ऐसा कहीं हुआ है।’

‘मैं तो तुम्हारी रसोई में खाऊंगा। जब मां-बाप खिटक ह, तो बेटा भी खिटक है। िजसकी आत्मा बडी हो

वही ब्राह्मण है।’

‘और जो तुम्हारे घरवाले सुनें तो क्या कहें! ‘

‘मुझिे िकसी के कहने-सुनने की िचता नहीं है, अम्मां! आदिमी पाप से नीच होता है, खाने-पीने से नीच नहीं

होता। प्रेम से जो भोजन िमलता है, वह पिवत्र होता है। उसे तो देवता भी खाते ह।’

बुिढया के ह्रदिय में भी जाित-गौरव का भाव उदिय हुआ। बोली, ‘बेटा, खिटक कोई नीच जात नहीं है। हम

लोग बराम्हन के हाथ का भी नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछरी हाथ से नहीं छूते, कोईकोई सराब पीते ह, मुदिा लुक-िछपकर। इसने िकसी को नहीं छोडा, बेटा! बड़े-बडे ितलकधारी गटाफट पीते ह।

लेिकन मेरी रोिटयां तुम्हें अच्छी नहीं लगंगी?’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘प्रेम की रोिटयों में अमृतत रहता है, अम्मां! चाहे गहूं की हों या बाजरे की।’ बुिढया

यहां से चली तो मानो अंचल में आनंदि की िनिध भरे हो।

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अट्ठाईस

जब से रमा चला गया था, रतन को जालपा के िवषय में बडी िचता हो गई थी। वह िकसी बहाने से उसकी

मदिदि करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी िक जालपा िकसी तरह ताड़ने न पाए। अगर कुछ

रूपया ख़चर्च करके भी रमा का पता चल सकता, तो वह सहषर्च ख़चर्च कर देती। जालपा की वह रोती हुई आंख

देखकर उसका ह्रदिय मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्नमुख देखना चाहती थी। अपने अंधेरे, रोने घर से ऊबकर

वह जालपा के घर चली जाया करती थी। वहां घड़ी-भर हंस-बोल लेने से उसका िचत्ति प्रसन्न हो जाता था। अब

वहां भी वही नहूसत छा गई। यहां आकर उसे अनुभव होता था िक मैं भी संसार में हूं, उस संसार में जहां जीवन

है, लालसा है, प्रेम है, िवनोदि है। उसका अपना जीवन तो व्रत की वेदिी पर अिपत हो गया था। वह तन-मन से

उस व्रत का पालन करती थी, पर िशविलग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है, तरंग है, नादि है, जो

सिरता में है? वह िशव के मस्तक को शीतल करता रहे, यही उसका काम है, लेिकन क्या उसमें सिरता के प्रवाह

और तरंग और नादि का लोप नहीं हो गया है?

इसमें संदेह नहीं िक नगर के प्रितिष्ठत और संपन्न घरों से रतन का पिरचय था, लेिकन जहां प्रितष्ठा थी,

वहां तकल्लुग था, िदिखावा था, ईष्या थी, िनदिा थी। क्लब के संसगर्च से भी उसे अरूिच हो गई थी। वहां िवनोदि

अवश्य था, कीडा अवश्य थी,, िकतु पुरूषों के आतुर नो भी थ, िवकल ह्रदिय भी, उन्मत्ति शब्दि भी। जालपा के घर

अगर वह शान न थी, वह दिौलत न थी, तो वह िदिखावा भी न था, वह ईष्या भी न थी। रमा जवान था, रूपवान

था, चाहे रिसक भी हो, पर रतन को अभी तक उसके िवषय में संदेह करने का कोई अवसर न िमला था, और

जालपा जैसी सुंदिरी के रहते हुए उसकी संभावना भी न थी। जीवन के बाज़ार में और सभी दूकानदिारों की

कुिटलता और जट्टूपन से तंग आकर उसने इस छोटी-सी दूकान का आश्रय िलया था, िकतु यह दूकान भी टूट गई।

अब वह जीवन की सामिग्रयां कहां बेसाहेगी, सच्चा माल कहां पावेगी?

एक िदिन वह ग्रामोफोन लाई और शाम तक बजाती रही। दूसरे िदिन ताजे मेवों की एक कटोरी लाकर रख

गई। जब आती तो कोई सौगात िलये आती। अब तक वह जागश्वरी से बहुत कम िमलती थी, पर अब बहुधा

उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती। कभी-कभी उसके िसर में तेल डालती और बाल गूंथती।

गोपी और िवश्वम्भर से भी अब स्नेह हो गया। कभीकभी दिोनों को मोटर पर घुमाने ले जाती। स्यल से आते ही

दिोनों उसके बंगले पर पहुंच जाते और कई लड़कों के साथ वहां खेलते। उनके रोने-िचल्लाने और झिगड़ने में रतन

को हािदिक आनंदि प्राप्त होता था। वकील साहब को भी अब रमा के घरवालों से कुछ आत्मीयता हो गई थी।

बार-बार पूछते रहते थ, ‘रमा बाबू का कोई ख़त आया- कुछ पता लगा?उन लोगों को कोई तकलीफ तो नहीं है?’

एक िदिन रतन आई, तो चेहरा उतरा हुआ था। आंखें भारी हो रही थीं। जालपा ने पूछा, ‘आज जी अच्छा

नहीं है क्या?’ रतन ने कुंिठत स्वर में कहा,’जी तो अच्छा है, पर रात-भर जागना पड़ा।

रात से उन्हें बडा कष्ट है। जाड़ों में उनको दिमे का दिौरा हो जाता है। बेचारे जाड़ों-भर एमलशन और

सनाटोजन और न जाने कौन-कौन से रस खाते रहते ह, पर यह रोग गला नहीं छोड़ता। कलकत्तिा में एक नामी

वैद्यप ह। अबकी उन्हीं से इलाज कराने का इरादिा है। कल चली जाऊंगी। मुझिे ले तो नहीं जाना चाहते, कहते ह,

वहां बहुत कष्ट होगा, लेिकन मेरा जी नहीं मानता। कोई बोलने वाला तो होना चािहए। वहां दिो बार हो आई हूं,

और जब-जब गई हूं, बीमार हो गई हूं।

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मुझिे वहां ज़रा भी अच्छा नहीं लगता, लेिकन अपने आराम को देखूं या उनकी बीमारी को देखू ।बहन

कभी-कभी ऐसा जी ऊब जाता है िक थोड़ी-सी संिखया खाकर सो रहूं। िवधाता से इतना भी नहीं देखा जाता।

अगर कोई मेरा सवर्चस्व लेकर भी इन्हें अच्छा कर दे, िक इस बीमारी की जड़ टूट जावे, तो मैं खुशी से दे दूंगी।’

जालपा ने सशंक होकर कहा,’यहां िकसी वैद्यप को नहीं बुलाया?’

‘यहां के वैद्यपों को देख चुकी हूं, बहन! वैद्यप -डारुक्टर सबको देख चुकी!’

‘तो कब तक आओगी?’

‘कुछ ठीक नहीं। उनकी बीमारी पर है। एक सप्ताह में आ जाऊं, महीने -दिो महीने लग जायं, क्या ठीक है,

मगर जब तक बीमारी की जड़ न टूट जायगी, न आऊंगी।’

िविध अंतिरक्ष में बैठी हंस रही थी। जालपा मन में मुस्कराई। िजस बीमारी की जड़ जवानी में न टूटी,

बुढ़ापे में क्या टूटगी, लेिकन इस सिदिच्छा से सहानुभूित न रखना असंभव था। बोली, ‘ईश्वर चाहेंग, तो वह वहां

से जल्दि अच्छे होकर लौटंग, बहन!’

‘तुम भी चलतीं तो बडा आनंदि आता।’

जालपा ने करूण भाव से कहा, ‘क्या चलूं बहन, जाने भी पाऊं। यहां िदिन-भर यह आशा लगी रहती है िक

कोई ख़बर िमलेगी। वहां मेरा जी और घबडाया करेगा। ’

‘मेरा िदिल तो कहता है िक बाबूजी कलकत्तिा में ह।’

‘तो ज़रा इधर-उधर खोजना। अगर कहीं पता िमले तो मुझिे तुरंत ख़बर देना।’

‘यह तुम्हारे कहने की बात नहीं है, जालपा।’

‘यह मुझिे मालूम है। ख़त तो बराबर भेजती रहोगी?’

‘हां अवश्य, रोज़ नहीं तो अंतरे िदिन जरूर िलखा करूंगी, मगर तुम भी जवाब देना।’

जालपा पान बनाने लगी। रतन उसके मुंह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानो कुछ कहना

चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती। जालपा ने पान देते समय उसके मन का भाव ताड़कर कहा, ‘क्या है ।

हन, क्या कह रही हो?

रतन—‘कुछ नहीं, मेरे पास कुछ रूपये ह, तुम रख लो। मेरे पास रहेंग, तो ख़चर्च हो जायंग।

जालपा ने मुस्कराकर आपित्ति की, ‘और जो मुझिसे ख़चर्च हो जायं?’

रतन ने पफुल्ल मन से कहा, टतुम्हारे ही तो ह बहन, िकसी ग़ैर के तो नहीं ह।’

जालपा िवचारों में डूबी हुई ज़मीन की तरफ ताकती रही। कुछ जवाब न िदिया। रतन ने िशकवे के अंदिाज

से कहा, ‘तुमने कुछ जवाब नहीं िदिया बहन, मेरी समझि में नहीं आता, तुम मुझिसे िखची क्यों रहती हो मैं चाहती

हूं, हममें और तुममें ज़रा भी अंतर न रहे लेिकन तुम मुझिसे दूर भागती हो अगर मान लो मेरे सौ-पचास रूपये

तुम्हीं से ख़चर्च हो गए, तो क्या हुआ। बहनों में तो ऐसा कौड़ी-कौड़ी का िहसाब नहीं होता।’

जालपा ने गंभीर होकर कहा, ‘कुछ कहूं, बुरा तो न मानोगी?’

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‘बुरा मानने की बात होगी तो जरूर बुरा मानूंगी।’

‘मैं तुम्हारा िदिल दुर्खाने के िलए नहीं कहती। संभव है, तुम्हें बुरी लग। तुम अपने मन में सोचो, तुम्हारे इस

बहनापे में दिया का भाव िमला हुआ है या नहीं? तुम मेरी ग़रीबी पर तरस खाकर---’

रतन ने लपककर दिोनों हाथों से उसका मुंह बंदि कर िदिया और बोली, ‘बस अब रहने दिो। तुम चाहे जो

ख़याल करो, मगर यह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं तो जानती हूं, अगर मुझिे भूख लगी

हो, तो मैं िनस्संकोच होकर तुमसे कह दूंगी, बहन, मुझिे कुछ खाने को दिो, भूखी हूं।’

जालपा ने उसी िनमर्चमता से कहा, ‘इस समय तुम ऐसा कह सकती हो तुम जानती हो िक िकसी दूसरे समय तुम

पूिरयों या रोिटयों के बदिले मेवे िखला सकती हो, लेिकन ईश्वर न करे कोई ऐसा समय आए जब तुम्हारे घर में

रोटी का टुकडान हो, तो शायदि तुम इतनी िनस्संकोच न हो सको।‘

रतन ने दिृतढ़ता से कहा, ‘मुझिे उस दिशा में भी तुमसे मांगने में संकोच न होगा। मैत्री पिरिस्थितयों का

िवचार नहीं करती। अगर यह िवचार बना रहे, तो समझि लो मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार बंदि कर

रही हो मैंने मन में समझिा था, तुम्हारे साथ जीवन के िदिन काट दूंगी, लेिकन तुम अभी से चेतावनी िदिए देती हो

अभागों को प्रेम की िभक्षा भी नहीं िमलती। यह कहते-कहते रतन की आंखें सजल हो गई। जालपा अपने को

दुर्िखनी समझि रही थी और दुर्खी जनों को िनमर्चम सत्य कहने की स्वाधीनता होती है। लेिकन रतन की मनोव्यथा

उसकी व्यथा से कहीं िवदिारक थी। जालपा के पित के लौट आने की अब भी आशा थी। वह जवान है, उसके आते

ही जालपा को ये बुरे िदिन भूल जाएंग। उसकी आशाआं का सूयर्च िफर उदिय होगा। उसकी इच्छाएं िफर फले-

फूलेंगी। भिवष्य अपनी सारी आशाआं और आकांक्षाआं के साथ उसके सामने था,िवशाल, उज्ज्वल, रमणीकब रतन

का भिवष्य क्या था? कुछ नहीं, शून्य, अंधकार!

जालपा आंखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली, ‘पत्रों के जवाब देती रहना। रूपये देती जाओ।’

रतन ने पसर्च से नोटों का एक बंडल िनकालकर उसके सामने रख िदिया, पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी।

जालपा ने सरल भाव से कहा, ‘क्या बुरा मान गई।’

रतन ने रूठे हुए शब्दिों में कहा, ‘बुरा मानकर तुम्हारा क्या कर लूंगी।’

जालपा ने उसके गले में बांहें डाल दिीं। अनुराग से उसका ह्रदिय गदिगदि हो गया। रतन से उसे इतना प्रेम

कभी न हुआ था। वह उससे अब तक िखचती थी,ईष्याकरती थी। आज उसे रतन का असली रूप िदिखाई िदिया।

यह सचमुच अभािगनी है और मुझिसे बढ़कर। एक क्षण बादि, रतन आंखों में आंसू और हंसी एक साथ भरे िवदिा हो

गई।

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उनतीस

कलकत्तिा में वकील साहब ने ठरहने का पहले ही इंतज़ाम कर िलया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन ने महराज

और टीमल कहार को साथ ले िलया था। दिोनों वकील साहब के पुराने नौकर थ और घर के-से आदिमी हो गए थ।

शहर के बाहर एक बंगला था। उसके तीन कमरे िमल गए। इससे ज्यादिा जगह की वहां जरूरत भी न थी। हाते में

तरह-तरह के फल-पौधो लग हुए थ। स्थान बहुत सुंदिर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और िकतने ही बंगले थ।

शहर के लोग उधर हवाखोरी के िलए जाया करते थ और हरे होकर लौटते थ, पर रतन को वह जगह फाड़े खाती

थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते ह। उदिासों के िलए स्वगर्च भी उदिास है। सगष्र ने वकील साहब को और

भी िशिथल कर िदिया था। दिो-तीन िदिन तो उनकी दिशा उससे भी ख़राब रही, जैसी प्रयाग में थी,, लेिकन दिवा

शुरू होने के दिो-तीन िदिन बादि वह कुछ संभलने लग। रतन सुबह से आधी रात तक उनके पास ही कुसी डाले बैठी

रहती। स्नान-भोजन की भी सुिध न रहती। वकील साहब चाहते थ िक यह यहां से हट जाय तो िदिल खोलकर

कराहें। उसे तस्कीन

देने के िलए वह अपनी दिशा को िछपाने की चेष्टा करते रहते थ। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है? तो वह

फीकी मुस्कराहट के साथ कहते, ‘आज तो जी बहुत हल्का मालूम होता है।’ बेचारे सारी रात करवटं बदिलकर

काटते थ, पर रतन पूछती, ‘रात नींदि आई थी?’ तो कहते, ‘हां, खूब सोया।’रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरूिच

होने पर भी खा लेते। रतन समझिती, अब यह अच्छे हो रहे ह। किवराज जी से भी वह यही समाचार कहती। वह

भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थ। एक िदिन वकील साहब ने रतन से कहा, ‘मुझिे डर है िक मुझिे अच्छा

होकर तुम्हारी दिवा न करनी पड़े।’

रतन ने प्रसन्न होकर कहा, ‘इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर से मनाती हूं िक तुम्हारी बीमारी

मुझिे दे दें। ‘शाम को घूम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे

हो जाने पर पड़ना।’

‘कहां जाऊं, मेरा तो कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझिे यहीं सबसे अच्छा लगता है।’

वकील साहब को एकाएक रमानाथ का ख़याल आ गया। बोले, ‘ज़रा शहर के पाको में घूम-घाम कर देखो,

शायदि रमानाथ का पता चल जाय। रतन को अपना वादिा यादि आ गया। रमा को पा जाने की आनंदिमय आशा ने

एक क्षण के िलए उसे चंचल कर िदिया। कहीं वह पाकर्क में बैठे िमल जाएं, तो पूछूं किहए बाबूजी, अब कहां

भागकर जाइएगा? इस कल्पना से उसकी मुद्रा िखल उठी। बोली, ‘जालपा से मैंने वादिा तो िकया था िक पता

लगाऊंगी, पर यहां आकर भूल गई।’

वकील साहब ने साग्रह कहा, ‘आज चली जाओ। आज क्या, शाम को रोज़ घंट-भर के िलए िनकल जाया

करो।’

रतन ने िचितत होकर कहा, ‘लेिकन िचता तो लगी रहेगी।’

वकील साहब ने मुस्कराकर कहा, ‘मेरी? मैं तो अच्छा हो रहा हूं।’

रतन ने संिदिग्ध भाव से कहा, ‘अच्छा, चली जाऊंगी।’

रतन को कल से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ संदेह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे होने का

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कोई लक्षण उसे न िदिखाई देता था। इनका चेहरा क्यों िदिन-िदिन पीला पड़ता जाता है! इनकी आंखें क्यों हरदिम

बंदि रहती ह! देह क्यों िदिन-िदिन घुलती जाती है! महराज और कहार से वह यह शंका न कह सकती थी।

किवराज से पूछते उसे संकोच होता था। अगर कहीं रमा

िमल जाते, तो उनसे पूछती। वह इतने िदिनों से यहां ह, िकसी दूसरे डाक्टर को

िदिखाती। इन किवराज जी से उसे कुछ-कुछ िनराशा हो चली थी। जब रतन चली गई, तो वकील साहब ने

टीमल से कहा, ‘मुझिे ज़रा उठाकर िबठा दिो, टीमल, पड़े-पड़े कमर सीधी हो गई। एक प्याली चाय िपला दिो। कई

िदिन हो गए, चाय की सूरत नहीं देखी। यह पथ्य मुझिे मारे डालता है। दूध देखकर ज्वर चढ़ आता है, पर उनकी

ख़ाितर से पी लेता हूं! मुझिे तो इन किवराज की

दिवा से कोई फायदिा नहीं मालूम होता। तुम्हें क्या मालूम होता है?’

टीमल ने वकील साहब को तिकए के सहारे बैठाकर कहा, ‘बाबूजी सो देख लेव, यह तो मैं पहले ही कहने

वाला था। सो देख लेव, बहूजी के डर के मारे नहीं कहता था।’

वकील साहब ने कई िमनट चुप रहने के बादि कहा, ‘मैं मौत से डरता नहीं, टीमल! िबलकुल नहीं। मुझिे

स्वगर्च और नरक पर िबलकुल िवश्वास नहीं है। अगर संस्कारों के अनुसार आदिमी को जन्म लेना पड़ता है, तो मुझिे

िवश्वास है, मेरा जन्म िकसी अच्छे घर में होगा। िफर भी मरने को जी नहीं चाहता। सोचता हूं, मर गया तो क्या

होगा।’

टीमल ने कहा, ‘बाबूजी सो देख लेव, आप ऐसी बातें न कर। भगवान चाहेंग, तो आप अच्छे हो जाएंग।

िकसी दूसरे डाक्टर को बुलाऊं- आप लोग तो अंगरेज़ी पढ़े ह, सो देख लेव, कुछ मानते ही नहीं, मुझिे तो कुछ और

ही संदेह हो रहा है। कभी-कभी गंवारों की भी सुन िलया करो। सो देख लेव, आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक

सयाने को लाऊंगा। बंगाल के ओझिे-सयाने मसहूर ह।’

वकील साहब ने मुंह उधर िलया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मज़ाक उडाया करते थ। कई ओझिों को पीट

चुके थ। उनका ख़याल था िक यह प्रवंचना है, ढोंग है, लेिकन इस वक्त उनमें इतनी शिक्त भी न थी िक टीमल के

इस प्रस्ताव का िवरोध करते। मुंह उधर िलया।

महराज ने चाय लाकर कहा, ‘सरकार, चाय लाया हूं।’

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुिधत नजरों से देखकर कहा, ‘ले जाओ, अब न पीऊंगा। उन्हें मालूम

होगा, तो दुर्खी होंगी। क्यों महराज, जब से मैं आया हूं मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है?’

महराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय िदिया करते थ। खुदि सोचने की

शिक्त उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है, आप अच्छे हो रहे ह, तो वह भी इसका समथर्चन करग। टीमल ने इसके

िवरुद्धि कहा है, तो उन्हें भी इसके िवरुद्धि ही कहना चािहए। टीमल ने उनके असमंजस को भांपकर कहा, ‘हरा क्यों

नहीं हुआ है, हां, िजतना होना चािहए उतना नहीं हुआ।’

महराज बोले, ‘हां, कुछ हरा जरूर हुआ है, मुदिा बहुत कम।’

वकील साहब ने कुछ जवाब नहीं िदिया। दिो-चार वाक्य बोलने के बादि वह िशिथल हो जाते थ और दिसपांच िमनट शांत अचेत पड़े रहते थ। कदिािचत उन्हें अपनी दिशा का यथाथर्च ज्ञान हो चुका था। उसके मुख पर,

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बुिद्धिपर, मिस्तष्क पर मृतत्युकी छाया पड़ने लगी थी। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही िक शायदि मन की

दुर्बर्चलता से उन्हें अपनी दिशा इतनी हीन मालूम होती हो उनका दिम अब पहले से ज्यादिा फलने लगा था। कभी-

कभी तो ऊपर की सांस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था, बस अब प्राण िनकला। भीषण प्राण-वेदिना होने

लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अंत कर दे।

सामने उद्यपान में चांदिनी द्दहरे की चादिर ओढ़े, ज़मीन पर पड़ी िससक रही थी। फल और पौधो मिलन मुख,

िसर झिुकाए, आशा और भय से िवकल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थ, उसकी शीतल देह को स्पशर्च

करते थ और आंसू की दिो बूंदें िगराकर िफर उसी भांित देखने लगते थ। सहसा वकील साहब ने आंखें खोलीं।

आंखों के दिोनों कोनों में आंसू की बूंदें मचल रही थीं।

क्षीण स्वर में बोले, ‘टीमल! क्या िसद्धिू आए थ?’

िफर इस प्रश्न पर आप ही लिज्जत हो मुस्कराते हुए बोले, ‘मुझिे ऐसा मालूम हुआ, जैसे िसद्धिू आए हों।’

िफर गहरी सांस लेकर चुप हो गए, और आंखें बंदि कर लीं। िसद्धिू उस बेट का नाम था, जो जवान होकर

मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की यादि आ रही थी। कभी उसका बालपन सामने आ

जाता, कभी उसका मरना आग िदिखाई देने लगता,िकतने स्पष्ट, िकतने सजीव िचत्र थ। उनकी स्मृतित कभी इतनी

मूितमान, इतनी िचत्रमय न थी। कई िमनट के बादि उन्होंने िफर आंखें खोलीं और इधर-उधर खोई हुई आंखों से

देखा। उन्हें अभी ऐसा जान पड़ता था िक मेरी माता आकर पूछ रही ह, ‘बेटा, तुम्हारा जी कैसा है?’

सहसा उन्होंने टीमल से कहा, ‘यहां आओ। िकसी वकील को बुला लाओ, जल्दिी जाओ, नहीं वह घूमकर

आती होंगी।’

इतने में मोटर का हानर्च सुनाई िदिया और एक पल में रतन आ पहुंची। वकील को बुलाने की बात उड़ गई।

वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा, ‘कहां?कहां गई?कुछ उसका पता िमला?’

रतन ने उनके माथ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘कई जगह देखा। कहीं न िदिखाई िदिए। इतने बडे शहर में

सड़कों का पता तो जल्दिी चलता नहीं, वह भला क्या िमलेंग। दिवा खाने का समय तो आ गया न?’

वकील साहब ने दिबी ज़बान से कहा, ‘लाओ, खा लूं।’

रतन ने दिवा िनकाली और उन्हें उठाकर िपलाई। इस समय वह न जानेक्यों कुछ भयभीत-सी हो रही थी।

एक अस्पष्ट, अज्ञात शंका उसके ह्रदिय को दिबाए हुए थी। एकाएक उसने कहा, ‘उन लोगों में से िकसी को तार दे

दूं?’

वकील साहब ने प्रश्न की आंखों से देखा। िफर आप ही आप उसका आशय समझिकर बोले, ‘नहीं-नहीं,

िकसी को बुलाने की जरूरत नहीं। मैं अच्छा हो रहा हूं।’

िफर एक क्षण के बादि सावधान होने की चेष्टा करके बोले, ‘मैं चाहता हूं िक अपनी वसीयत िलखवा दूं।’

जैसे एक शीतल, तीव्र बाण रतन के पैर से घुसकर िसर से िनकल गया। मानो उसकी देह के सारे बंधन खुल

गए, सारे अवयव िबखर गए, उसके मिस्तष्क के सारे परमाणु हवा में उड़ गए। मानो नीचे से धारती िनकल गई,

ऊपर से आकाश िनकल गया और अब वह िनराधार, िनस्पंदि, िनजीव खड़ी है। अवरूद्धि, अश्रुकंिपत कंठ से बोली-

घर से िकसी को बुलाऊं? यहां िकससे सलाह ली जाए? कोई भी तो अपना नहीं है।

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‘अपनों’ के िलए इस समय रतन अधीर हो रही थी। कोई भी तो अपना होता, िजस पर वह िवश्वास कर

सकती, िजससे सलाह ले सकती। घर के लोग आ जाते, तो दिौड़-धूप करके िकसी दूसरे डाक्टर को बुलाते। वह

अकेली क्या? क्या करे- आिख़र भाई-बंदि और िकस िदिन काम आवग। संकट में ही अपने काम आते ह। िफर यह

क्यों कहते ह िक िकसी को मत बुलाओ!

वसीयत की बात िफर उसे यादि आ गई! यह िवचार क्यों इनके मन में आया? वैद्यप जी ने कुछ कहा तो

नहीं? क्या होने वाला है, भगवान! यह शब्दि अपने सारे संसगो के साथ उसके ह्रदिय को िवदिीणर्च करने लगा।

िचल्ला-िचल्लाकर रोने के िलए उसका मन िवकल हो उठा। अपनी माता यादि आई। उसके अंचल में मुंह िछपाकर

रोने की आकांक्षा उसके मन में उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय अंचल में रोकर उसकी बाल-आत्मा को िकतना संतोष

होता था। िकतनी जल्दि उसकी सारी मनोव्यथा शांत हो जाती थी। आह! यह आधार भी अब नहीं। महराज ने

आकर कहा, ‘सरकार, भोजन तैयार है। थाली परसूं?’

रतन ने उसकी ओर कठोर नजरों से देखा। वह िबना जवाब की अपेक्षा िकए चुपके-से चला गया।

मगर एक ही क्षण में रतन को महराज पर दिया आ गई। उसने कौन-सी बुराई की जो भोजन के िलए पूछने

आया। भोजन भी ऐसी चीज़ है, िजसे कोई छोड़ सके! वह रसोई में जाकर महराज से बोली, ‘तुम लोग खा लो,

महराज! मुझिे आज भूख नहीं लगी है।’

महराज ने आग्रह िकया, ‘दिो ही फुलके खा लीिजए, सरकार!’

रतन िठठक गई। महराज के आग्रह में इतनी सह्रदियता, इतनी संवेदिना भरी हुई थी िक रतन को एक प्रकार

की सांत्वना का अनुभव हुआ। यहां कोई अपना नहीं है, यह सोचने में उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महराज ने अब

तक रतन को कठोर स्वािमनी के रूप में देखा था। वही स्वािमनी आज उसके सामने खड़ी मानो सहानुभूित की

िभक्षा मांग रही थी। उसकी सारी सदिवृतित्तियां उमड़ उठीं।

रतन को उसके दुर्बर्चल मुख पर अनुराग का तेज़ नज़र आया। उसने पूछा, ‘क्यों महराज, बाबूजी को इस

किवराज की दिवा से कोई लाभ हो रहा है?’

महराज ने डरते-डरते वही शब्दि दुर्हरा िदिए, जो आज वकील साहब से कहे थ,कुछ-कुछतो हो रहा है,

लेिकन िजतना होना चािहए उतना नहीं।

रतन ने अिवश्वास के अंदिाज से देखकर कहा,तुम भी मुझिे धोखा देते हो, महराज!

महराज की आंखें डबडबा गई। बोले, ‘भगवान सब अच्छा ही करग बहूजी, घबडाने से क्या होगा। अपना

तो कोई बस नहीं है।’

रतन ने पूछा, ‘यहां कोई ज्योितषी न िमलेगा? ज़रा उससे पूछते। कुछ पूजापाठ भी करा लेने से अच्छा

होता है।’

महराज ने तुिष्ट के भाव से कहा, ‘यह तो मैं पहले ही कहने वाला था, बहूजी! लेिकन बाबूजी का िमजाज

तो जानती हो इन बातों से वह िकतना िबगड़ते ह।’

रतन ने दिृतढ़ता से कहा, ‘सबेरे िकसी को जरूर बुला लाना।’

‘सरकार िचढ़ंग!’

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‘मैं तो कहती हूं।’

यह कहती हुई वह कमरे में आई और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र िलखने लगी,

‘बहन, नहीं कह सकती, क्या होने वाला है। आज मुझिे मालूम हुआ है िक मैं अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई

थी। बाबूजी अब तक मुझिसे अपनी दिशा िछपाते थ, मगर आज यह बात उनके काबू से बाहर हो गई। तुमसे क्या

कहूं, आज वह वसीयत िलखने की चचा कर रहे थ। मैंने ही टाला। िदिल घबडा रहा है ।हन, जी चाहता है, थोड़ी-

सी संिखया खाकर सो रहूं। िवधाता को संसार दियालु, कृतपालु, दिीन? बंधु और जाने कौन? कौन? सी उपािधयां

देता है। मैं कहती हूं, उससे िनदिर्चयी, िनमर्चम, िनष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता पूवर्चजन्म का संस्कार केवल मन को

समझिाने की चीज़ है। िजस दिंड का हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दिंड का मूल्य ही क्या! वह तो ज़बदिर्चस्त की लाठी

है, जो आघात करने के िलए कोई कारण गढ़लेती है। इस अंधेरे, िनजर्चन, कांटों से भरे हुए जीवन-मागर्च में मुझिे

केवल एक िटमिटमाता हुआ दिीपक िमला था। मैं उसे अंचल में िछपाए, िविध को धन्यवादि देती हुई, गाती चली

जाती थी, पर वह दिीपक भी मुझिसे छीना जा रहा है। इस अंधकार में मैं कहां जाऊंगी, कौन मेरा रोना सुनेगा,

कौन मेरी बांह पकड़ेगा। बहन, मुझिे क्षमा करना। मुझिे बाबूजी का पता लगाने का अवकाश नहीं िमला। आज कई

पाको का चक्कर लगा आई, पर कहीं पता नहीं चला। कुछ अवसर िमला तो िफर जाऊंगी।

‘ माताजी को मेरा प्रणाम कहना। ‘

पत्र िलखकर रतन बरामदे में आई। शीतल समीर के झिोंके आ रहे थ। प्रकृतित मानो रोग-शय्या पर पड़ी

िससक रही थी। उसी वक्त वकील साहब की सांस वेग से चलने लगी।

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तीस

रात के तीन बज चुके थ। रतन आधी रात के बादि आरामकुसी पर लेट ही लेट झिपिकयां ले रही थी िक

सहसा वकील साहब के गले का खराटा सुनकर चौकं पड़ी। उल्टी सांसें चल रही थीं। वह उनके िसरहाने चारपाई

पर बैठ गई और उनका िसर उठाकर अपनी जांघ पर रख िलया। अभी न जाने िकतनी रात बाकी है। मेज़ पर

रखी हुई छोटी घड़ी की ओर देखा। अभी तीन बजे थ। सबेरा होने में चार घंट की देर थी। किवराज कहीं नौ बजे

आवग! यह सोचकर वह हताश हो गई। अभािगनी रात क्या अपना काला मुंह लेकर िवदिा न होगी! मालूम होता

है, एक युग हो गया! कई िमनट के बादि वकील साहब की सांस रूकी। सारी देह पसीने में तर थी। हाथ से रतन

को हट जाने का इशारा िकया और तिकए पर िसर रखकर िफर आंखें बंदि कर लीं।

एकाएक उन्होंने क्षीण स्वर में कहा,रतन—‘ अब िवदिाई का समय आ गया। मेरे अपरा के---‘

उन्होंने दिोनों हाथ जोड़ िलए और उसकी ओर दिीन याचना की आंखों से देखा। कुछ कहना चाहते थ, पर

मुंह से आवाज़ न िनकली।

रतन ने चीखकर कहा, ‘टीमल, महराज, क्या दिोनों मर गए?’

महराज ने आकर कहा, ‘मैं सोया थोड़े ही था बहूजी, क्या बाबूजी?’

रतन ने डांटकर कहा, ‘बको मत, जाकर किवराज को बुला लाओ, कहना अभी चिलए।’

महराज ने तुरंत अपना पुराना ओवरकोट पहना, सोटा उठाया और चल िदिया। रतन उठकर स्टोव जलाने

लगी िक शायदि सेंक से कुछ फायदिा हो उसकी सारी घबराहट, सारी दुर्बर्चलता, सारा शोक मानो लुप्त हो गया।

उसकी जगह एक प्रबल आत्मिनभरता का उदिय हुआ। कठोर कतर्चव्य ने उसके सारे अिस्तत्व को सचेत कर िदिया।

स्टोव जलाकर उसने रूई के गाले से छाती को सेंकना शुरू िकया। कोई पंद्रह िमनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बादि

वकील साहब की सांस कुछ थमी।

आवाज़ काबू में हुई। रतन के दिोनों हाथ अपने गालों पर रखकर बोले, ‘तुम्हें बडी तकलीफ हो रही है

मुन्नी! क्या जानता था, इतनी जल्दि यह समय आ जाएगा। मैंने तुम्हारे साथ बडा अन्याय िकया है, िप्रये! ओह

िकतना बडा अन्याय! मन की सारी लालसा मन में रह गई। मैंने तुम्हारे जीवन का सवर्चनाश कर िदिया,क्षमा

करना।‘

यही अंितम शब्दि थ जो उनके मुख से िनकले। यही जीवन का अंितम सूत्र था, यही मोह का अंितम बंधन

था।

रतन ने द्वार की ओर देखा। अभी तक महराज का पता न था। हां, टीमल खडा था,और सामने अथाह

अंधकारजैसे अपने जीवन की अंितम वेदिना से मूिछत पडा था।

रतन ने कहा, ‘टीमल, ज़रा पानी गरम करोग?’

टीमल ने वहीं खड़े-खड़े कहा, ‘पानी गरम करके क्या करोगी बहूजी, गोदिान करा दिो। दिो बूंदि गंगाजल मुंह

में डाल दिो।’

रतन ने पित की छाती पर हाथ रक्खा। छाती गरम थी। उसने िफर द्वार की ओर ताका। महराज न िदिखाई

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िदिए। वह अब भी सोच रही थी, किवराजजी आ जाते तो शायदि इनकी हालत संभल जाती। पछता रही थी िक

इन्हें यहां क्यो लाई- कदिािचत रास्ते की तकलीग और जलवायु ने बीमारी को असाध्य कर िदिया। यह भी

पछतावा हो रहा था िक मैं संध्या समय क्यों घूमने चली गई। शायदि उतनी ही देर में इन्हें ठंड लग गई। जीवन

एक दिीघर्च पश्चाताप के िसवा और क्या है! पछतावे की एक-दिो बात थी! इस आठ साल के जीवन में मैंने पित को

क्या आराम पहुंचाया- वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तकें देखते रहते थ, मैं पड़ी सोती रहती थी। वह संध्या

समय भी मुविक्कलों से मामले की बातें करते थ, मैं पाकर्क और िसनेमा की सैर करती थी, बाज़ारों में मटरगश्ती

करती थी। मैंने इन्हें धनोपाजर्चन के एक यंत्र के िसवा और क्या समझिा! यह िकतना चाहते थ िक मैं इनके साथ बैठूं

और बातें करूं, पर मैं भागती िफरती थी। मैंने कभी इनके ह्रदिय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की, कभी प्रेम की

दिृतिष्ट से नहीं देखा। अपने घर में दिीपक न जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनंदि उठाती िगरी,मनोरंजन के िसवा

मुझिे और कुछ सूझिता ही न था। िवलास और मनोरंजन, यही मेरे जीवन के दिो लक्ष्य थ। अपने जले हुए िदिल को

इस तरह शांत करके मैं संतुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों न मुझिे िमली, इस क्षोभ में मैंने अपनी रोिटयों

को लात मार दिी। आज रतन को उस प्रेम का पूणर्च पिरचय िमला, जो इस िवदिा होने वाली आत्मा को उससे

था,वह इस समय भी उसी की िचता में मग्न थी। रतन के िलए जीवन में िफर भी कुछ आनंदि था, कुछ रूिच थी,

कुछ उत्साह था। इनके िलए जीवन में कौन?सा सुख था। न खाने-पीने का सुख, न मेले-तमाश का शौक। जीवन

क्या, एक दिीघर्च तपस्या थी, िजसका मुख्य उद्देश्य कतर्चव्य का पालन था?

क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी? क्या एक क्षण के िलए कठोर कतर्चव्य की िचताआं से उन्हें

मुक्त न कर सकती थी? कौन कह सकता है िक िवराम और िवश्राम से यह बुझिने वाला दिीपक कुछ िदिन और न

प्रकाशमान रहता। लेिकन उसने कभी अपने पित के प्रित अपना कतर्चव्य ही न समझिा। उसकी अंतरात्मा सदिैव

िवद्रोह करती रही, केवल इसिलए िक इनसे मेरा संबंध क्यों हुआ?

क्या उस िवषय में सारा अपराध इन्हीं का था! कौन कह सकता है िक दििरद्र मातािपता ने मेरी और भी

दुर्गर्चित न की होती, जवान आदिमी भी सब-के-सब क्या आदिशर्च ही होते ह? उनमें भी तो व्यिभचारी, कोधी,

शराबी सभी तरह के होते ह। कौन कह सकता है, इस समय मैं िकस दिशा में होती। रतन का एक-एक रोआं इस

समय उसका ितरस्कार कर रहा था। उसने पित के शीतल चरणों पर िसर झिुका िलया और िबलख-िबलखकर रोने

लगी। वह सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में उठते रहते थ, वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर

उन्हें कहे थ, इस समय सैकड़ों िबच्छुआं के समान उसे डंक मार रहे थ। हाय! मेरा यह व्यवहार उस प्राणी के साथ

था, जो सागर की भांित गंभीर था। इस ह्रदिय में िकतनी कोमलता थी, िकतनी उदिारता! मैं एक बीडापान दे देती

थी, तो िकतना प्रसन्न हो जाते थ। ज़रा हंसकर बोल देती थी, तो िकतने तृतप्त हो जाते थ, पर मुझिसे इतना भी न

होता था। इन बातों को यादि कर-करके उसका ह्रदिय फटा जाता था। उन चरणों पर िसर रक्खे हुए उसे प्रबल

आकांक्षा हो रही थी िक मेरे प्राण इसी क्षण िनकल जायें। उन चरणों को मस्तक से स्पशर्च करके उसके ह्रदिय में

िकतना अनुराग उमडाआता था, मानो एक युग की संिचत िनिध को वह आज ही, इसी क्षण, लुटा देगी। मृतत्युकी

िदिव्य ज्योित के सम्मुख उसके अंदिर का सारा मािलन्य, सारी दुर्भावना, सारा िवकोह िमट गया था। वकील साहब

की आंखें खुली हुई थीं, पर मुख पर िकसी भाव का िचन्ह न था। रतन की िवह्नलता भी अब उनकी बुझिती हुई

चेतना को प्रदिीप्त न कर सकती थी। हषर्च और शोक के बंधन से वह मुक्त हो गए थ, कोई रोए तो ग़म नहीं, हंसे

तो खुशी नहीं। टीमल ने आचमनी में गंगाजल लेकर उनके मुंह में डाल िदिया। आज उन्होंने कुछ बाधा न दिी। वह

जो पाखंडों और रूिढयों का शत्रु था, इस समय शांत हो गया था, इसिलए नहीं िक उसमें धािमक िवश्वास का

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उदिय हो गया था, बिल्क इसिलए िक उसमें अब कोई इच्छा न थी। इतनी ही उदिासीनता से वह िवष का घूंट पी

जाता। मानव-जीवन की सबसे महान घटना िकतनी शांित के साथ घिटत हो जाती है। वह िवश्व का एक महान

अंग, वह महत्तिवाकांक्षाआं का प्रचंड सागर, वह उद्यपोग का अनंत भंडार, वह प्रेम और द्वेष, सुख और दुर्ःख का

लीला-क्षेत्र, वह बुिद्धि और बल की रंगभूिम न जाने कब और कहां लीन हो जाती है, िकसी को ख़बर नहीं होती।

एक िहचकी भी नहीं, एक उच्छवास भी नहीं, एक आह भी नहीं िनकलती! सागर की िहलोरों का कहां अंत होता

है, कौन बता सकता है। ध्विन कहां वायु-मग्न हो जाती है, कौन जानता है। मानवीय जीवन उस िहलोर के िसवा,

उस ध्विन के िसवा और क्या है! उसका अवसान भी उतना ही शांत, उतना ही अदिृतश्य हो तो क्या आश्चयर्च है। भूतों

के भक्त पूछते ह, क्या वस्तु िनकल गई?कोई िवज्ञान का उपासक कहता है, एक क्षीण ज्योित िनकल जाती है।

कपोल-िवज्ञान के पुजारी कहते ह, आंखों से प्राण िनकले, मुंह से िनकले, ब्रह्मांड से िनकले। कोई उनसे पूछे,

िहलोर लय होते समय क्या चमक उठती है? ध्विन लीन होते समय क्या मूितमान हो जाती है? यह उस अनंत

यात्रा का एक िवश्राम मात्र है, जहां यात्रा का अंत नहीं, नया उत्थान होता है। िकतना महान पिरवतर्चन! वह जो

मच्छर के डंक को सहन न कर सकता था, अब उसे चाहे िमट्टी में दिबा दिो, चाहे अिग्न-िचता पर रख दिो, उसके

माथ पर बल तक न पड़ेगा।

टीमल ने वकील साहब के मुख की ओर देखकर कहा, ‘बहूजी, आइए खाट से उतार दें। मािलक चले गए!’

यह कहकर वह भूिम पर बैठ गया और दिोनों आंखों पर हाथ रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आज तीस वषर्च

का साथ छूट गया। िजसने कभी आधी बात नहीं कही, कभी तू करके नहीं पुकारा, वह मािलक अब उसे छोड़े

चला जा रहा था।

रतन अभी तक किवराज की बाट जोह रही थी। टीमल के मुख से यह शब्दि सुनकर उसे धक्का-सा लगा।

उसने उठकर पित की छाती पर हाथ रक्खा।

साठ वषर्च तक अिवश्राम गित से चलने के बादि वह अब िवश्राम कर रही थी। िफर उसे माथ पर हाथ रखने

की िहम्मत न पड़ी। उस देह को स्पशर्च करते हुए, उस मरे हुए मुख की ओर ताकते हुए, उसे ऐसा िवराग हो रहा

था, जो ग्लािन से िमलता था। अभी िजन चरणों पर िसर रखकर वह रोई थी, उसे छूते हुए उसकी उंगिलयां कटी-

सी जाती थीं। जीवन?साू इतना कोमल है, उसने कभी न समझिा था। मौत का ख़याल कभी उसके मन में न आया

था। उस मौत ने आंखों के सामने उसे लूट िलया! एक क्षण के बादि टीमल ने कहा, ‘बहूजी, अब क्या देखती हो,

खाट के नीचे उतार दिो। जो होना था हो गया।’

उसने पैर पकडा, रतन ने िसर पकडाऔर दिोनों ने शव को नीचे िलटा िदिया और वहीं ज़मीन पर बैठकर

रतन रोने लगी, इसिलए नहीं िक संसार में अब उसके िलए कोई अवलंब न था, बिल्क इसिलए िक वह उसके

साथ अपने कतर्चव्य को पूरा न कर सकी। उसी वक्त मोटर की आवाज़ आई और किवराजजी ने पदिापर्चण िकया।

कदिािचत अब भी रतन के ह्रदिय में कहीं आशा की कोई बुझिती हुई िचनगारी पड़ी हुई थी! उसने तुरंत आंखें पोंछ

डालीं, िसर का अंचल संभाल िलया, उलझिे हुए केश समेट िलये और खड़ी होकर द्वार की ओर देखने लगी। प्रभात

ने आकाश को अपनी सुनहली िकरणों से रंिजत कर िदिया था। क्या इस आत्मा के नव-जीवन का यही प्रभात था।

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इकतीस

उसी िदिन शव काशी लाया गया। यहीं उसकी दिाह-िकया हुई। वकील साहब के एक भतीजे मालवे में रहते

थ। उन्हें तार देकर बुला िलया गया। दिाह-िकया उन्होंने की। रतन को िचता के दिृतश्य की कल्पना ही से रोमांच

होता था। वहां पहुंचकर शायदि वह बेहोश हो जाती। जालपा आजकल प्रायद्यप सारे िदिन उसी के साथ रहती।

शोकातुर रतन को न घर-बार की सुिध थी, न खाने-पीने की। िनत्य ही कोई-न-कोई ऐसी बात यादि आ जाती

िजस पर वह घंटों रोती। पित के साथ उसका जो धमर्च था, उसके एक अंश का भी उसने पालन िकया होता, तो

उसे बोध होता। अपनी कतर्चव्यहीनता, अपनी िनष्ठुरता, अपनी श्रृतंगार-लोलुपता की चचा करके वह इतना रोती िक

िहचिकयां बंध जातीं। वकील साहब के सदिगुणों की चचा करके ही वह अपनी आत्मा को शांित देती थी। जब तक

जीवन के द्वार पर एक रक्षक बैठा हुआ था, उसे कुत्तिों या िबल्ली या चोर-चकार की िचता न थी, लेिकन अब द्वार

पर कोई रक्षक न था, इसिलए वह सजग रहती थी,पित का गुणगान िकया करती। जीवन का िनवाह कैसे होगा,

नौकरों-चाकरों में िकन-िकन को जवाब देना होगा, घर का कौन-कौनसा ख़चर्च कम करना होगा, इन प्रश्नों के

िवषय में दिोनों में कोई बात न होती। मानो यह िचता म!त आत्मा के प्रित अभिक्त होगी। भोजन करना, साफ

वस्त्र पहनना और मन को कुछ पढ़कर बहलाना भी उसे अनुिचत जान पड़ता था। श्राद्धि के िदिन उसने अपने सारे

वस्त्र और आभूषण महापात्र को दिान कर िदिए। इन्हें लेकर अब वह क्या करेगी? इनका व्यवहार करके क्या वह

अपने जीवन को कलंिकत करेगी! इसके िवरुद्धि पित की छोटी से छोटी वस्तु को भी स्मृतितिचन्ह समझिकर वह

देखती – भालती रहती थी। उसका स्वभाव इतना कोमल हो गया था िक िकतनी ही बडी हािन हो जाय, उसे

कोध न आता था। टीमल के हाथ से चाय का सेट छूटकर िफर पडा, पर रतन के माथ पर बल तक न आया। पहले

एक दिवात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी डांट बताई थी, िनकाले देती थी, पर आज उससे कई गुने

नुकसान पर उसने ज़बान तक न खोली। कठोर भाव उसके ह्रदिय में आते हुए मानो डरते थ िक कहीं आघात न

पहुंचे या शायदि पित-शोक और पित-गुणगान के िसवा और िकसी भाव या िवचार को मन में लाना वह पाप

समझिती थी। वकील साहब के भतीजे का नाम था मिणभूषणब बडा ही िमलनसार, हंसमुख, कायर्च-कुशलब इसी

एक महीने में उसने अपने सैकड़ों िमत्र बना िलए।

शहर में िजन-िजन वकीलों और रईसों से वकील साहब का पिरचय था, उन सबसे उसने ऐसा मेल-जोल

बढ़ाया, ऐसी बेतकल्लुफी पैदिा की िक रतन को ख़बर नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने नाम से शुरू कर

िदिया। इलाहाबादि बैंक में वकील साहब के बीस हज़ार रूपये जमा थ। उस पर तो उसने कब्ज़ा कर ही िलया,

मकानों के िकराए भी वसूल करने लगा। गांवों की तहसील भी खुदि ही शुरू कर दिी, मानो रतन से कोई मतलब

नहीं है। एक िदिन टीमल ने आकर रतन से कहा, ‘बहूजी, जाने वाला तो चला गया, अब घर-द्वार की भी कुछ

ख़बर लीिजए। मैंने सुना, भैयाजी ने बैंक का सब रूपया अपने नाम करा िलया।’

रतन ने उसकी ओर ऐसे कठोर कुिपत नजरों से देखा िक उसे िफर कुछ कहने की िहम्मत न पड़ी। उस िदिन

शाम को मिणभूषण ने टीमल को िनकाल िदिया, चोरी का इलज़ाम लगाकर िनकाला िजससे रतन कुछ कह भी न

सके। अब केवल महराज रह गए। उन्हें मिणभूषण ने भंग िपला-िपलाकर ऐसा िमलाया िक वह उन्हीं का दिम

भरने लग। महरी से कहते, बाबूजी का बडा रईसाना िमज़ाज है। कोई सौदिा लाओ, कभी नहीं पूछते, िकतने का

लाए। बड़ों के घर में बडे ही होते ह। बहूजी बाल की खाल िनकाला करती थीं, यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी

का मुंह पहले ही सी िदिया गया था। उसके अधेड़ यौवन ने नए मािलक की रिसकता को चंचल कर िदिया था। वह

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एक न एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मंडलाया करती। रतन को ज़रा भी ख़बर न थी, िकस तरह उसके िलए

व्यूह रचा जा रहा है।

एक िदिन मिणभूषण ने रतन से कहा, ‘काकीजी, अब तो मुझिे यहां रहना व्यथर्च मालूम होता है। मैं सोचता

हूं, अब आपको लेकर घर चला जाऊं। वहां आपकी बहू आपकी सेवा करेगी, बाल-बच्चों में आपका जी बहल

जायगा और ख़चर्च भी कम हो जाएगा। आप कहें तो यह बंगला बेच िदिया जाय। अच्छे दिाम िमल जायंग।’

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूछा भंग हो गई हो, मानो िकसी ने उसे झिंझिोड़कर जगा िदिया हो

सकपकाई हुई आंखों से उसकी ओर देखकर बोली, ‘क्या मुझिसे कुछ कह रहे हो?’

मिणभूषण—‘जी हां, कह रहा था िक अब हम लोगों का यहां रहना व्यथर्च है। आपको लेकर चला जाऊं, तो

कैसा हो?’

रतन ने उदिासीनता से कहा, ‘हां, अच्छा तो होगा।’

मिणभूषण—‘काकाजी ने कोई वसीयतनामा िलखा हो, तो लाइए देखूं, उनको इच्छाआं के आग िसर

झिुकाना हमारा धमर्च है।’

रतन ने उसी भांित आकाश पर बैठे हुए, जैसे संसार की बातों से अब उसे कोई सरोकार ही न रहा हो,

जवाब िदिया, ‘वसीयत तो नहीं िलखी, और क्या जरूरत थी?’

मिणभूषण ने िफर पूछा, ‘शायदि कहीं िलखकर रख गए हों?’

रतन—‘मुझिे तो कुछ मालूम नहीं। कभी िज़क नहीं िकया।’

मिणभूषण ने मन में प्रसन्न होकर कहा,मेरी इच्छा है िक उनकी कोई यादिगार बनवा दिी जाय।

रतन ने उत्सुकता से कहा, ‘हां-हां, मैं भी चाहती हूं।’

मिणभूषण—‘गांव की आमदिनी कोई तीन हज़ार साल की है, यह आपको मालूम है। इतना ही उनका

वािषक दिान होता था। मैंने उनके िहसाब की िकताब देखी है। दिो सौ-ढाई सौ से िकसी महीने में कम नहीं है। मेरी

सलाह है िक वह सब ज्यों-का-त्यों बना रहे।’

रतन ने प्रसन्न होकर कहा, हां, और क्या! ’

मिणभूषण—‘तो गांव की आमदिनी तो धामाथर्च पर अपर्चण कर दिी जाए। मकानों का िकराया कोई दिो सौ

रूपये महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटीसी संस्कृतत पाठशाला खोल दिी जाए।

रतन—‘बहुत अच्छा होगा।’

मिणभूषण—‘और यह बंगला बेच िदिया जाए। इस रूपये को बैंक में रख िदिया जाय।’

रतन—‘बहुत अच्छा होगा। मुझिे रूपये-पैसे की अब क्या जरूरत है।’

मिणभूषण—‘आपकी सेवा के िलए तो हम सब हािज़र ह। मोटर भी अलग कर दिी जाय। अभी से यह िफक

की जाएगी, तब जाकर कहीं दिो-तीन महीने में फुरसत िमलेगी।’

रतन ने लापरवाही से कहा, ‘अभी जल्दिी क्या है। कुछ रूपये बैंक में तो ह।’

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मिणभूषण—‘बैंक में कुछ रूपये थ, मगर महीने-भर से ख़चर्च भी तो होरहे ह। हज़ार-पांच सौ पड़े होंग।

यहां तो रूपये जैसे हवा में उड़ जाते ह। मुझिसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जाय। मोटर को तो जल्दि

ही िनकाल देना चािहए।’

रतन ने इसके जवाब में भी यही कह िदिया, ‘अच्छा तो होगा।’

वह उस मानिसक दुर्बर्चलता की दिशा में थी, जब मनुष्य को छोट-छोट काम भी असूझि मालूम होने लगते ह।

मिणभूषण की कायर्च-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर िदिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी-सी भी

सहानुभूित िदिखा देता, उसी को वह अपना शुभिचतक समझिने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को

इतना कोमल और नमर्च बना िदिया था िक उस पर िकसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मिलनता और

िभकैता मानो भस्म हो गई थी, वह सभी को अपना समझिती थी। उसे िकसी पर संदेह न था, िकसी से शंका न

थी। कदिािचत उसके सामने कोई चोर भी उसकी संपित्ति का अपहरण करता तो वह शोर न मचाती।

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बत्तीस

षोडशी के बादि से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर िदिया था। केवल एक बार घंट-दिो घंट के

िलए चली जाया करती थी। इधर कई िदिनों से मुंशी दियानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे

जाती। मुंशीजी को ज़रा भी ज्वर आता, तो वह बक-झिक करने लगते थ। कभी गाते, कभी रोते, कभी यमदूतों को

अपने सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता िक सारा घर मेरे पास बैठा रहे, संबंिधयों को भी बुला िलया जाय,

िजसमें वह सबसे अंितम भेंट कर लें। क्योंिक इस बीमारी से बचने की उन्हें आशा न थी। यमराज स्वयं उनके

सामने िवमान िलये खड़े थ। जागयेश्वरी और सब कुछ कर सकती थी, उनकी बक-झिक न सुन सकती थी। ज्योंही

वह रोने लगते, वह कमरे से िनकल जाती। उसे भूत-बाधा का भ्रम होता था। मुंशीजी के कमरे में कई समाचारपत्रों के गाइल थ। यही उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहां बैठे-बैठे घबडाने लगता, तो इन गाइलों को

उलटपलटकर देखने लगती। एक िदिन उसने एक पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, िजसे हल कर देने के

िलए िकसी सज्जन ने पुरस्कार भी रक्खा था। उसे ख़याल आया िक िजस ताक पर रमानाथ की िबसात और मुहरे

रक्खे हुए ह उस पर एक िकताब में कई नक्श भी िदिए हुए ह। वह तुरंत दिौड़ी हुई ऊपर गई और वह कापी उठा

लाईब यह नक्शा उस कापी में मौजूदि था, और नक्शा ही न था, उसका हल भी िदिया हुआ था। जालपा के मन में

सहसा यह िवचार चमक पडा, इस नक्श को िकसी पत्र में छपा दूं तो कैसा हो! शायदि उनकी िनगाह पड़ जाय।

यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है िक आसानी से हल हो जाय। इस नगर में जब कोई उनका सानी नहीं है, तो

ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती, जो यह नक्शा हल कर सकेंब कुछ भी हो, जब उन्होंने यह नक्शा हल

िकया है, तो इसे देखते ही िफर हल कर लेंग। जो लोग पहली बार देखेंग, उन्हें दिो-एक िदिन सोचने में लग जायंग।

मैं िलख दूंगी िक जो सबसे पहले हल कर ले, उसी को पुरस्कार िदिया जाय। जुआ तो है ही। उन्हें रूपये न भी

िमलें, तो भी इतना तो संभव है ही िक हल करने वालों में उनका नाम भी हो कुछ पता लग जायगा। कुछ भी न

हो, तो रूपये ही तो जायंग। दिस रूपये का पुरस्कार रख दूं। पुरस्कार कम होगा, तो कोई बडा िखलाड़ी इधर

ध्यान न देगा। यह बात भी रमा के िहत की ही होगी। इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न िमल सकी। रतन

िदिनभर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गई, तो उससे न रहा गया।

आज वह पित-शोक के बादि पहली बार घर से िनकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा

नगर शोक मना रहा है। उसे तेज़ मोटर चलाने की धुन थी, पर आज वह तांग से भी कम जा रही थी। एक वृतद्धिा

को सडक के िकनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक िदिया और उसे चार आने दे िदिए। कुछ आग और बढ़ी, तो दिो

कांस्टबल एक कैदिी को िलये जा रहे थ। उसने मोटर रोककर एक कांस्टबल को बुलाया और उसे एक रूपया देकर

कहा, इस कैदिी को िमठाई िखला देना। कांस्टबल ने सलाम करके रूपया ले िलया। िदिल में खुश हुआ, आज िकसी

भाग्यवान का मुंह देखकर उठा था।

जालपा ने उसे देखते ही कहा, ‘क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी। दिादिाजी को कई िदिन से ज्वर आ

रहा है।’

रतन ने तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर कदिम उठाया और पूछा, ‘यहीं ह न? तुमने मुझिसे न कहा।’

मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ उतरा हुआ था। रतन को देखते ही बोले, ‘बडा दुर्ःख हुआ देवीजी, मगर

यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाव लगा हुआ है। अब मैं भी चला।

नहीं बच सकता बडी प्यास है, जैसे छाती में कोई भटठी जल रही हो फुंका जाता हूं। कोई अपना नहीं होता।

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बाईजी, संसार के नाते सब स्वाथर्च के नाते ह। आदिमी अकेला हाथ पसारे एक िदिन चला जाता है। हाय-हाय!

लड़का था वह भी हाथ से िनकल गया! न जाने कहां गया। आज होता, तो एक पानी देने वाला तो होता। यह दिो

लौंडे ह, इन्हें कोई िफक ही नहीं, मैं मर जाऊं या जी जाऊं। इन्हें तीन वक्त खाने को चािहए, तीन दिट्ठ पानी पीने

को, बस और िकसी काम के नहीं। यहां बैठते दिोनों का दिम घुटता है। क्या करूं। अबकी न बचूंगा।’

रतन ने तस्कीन दिी, ‘यह मलेिरया है, दिो-चार िदिन में आप अच्छे हो जायंग। घबडाने की कोई बात नहीं।’

मुंशीजी ने दिीन नजरों से देखकर कहा, ‘बैठ जाइए बहूजी, आप कहती ह, आपका आशीवादि है, तो शायदि

बच जाऊं, लेिकन मुझिे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूं। अब उनके घर

मेहमानी खाऊंगा। अब कहां जाते ह बचकर बचा! ऐसा-ऐसा रगदूं, िक वह भी यादि कर। लोग कहते ह, वहां भी

आत्माएं इसी तरह रहती ह। इसी तरह वहां भी कचहिरयां ह, हािकम ह, राजा ह, रंक ह। व्याख्यान होते ह,

समाचार-पत्र छपते ह। िफर क्या िचता है। वहां भी अहलमदि हो जाऊंगा। मज़े से अख़बार पढ़ा करूंगा।’

रतन को ऐसी हंसी छूटी िक वहां खड़ी न रह सकी। मुंशीजी िवनोदि के भाव से वे बातें नहीं कर रहे थ।

उनके चेहरे पर गंभीर िवचार की रेखा थी। आज डेढ़-दिो महीने के बादि रतन हंसी, और इस असामियक हंसी को

िछपाने के िलए कमरे से िनकल आई। उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गई। रतन ने अपराधी नजरों से उसकी

ओर देखकर कहा, ‘दिादिाजी ने मन में क्या समझिा होगा। सोचते होंग, मैं तो जान से मर रहा हूं और इसे हंसी

सूझिती है। अब वहां न जाऊंगी, नहीं ऐसी ही कोई बात िफर कहेंग, तो मैं िबना हंसे न रह सकूंगी। देखो तो आज

िकतनी बे-मौका हंसी आई है। वह अपने मन को इस उच्छृतंखलता के िलए िधक्कारने लगी। जालपा ने

उसके मन का भाव ताड़कर कहा,मुझिे भी अक्सर इनकी बातों पर हंसी आ जाती है, बहन! इस वक्त तो

इनका ज्वर कुछ हल्का है। जब ज़ोर का ज्वर होता है तब तो यह और भी ऊल-जलूल बकने लगते ह। उस वक्त

हंसी रोकनी मुिश्कल हो जाती है। आज सबेरे कहने लग,मेरा पेट भक हो गया,मेरा पेट भक हो गया। इसकी रट

लगा दिी। इसका आशय क्या था, न मैं समझि सकी,

न अम्मां समझि सकीं, पर वह बराबर यही रट जाते थ,पेट भक हो गया! पेट भक हो गया! आओ कमरे में

चलें।‘

रतन—‘मेरे साथ न चलोगी?’

जालपा—‘आज तो न चल सयंगी, बहन।‘

‘कल आओगी?’

‘कह नहीं सकती। दिादिा का जी कुछ हल्का रहा, तो आऊंगी।’

‘नहीं भाई, जरूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।’

‘क्या सलाह है?’

‘मन्नी कहते ह, यहां अब रहकर क्या करना है, घर चलो। बंगले को बेच देने को कहते ह।’

जालपा ने एकाएक िठठककर उसका हाथ पकड़ िलया और बोली, ‘यह तो तुमने बुरी ख़बर सुनाई, बहन!

मुझिे इस दिशा में तुम छोड़कर चली जाओगी? मैं न जाने दूंगी! मन्नी से कह दिो, बंगला बेच दें, मगर जब तक

उनका कुछ पता न चल जायगा। मैं तुम्हें न छोडूंगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं, मुझिे एक-एक पल पहाड़ हो

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गया। मैं न जानती थी िक मुझिे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायदि मैं मर ही जाऊं। नहीं बहन, तुम्हारे

पैरों पड़ती हूं, अभी जाने

का नाम न लेना।‘

रतन की भी आंखें भर आई। बोली, ‘मुझिसे भी वहां न रहा जायगा, सच कहती हूं। मैं तो कह दूंगी, मुझिे

नहीं जाना है।‘ जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ डालकर बोली,

‘कसम खाओ िक मुझिे छोड़कर न जाओगी।‘

रतन ने उसे अंकवार में लेकर कहा, ‘लो, कसम खाती हूं, न जाऊंगी। चाहे इधर की दुर्िनया उधार हो जाय।

मेरे िलए वहां क्या रक्खा है। बंगला भी क्यों बेचूं, दिो-ढाई सौ मकानों का िकराया है। हम दिोनों के गुज़र के िलए

काफी है। मैं आज ही मन्नी से कह दूंगी,मैं न जाऊंगी।‘

सहसा फशर्च पर शतरंज के मुहरे और नक्श देखकर उसने पूछा,यह शतरंज िकसके साथ खेल रही थीं?

जालपा ने शतरंज के नक्श पर अपने भाग्य का पांसा फेंकने की जो बात सोची थी, वह सब उससे कह

सुनाई,मन में डर रही थी िक यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यथर्च न समझिे, पागलपन न ख़याल करे, लेिकन रतन सुनते

ही बाग़-बाग़ हो गई। बोली,दिस रूपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रूपये कर दिो। रूपये मैं देती हूं।

जालपा ने शंका की, ‘लेिकन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाज़ों ने मैदिान में कदिम रक्खा

तो?’

रतन ने दिृतढ़ता से कहा,कोई हरज नहीं। बाबूजी की िनगाह पड़ गई, तो वह इसे जरूर हल कर लेंग और

मुझिे आशा है िक सबसे पहले उन्हीं का नाम आवेगा। कुछ न होगा, तो पता तो लग ही जायगा। अख़बार के दिफ्तर

में तो उनका पता आ ही जायगा। तुमने बहुत अच्छा उपाय सोच िनकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा

फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूं। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्तिा चली थी, उस वक्त मेरा मन

कह रहा था, यहां

जाना अच्छा न होगा।‘

जालपा—‘तो तुम्हें आशा है?‘

‘पूरी! मैं कल सबेरे रूपये लेकर आऊंगी।’

‘तो मैं आज ख़त िलख रक्खूंगी। िकसके पास भेजूं? वहां का कोई प्रिसद्धि पत्र होना चािहए।’

‘वहां तो ‘प्रजा-िमत्र’ की बडी चचा थी। पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पढ़ते नज़र आते थ। ‘

‘तो ‘प्रजा-िमत्र’ ही को िलखूंगी, लेिकन रूपये हड़प कर जाय और नक्शा न छापे तो क्या हो?’

‘होगा क्या, पचास रूपये ही तो ले जाएगा। दिमड़ी की हंिडया खोकर कुत्तिों की जात तो पहचान ली

जायगी, लेिकन ऐसा हो नहीं सकता जो लोग देशिहत के िलए जेल जाते ह, तरह-तरह की धौंस सहते ह, वे इतने

नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आधा घंट के िलए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रूपये दे दूं।’

जालपा ने नीमराजी होकर कहा, ‘इस वक्त क़हां चलूं। कल ही आऊंगी।’

उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे, ‘बहू! बहू!’

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जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन बाहर जा रही थी िक जागश्वरी पंखा िलये अपने

को झिलती हुई िदिखाई पड़ गई। रतन ने पूछा, ‘तुम्हें गमी लग रही है अम्मांजी? मैं तो ठंड के मारे कांप रही हूं।

अरे! तुम्हारे पांवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?’

जागश्वरी ने लिज्जत होकर कहा, ‘हां, वैद्यप जी ने इन्हें हाथ के आट की रोटी खाने को कहा है। बाज़ार में

हाथ का आटा कहां मयस्सर- मुहल्ले में कोई िपसनहारी नहीं िमलती। मजूिरनें तक चक्की से आटा िपसवा लेती

ह। मैं तो एक आना सेर देने को राज़ी हूं, पर कोई िमलती ही नहीं।’

रतन ने अचंभे से कहा, ‘तुमसे चक्की चल जाती है?’

जागश्वरी ने झिंप से मुस्कराकर कहा,’कौन बहुत था। पाव-भर तो दिो िदिन के िलए हो जाता है। खाते नहीं

एक कौर भी, बहू पीसने जा रही थी, लेिकन िफर मुझिे उनके पास बैठना पड़ता। मुझिे रात-भर चक्की पीसना गौं

है, उनके पास घड़ी-भर बैठना गौं नहीं।

रतन जाकर जांत के पास एक िमनट खड़ी रही, िफर मुस्कराकर माची पर बैठ गई और बोली, ‘तुमसे तो

अब जांत न चलता होगा, मांजी! लाओ थोडासा गहूं मुझिे दिो, देखूं तो।’

जागश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा, ‘अरे नहीं बहू, तुम क्या पीसोगी!चलो यहां से।’

रतन ने प्रमाण िदिया, ‘मैंने बहुत िदिनों तक पीसा है, मांजीब जब मैं अपने घर थी, तो रोज़ पीसती थी।

मेरी अम्मां, लाओ थोडा-सा गहूं।’

‘हाथ दुर्खने लगगा। छाले पड़ जाएंग।’

‘कुछ नहीं होगा मांजी, आप गहूं तो लाइए।’

जागश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोिशश करके कहा, ‘गहूं घर में नहीं ह। अब इस वक्त बाज़ार

से कौन लावे।’

‘अच्छा चिलए, मैं भंडारे में देखूं। गहूं होगा कैसे नहीं।’

रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अंदिर चली गई और हांिडयों में

टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांडी में गहूं िनकल आए। बडी खुश हुई। बोली,देखो मांजी, िनकले िक नहीं,

तुम मुझिसे बहाना कर रही थीं। उसने एक टोकरी में थोडा-सा गहूं िनकाल िलया और खुश-खुश चक्की पर जाकर

पीसने लगी। जागश्वरी ने जाकर जालपा से कहा, ‘बहू, वह जांत पर बैठी गहूं पीस रही ह। उठाती हूं, उठतीं ही

नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।

जालपा ने मुंशीजी के कमरे से िनकलकर सास की घबराहट का आनंदि उठाने के िलए कहा, ‘यह तुमने क्या

ग़ज़ब िकया, अम्मांजी! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाय! चिलए, ज़रा देखूं।’

जागश्वरी ने िववशता से कहा, ‘क्या करूं, मैं तो समझिा के हार गई, मानतीं ही नहीं।’

जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गहूं पीसने में मग्न थी। िवनोदि के स्वाभािवक आनंदि से उसका चेहरा

िखला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथ पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बिलष्ठ हाथों में जांत लट्टू के

समान नाच रहा था।

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जालपा ने हंसकर कहा, ‘ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न िमलेंग।’

रतन को सुनाई न िदिया। बहरों की भांित अिनिश्चत भाव से मुस्कराई।

जालपा ने और ज़ोर से कहा, ‘आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी।’ रतन ने भी हंसकर कहा,

िजतना महीन किहए उतना महीन पीस दूं, बहूजी। िपसाई अच्छी िमलनी चािहए।

जालपा—‘मोले सेर।’

रतन—‘मोले सेर सही।’

जालपा—‘मुंह धो आओ। धोले सेर िमलेंग।’

रतन—‘मैं यह सब पीसकर उठूंगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?’

जालपा—‘आ जाऊं, मैं भी िखचा दूं।‘

रतन—‘जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं!’

जालपा—‘अकेले कैसे गाओगी! (जागश्वरी से) अम्मां आप ज़रा दिादिाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती

हूं।’

जालपा भी जांत पर जा बैठी और दिोनों जांत का यह गीत गाने लगीं।

‘मोिह जोिगन बनाके कहां गए रे जोिगया।’

दिोनों के स्वर मधुर थ। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज़ का काम कर रही थी। जब दिोनों

एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जांत का स्वर माना कंठ-ध्विन से रंिजत होकर और भी मनोहर हो जाता था।

दिोनों के ह्रदिय इस समय जीवन के स्वाभािवक आनंदि से पूणर्च थ? न शोक का भार था, न िवयोग का दुर्ःख। जैसे

दिो िचिडयां प्रभात की अपूवर्च शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

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तैंतीस

रमानाथ की चाय की दूकान खुल तो गई, पर केवल रात को खुलती थी। िदिन-भर बंदि रहती थी। रात को

भी अिधकतर देवीदिीन ही दुर्कान पर बैठता, पर िबकी अच्छी हो जाती थी। पहले ही िदिन तीन रूपये के पैसे

आए, दूसरे िदिन से चारपांच रूपये का औसत पड़ने लगा। चाय इतनी स्वािदिष्ट होती थी िक जो एक बार यहां

चाय पी लेता िफर दूसरी दूकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामग्री जमा कर दिी। कुछ रूपये

जमा हो गए, तो उसने एक सुंदिर मेज़ ली। िचराग़ जलने के बादि साफ-भाजी की िबकी ज्यादिा न होती थी। वह

उन टोकरों को उठाकर अंदिर रख देता और बरामदे में वह मेज़ लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दिो

दिैिनक-पत्र भी मंगाने लगा। दुर्कान चल िनकली। उन्हीं तीन-चार घंटों में छः-सात रूपये आ जाते थ और सब

ख़चर्च िनकालकर तीनचार रूपये बच रहते थ।

इन चार महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचंड कर िदिया था। जब तक हाथ में

रूपये न थ, वह मजबूर था। रूपये आते ही सैरसपाट की धुन सवार हो गई। िसनेमा की यादि भी आई। रोज़ के

व्यवहार की मामूली चीजें, िज़न्हें अब तक वह टालता आया था, अब अबाधा रूप से आने लगीं। देवीदिीन के िलए

वह एक सुंदिर रेशमी चादिर लाया। जग्गो के िसर में पीडा होती रहती थी। एक िदिन सुगंिधत तेल की शीिशयां

लाकर उसे दे दिीं। दिोनों िनहाल हो गए। अब बुिढया कभी अपने िसर पर बोझि लाती तो डांटता, ‘काकी, अब तो

मैं भी चार पैसे कमाने लगा हूं, अब तू क्यों जान देती है? अगर िफर कभी तेरे िसर पर टोकरी देखी तो कहे देता

हूं, दूकान उठाकर फेंक दूंगा। िफर मुझिे जो सज़ा चाहे दे देना। बुिढया बेट की डांट सुनकर गदिगदि हो जाती। मंडी

से बोझि लाती तो पहले चुपके से देखती, रमा दुर्कान पर नहीं है। अगर वह बैठा होता तो िकसी द्दली को एक-दिो

पैसा देकर उसके िसर पर रख देती। वह न होता तो लपकी हुई आती और जल्दिी से बोझि उतारकर शांत बैठ

जाती, िजससे रमा भांप न सके।

एक िदिन ‘मनोरमा िथयेटर’ में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बडी धूम थी।

एक िदिन पहले से ही लोग अपनी जगहें रिक्षत करा रहे थ। रमा को भी अपनी जगह रिक्षत करा लेने की धुन

सवार हुई। सोचा, कहीं रात को िटकट न िमला तो टापते रह जायंग। तमाश की बडी तारीफ है। उस वक्त एक के

दिो देने पर भी जगह न िमलेगी। इसी उत्सुकता ने पुिलस के भय को भी पीछे डाल िदिया। ऐसी आफत नहीं आई

है िक घर से िनकलते ही पुिलस पकड़ लेगी। िदिन को न सही, रात को तो िनकलता ही हूं। पुिलस चाहती तो क्या

रात को न पकड़ लेती। िफर मेरा वह हुिलया भी नहीं रहा। पगड़ी चेहरा बदिल देने के िलए काफी है। यों मन को

समझिाकर वह दिस बजे घर से िनकला। देवीदिीन कहीं गया हुआ था। बुिढया ने पूछा,कहां जाते हो, बेटा- रमा ने

कहा, ‘कहीं नहीं काकी, अभी आता हूं।’

रमा सड़क पर आया, तो उसका साहस िहम की भांित िपघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका होती थी, कोई

कांस्टबल न आ रहा हो उसे िवश्वास था िक पुिलस का एक-एक चौकीदिार भी उसका हुिलया पहचानता है और

उसके चेहरे पर िनगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसिलए वह नीचे िसर झिुकाए चल रहा था। सहसा उसे ख़याल

आया, गुप्त पुिलस वाले सादे कपड़े पहने इधर-उधर घूमा करते ह। कौन जाने, जो आदिमी मेरे बग़ल में आ रहा

है, कोई जासूस ही हो मेरी ओर ध्यान से देख रहा है। यों िसर झिुकाकर चलने से ही तो नहीं उसे संदेह हो रहा है।

यहां और सभी सामने ताक रहे ह। कोई यों िसर झिुकाकर नहीं चल रहा है। मोटरों की इस रेल-पेल में िसर

झिुकाकर चलना मौत को नेवता देना है। पाकर्क में कोई इस तरह चहलकदिमी करे, तो कर सकता है। यहां तो सामने

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देखना चािहए। लेिकन बग़लवाला आदिमी अभी तक मेरी ही तरफ ताक रहा है। है शायदि कोई खुिफया ही।

उसका साथ छोड़ने के िलए वह एक तंबोली की दूकान पर पान खाने लगा। वह आदिमी आग िनकल गया। रमा ने

आराम की लंबी सांस ली।

अब उसने िसर उठा िलया और िदिल मज़बूत करके चलने लगा। इस वक्त ट्राम का भी कहीं पता न था,

नहीं उसी पर बैठ लेता। थोड़ी ही दूर चला होगा िक तीन कांस्टबल आते िदिखाई िदिए। रमा ने सड़क छोड़ दिी

और पटरी पर चलने लगा। ख्वामख्वाह सांप के िबल में उंगली डालना कौनसी बहादुर्री है। दुर्भाग्य की बात,

तीनों कांस्टबलों ने भी सड़क छोड़कर वही पटरी ले ली। मोटरों के आने-जाने से बार-बार इधर-उधर दिौड़ना

पड़ता था। रमा का कलेजा धक- धक करने लगा। दूसरी पटरी पर जाना तो संदेह को और भी बढ़ा देगा। कोई

ऐसी गली भी नहीं िजसमें घुस जाऊं। अब तो सब बहुत समीप आ गए। क्या बात है, सब मेरी ही तरफ देख रहे

ह। मैंने बडी िहमाकत की िक यह पग्गड़ बांध िलया और बंधी भी िकतनी बेतुकी। एक टीले-सा ऊपर उठ गया है।

यह पगड़ी आज मुझिे पकडावेगी। बांधी थी िक इससे सूरत बदिल जाएगी। यह उल्ट और तमाशा बन गई। हां,

तीनों मेरी ही ओर ताक रहे ह। आपस में कुछ बातें भी कर रहे ह। रमा को ऐसा जान पडा, पैरों में शिक्त नहीं है।

ब शायदि सब मन में मेरा हुिलया िमला रहे ह। अब नहीं बच सकता घर वालों को मेरे पकड़े जाने की ख़बर

िमलेगी, तो िकतने लिज्जत होंग। जालपा तो रो-रोकर प्राण ही दे देगी। पांच साल से कम सज़ा न होगी। आज

इस जीवन का अंत हो रहा है। इस कल्पना ने उसके ऊपर कुछ ऐसा आतंक जमाया िक उसके औसान जाते रहे।

जब िसपािहयों का दिल समीप आ गया, तो उसका चेहरा भय से कुछ ऐसा िवकृतत हो गया, उसकी आंखें कुछ ऐसी

सशंक हो गई और अपने को उनकी आंखों से बचाने के िलए वह कुछ इस तरह दूसरे आदििमयों की आड़ खोजने

लगा िक मामूली आदिमी को भी उस पर संदेह होना स्वाभािवक था, िफर पुिलस वालों की मंजी हुई आंखें क्यों

चूकतीं। एक ने अपने साथी से कहा, ‘यो मनई चोर न होय, तो तुमरी टांगन ते िनकर जाईब कस चोरन की नाई

ताकत है।’ दूसरा बोला, ‘कुछ संदेह तो हमऊ का हुय रहा है। फुरै कह पांडे, असली चोर है।‘

तीसरा आदिमी मुसलमान था, उसने रमानाथ को ललकारा, ‘ओ जी ओ पगड़ी, ज़रा इधर आना, तुम्हारा

क्या नाम है?’

रमानाथ ने सीनाजोरी के भाव से कहा,’हमारा नाम पूछकर क्या करोग? मैं क्या चोर हूं?’

‘चोर नहीं, तुम साह हो, नाम क्यों नहीं बताते?’

रमा ने एक क्षण आगा-पीछा में पड़कर कहा, ‘हीरालाल।’

‘घर कहां है?’

‘घर!’

‘हां, घर ही पूछते ह।’

‘शाहजहांपुर।’

‘कौन मुहल्ला-’

रमा शाहजहांपुर न गया था, न कोई किल्पत नाम ही उसे यादि आया िक बता दे। दुर्स्साहस के साथ बोला,

‘तुम तो मेरा हुिलया िलख रहे हो!’

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कांस्टबल ने भभकी दिी, ’तुम्हारा हुिलया पहले से ही िलखा हुआ है! नाम झिूठ बताया, सयनत झिूठ बताई,

मुहल्ला पूछा तो बगलें झिांकने लग। महीनों से तुम्हारी तलाश हो रही है, आज जाकर िमले हो चलो थाने पर।’

यह कहते हुए उसने रमानाथ का हाथ पकड़ िलया। रमा ने हाथ छुडाने की चेष्टा करके कहा, ‘वारंट लाओ तब हम

चलेंग। क्या मुझिे कोई देहाती समझि िलया है?’

कांस्टबल ने एक िसपाही से कहा, ‘पकड़ लो जी इनका हाथ, वहीं थाने पर वारंट िदिखाया जाएगा।’

शहरों में ऐसी घटनाएं मदिािरयों के तमाशों से भी ज्यादिा मनोरंजक होती ह। सैकड़ों आदिमी जमा हो गए।

देवीदिीन इसी समय अफीम लेकर लौटा आ रहा था, यह जमाव देखकर वह भी आ गया। देखा िक तीन कांस्टबल

रमानाथ को घसीट िलये जा रहे ह। आग बढ़कर बोला, ‘ह?ह, जमादिार! यह क्या करते हो? यह पंिडतजी तो

हमारे िमहमान ह, कहां पकड़े िलये जाते हो? ‘

तीनों कांस्टबल देवीदिीन से पिरिचत थ। रूक गए। एक ने कहा, ‘तुम्हारे िमहमान ह यह, कब से? ‘

देवीदिीन ने मन में िहसाब लगाकर कहा, ‘चार महीने से कुछ बेशी हुए होंग। मुझिे प्रयाग में िमल गए थ।

रहने वाले भी वहीं के ह। मेरे साथ ही तो आए थ।‘

मुसलमान िसपाही ने मन में प्रसन्न होकर कहा, ‘इनका नाम क्या है?‘

देवीदिीन ने िसटिपटाकर कहा, ‘नाम इन्होंने बताया न होगा? ‘

िसपािहयों का संदेह दिृतढ़ हो गया। पांडे ने आंखें िनकालकर कहा, ‘जान परत है तुमहू िमले हौ, नांव काहे

नाहीं बतावत हो इनका? ‘

देवीदिीन ने आधारहीन साहस के भाव से कहा, ? ‘मुझिसे रोब न जमाना पांडे, समझिे! यहां धमिकयों में

नहीं आने के।‘

मुसलमान िसपाही ने मानो मध्यस्थ बनकर कहा, ‘बूढ़े बाबा, तुम तो ख्वामख्वाह िबगड़ रहे हो इनका नाम

क्यों नहीं बतला देते?’

देवीदिीन ने कातर नजरों से रमा की ओर देखकर कहा, ‘हम लोग तो रमानाथ कहते ह। असली नाम यही है

या कुछ और, यह हम नहीं जानते। ‘

पांडे ने आंखें िनकालकर हथली को सामने करके कहा, ‘बोलो पंिडतजी, क्या नाम है तुम्हारा? रमानाथ

या हीरालाल? या दिोनों,एक घर का एक ससुराल का? ‘

तीसरे िसपाही ने दिशर्चकों को संबोिधत करके कहा, ‘नांव है रमानाथ, बतावत है हीरालाल? सबूत हुय

गवा।‘ दिशर्चकों में कानाफसी होने लगी। शुबहे की बात तो है।

‘साफ है, नाम और पता दिोनों ग़लत बता िदिया।’

एक मारवाड़ी सज्जन बोले, ‘उचक्को सो है।‘

एक मौलवी साहब ने कहा, ‘कोई इिश्तहारी मुलिज़म है।’

जनता को अपने साथ देखकर िसपािहयों को और भी ज़ोर हो गया। रमा को भी अब उनके साथ चुपचाप

चले जाने ही में अपनी कुशल िदिखाई दिी। इस तरह िसर झिुका िलया, मानो उसे इसकी िबलकुल परवा नहीं है िक

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उस पर लाठी पड़ती है या तलवार। इतना अपमािनत वह कभी न हुआ था। जेल की कठोरतम यातना भी इतनी

ग्लािन न उत्पन्न करती। थोड़ी देर में पुिलस स्टशन िदिखाई िदिया। दिशर्चकों की भीड़ बहुत कम हो गई थी। रमा ने

एक बार उनकी ओर लिज्जत आशा के भाव से ताका, देवीदिीन का पता न था। रमा के मुंह से एक लंबी सांस

िनकल गई। इस िवपित्ति में क्या यह सहारा भी हाथ से िनकल गया?

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चौंतीस

पुिलस स्टशन के दिफ्तर में इस समय बडी मेज़ के सामने चार आदिमी बैठे हुए थ। एक दिारोग़ा थ, गोरे से,

शौकीन, िजनकी बडी-बडी आंखों में कोमलता की झिलक थी। उनकी बग़ल में नायब दिारोग़ा थ। यह िसक्ख थ,

बहुत हंसमुख, सजीवता के पुतले, गहुंआं रंग, सुडौल, सुगिठत शरीरब िसर पर केश था, हाथों में कड़े पर िसगार

से परहेज न करते थ। मेज़ की दूसरी तरफ इंस्पेक्टर और िडप्टी सुपिरटंडंट बैठे हुए थ। इंस्पेक्टर अधेड़, सांवला,

लंबा आदिमी था, कौड़ी की-सी आंखें, फले हुए गाल और िठगना कदिब िडप्टी सुपिरटंडंट लंबा छरहरा जवान था,

बहुत ही िवचारशील और अल्पभाषीब इसकी लंबी नाक और ऊंचा मस्तक उसकी कुलीनता के साक्षी थ।

िडप्टी ने िसगार का एक कश लेकर कहा, ‘बाहरी गवाहों से काम नहीं चल सकेगा। इनमें से िकसी को

एप्रूवर बनना होगा। और कोई अल्टरनेिटव नहीं है।’

इंस्पेक्टर ने दिारोग़ा की ओर देखकर कहा, ‘हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रक्खी, हलफ से कहता हूं।

सभी तरह के लालच देकर हार गए। सबों ने ऐसी गुट कर रक्खी है िक कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के

गवाहों को भी आजमाया, पर सब कानों पर हाथ रखते ह।’

िडप्टी, ‘उस मारवाड़ी को िफर आजमाना होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायदि इसका कुछ

दिबाव पड़े।’

इंस्पेक्टर—‘हलफ से कहता हूं, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे ह। बेचारा बाप लङके के पैरों पर

िगरा, पर लड़का िकसी तरह राज़ी नहीं होता।’

कुछ देर तक चारों आदिमी िवचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में िडप्टी ने िनराशा के भाव से कहा,मुकदिमा नहीं

चल सकता मुफ्त का बदिनामी हुआ। इंस्पेक्टर,एक हिते की मुहलत और लीिजए, शायदि कोई टूट जाय। यह

िनश्चय करके दिोनों आदिमी यहां से रवाना हुए। छोट दिारोग़ा भी उसके साथ ही चले गए। दिारोग़ाजी ने हुक्का

मंगवाया िक सहसा एक मुसलमान िसपाही

ने आकर कहा, ‘दिारोग़ाजी, लाइए कुछ इनाम िदिलवाइए। एक मुलिजम को शुबहे पर िगरफ्तार िकया है।

इलाहाबादि का रहने वाला है, नाम है रमानाथ, पहले नाम और सयनत दिोनों ग़लत बतलाई थीं। देवीदिीन खिटक

जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर ठहरा हुआ है। ज़रा डांट बताइएगा तो सब कुछ उगल देगा।’

दिारोग़ा—‘वही है न िजसके दिोनों लङके---ब’

िसपाही—‘जी हां, वही है।’

इतने में रमानाथ भी दिारोग़ा के सामने हािज़र िकया गया। दिारोग़ा ने उसे िसर से पांव तक देखा, मानो

मन में उसका हुिलया िमला रहे हों। तब कठोर दिृतिष्ट से देखकर बोले, ‘अच्छा, यह इलाहाबादि का रमानाथ है।

खूब िमले भाई। छः महीने से परेशान कर रहे हो कैसा साफ हुिलया है िक अंधा भी पहचान ले। यहां कब से आए

हो?’ कांस्टबल ने रमा को परामशर्च िदिया, ‘सब हाल सच-सच कह दिो, तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की

जाएगी।’

रमा ने प्रसन्निचत्ति बनने की चेष्टा करके कहा, ‘अब तो आपके हाथ में हूं, िरयायत कीिजए या सख्ती

कीिजए। इलाहाबादि की म्युिनिसपैिलटी में नौकर था। िहमाकत किहए या बदिनसीबी, चुंगी के चार सौ रूपये

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मुझिसे ख़चर्च हो गए। मैं वक्त पर रूपये जमा न कर सका। शमर्च के मारे घर के आदििमयों से कुछ न कहा, नहीं तो

इतने रूपये इंतजाम हो जाना कोई मुिश्कल न था। जब कुछ बस न चला, तो वहां से भागकर यहां चला आया।

इसमें एक हफर्क भी ग़लत नहीं है।’

दिारोग़ा ने गंभीर भाव से कहा, ‘मामला कुछ संगीन है,क्या कुछ शराब का चस्का पड़ गया

था? ’

‘मुझिसे कसम ले लीिजए, जो कभी शराब मुंह से लगाई हो।’

कांस्टबल ने िवनोदि करके कहा,मुहब्बत के बाज़ार में लुट गए होंग, हुजूर।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘मुझिसे फाकेमस्तों का वहां कहां गुजर?’

दिारोग़ा –‘तो क्या जुआ खेल डाला? या, बीवी के िलए जेवर बनवा डाले!’

रमा झिंपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी।

दिारोग़ा—‘अच्छी बात है, तुम्हें भी यहां खासे मोट जेवर िमल जायंग!’

एकाएक बूढ़ा देवीदिीन आकर खडा हो गया। दिारोग़ा ने कठोर स्वर में कहा, ‘क्या काम है यहां?’

देवीदिीन—‘हुजूर को सलाम करने चला आया। इन बेचारों पर दिया की नज़र रहे हुजूर, बेचारे बडे सीधे

आदिमी ह।‘

दिारोग़ा –‘बचा सरकारी मुलिज़म को घर में िछपाते हो, उस पर िसफािरश करने आए हो!’

देवीदिीन—‘मैं क्या िसफािरस करूंगा हुजूर, दिो कौड़ी का आदिमी।’

दिारोग़ा—‘जानता है, इन पर वारंट है, सरकारी रूपये ग़बन कर गए ह।’

देवीदिीन—‘हुजूर, भूल-चूक आदिमी से ही तो होती है। जवानी की उम है ही, ख़चर्च हो गए होंग।

यह कहते हुए देवीदिीन ने पांच िगिन्नयां कमर से िनकालकर मेज़ पर रख दिीं।

दिारोग़ा ने तड़पकर कहा, ‘यह क्या है?’

देवीदिीन—‘कुछ नहीं है, हुजूर को पान खाने को।’

दिारोग़ा –‘िरश्वत देना चाहता है! क्यों? कहो तो बचा, इसी इल्ज़ाम में भेज दूं।’

देवीदिीन—‘भेज दिीिजए सरकार। घरवाली लकड़ी-कफन की िफकर से छूट जाएगी। वहीं बैठा आपको दुर्आ

दूंगा।‘

दिारोग़ा –‘अबे इन्हें छुडाना है तो पचास िगिन्नयां लाकर सामने रक्खो। जानते हो इनकी िगरफ्तारी पर

पांच सौ रूपये का इनाम है!’

देवीदिीन—‘आप लोगों के िलए इतना इनाम हुजूर क्या है। यह ग़रीब परदेसी आदिमी ह, जब तक िजएंग

आपको यादि करग।’

दिारोग़ा –‘बक-बक मत कर, यहां धरम कमाने नहीं आया हूं।’

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देवीदिीन—‘बहुत तंग हूं हुजूर।दुर्कानदिारी तो नाम की है।’

कांस्टबल—‘बुिढया से मांग जाके।’

देवीदिीन—‘कमाने वाला तो मैं ही हूं हुजूर, लड़कों का हाल जानते ही हो तन-पेट काटकर कुछ रूपये जमा

कर रखे थ, सो अभी सातों-धाम िकए चला आता हूं। बहुत तंग हो गया हूं।

दिारोग़ा –‘तो अपनी िगिन्नयां उठा ले। इसे बाहर िनकाल दिो जी।’

देवीदिीन—‘आपका हुकुम है, तो लीिजए जाता हूं। धक्का क्यों िदिलवाइएगा।’

दिारोग़ा –‘कांस्टबल सेध्दि इन्हें िहरासत में रखो। मुंशी से कहो इनका बयान िलख लें।’

देवीदिीन के होंठ आवेश से कांप रहे थ। उसके चेहरे पर इतनी व्यग्रता रमा ने कभी नहीं देखी, जैसे कोई

िचिडया अपने घोंसले में कौवे को घुसते देखकर िवह्नल हो गई हो वह एक िमनट तक थाने के द्वार पर खडारहा,

िफर पीछे िगरा और एक िसपाही से कुछ कहा, तब लपका हुआ सड़क पर चला गया, मगर एक ही पल में िफर

लौटा और दिारोग़ा से बोला, ‘हुजूर, दिो घंट की मुहलत न दिीिजएगा?’

रमा अभी वहीं खडाथा। उसकी यह ममता देखकर रो पड़ा। बोला, ‘दिादिा, अब तुम हैरान न हो, मेरे भाग्य

में जो कुछ िलखा है, वह होने दिो। मेरे भी यहां होते, तो इससे ज्यादिा और क्या करते! मैं मरते दिम तक तुम्हारा

उपकार ---’

देवीदिीन ने आंखें पोंछते हुए कहा, ‘कैसी बातें कर रहे हो, भैया! जब रूपये पर आई तो देवीदिीन पीछे हटने

वाला आदिमी नहीं है। इतने रूपये तो एक-एक िदिन जुए में हार-जीत गया हूं। अभी घर बेच दूं, तो दिस हज़ार की

मािलयत है। क्या िसर पर लादि कर ले जाऊंगा। दिारोग़ाजी, अभी भैया को िहरासत में न भेजो, मैं रूपये की

िगकर करके थोड़ी देर में आता हूं।’

देवीदिीन चला गया तो दिारोग़ाजी ने सह्रदियता से भरे स्वर में कहा, ‘है तो खुराट, मगर बडा नेक। तुमने

इसे कौनसी बूटी सुंघा दिी?’

रमा ने कहा, ‘गरीबों पर सभी को रहम आता है।’

दिारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, ‘पुिलस को छोड़कर, इतना और किहए। मुझिे तो यकीन नहीं िक पचास

िगिन्नयां लावे।’

रमानाथ—‘अगर लाए भी तो उससे इतना बडा तावान नहीं िदिलाना चाहता। आप मुझिे शौक से िहरासत

में ले लें।’

दिारोग़ा –‘मुझिे पांच सौ के बदिले साढ़े छः सौ िमल रहे ह, क्यों छोडूं। तुम्हारी िगरफ्तारी का इनाम मेरे

िकसी दूसरे भाई को िमल जाय, तो क्या बुराई है।

रमानाथ—‘जब मुझिे चक्की पीसनी है, तो िजतनी जल्दि पीस लूं उतना ही अच्छा। मैंने समझिा था, मैं

पुिलस की नज़रों से बचकर रह सकता हूं। अब मालूम हुआ िक यह बेकली और आठों पहर पकड़ िलए जाने का

ख़ौफ जेल से कम जानलेवा नहीं।’

दिारोग़ाजी को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात यादि आ गई। मेज़ के दिराज़ से एक िमसल िनकाली, उसके

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पन्ने इधर-उधर उल्ट, तब नमता से बोले,अगर मैं कोई ऐसी तरकीब बतलाऊं िक देवीदिीन के रूपये भी बच जाएं

और तुम्हारे ऊपर भी आंच न आए तो कैसा?’

रमा ने अिवश्वास के भाव से कहा, ऐसी तरकीब कोई है, मुझिे तो आशा नहीं।’

दिारोग़ा—‘अभी साई के सौ खेल ह। इसका इंतज़ाम मैं कर सकता हूं। आपको महज़ एक मुकदिमे में शहादित

देनी पड़ेगी?’

रमानाथ—‘झिूठी शहादित होगी।’

दिारोग़ा—‘नहीं, िबलकुल सच्ची। बस समझि लो िक आदिमी बन जाओग।म्युिनिसपैिलटी के पंजे से तो छूट

जाओग, शायदि सरकार परविरश भी करे। यों अगर चालान हो गया तो पांच साल से कम की सज़ा न होगी। मान

लो, इस वक्त देवी तुम्हें बचा भी ले, तो बकरे की मां कब तक ख़ैर मनाएगी। िजदिगी ख़राब हो जायगी। तुम

अपना नफा-नुकसान खुदि समझि लो। मैं ज़बरदिस्ती नहीं करता।’

दिारोग़ाजी ने डकैती का वृतत्तिांत कह सुनाया। रमा ऐसे कई मुकदिमे समाचारपत्रों में पढ़ चुका था। संशय के

भाव से बोला, ‘तो मुझिे मुख़िबर बनना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा िक मैं भी इन डकैितयों में शरीक था। यह

तो झिूठी शहादित हुई।’

दिारोग़ा—‘मुआमला िबलकुल सच्चा है। आप बेगुनाहों को न फंसाएंग। वही लोग जेल जाएंग िजन्हें जाना

चािहए। िफर झिूठ कहां रहा- डाकुआं के डर से यहां के लोग शहादित देने पर राज़ी नहीं होते। बस और कोई बात

नहीं। यह मैं मानता हूं िक आपको कुछ झिूठ बोलना पड़ेगा, लेिकन आपकी िजदिगी बनी जा रही है, इसके िलहाज़

से तो इतना झिूठ कोई चीज़ नहीं। खूब सोच लीिजए। शाम तक जवाब दिीिजएगा।’

रमा के मन में बात बैठ गई। अगर एक बार झिूठ बोलकर वह अपने िपछले कमों का प्रायिश्चत्ति कर सके

और भिवष्य भी सुधार ले, तो पूछना ही क्या जेल से तो बच जायगा। इसमें बहुत आगा-पीछा की जरूरत ही न

थी। हां, इसका िनश्चय हो जाना चािहए िक उस पर िफर म्युिनिसपैिलटी अिभयोग न चलाएगी और उसे कोई

जगह अच्छी िमल जायगी। वह जानता था, पुिलस की ग़रज़ है और वह मेरी कोई वािजब शतर्च अस्वीकार न

करेगी। इस तरह बोला, मानो उसकी आत्मा धमर्च और अधमर्च के संकट में पड़ी हुई है, ‘मुझिे यही डर है िक कहीं

मेरी गवाही से बेगुनाह लोग न फंस जाएं।’

दिारोग़ा –‘इसका मैं आपको इत्मीनान िदिलाता हूं।’

रमानाथ—‘लेिकन कल को म्युिनिसपैिलटी मेरी गदिर्चन नापे तो मैं िकसे पुकारूंगा?’

दिारोग़ा –‘मजाल है, म्युिनिसपैिलटी चूं कर सके। गौजदिारी के मुकदिमे में मुदिदिई तो सरकार ही होगी। जब

सरकार आपको मुआफ कर देगी, तो मुकदिमा कैसे चलाएगी। आपको तहरीरी मुआफीनामा दे िदिया जायगा,

साहब।’

रमानाथ—‘और नौकरी?’

दिारोग़ा –‘वह सरकार आप इंतज़ाम करेगी। ऐसे आदििमयों को सरकार खुदि अपना दिोस्त बनाए रखना

चाहती है। अगर आपकी शहादित बिढया हुई और उस फ्री की िजरहों के जाल से आप िनकल गए, तो िफर आप

पारस हो जाएंग!’ दिारोग़ा ने उसी वक्त मोटर मंगवाई और रमा को साथ लेकर िडप्टी साहब से िमलने चल

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िदिए। इतनी बडी कारगुज़ारी िदिखाने में िवलंब क्यों करते?िडप्टी से एकांत में खूब ज़ीट उडाई। इस आदिमी का यों

पता लगाया। इसकी सूरत देखते ही भांप गया िक मगरूर है, बस िगरफ्तार ही तो कर िलया! बात सोलहों आने

सच िनकली। िनगाह कहीं चूक सकती है! हुजूर, मुज़िरम की आंखें पहचानता हूं। इलाहाबादि की म्युिनिसपैिलटी

के रूपये ग़बन करके भागा है। इस मामले में शहादित देने को तैयार है। आदिमी पढ़ा-िलखा, सूरत का शरीफ और

ज़हीन है।’

िडप्टी ने संिदिग्ध भाव से कहा, ‘हां, आदिमी तो होिशयार मालूम होता है।’

‘मगर मुआफीनामा िलये बग़ैर इसे हमारा एतबार न होगा। कहीं इसे यह शुबहा हुआ िक हम लोग इसके

साथ कोई चाल चल रहे ह, तो साफ िनकल जाएगा। ‘

िडप्टी—‘यह तो होगा ही। गवनर्चमेंट से इसके बारे में बातचीत करना होगा। आप टलीफोन िमलाकर

इलाहाबादि पुिलस से पूिछए िक इस आदिमी पर कैसा मुकदिमा है। यह सब तो गवनर्चमेंट को बताना होगा।

दिारोग़ाजी ने टलीफोन डाइरेक्टरी देखी, नंबर िमलाया और बातचीत शुरू हुई।

िडप्टी—‘क्या बोला?’

दिारोग़ा –‘कहता है, यहां इस नाम के िकसी आदिमी पर मुकदिमा नहीं है।’

िडप्टी—‘यह कैसा है भाई, कुछ समझि में नहीं आता। इसने नाम तो नहीं बदिल िदिया?’

दिारोग़ा –‘कहता है, म्युिनिसपैिलटी में िकसी ने रूपये ग़बन नहीं िकए। कोई मामला नहीं है।’

िडप्टी—‘ये तो बडा ताज्जुब का बात है। आदिमी बोलता है हम रूपया लेकर भागा, िनिसपैिलटी बोलता है

कोई रूपया ग़बन नहीं िकया। यह आदिमी पागल तो नहीं है?’

दिारोग़ा –‘मेरी समझि में कोई बात नहीं आती, अगर कह दें िक तुम्हारे ऊपर कोई इल्ज़ाम नहीं है, तो िफर

उसकी गदिर्च भी न िमलेगी।’

‘अच्छा, म्युिनिसपैिलटी के दिफ्तर से पूिछए।’

दिारोग़ा ने िफर नंबर िमलाया। सवाल-जवाब होने लगा।

दिारोग़ा –‘आपके यहां रमानाथ कोई क्लकर्क था?

जवाब, ‘जी हां, था।

दिारोग़ा –‘वह कुछ रूपये ग़बन करके भागा है?

जवाब,’नहीं। वह घर से भागा है, पर ग़बन नहीं िकया। क्या वह आपके यहां है?’

दिारोग़ा –‘जी हां, हमने उसे िगरफ्तार िकया है। वह खुदि कहता है िक मैंने रूपये ग़बन िकए। बात क्या है?’

जवाब, ‘पुिलस तो लाल बुझिक्कड़ है। ज़रा िदिमाग़ लडाइए।’

दिारोग़ा –‘यहां तो अक्ल काम नहीं करती।’

जवाब, ‘यहीं क्या, कहीं भी काम नहीं करती। सुिनए, रमानाथ ने मीज़ान लगाने में ग़लती की, डरकर

भागा। बादि को मालूम हुआ िक तहबील में कोई कमी न थी। आई समझि में बात।’

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िडप्टी—‘अब क्या करना होगा खां साहबब िचिडया हाथ से िनकल गया!’

दिारोग़ा –‘िनकल कैसे जाएगी हुजूरब रमानाथ से यह बात कही ही क्यों जाए? बस उसे िकसी ऐसे आदिमी

से िमलने न िदिया जाय जो बाहर की ख़बर पहुंचा सके। घरवालों को उसका पता अब लग जावेगा ही, कोई न

कोई जरूर उसकी तलाश में आवेगा। िकसी को न आने दें। तहरीर में कोई बात न लाई जाए। ज़बानी इत्मीनान

िदिला िदिया जाय। कह िदिया जाय, किमश्नर साहब को मुआफीनामा के िलए िरपोटर्च की गई है। इंस्पेक्टर साहब से

भी राय ले ली जाय। इधर तो यह लोग सुपिरटंडंट से परामशर्च कर रहे थ, उधर एक घंट में देवीदिीन लौटकर थाने

आया तो कांस्टबल ने कहा, ‘दिारोग़ाजी तो साहब के पास गए।’

देवीदिीन ने घबडाकर कहा, ‘तो बाबूजी को िहरासत में डाल िदिया?’

कांस्टबल, ‘नहीं, उन्हें भी साथ ले गये।’

देवीदिीन ने िसर पीटकर कहा, ‘पुिलस वालों की बात का कोई भरोसा नहीं। कह गया िक एक घंट में रूपये

लेकर आता हूं, मगर इतना भी सबर न हुआ। सरकार से पांच ही सौ तो िमलेंग। मैं छः सौ देने को तैयार हूं। हां,

सरकार में कारगुज़ारी हो जायगी और क्या वहीं से उन्हें परागराज भेज देंग। मुझिसे भेटं भी न होगी। बुिढया रो -

रोकर मर जायगी। यह कहता हुआ देवीदिीन वहीं ज़मीन

पर बैठ गया।’

कांस्टबल ने पूछा, ‘तो यहां कब तक बैठे रहोग?’

देवीदिीन ने मानो कोड़े की काट से आहत होकर कहा,’अब तो दिारोग़ाजी से दिो-दिो बातें करके ही जाऊंगा।

चाहे जेहल ही जाना पड़े, पर फटकारूंगा जरूर, बुरी तरह फटकारूंगा। आिख़र उनके भी तो बाल-बच्चे होंग!

क्या भगवान से ज़रा भी नहीं डरते! तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था? बहुत रंजीदिा थ? ’ कांस्टबल, ’रंजीदिा

तो नहीं थ, ख़ासी तरह हंस रहे थ। दिोनों जने मोटर में बैठकर गए ह।’

देवीदिीन ने अिवश्वास के भाव से कहा, ‘हंस क्या रहे होंग बेचारे। मुंह से चाहे हंस लें, िदिल तो रोता ही

होगा। ’

देवीदिीन को यहां बैठे एक घंटा भी न हुआ था िक सहसा जग्गो आ खड़ी हुई। देवीदिीन को द्वार पर बैठे

देखकर बोली, ‘तुम यहां क्या करने लग? भैया कहां ह?’

देवीदिीन ने ममाहत होकर कहा, ‘भैया को ले गए सुपरीडंट के पास, न जाने भेंट होती है िक ऊपर ही ऊपर

परागराज भेज िदिए जाते ह। ’

जग्गो—‘दिारोग़ाजी भी बडे वह ह। कहां तो कहा था िक इतना लेंग, कहां लेकर चल िदिए!’

देवीदिीन—‘इसीिलए तो बैठा हूं िक आव तो दिो-दिो बातें कर लूं।’

जग्गो—‘हां, फटकारना जरूर,जो अपनी बात का नहीं, वह अपने बाप का क्या होगा। मैं तो खरी कहूंगी।

मेरा क्या कर लेंग!’

देवीदिीन—‘दूकान पर कौन है?’

जग्गो—‘बंदि कर आई हूं। अभी बेचारे ने कुछ खाया भी नहीं। सबेरे से वैसे ही ह। चूल्हे में जाय वह

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तमासाब उसी के िटकट लेने तो जाते थ। न घर से िनकलते तो काहे को यह बला िसर पड़ती।

देवीदिीन—‘जो उधार ही से पराग भेज िदिया तो?’

जग्गो—‘तो िचट्ठी तो आवेगी ही। चलकर वहीं देख आवग?’

देवीदिीन—‘(आंखों में आंसू भरकर) सज़ा हो जायगी?

जग्गो—‘रूपया जमा कर देंग तब काहे को होगी। सरकार अपने रूपये ही तो लेगी?

देवीदिीन—‘नहीं पगली, ऐसा नहीं होता। चोर माल लौटा दे तो वह छोड़ थोड़े ही िदिया जाएगा।’

जग्गो ने पिरिस्थित की कठोरता अनुभव करके कहा, ‘दिारोग़ाजी, ’

वह अभी बात भी पूरी न करने पाई थी िक दिारोग़ाजी की मोटर सामने आ पहुंची। इंस्पेक्टर साहब भी थ।

रमा इन दिोनों को देखते ही मोटर से उतरकर आया और प्रसन्न मुख से बोला, ‘तुम यहां देर से बैठे हो क्या

दिादिा? आओ, कमरे में चलो। अम्मां, तुम कब आइ?’

दिारोग़ाजी ने िवनोदि करके कहा, ‘कहो चौधारी, लाए रूपये?’

देवीदिीन—‘जब कह गया िक मैं थोड़ी देर में आता हूं, तो आपको मेरी राह देख लेनी चािहए थी। चिलए,

अपने रूपये लीिजए।’

दिारोग़ा –‘खोदिकर िनकाले होंग?’

देवीदिीन—‘आपके अकबाल से हज़ार-पांच सौ अभी ऊपर ही िनकल सकते ह। ज़मीन खोदिने की जरूरत

नहीं पड़ी। चलो भैया, बुिढया कब से खड़ी है। मैं रूपये चुकाकर आता हूं। यह तो इसिपकटर साहब थ न? पहले

इसी थाने में थ।‘

दिारोग़ा –‘तो भाई, अपने रूपये ले जाकर उसी हांड़ी में रख दिो। अफसरों की सलाह हुई िक इन्हें छोड़ना न

चािहए। मेरे बस की बात नहीं है।’

इंस्पेक्टर साहब तो पहले ही दिफ्तर में चले गए थ। ये तीनों आदिमी बातें करते उसके बग़ल वाले कमरे में

गए। देवीदिीन ने दिारोग़ा की बात सुनी, तो भौंहें ितरछी हो गई। बोला, दिारोग़ाजी, मरदिों की एक बात होती है,

मैं तो यही जानता हूं। मैं रूपये आपके हुक्म से लाया हूं। आपको अपना कौल पूरा करना पड़ेगा। कहके मुकर

जाना नीचों का काम है।’

इतने कठोर शब्दि सुनकर दिारोग़ाजी को भन्ना जाना चािहए था, पर उन्होंने ज़रा भी बुरा न माना। हंसते

हुए बोले,भई अब चाहे, नीच कहो, चाहे दिग़ाबाज़ कहो, पर हम इन्हें छोड़ नहीं सकते। ऐसे िशकार रोज़ नहीं

िमलते। कौल के पीछे अपनी तरक्की नहीं छोड़ सकता दिारोग़ा के हंसने पर देवीदिीन और भी तेज़ हुआ, ‘तो आपने

कहा िकस मुंह से था? ’

दिारोग़ा –‘कहा तो इसी मुंह से था, लेिकन मुंह हमेशा एक-सा तो नहीं रहता। इसी मुंह से िजसे गाली देता

हूं, उसकी इसी मुंह से तारीफ भी करता हूं।’

देवीदिीन—‘(ितनककर) यह मूंछें मुड़वा डािलए।’

दिारोग़ा –‘मुझिे बडी खुशी से मंजूर है। नीयत तो मेरी पहले ही थी, पर शमर्च के मारे न मुड़वाता था। अब

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तुमने िदिल मज़बूत कर िदिया।’

देवीदिीन—‘हंिसए मत दिारोग़ाजी, आप हंसते ह और मेरा खून जला जाता है। मुझिे चाहे जेहल ही क्यों न

हो जाए, लेिकन मैं कप्तान साहब से जरूर कह दूंगा। हूं तो टके का आदिमी पर आपके अकबाल से बडे अफसरों

तक पहुंच है।’

दिारोग़ा –‘अरे, यार तो क्या सचमुच कप्तान साहब से मेरी िशकायत कर दिोग?’

देवीदिीन ने समझिा िक धमकी कारगर हुई। अकड़कर बोला, ‘आप जब िकसी की नहीं सुनते, बात कहकर

मुकर जाते ह, तो दूसरे भी अपने-सी करग ही। मेम साहब तो रोज़ ही दुर्कान पर आती ह।’

दिारोग़ा –‘कौन, देवी? अगर तुमने साहब या मेम साहब से मेरी कुछ िशकायत की, तो कसम खाकर कहता

हूं, िक घर खुदिवाकर फेंक दूंगा!’

देवीदिीन—‘िजस िदिन मेरा घर खुदेगा, उस िदिन यह पगड़ी और चपरास भी न रहेगी, हुजूर।’

दिारोग़ा –‘अच्छा तो मारो हाथ पर हाथ, हमारी तुम्हारी दिो-दिो चोटं हो जायं,यही सही।’

देवीदिीन—‘पछताओग सरकार, कहे देता हूं पछताओग।’

रमा अब जब्त न कर सका। अब तक वह देवीदिीन के िबगड़ने का तमाशा देखने के िलए भीगी िबल्ली बना

खडाथा। कहकहा मारकर बोला, ‘दिादिा, दिारोग़ाजी तुम्हें िचढ़ा रहे ह। हम लोगों में ऐसी सलाह हो गई है िक मैं

िबना कुछ िलए-िदिए ही छूट जाऊंगा, ऊपर से नौकरी भी िमल जायगी। साहब ने पक्का वादिा िकया है। मुझिे अब

यहीं रहना होगा।’

देवीदिीन ने रास्ता भटके हुए आदिमी की भांित कहा, ‘कैसी बात है भैया, क्या कहते हो! क्या पुिलस वालों

के चकमे में आ गए? इसमें कोई न कोई चाल जरूर िछपी होगी।’

रमा ने इत्मीनान के साथ कहा, ‘और बात नहीं, एक मुकदिमे में शहादित देनी पड़ेगी।’

देवीदिीन ने संशय से िसर िहलाकर कहा, ‘झिूठा मुकदिमा होगा?’

रमानाथ—‘नहीं दिादिा, िबलकुल सच्चा मामला है। मैंने पहले ही पूछ िलया है।’

देवीदिीन की शंका शांत न हुई। बोला, ‘मैं इस बारे में और कुछ नहीं कह सकता भैया, ज़रा सोच-समझिकर

काम करना। अगर मेरे रूपयों को डरते हो, तो यही समझि लो िक देवीदिीन ने अगर रूपयों की परवा की होती,

तो आज लखपित होता। इन्हीं हाथों से सौ-सौ रूपये रोज़ कमाए और सब-के-सब उडािदिए ह। िकस मुकदिमे में

सहादित देनी है? कुछ मालूम हुआ?’

दिारोग़ाजी ने रमा को जवाब देने का अवसर न देकर कहा, ‘वही डकैितयों वाला मुआमला है िजसमें कई

ग़रीब आदििमयों की जान गई थी। इन डाकुआं ने सूबे-भर में हंगामा मचा रक्खा था। उनके डर के मारे कोई

आदिमी गवाही देने पर राज़ी नहीं होता।’

देवीदिीन ने उपेक्षा के भाव से कहा, ‘अच्छा तो यह मुख़िबर बन गए?यह बात है। इसमें तो जो पुिलस

िसखाएगी वही तुम्हें कहना पड़ेगा, भैया! मैं छोटी समझि का आदिमी हूं, इन बातों का ममर्च क्या जानूं, पर मुझिसे

मुख़िबर बनने को कहा जाता, तो मैं न बनता, चाहे कोई लाख रूपया देता। बाहर के आदिमी को क्या मालूम कौन

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अपराधी है, कौन बेकसूर है। दिो-चार अपरािधयों के साथ दिो-चार बेकसूर भी जरूर ही होंग।’

दिारोग़ा –‘हरिगज़ नहीं। िजतने आदिमी पकड़े गए ह, सब पक्के डाकू ह। ’

देवीदिीन—‘यह तो आप कहते ह न, हमें क्या मालूम।’

दिारोग़ा –‘हम लोग बेगुनाहों को फंसाएंग ही क्यों? यह तो सोचो।’

देवीदिीन—‘यह सब भुगते बैठा हूं, दिारोग़ाजी! इससे तो यही अच्छा है िक आप इनका चालान कर दें।

साल-दिो साल का जेहल ही तो होगा। एक अधरम के दिंड से बचने के िलए बेगुनाहों का खून तो िसर पर न

चढ़ेगा! ’

रमा ने भीरूता से कहा, ‘मैंने खूब सोच िलया है दिादिा, सब काग़ज़ देख िलए ह, इसमें कोई बेगुनाह नहीं

है।’

देवीदिीन ने उदिास होकर कहा,’होगा भाई! जान भी तो प्यारी होती है!’यह कहकर वह पीछे घूम पड़ा।

अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप से वह प्रकट न कर सकता था। एकाएक उसे एक बात यादि आ गई। मुड़कर

बोला, ‘तुम्हें कुछ रूपये देता जाऊं।’

रमा ने िखिसयाकर कहा, ‘क्या जरूरत है?’

दिारोग़ा –‘आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।’

देवीदिीन ने ककर्कश स्वर में कहा,’हां हुजूर, इतना जानता हूं। इनकी दिावत होगी, बंगला रहने को िमलेगा,

नौकर िमलेंग, मोटर िमलेगी। यह सब जानता हूं। कोई बाहर का आदिमी इनसे िमलने न पावेगा, न यह अकेले

आ-जा सकेंग, यह सब देख चुका हूं।’

यह कहता हुआ देवीदिीन तेज़ी से कदिम उठाता हुआ चल िदिया, मानो वहां उसका दिम घुट रहा हो दिारोग़ा

ने उसे पुकारा, पर उसने िफरकर न देखा। उसके मुख पर पराभूत वेदिना छाई हुई थी।

जग्गो ने पूछा, ‘भैया नहीं आ रहे ह?’

देवीदिीन ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा, ‘भैया अब नहीं आवग। जब अपने ही अपने न हुए तो बेगाने तो

बेगाने ह ही!’ वह चला गया। बुिढया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।

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पैंतीस

रूदिन में िकतना उल्लास, िकतनी शांित, िकतना बल है। जो कभी एकांत में बैठकर, िकसी की स्मृतित में,

िकसी के िवयोग में, िससक-िससक और िबलखिबलख नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंिचत है, िजस पर

सैकड़ों हंिसयां न्योछावर ह। उस मीठी वेदिना का आनंदि उन्हीं से पूछो, िजन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त िकया है। हंसी

के बादि मन िखकै हो जाता है, आत्मा क्षुब्धा हो जाती है, मानो हम थक गए हों, पराभूत हो गए हों। रूदिन के

पश्चात एक नवीन स्फूित, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास ‘प्रजा-िमत्र’

कायालय का पत्र पहुंचा, तो उसे पढ़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में िलये, दूसरे हाथ से चौखट पकड़े, वह खूब

रोई। क्या सोचकर रोई, वह कौन कह सकता है। कदिािचत अपने उपाय की इस आशातीत सफलता ने उसकी

आत्मा को िवह्नल कर िदिया, आनंदि की उस गहराई पर पहुंचा िदिया जहां पानी है, या उस ऊंचाई पर जहां

उष्णता िहम बन जाती है। आज छः महीने के बादि यह सुख-संवादि िमला। इतने िदिनों वह छलमयी आशा और

कठोर दुर्राशा का िखलौना बनी रही। आह! िकतनी बार उसके मन में तरंग उठी िक इस जीवन का क्यों न अंत

कर दूं! कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग िदिए होते तो उनके दिशर्चन भी न पाती! पर उनका िहया िकतना कठोर है। छः

महीने से वहां बैठे ह, एक पत्र भी न िलखा, ख़बर तक नहीं ली। आिख़र यही न समझि िलया होगा िक बहुत होगा

रो-रोकर मर जायगी। उन्होंने मेरी परवाह ही कब की! दिस-बीस रूपये तो आदिमी यार-दिोस्तों पर भी ख़चर्च कर

देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम ह्रदिय की वस्तु है, रूपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था, जालपा सारा

इलज़ाम अपने िसर रखती थी,, पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात कठोर हो गया। तरह-तरह के

िशकवे पैदिा होने लग। वहां क्या समझिकर बैठे ह?इसीिलए तो िक वह स्वाधीन ह, आज़ादि ह, िकसी का िदिया

नहीं खाते।

इसी तरह मैं कहीं िबना कहे-सुने चली जाती, तो वह मेरे साथ िकस तरह पेश आते?शायदि तलवार लेकर

गदिर्चन पर सवार हो जाते या िजदिगी-भर मुंह न देखते। वहीं खड़े-खड़े जालपा ने मन-ही-मन िशकायतों का दिफ्तर

खोल िदिया।

सहसा रमेश बाबू ने द्वार पर पुकारा, ‘गोपी, गोपी, ज़रा इधर आना।’

मुंशीजी ने अपने कमरे में पड़े-पड़े कराहकर कहा, ‘कौन है भाई, कमरे में आ जाओ। अरे! आप ह रमेश

बाबू! बाबूजी, मैं तो मरकर िजया हूं। बस यही समिझिए िक नई िज़दिगी हुई। कोई आशा न थी। कोई आग न कोई

पीछे, दिोनों लौंडे आवारा ह, मैं मइर्जं या जीऊं, उनसे मतलब नहीं। उनकी मां को मेरी सूरत देखते डर लगता है।

बस बेचारी बहू ने मेरी जान बचाईब वह न होती तो अब तक चल बसा होता।’

रमेश बाबू ने कृतित्रम संवेदिना िदिखाते हुए कहा, ‘आप इतने बीमार हो गए और मुझिे ख़बर तक न हुई। मेरे

यहां रहते आपको इतना कष्ट हुआ! बहू ने भी मुझिे एक पुज़ा न िलख िदिया। छुट्टी लेनी पड़ी होगी?’

मुंशी—‘छुट्टी के िलए दिरख्वास्त तो भेज दिी थी, मगर साहब मैंने डाक्टरी सिटिफकेट नहीं भेजी। सोलह

रूपये िकसके घर से लाता। एक िदिन िसिवल सजर्चन के पास गया, मगर उन्होंने िचट्ठी िलखने से इनकार िकया।

आप तो जानते ह वह िबना फीस िलये बात नहीं करते। मैं चला आया और दिरख्वास्त भेज दिी। मालूम नहीं मंजूर

हुई या नहीं। यह तो डाक्टरों का हाल है। देख रहे ह िक आदिमी मर रहा है, पर िबना भेंट िलये कदिम न उठावग!’

रमेश बाबू ने िचितत होकर कहा, ‘यह तो आपने बुरी ख़बर सुनाई, मगर आपकी छुट्टी नामंजूर हुई तो क्या

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होगा?’

मुंशीजी ने माथा ठोंकर कहा, ’होगा क्या, घर बैठ रहूंगा। साहब पूछेंग तो साफ कह दूंगा, मैं सजर्चन के पास

गया था, उसने छुट्टी नहीं दिी। आिख़र इन्हें क्यों सरकार ने नौकर रक्खा है। महज़ कुसी की शोभा बढ़ाने के िलए?

मुझिे िडसिमस हो जाना मंज़ूर है, पर सिटिगष्धट न दूंगा। लौंडे ग़ायब ह। आपके िलए पान तक लाने वाला कोई

नहीं। क्या करूं?’

रमेश ने मुस्कराकर कहा, ‘मेरे िलए आप तरदिदुर्दि न कर। मैं आज पान खाने नहीं, भरपेट िमठाई खाने

आया हूं। (जालपा को पुकारकर) बहूजी, तुम्हारे िलए खुशख़बरी लाया हूं। िमठाई मंगवा लो।’

जालपा ने पान की तश्तरी उनके सामने रखकर कहा, ‘पहले वह ख़बर सुनाइए। शायदि आप िजस ख़बर को

नई-नई समझि रहे हों, वह पुरानी हो गई हो’

रमेश—‘जी कहीं हो न! रमानाथ का पता चल गया। कलकत्तिा में ह।’

जालपा—‘मुझिे पहले ही मालूम हो चुका है।’

मुंशीजी झिपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मानो भागकर उत्सुकता की आड़ में जा िछपा, रमेश का हाथ

पकड़कर बोले, ‘मालूम हो गया कलकत्तिा में ह? कोई ख़त आया था?’

रमेश—‘खत नहीं था, एक पुिलस इंक्वायरी थी। मैंने कह िदिया, उन पर िकसी तरह का इलज़ाम नहीं है।

तुम्हें कैसे मालूम हुआ, बहूजी?’

जालपा ने अपनी स्कीम बयान की। ‘प्रजा-िमत्र’ कायालय का पत्र भी िदिखाया। पत्र के साथ रूपयों की एक

रसीदि थी िजस पर रमा का हस्ताक्षर था।

रमेश—‘दिस्तख़त तो रमा बाबू का है, िबलकुल साफ धोखा हो ही नहीं सकता मान गया बहूजी तुम्हें! वाह,

क्या िहकमत िनकाली है! हम सबके कान काट िलए। िकसी को न सूझिी। अब जो सोचते ह, तो मालूम होता है,

िकतनी आसान बात थी। िकसी को जाना चािहए जो बचा को पकड़कर घसीट लाए। यह बातचीत हो रही थी िक

रतन आ पहुंची। जालपा उसे देखते ही वहां से िनकली और उसके गले से िलपटकर बोली, ‘बहन कलकत्तिा से पत्र

आ गया। वहीं ह।’

रतन— ‘मेरे िसर की कसम?’

जालपा—‘हां, सच कहती हूं। ख़त देखो न!’

रतन—‘तो आज ही चली जाओ।’

जालपा—‘यही तो मैं भी सोच रही हूं। तुम चलोगी?’

रतन—‘चलने को तो मैं तैयार हूं, लेिकन अकेला घर िकस पर छोडूं! बहन, मुझिे मिणभूषण पर कुछ शुबहा

होने लगा है। उसकी नीयत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस हज़ार रूपये से कम न थ। सब न जाने कहां

उडािदिए। कहता है, िकया-कमर्च में ख़चर्च हो गए। िहसाब मांगती हूं, तो आंखें िदिखाता है। दिफ्तर की कुंजी अपने

पास रखे हुए है। मांगती हूं, तो टाल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूं, मैं उधार जाऊं,

इधर वह सब कुछ ले-देकर चलता बने। बंगले के गाहक आ रहे ह। मैं भी सोचती हूं, गांव में जाकर शांित से पड़ी

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रहूं। बंगला िबक जायगा, तो नकदि रूपये हाथ आ जाएंग। मैं न रहूंगी,तो शायदि ये रूपये मुझिे देखने को भी न

िमलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ। रूपये का इंतजाम मैं कर दूंगी।‘

जालपा—‘गोपीनाथ तो शायदि न जा सकें, दिादिा की दिवा-दिारू के िलए भी तो कोई चािहए।

रतन—‘वह मैं कर दूंगी। मैं रोज़ सबेरे आ जाऊंगी और दिवा देकर चली जाऊंगी। शाम को भी एक बार आ

जाया करूंगी। ‘

जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘और िदिन? भर उनके पास बैठा कौन रहेगा।‘

रतन—‘मैं थोड़ी देर बैठी भी रहा करूंगी, मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहां न जाने िकस दिशा में होंग।

तो यही तय रही न? ‘

रतन मुंशीजी के कमरे में गई, तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गए और बोले, ‘आइए देवीजी, रमा बाबू का

पता चल गया! ‘

रतन—‘इसमें आधा श्रेय मेरा है।‘

रमेश—‘आपकी सलाह से तो हुआ ही होगा। अब उन्हें यहां लाने की िफक करनी है।‘

रतन—‘जालपा चली जाएं और पकड़ लाएं। गोपी को साथ लेती जाव, आपको इसमें कोई आपित्ति तो नहीं

है, दिादिाजी?’

मुंशीजी को आपित्ति तो थी, उनका बस चलता तो इस अवसर पर दिसपांच आदििमयों को और जमा कर

लेते, िफर घर के आदििमयों के चले जाने पर क्यों आपित्ति न होती, मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी िक कुछ बोल न

सके। गोपी कलकत्तिा की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न खुश होता। िवशम्भर िदिल में एंठकर रह गया।

िवधाता ने उसे छोटा न बनाया होता, तो आज

उसकी यह हकतलफी न होती। गोपी ऐसे कहां के बडे होिशयार ह, जहां जाते ह कोई-न-कोई चीज़ खो

आते ह। हां, मुझिसे बडे ह। इस दिैवी िवधान ने उसे मजबूर कर िदिया।

रात को नौ बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-ससुर के चरणों पर िसर झिुकाकर आशीवादि िलया,

िवशम्भर रो रहा था, उसे गले लगा कर प्यार िकया और मोटर पर बैठी। रतन स्टशन तक पहुंचाने के िलए आई

थी। मोटर चली तो जालपा ने कहा, ‘बहन, कलकत्तिा तो बहुत बडा शहर होगा। वहां कैसे पता चलेगा?’

रतन—‘पहले ‘प्रजा-िमत्र’ के कायालय में जाना। वहां से पता चल जाएगा। गोपी बाबू तो ह ही।’

जालपा—‘ठहरूंगी कहां? ’

रतन—‘कई धमर्चशाले ह। नहीं होटल में ठहर जाना। देखो रूपये की जरूरत पड़े, तो मुझिे तार देना। कोई-न

कोई इंतज़ाम करके भेजूंगी। बाबूजी आ जाएं,तो मेरा बडा उपकार हो यह मिणभूषण मुझिे तबाह कर देगा।’

जालपा—‘होटल वाले बदिमाश तो न होंग? ’

रतन—‘कोई ज़रा भी शरारत करे, तो ठोकर मारना। बस, कुछ पूछना मत, ठोकर जमाकर तब बात

करना। (कमर से एक छुरी िनकालकर) इसे अपने पास रख लो। कमर में िछपाए रखना। मैं जब कभी बाहर

िनकलती हूं, तो इसे अपने पास रख लेती हूं। इससे िदिल बडा मज़बूत रहता है। जो मदिर्च िकसी स्त्री को छेड़ता है,

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उसे समझि लो िक पल्ले िसरे का कायर, नीच और लंपट है। तुम्हारी छुरी की चमक और तुम्हारे तेवर देखकर ही

उसकी ईह गष्ना हो जायगी। सीधा दुर्म

दिबाकर भागगा, लेिकन अगर ऐसा मौका आ ही पड़े जब तुम्हें छुरी से काम लेने के िलए मजबूर हो जाना

पड़े, तो ज़रा भी मत िझिझिकना। छुरी लेकर िपल पड़ना। इसकी िबलकुल िफक मत करना िक क्या होगा, क्या न

होगा। जो कुछ होना होगा, हो जायगा। ’

जालपा ने छुरी ले ली, पर कुछ बोली नहीं। उसका िदिल भारी हो रहा था। इतनी बातें सोचने और पूछने

की थीं िक उनके िवचार से ही उसका िदिल बैठा जाता था।

स्टशन आ गया। द्दिलयों ने असबाब उतारा, गोपी िटकट लाया। जालपा पत्थर की मूित की भांित प्लेटफामर्च

पर खड़ी रही, मानो चेतना शून्य हो गई हो िकसी बडी परीक्षा के पहले हम मौन हो जाते ह। हमारी सारी

शिक्तयां उस संग्राम की तैयारी में लग जाती ह। रतन ने गोपी से कहा, ‘होिशयार रहना।’

गोपी इधर कई महीनों से कसरत करता था। चलता तो मुडढे और छाती को देखा करता। देखने वालों को

तो वह ज्यों का त्यों मालूम होता है, पर अपनी नज़र में वह कुछ और हो गया था। शायदि उसे आश्चयर्च होता था

िक उसे आते देखकर क्यों लोग रास्ते से नहीं हट जाते, क्यों उसके डील-डौल से भयभीत नहीं हो जाते। अकड़कर

बोला, ‘िकसी ने ज़रा चीं-चपड़ की तो तोड़ दूंगा।’

रतन मुस्कराई, ‘यह तो मुझिे मालूम है। सो मत जाना।’

गोपी, ‘पलक तक तो झिपकेगी नहीं। मजाल है नींदि आ जाय।’

गाड़ी आ गई। गोपी ने एक िडब्बे में घुसकर कब्जा जमाया। जालपा की आंखों में आंसू भरे हुए थ। बोली,

बहन, ‘आशीवादि दिो िक उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊं।‘

इस समय उसका दुर्बर्चल मन कोई आश्रय, कोई सहारा, कोई बल ढूंढ रहा था और आशीवादि और प्राथर्चना के

िसवा वह बल उसे कौन प्रदिान करता। यही बल और शांित का वह अक्षय भंडार है जो िकसी को िनराश नहीं

करता, जो सबकी बांह पकड़ता है, सबका बेडापार लगाता है। इंजन ने सीटी दिी। दिोनों सहेिलयां गले िमलीं।

जालपा गाड़ी में जा बैठी।

रतन ने कहा, ‘जाते ही जाते ख़त भेजना।‘ जालपा ने िसर िहलाया।

‘अगर मेरी जरूरत मालूम हो, तो तुरंत िलखना। मैं सब कुछ छोड़कर चली आऊंगी।’

जालपा ने िसर िहला िदिया।

‘रास्ते में रोना मत।’ जालपा हंस पड़ी। गाड़ी चल दिी।

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छत्तीस

देवीदिीन ने चाय की दूकान उसी िदिन से बंदि कर दिी थी और िदिन-भर उस अदिालत की खाक छानता

िफरता था िजसमें डकैती का मुकदिमा पेश था और रमानाथ की शहादित हो रही थी। तीन िदिन रमा की शहादिात

बराबर होती रही और तीनों िदिन देवीदिीन ने न कुछ खाया और न सोया। आज भी उसने घर आते ही आते कुरता

उतार िदिया और एक पंिखया लेकर झिलने लगा। फागुन लग गया था और कुछ-कुछ गमी शुरू हो गई थी, पर

इतनी गमी न थी िक पसीना बहे या पंखे की जरूरत हो अफसर लोग तो जाड़ों के कपड़े पहने हुए थ, लेिकन

देवीदिीन पसीने में तर था। उसका चेहरा, िजस पर िनष्कपट बुढ़ापा हंसता रहता था, िखिसयाया हुआ था, मानो

बेगार से लौटा हो जग्गो ने लोट में पानी लाकर रख िदिया और बोली,िचलम रख दूं? देवीदिीन की आज तीन िदिन

से यह ख़ाितर हो रही थी। इसके पहले बुिढया कभी िचलम रखने को न पूछती थी। देवीदिीन इसका मतलब

समझिता था। बुिढया को सदिय नजरों से देखकर बोला,नहीं, रहने दिो, िचलम न िपऊंगा।

‘तो मुंह-हाथ तो धो लो। गदिर्च पड़ी हुई है।’

‘धो लूंगा, जल्दिी क्या है।’

बुिढया आज का हाल जानने को उत्सुक थी, पर डर रही थी कहीं देवीदिीन झिुंझिला न पड़े। वह उसकी

थकान िमटा देना चाहती थी, िजससे देवीदिीन प्रसन्न होकर आप-ही-आप सारा वृतत्तिांत कह चले।

‘तो कुछ जलपान तो कर लो। दिोपहर को भी तो कुछ नहीं खाया था,

िमठाई लाऊं- लाओ, पंखी मुझिे दे दिो।’

देवीदिीन ने पंिखया दे दिी। बुिढया झिलने लगी। दिो-तीन िमनट तक आंखें बंदि करके बैठे रहने के बादि

देवीदिीन ने कहा, ‘आज भैया की गवाही खत्म हो गई!

बुिढया का हाथ रूक गया। बोली, ‘तो कल से वह घर आ जाएंग?’

देवीदिीन—‘अभी नहीं छुट्टी िमली जाती, यही बयान दिीवानी में देना पड़ेगा। और अब वह यहां आने ही

क्यों लग! कोई अच्छी जगह िमल जायगी, घोड़े पर चढ़े-चढ़े घूमेंग, मगर है ।डा पक्का मतलबीब पंद्रह बेगुनाहों

को फंसा िदिया। पांच-छः को तो फांसी हो जाएगी। औरों को दिस-दिस बारह-बारह साल की सज़ा िमली रक्खी है।

इसी के बयान से मुकदिमा सबूत हो गया। कोई िकतनी ही िजरह करे, क्या मजाल ज़रा भी िहचिकचाए। अब एक

भी न बचेगा। िकसने कमर्च िकया, िकसने नहीं िकया इसका हाल दिैव जाने, पर मारे सब जाएंग। घर से भी तो

सरकारी रूपया खाकर भागा था। हमें बडा धोखा हुआ। जग्गो ने मीठे ितरस्कार से देखकर कहा, ‘अपनी नेकी-

बदिी अपने साथ है। मतलबी तो संसार है, कौन िकसके िलए मरता है।’

देवीदिीन ने तीव्र स्वर में कहा,’अपने मतलब के िलए जो दूसरों का गला काट उसको ज़हर दे देना भी पाप

नहीं है।’

सहसा दिो प्राणी आकर खड़े हो गए। एक गोरा, खूबसूरत लड़का था, िजसकी उम पंद्रह-सोलह साल से

ज्यादिा न थी। दूसरा अधेड़ था और सूरत से चपरासी मालूम होता था। देवीदिीन ने पूछा, ‘िकसे खोजते हो?’

चपरासी ने कहा,’तुम्हारा ही नाम देवीदिीन है न? मैं ‘प्रजा-िमत्र’ के दिफ्तर से आया हूं। यह बाबू उन्हीं

रमानाथ के भाई ह िजन्हें सतरंज का इनाम िमला था। यह उन्हीं की खोज में दिफ्तर गए थ। संपादिकजी ने तुम्हारे

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पास भेज िदिया। तो मैं जाऊं न?’ यह कहता हुआ वह चला गया। देवीदिीन ने गोपी को िसर से पांव तक देखा।

आकृतित रमा से िमलती थी। बोला, ‘आओ बेटा, बैठो। कब आए घर से?’गोपी ने एक खिटक की दूकान पर बैठना

शान के िख़लाफ समझिा, खडा-खडा बोला, ‘आज ही तो आया हूं। भाभी भी साथ ह। धमर्चशाले में ठहरा हुआ हूं।’

देवीदिीन ने खड़े होकर कहा, ‘तो जाकर बहू को यहां लाओ नब ऊपर तो रमा बाबू का कमरा है ही, आराम

से रहो धरमसाले में क्यों पड़े रहोग। नहीं चलो, मैं भी चलता हूं। यहां सब तरह का आराम है।’

उसने जग्गो को यह ख़बर सुनाई और ऊपर झिाडू लगाने को कहकर गोपी के साथ धमर्चशाले चल िदिया।

बुिढया ने तुरंत ऊपर जाकर झिाडू। लगाया, लपककर हलवाई की दूकान से िमठाई और दिही लाई, सुराही में पानी

भरकर रख िदिया। िफर अपना हाथ-मुंह धोया, एक रंगीन साड़ी िनकाली, गहने पहने और बन-ठनकर बहू की

राह देखने लगी।

इतने में िफटन भी आ पहुंची। बुिढया ने जाकर जालपा को उतारा। जालपा पहले तो साफ-भाजी की

दूकान देखकर कुछ िझिझिकी, पर बुिढया का स्नेह-स्वागत देखकर उसकी िझिझिक दूर हो गई। उसके साथ ऊपर गई,

तो हर एक चीज़ इसी तरह अपनी जगह पर पाई मानो अपना ही घर हो।

जग्गो ने लोट में पानी रखकर कहा, ‘इसी घर में भैया रहते थ, बेटी! आज पंद्रह रोज़ से घर सूना पडाहुआ

है। हाथ-मुंह धोकर दिही-चीनी खा लो न, बेटी! भैया का हाल तो अभी तुम्हें न मालूम हुआ होगा। ‘

जालपा ने िसर िहलाकर कहा, ‘कुछ ठीक-ठीक नहीं मालूम हुआ। वह जो पत्र छपता है, वहां मालूम हुआ

था िक पुिलस ने िगरफ्तार कर िलया है।‘

देवीदिीन भी ऊपर आ गया था। बोला, ‘िगरफ्तार तो िकया था, पर अब तो वह एक मुकदिमे में सरकारी

गवाह हो गए ह। परागराज में अब उन पर कोई मुकदिमा न चलेगा और साइत नौकरी-चाकरी भी िमल जाए।

जालपा ने गवर्च से कहा, ‘क्या इसी डर से वह सरकारी गवाह हो गए ह?

वहां तो उन पर कोई मामला ही नहीं है। मुकदिमा क्यों चलेगा?’

देवीदिीन ने डरते-डरते कहा, ‘कुछ रूपये-पैसे का मुआमला था न?’

जालपा ने मानो आहत होकर कहा, ‘वह कोई बात न थी। ज्योंही हम लोगों को मालूम हुआ िक कुछ

सरकारी रकम इनसे खचर्च हो गई है, उसी वक्त पहुंचा दिी। यह व्यथर्च घबडाकर चले आए और िफर ऐसी चुप्पी

साधी िक अपनी ख़बर तक न दिी।’

देवीदिीन का चेहरा जगमगा उठा, मानो िकसी व्यथा से आराम िमल गया हो बोला, ‘तो यह हम लोगों को

क्या मालूम! बार-बार समझिाया िक घर पर खत-पत्तिर भेज दिो, लोग घबडाते होंग, पर मारे शमर्च के िलखते ही न

थ। इसी धोखे में पड़े रहे िक परागराज में मुकदिमा चल गया होगा। जानते तो सरकारी गवाह क्यों बनते?’

‘सरकारी गवाह’ का आशय जालपा से िछपा न था। समाज में उनकी जो िनदिा और अपकीित होती है, यह

भी उससे िछपी न थी। सरकारी गवाह क्यों बनाए जाते ह, िकस तरह प्रलोभन िदिया जाता है, िकस भांित वह

पुिलस के पुतले बनकर अपने ही िमत्रों का गला घोंटते ह, यह उसे मालूम था। मगर कोई आदिमी अपने बुरे

आचरण पर लिज्जत होकर भी सत्य का उदिघाटन करे, छल और कपट का आवरण हटा दे, तो वह सज्जन है,

उसके साहस की िजतनी प्रशंसा की जाए, कम है। मगर शतर्च यही है िक वह अपनी गोष्ठी के साथ िकए का फल

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भोगने को तैयार रहे। हंसता-खेलता फांसी पर चढ़जाए तो वह सच्चा वीर है, लेिकन अपने प्राणों की रक्षा के

िलए स्वाथर्च के नीच िवचार से, दिंड की कठोरता से भयभीत होकर अपने सािथयों से दिगा करे, आस्तीन का सांप

बन जाए तो वह कायर है, पितत है, बेहया है। िवश्वासघात डाकुआं और समाज के शत्रुआं में भी उतना ही हेय है

िजतना िकसी अन्य क्षो मेंब ऐसे प्राणी को समाज कभी क्षमा नहीं करता, कभी नहीं,जालपा इसे खूब समझिती

थी। यहां तो समस्या और भी जिटल हो गई थी। रमा ने दिंड के भय से अपने िकए हुए पापों का परदिा नहीं खोला

था। उसमें कम-से-कम सच्चाई तो होती। िनदिा होने पर भी आंिशक सच्चाई का एक गुण तो होता। यहां तो उन

पापों का परदिा खोला गया था, िजनकी हवा तक उसे न लगी थी। जालपा को सहसा इसका िवश्वास न आया।

अवश्य कोई-न? कोई बात हुई होगी, िजसने रमा को सरकारी गवाह बनने पर मज़बूर कर िदिया होगा। सद्दचाती

हुई बोली,’क्या यहां भी कोई---कोई बात हो गई थी?’

देवीदिीन उसकी मनोव्यथा का अनुभव करता हुआ बोला, ‘कोई बात नहीं। यहां वह मेरे साथ ही परागराज

से आए। जब से आए यहां से कहीं गए नहीं। बाहर िनकलते ही न थ। बस एक िदिन िनकले और उसी िदिन पुिलस

ने पकड़ िलया। एक िसपाही को आते देखकर डरे िक मुझिी को पकड़ने आ रहा है, भाग खड़े हुए। उस िसपाही को

खटका हुआ। उसने शुबहे में िगरफ्तार कर िलया। मैं भी इनके पीछे थाने में पहुंचा। दिारोग़ा पहले तो िरसवत

मांगते थ, मगर जब मैं घर से रूपये लेकर गया, तो वहां और ही गुल िखल चुका था। अफसरों में न जाने क्या

बातचीत हुई। उन्हें सरकारी गवाह बना िलया। मुझिसे तो भैया ने कहा िक इस मुआमले में िबलकुल झिूठ न

बोलना पड़ेगा। पुिलस का मुकदिमा सच्चा है। सच्ची बात कह देने में क्या हरज है। मैं चुप हो रहा। क्या करता।’

जग्गो—‘न जाने सबों ने कौनसी बूटी सुंघा दिी। भैया तो ऐसे न थ। िदिन भर अम्मां-अम्मां करते रहते थ।

दूकान पर सभी तरह के लोग आते ह, मदिर्च भी औरत भी, क्या मजाल िक िकसी की ओर आंख उठाकर देखा हो ।’

देवीदिीन—‘कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा। उसी धोखे में आ गए।’

जालपा ने एक िमनट सोचने के बादि कहा, ‘क्या उनका बयान हो गया?’

‘हां, तीन िदिन बराबर होता रहा। आज खतम हो गया।’

जालपा ने उिद्वग्न होकर कहा, ‘तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे िमल सकती हूं?’

देवीदिीन जालपा के इस प्रश्न पर मुस्करा पड़ा। बोला, ‘हां, और क्या, िजसमें जाकर भंडागोड़ कर दिो,

सारा खेल िबगाड़ दिो! पुिलस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे नहीं िमलने पाता। कडा पहरा रहता है।’

इस प्रश्न पर इस समय और कोई बातचीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझिाना आसान न था।

जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खडा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा शरमा रहा था, मानो

ससुराल आया हो धीरे-धीरे आकर खडा हो गया। जालपा ने कहा, ‘मुंह-हाथ धोकर कुछ खा तो लो। दिही तो

तुम्हें बहुत अच्छा लगता है।’गोपी लजा कर िफर बाहर चला गया।

देवीदिीन ने मुस्कराकर कहा, ‘हमारे सामने न खाएंग। हम दिोनों चले जाते ह। तुम्हें िजस चीज़ की जरूरत

हो, हमसे कह देना, बहूजी! तुम्हारा ही घर है।’

‘भैया को तो हम अपना ही समझिते थ। और हमारे कौन बैठा हुआ है।’जग्गो ने गवर्च से कहा, ‘वह तो मेरे

हाथ का बनाया खा लेते थ।’

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जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा, मांजी, मैं बना िदिया करूंगी।’

जग्गो ने आपित्ति की, ‘हमारी िबरादिरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है, बहू, अब चार िदिन के िलए

िबरादिरी में नक्य क्या बनूं!’

जालपा—‘हमारी िबरादिरी में भी तो दूसरों का खाना मना है।’

जग्गो—‘यहां तुम्हें कौन देखने आता है। िफर पढ़े-िलखे आदिमी इन बातों का िवचार भी तो नहीं करते।

हमारी िबरादिरी तो मूरख लोगों की है। ’

जालपा—‘यह तो अच्छा नहीं लगता िक तुम बनाओ और मैं खाऊं। िजसे बहू बनाया, उसके हाथ का खाना

पड़ेगा। नहीं खाना था, तो बहू क्यों बनाया।’

देवीदिीन ने जग्गो की ओर प्रशंसा-सूचक नजरों से देखकर कहा, ‘बहू ने बात पते की कह दिी। इसका जवाब

सोचकर देना। अभी चलो। इन लोगों को ज़रा आराम करने दिो।’

दिोनों नीचे चले गए, तो गोपी ने आकर कहा, ‘भैया इसी खिटक के यहां रहते थ क्या? खिटक ही तो

मालूम होते ह।’

जालपा ने फटकारकर कहा, ‘खिटक हों या चमार हों, लेिकन हमसे और तुमसे सौगुने अच्छे ह। एक

परदेशी आदिमी को छः महीने तक अपने घर में ठहराया, िखलाया, िपलाया। हममें है इतनी िहम्मत! यहां तो कोई

मेहमान आ जाता है, तो वह भी भारी हो जाता है। अगर यह नीचे ह, तो हम इनसे कहीं नीचे ह।’

गोपी मुंह-हाथ धो चुका था। िमठाई खाता हुआ बोला, िकसी को ठहरा लेने से कोई ऊंचा नहीं हो जाता।

चमार िकतना ही दिानपुण्य करे, पर रहेगा तो चमार ही।’

जालपा—‘मैं उस चमार को उस पंिडत से अच्छा समझिूंगी, जो हमेशा दूसरों का धन खाया करता है।’

जलपान करके गोपी नीचे चला गया। शहर घूमने की उसकी बडी इच्छा थी। जालपा की इच्छा कुछ खाने

की न हुई। उसके सामने एक जिटल समस्या खड़ी थी,रमा को कैसे इस दिलदिल से िनकाले। उस िनदिा और उपहास

की कल्पना ही से उसका अिभमान आहत हो उठता था। हमेशा के िलए वह सबकी आंखों से िफर जाएंग, िकसी

को मुंह न िदिखा सकेंग। िफर, बेगुनाहों का खून िकसकी गदिर्चन पर होगा। अिभयुक्तों में न जाने कौन अपराधी है,

कौन िनरपराध है, िकतने द्वेष के िशकार ह, िकतने लोभ के, सभी सज़ा पा जाएंग। शायदि दिो-चार को फांसी भी

हो जाय। िकस पर यह हत्या पड़ेगी? उसने िफर सोचा, माना िकसी पर हत्या न पड़ेगी। कौन जानता है, हत्या

पड़ती है या नहीं, लेिकन अपने स्वाथर्च के िलए,ओह! िकतनी बडी नीचता है। यह कैसे इस बात पर राज़ी हुए!

अगर म्युिनिसपैिलटी के मुकदिमा चलाने का भय भी था, तो दिो-चार साल की कैदि के िसवा और क्या होता, उससे

बचने के िलए इतनी घोर नीचता पर उतर आए! अब अगर मालूम भी हो जाए िक म्युिनिसपैिलटी कुछ नहीं कर

सकती, तो अब हो ही क्या सकता है। इनकी शहादित तो हो ही गई। सहसा एक बात िकसी भारी कील की तरह

उसके ह्रदिय में चुभ गई।

क्यों न यह अपना बयान बदिल दें। उन्हें मालूम हो जाए िक म्युिनिसपैिलटी उनका कुछ नहीं कर सकती, तो

शायदि वह खुदि ही अपना बयान बदिल दें। यह बात उन्हें कैसे बताई जाए? िकसी तरह संभव है। वह अधीर होकर

नीचे उतर आई और देवीदिीन को इशारे से बुलाकर बोली,’क्यों दिादिा, उनके पास कोई खत भी नहीं पहुंच सकता?

पहरे वालों को दिस-पांच रूपये देने से तो शायदि ख़त पहुंच जाय।’

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देवीदिीन ने गदिर्चन िहलाकर कहा,’मुसिकल है। पहरे पर बडे जंचे हुए आदिमी रखे गए ह। मैं दिो बार गया था। सबों

ने फाटक के सामने खडाभी न होने िदिया।’

‘उस बंगले के आसपास क्या है?’

‘एक ओर तो दूसरा बंगला है। एक ओर एक कलमी आम का बाग़ है और सामने सड़क है।’

‘हां, शाम को घूमने-घामने तो िनकलते ही होंग?’

‘हां, बाहर द्दरसी डालकर बैठते ह। पुिलस के दिो-एक अफसर भी साथ रहते ह।’

‘अगर कोई उस बाग़ में िछपकर बैठे, तो कैसा हो! जब उन्हें अकेले देखे, ख़त फेंक दे। वह जरूर उठा लेंग।’

देवीदिीन ने चिकत होकर कहा, ‘हां, हो तो सकता है, लेिकन अकेले िमलें तब तो!’

ज़रा और अंधेरा हुआ, तो जालपा ने देवीदिीन को साथ िलया और रमानाथ का बंगला देखने चली। एक पत्र

िलखकर जेब में रख िलया था। बार-बार देवीदिीन से पूछती, अब िकतनी दूर है? अच्छा! अभी इतनी ही दूर और!

वहां हाते में रोशनी तो होगी ही। उसके िदिल में लहर-सी उठने लगीं। रमा अकेले टहलते हुए िमल जाएं, तो क्या

पूछना। ईमाल में बांधकर ख़त को उनके सामने फेंक दूं। उनकी सूरत बदिल गई होगी। सहसा उसे शंका हो

गई,कहीं वह पत्र पढ़कर भी अपना बयान न बदिलें, तब क्या होगा? कौन जाने अब मेरी यादि भी उन्हें है या नहीं।

कहीं मुझिे देखकर वह मुंह उधर लें तो- इस शंका से वह सहम उठी। देवीदिीन से बोली, ‘क्यों दिादिा,

वह कभी घर की चचा करते थ?’

देवीदिीन ने िसर िहलाकर कहा,’कभी नहीं। मुझिसे तो कभी नहीं की। उदिास बहुत रहते थ। ’

इन शब्दिों ने जालपा की शंका को और भी सजीव कर िदिया। शहर की घनी बस्ती से ये लोग दूर िनकल

आए थ। चारों ओर सन्नाटा था। िदिनभर वेग से चलने के बादि इस समय पवन भी िवश्राम कर रहा था। सड़क के

िकनारे के वृतक्ष और मैदिान चन्द्रमा के मंदि प्रकाश में हतोत्साह, िनजीव-से मालूम होते थ। जालपा को ऐसा

आभास होने लगा िक उसके प्रयास का कोई फल नहीं है, उसकी यात्रा का कोई लक्ष्य नहीं है, इस अनंत मागर्च में

उसकी दिशा उस अनाथ की-सी है जो मुत्तिीभर अकै के िलए द्वार-द्वार िफरता हो वह जानता है, अगले द्वार पर

उसे अकै न िमलेगा, गािलयां ही िमलेंगी, िफर भी वह हाथ फैलाता है, बढ़ती मनाता है। उसे आशा का अवलंब

नहीं िनराशा ही का अवलंब है।

एकाएक सड़क के दिाहनी तरफ िबजली का प्रकाश िदिखाई िदिया। देवीदिीन ने एक बंगले की ओर उंगली

उठाकर कहा, ‘यही उनका बंगला है।’

जालपा ने डरते-डरते उधर देखा, मगर िबलकुल सन्नाटा छाया हुआ था। कोई आदिमी न था। फाटक पर

ताला पडाहुआ था।

जालपा बोली,’यहां तो कोई नहीं है।’

देवीदिीन ने फाटक के अंदिर झिांककर कहा, ‘हां, शायदि यह बंगला छोड़ िदिया।’

‘कहीं घूमने गए होंग?’

‘घूमने जाते तो द्वार पर पहरा होता। यह बंगला छोड़ िदिया।’

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‘तो लौट चलें।’

‘नहीं, ज़रा पता लगाना चािहए, गए कहां?’

बंगले की दिाहनी तरफ आमों के बाग़ में प्रकाश िदिखाई िदिया। शायदि खिटक बाग़ की रखवाली कर रहा

था। देवीदिीन ने बाग में आकर पुकारा, ‘कौन है यहां? िकसने यह बाग़ िलया है?’

एक आदिमी आमों के झिुरमुट से िनकल आया। देवीदिीन ने उसे पहचानकर कहा ,

‘अरे! तुम हो जंगली? तुमने यह बाग़ िलया है?’

जगंली िठगना-सा गठीला आदिमी था, बोला,’हां दिादिा, ले िलया, पर कुछ है नहीं। डंड ही भरना पड़ेगा।

तुम यहां कैसे आ गए?’

‘कुछ नहीं, यों ही चला आया था। इस बंगले वाले आदिमी क्या हुए?’

जंगली ने इधर-उधर देखकर कनबितयों में कहा, ‘इसमें वही मुखबर िटका हुआ था। आज सब चले गए।

सुनते ह, पंद्रह-बीस िदिन में आएंग, जब िफर हाईकोटर्च में मुकदिमा पेस होगा। पढ़े-िलखे आदिमी भी ऐसे दिगाबाज

होते ह, दिादिा! सरासर झिूठी गवाही दिी। न जाने इसके बाल-बच्चे ह या नहीं, भगवान को भी नहीं डरा!’

जालपा वहीं खड़ी थी। देवीदिीन ने जंगली को और ज़हर उगलने का अवसर न िदिया। बोला,

‘तो पंद्रह-बीस िदिन में आएंग, खूब मालूम है?

जंगली—‘हां, वही पहरे वाले कह रहे थ।’

‘कुछ मालूम हुआ, कहां गए ह?’

‘वही मौका देखने गए ह जहां वारदिात हुई थी।’

देवीदिीन िचलम पीने लगा और जालपा सड़क पर आकर टहलने लगी। रमा की यह िनदिा सुनकर उसका

ह्रदिय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता था। उसे रमा पर कोध न आया, ग्लािन न आई, उसे हाथों का सहारा देकर इस

दिलदिल से िनकालने के िलए उसका मन िवकल हो उठा। रमा चाहे उसे दुर्त्कार ही क्यों न दे, उसे ठुकरा ही क्यों

न दे, वह उसे अपयश के अंधेरे खडड में न िफरने

देगी। जब दिोनों यहां से चले तो जालपा ने पूछा, ‘इस आदिमी से कह िदिया न िक जब वह आ जायं तो हमें

ख़बर दे दे?’

‘हां, कह िदिया।’

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सैंतीस

एक महीना गुज़र गया। गोपीनाथ पहले तो कई िदिन कलकत्तिा की सैर करता रहा, मगर चार-पांच िदिन में

ही यहां से उसका जी ऐसा उचाट हुआ िक घर की रट लगानी शुरू की। आिख़र जालपा ने उसे लौटा देना ही

अच्छा समझिा, यहां तो वह िछप-िछप कर रोया करता था।

जालपा कई बार रमा के बंगले तक हो आई। वह जानती थी िक अभी रमा नहीं आए ह। िफर भी वहां का

एक चक्कर लगा आने में उसको एक िविचत्र संतोष होता था। जालपा कुछ पढ़ते-पढ़ते या लेट-लेट थक जाती, तो

एक क्षण के िलए िखड़की के सामने आ खड़ी होती थी। एक िदिन शाम को वह िखड़की के सामने आई, तो सड़क

पर मोटरों की एक कतार नज़र आई। कौतूहल हुआ, इतनी मोटर कहां जा रही ह! ग़ौर से देखने लगी। छः मोटर

थीं। उनमें पुिलस के अफसर बैठे हुए थ। एक में सब िसपाही थ। आिख़री मोटर पर जब उसकी िनगाह पड़ी तो,

मानो उसके सारे शरीर में िबजली की लहर दिौड़ गई। वह ऐसी तन्मय हुई िक िखड़की से जीने तक दिौड़ी आई,

मानो मोटर को रोक लेना चाहती हो, पर इसी एक पल में उसे मालूम हो गया िक मेरे नीचे उतरते-उतरते मोटर

िनकल जाएंगी। वह िफर िखड़की के सामने आयी, रमा अब िबलकुल सामने आ गया था। उसकी आंखें िखड़की की

ओर लगी हुई थीं। जालपा ने इशारे से कुछ कहना चाहा, पर संकोच ने रोक िदिया। ऐसा मालूम हुआ िक रमा की

मोटर कुछ धीमी हो गई है। देवीदिीन की आवाज़ भी सुनाई दिी, मगर मोटर रूकी नहीं। एक ही क्षण में वह आग

बढ़गई, पर रमा अब भी रह-रहकर िखड़की की ओर ताकता जाता था।

जालपा ने जीने पर आकर कहा, ‘दिादिा!’

देवीदिीन ने सामने आकर कहा, ‘भैया आ गए! वह क्या मोटर जा रही है!’

यह कहता हुआ वह ऊपर आ गया। जालपा ने उत्सुकता को संकोच से दिबाते हुए कहा, ‘तुमसे कुछ कहा?’

देवीदिीन—‘और क्या कहते, खाली राम-राम की। मैंने कुसल पूछी। हाथ से िदिलासा देते चले गए। तुमने

देखा िक नहीं?’

जालपा ने िसर झिुकाकर कहा, देखा क्यों नहीं? िखड़की पर ज़रा खड़ी थी।

‘उन्होंने भी तुम्हें देखा होगा?’

‘िखड़की की ओर ताकते तो थ। ‘

‘बहुत चकराए होंग िक यह कौन है!’

‘कुछ मालूम हुआ मुकदिमा कब पेश होगा?’

‘कल ही तो।’

‘कल ही! इतनी जल्दि, तब तो जो कुछ करना है आज ही करना होगा। िकसी तरह मेरा ख़त उन्हें िमल

जाता, तो काम बन जाता।’

देवीदिीन ने इस तरह ताका मानो कह रहा है, तुम इस काम को िजतना आसान समझिती हो उतना आसान

नहीं है।

जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा, ‘क्या तुम्हें संदेह है िक वह अपना बयान बदिलने पर राज़ी

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होंग?’

देवीदिीन को अब इसे स्वीकार करने के िसवा और कोई उपाय न सूझिा, बोला,हां, बहूजी, मुझिे इसका बहुत

अंदेसा है। और सच पूछो तो है भी जोिखम, अगर वह बयान बदिल भी दें, तो पुिलस के पंजे से नहीं छूट सकते।

वह कोई दूसरा इलज़ाम लगा कर उन्हें पकड़ लेगी और िफर नया मुकदिमा चलावेगी।’

जालपा ने ऐसी नज़रों से देखा, मानो वह इस बात से ज़रा भी नहीं डरती। िफर बोली, ‘दिादिा, मैं उन्हें

पुिलस के पंजे से बचाने का ठेका नहीं लेती। मैं केवल यह चाहती हूं िक हो सके तो अपयश से उन्हें बचा लूं। उनके

हाथों इतने घरों की बरबादिी होते नहीं देख सकती। अगर वह सचमुच डकैितयों में शरीक होते, तब भी मैं यही

चाहती िक वह अंत तक अपने सािथयों के साथ रहें और जो िसर पर पड़े उसे खुशी से झिेलें। मैं यह कभी न पसंदि

करती िक वह दूसरों को दिग़ा देकर मुख़िबर बन जायं, लेिकन यह मामला तो िबलकुल झिूठ है। मैं यह िकसी तरह

नहीं बरदिाश्त कर सकती िक वह अपने स्वाथर्च के िलए झिूठी गवाही दें। अगर उन्होंने खुदि अपना बयान न बदिला,

तो मैं अदिालत में जाकर सारा कच्चा िचत्तिा खोल दूंगी, चाहे नतीजा कुछ भी हो वह हमेशा के िलए मुझिे त्याग दें,

मेरी सूरत न देखें, यह मंजूर है, पर यह नहीं हो सकता िक वह इतना बडा कलंक माथ पर लगाव। मैंने अपने पत्र

में सब िलख िदिया है। देवीदिीन ने उसे आदिर की दिृतिष्ट से देखकर कहा, ‘तुम सब कर लोगी बहू, अब मुझिे िवश्वास

हो गया। जब तुमने कलेजा इतना मजबूत कर िलया है, तो तुम सब कुछ कर सकती हो।’

‘तो यहां से नौ बजे चलें?’

‘हां, मैं तैयार हूं।’

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अड़तीस

वह रमानाथ—,जो पुिलस के भय से बाहर न िनकलता था, जो देवीदिीन के घर में चोरों की तरह पडा

िजदिगी के िदिन पूरे कर रहा था, आज दिो महीनों से राजसी भोग-िवलास में डूबा हुआ है। रहने को सुंदिर सजा

हुआ बंगला है, सेवा-टहल के िलए चौकीदिारों का एक दिल, सवारी के िलए मोटरब भोजन पकाने के िलए एक

काश्मीरी बावरची है। बड़े-बडे अफसर उसका मुंह ताकष करते ह। उसके मुंह से बात िनकली नहीं िक पूरी हुई!

इतने ही िदिनों में उसके िमज़ाज में इतनी नफासत आ गई है, मानो वह ख़ानदिानी रईस हो िवलास ने उसकी

िववेक- बुिद्धिको सम्मोिहत-सा कर िदिया है। उसे कभी इसका ख़याल भी नहीं आता िक मैं क्या कर रहा हूं और

मेरे हाथों िकतने बेगुनाहों का खून हो रहा है। उसे एकांत-िवचार का अवसर ही नहीं िदिया जाता। रात को वह

अिधकािरयों के साथ िसनेमा या िथएटर देखने जाता है, शाम को मोटरों की सैर होती है। मनोरंजन के िनत्य नए

सामान होते रहते ह। िजस िदिन अिभयुक्तों को मैिजस्ट्रेट ने सेशन सुपुदिर्च िकया, सबसे ज्यादिा खुशी उसी को हुई।

उसे अपना सौभाग्य-सूयर्च उदिय होता हुआ मालूम होता था।

पुिलस को मालूम था िक सेशन जज के इजलास में यह बहार न होगी। संयोग से जज िहन्दुर्स्तानी थ और

िनष्पक्षता के िलए बदिनाम, पुिलस हो या चोर, उनकी िनगाह में बराबर था। वह िकसी के साथ िरआयत न करते

थ। इसिलए पुिलस ने रमा को एक बार उन स्थानों की सैर कराना ज़रूरी समझिा, जहां वारदिातें हुई थीं। एक

ज़मींदिार की सजी-सजाई कोठी में डेरा पड़ा। िदिन?भर लोग िशकार खेलते, रात को ग्रामोफोन सुनते, ताश खेलते

और बज़रों पर निदियों की सैर करते। ऐसा जान पड़ता था िक कोई राजकुमार िशकार खेलने िनकला है। इस

भोग-िवलास में रमा को अगर कोई अिभलाषा थी, तो यह िक जालपा भी यहां होती। जब तक वह परािश्रत था,

दििरद्र था, उसकी िवलासेंिद्रयां मानो मूिच्र्छत हो रही थीं। इन शीतल झिोंकों ने उन्हें िफर सचेत कर िदिया। वह

इस कल्पना में मग्न था िक यह मुकदिमा ख़त्म होते ही उसे अच्छी जगह िमल जायगी। तब वह जाकर जालपा को

मना लावेगा और आनंदि से जीवनसुख भोगगा।

हां, वह नए प्रकार का जीवन होगा, उसकी मयादिा कुछ और होगी, िसद्धिान्त कुछ और होंग। उसमें कठोर

संयम होगा और पक्का िनयांण! अब उसके जीवन का कुछ उद्देश्य होगा, कुछ आदिशर्च होगा। केवल खाना, सोना

और रूपये के िलए हाय-हाय करना ही जीवन का व्यापार न होगा। इसी मुकदिमे के साथ इस मागर्चहीन जीवन का

अंत हो जायगा। दुर्बर्चल इच्छा ने उसे यह िदिन िदिखाया था और अब एक नए और संस्कृतत जीवन का स्वप्न िदिखा

रही थी। शरािबयों की तरह ऐसे मनुष्य रोज़ ही संकल्प करते ह, लेिकन उन संकल्पों का अंत क्या होता है? नएनए प्रलोभन सामने आते रहते ह और संकल्प की अविध भी बढ़ती चली जाती है। नए प्रभात का उदिय कभी नहीं

होता।

एक महीना देहात की सैर के बादि रमा पुिलस के सहयोिगयों के साथ अपने बंगले पर जा रहा था। रास्ता

देवीदिीन के घर के सामने से था, कुछ दूर ही से उसे अपना कमरा िदिखाई िदिया। अनायास ही उसकी िनगाह ऊपर

उठ गई। िखड़की के सामने कोई खडाथा। इस वक्त देवीदिीन वहां क्या कर रहा है? उसने ज़रा ध्यान से देखा। यह

तो कोई औरत है! मगर औरत कहां से आईक्या देवीदिीन ने वह कमरा िकराए पर तो नहीं उठा िदिया, ऐसा तो उसने कभी नहीं िकया।

मोटर ज़रा और समीप आई तो उस औरत का चेहरा साफ नज़र आने लगा। रमा चौंक पड़ा। यह तो

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जालपा है! बेशक जालपा है! मगर नहीं, जालपा यहां कैसे आयगी? मेरा पता-िठकाना उसे कहां मालूम! कहीं

बुडढे ने उसे ख़त तो नहीं िलख िदिया? जालपा ही है। नायब दिारोग़ा मोटर चला रहा था। रमा ने बडी िमत्रता के

साथ कहा,सरदिार साहब, एक िमनट के िलए रूक जाइए। मैं ज़रा देवीदिीन से एक बात कर लूं। नायब ने मोटर

ज़रा धीमी कर दिी, लेिकन िफर कुछ सोचकर उसे आग बढ़ा िदिया।

रमा ने तेज़ होकर कहा, ‘आप तो मुझिे कैदिी बनाए हुए ह।’

नायब ने िखिसयाकर कहा, ‘आप तो जानते ह, िडप्टी साहब िकतनी जल्दि जामे से बाहर हो जाते ह।’

बंगले पर पहुंचकर रमा सोचने लगा, जालपा से कैसे िमलूं। वहां जालपा ही थी, इसमें अब उसे कोई शुबहा

न था। आंखों को कैसे धोखा देता। ह्रदिय में एक ज्वाला-सी उठी हुई थी, क्या करूं? कैसे जाऊं?’ उसे कपड़े

उतारने की सुिध भी न रही। पंद्रह िमनट तक वह कमरे के द्वार पर खडारहा। कोई िहकमत न सूझिी। लाचार

पलंग पर लेटा रहा। ज़रा ही देर में वह िफर उठा और सामने सहन में िनकल आया। सडक पर उसी वक्त िबजली

रोशन हो गई। फाटक पर चौकीदिार खडा था। रमा को उस पर इस समय इतना कोध आया, िक गोली मार दे।

अगर मुझिे कोई अच्छी जगह िमल गई, तो एक-एक से समझिूंगा। तुम्हें तो िडसिमस कराके छोडूंगा। कैसा शैतान

की तरह िसर पर सवार है। मुंह तो देखो ज़राब मालूम होता है ।करी की दुर्म है। वाह रे आपकी पगड़ी, कोई

टोकरी ढोने वाला कुली है। अभी कुत्तिा भूंक पड़े, तो आप दुर्म दिबाकर भागंग, मगर यहां ऐसे डट खड़े ह मानो

िकसी िकले के द्वार की रक्षा कर रहे ह।

एक चौकीदिार ने आकर कहा, ‘इसिपक्टर साहब ने बुलाया है। कुछ नए तवे मंगवाए ह।

रमा ने झिल्लाकर कहा, ‘मुझिे इस वक्त फुरसत नहीं है।’

िफर सोचने लगा। जालपा यहां कैसे आई, अकेले ही आई है या और कोई साथ है? जािलम ने बुडढे से एक

िमनट भी बात नहीं करने िदिया। जालपा पूछेगी तो जरूर, िक क्यों भाग थ। साफ-साफ कह दूंगा, उस समय और

कर ही क्या सकता था। पर इन थोड़े िदिनों के कष्ट ने जीवन का प्रश्न तो हल कर िदिया। अब आनंदि से िजदिगी

कटगी। कोिशश करके उसी तरफ अपना तबादिला करवा लूंगा। यह सोचते-सोचते रमा को ख़याल आया िक

जालपा भी यहां मेरे साथ रहे, तो क्या हरज है। बाहर वालों से िमलने की रोक-टोक है। जालपा के िलए क्या

रूकावट हो सकती है। लेिकन इस वक्त इस प्रश्न को छेड़ना उिचत नहीं। कल इसे तय करूंगा। देवीदिीन भी

िविचत्र जीव है। पहले तो कई बार आया, पर आज उसने भी सन्नाटा खींच िलया। कम-से-कम इतना तो हो

सकता था िक आकर पहरे वाले कांस्टबल से जालपा के आने की ख़बर मुझिे देता। िफर मैं देखता िक कौन जालपा

को नहीं आने देता। पहले इस तरह की कैदि ज़रूरी थी, पर अब तो मेरी परीक्षा पूरी हो चुकी। शायदि सब लोग

खुशी से राजी हो जाएंग।

रसोइया थाली लाया। मांस एक ही तरह का था। रमा थाली देखते ही झिल्ला गया। इन िदिनों रूिचकर

भोजन देखकर ही उसे भूख लगती थी। जब तक चार-पांच प्रकार का मांस न हो, चटनी-अचार न हो, उसकी

तृतिप्त न होती थी। िबगड़कर बोला, ‘क्या खाऊं तुम्हारा िसर- थाली उठा ले जाओ।‘

रसोइए ने डरते-डरते कहा,’हुजूर, इतनी जल्दि और चीजें कैसे बनाता! अभी कुल दिो घंट तो आए हुए ह।’

‘दिो घंट तुम्हारे िलए थोड़े होते ह!’

‘अब हुजूर से क्या कहूं!’

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‘मत बको।’

‘हुजूर’

‘मत बको - डैम!’

रसोइए ने िफर कुछ न कहा। बोतल लाया, बफर्क तोड़कर ग्लास में डाली और पीछे हटकर खडाहो गया। रमा

को इतना कोध आ रहा था िक रसोइए को नोच खाए। उसका िमज़ाज इन िदिनों बहुत तेज़ हो गया था। शराब

का दिौर शुरू हुआ, तो रमा का गुस्सा और भी तेज़ हो गया। लाल – लाल आंखों से देखकर बोला, ‘चाहूं तो अभी

तुम्हारा कान पकड़कर िनकाल दूं। अभी, इसी दिम! तुमने समझिा क्या है!’

उसका कोध बढ़ता देखकर रसोइया चुपके-से सरक गया। रमा ने ग्लास िलया और दिो-चार लुकमे खाकर

बाहर सहन में टहलने लगा। यही धुन सवार थी, कैसे यहां से िनकल जाऊं। एकाएक उसे ऐसा जान पडािक तार

के बाहर वृतक्षों की आड़ में कोई है। हां, कोई खडा उसकी तरफ ताक रहा है। शायदि इशारे से अपनी तरफ बुला

रहा है। रमानाथ का िदिल धड़कने लगा। कहीं षडयंत्रकािरयों ने उसके प्राण लेने की तो नहीं ठानी है! यह शंका

उसे सदिैव बनी रहती थी। इसी ख़याल से वह

रात को बंगले के बाहर बहुत कम िनकलता था। आत्म-रक्षा के भाव ने उसे अंदिर चले जाने की प्रेरणा की।

उसी वक्त एक मोटर सड़क पर िनकली। उसके प्रकाश में रमा ने देखा, वह अंधेरी छाया स्त्री है। उसकी साड़ी

साफ नज़र आ रही है। िफर उसे ऐसा मालूम हुआ िक वह स्त्री उसकी ओर आ रही है। उसे िफर शंका हुई, कोई

मदिर्च यह वेश बदिलकर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है। वह ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया, वह छाया उसकी ओर

बढ़ती गई, यहां तक िक तार के पास आकर उसने कोई चीज़ रमा की तरफ गंकी। रमा चीख मारकर पीछे हट

गया, मगर वह केवल एक िलफाफा था। उसे कुछ तस्कीन हुई। उसने िफर जो सामने देखा, तो वह छाया

अंधकारमें िवलीन हो गई थी। रमा ने लपककर वह िलफाफा उठा िलया। भय भी था और कौतूहल भी। भय कम

था, कौतूहल अिधक। िलफाफे को हाथ में लेकर देखने लगा। िसरनामा देखते ही उसके ह्रदिय में फुरहिरयां-सी

उड़ने लगीं। िलखावट जालपा की थी। उसने फौरन िलफाफा खोला। जालपा ही की िलखावट थी। उसने एक ही

सांस में पत्र पढ़ डाला और तब एक लंबी सांस ली। उसी सांस के साथ िचता का वह भीषण भार िजसने आज छः

महीने से उसकी आत्मा को दिबाकर रक्खा था, वह सारी मनोव्यथा जो उसका जीवनरक्त चूस रही थी, वह सारी

दुर्बर्चलता, लज्जा, ग्लािन मानो उड़ गई, छू मंतर हो गई। इतनी स्फूित, इतना गवर्च, इतना आत्म-िवश्वास उसे कभी

न हुआ था। पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दिारोग़ा से कह दूं, मुझिे इस मुकदिमे से कोई सरोकार नहीं

है, लेिकन िफर ख़याल आया, बयान तो अब हो ही चुका, िजतना अपयश िमलना था, िमल ही चुका, अब उसके

फल से क्यों हाथ धोऊं। मगर इन सबों ने मुझिे कैसा चकमा िदिया है! और अभी तक मुगालते में डाले हुए ह। सबके-सब मेरी दिोस्ती का दिम भरते ह, मगर अभी तक असली बात मुझिसे िछपाए हुए ह। अब भी इन्हें मुझि पर

िवश्वास नहीं। अभी इसी बात पर अपना बयान बदिल दूं, तो आट-दिाल का भाव मालूम हो यही न होगा, मुझिे

कोई जगह न िमलेगी। बला से, इन लोगों के मनसूबे तो ख़ाक में िमल जाएंग। इस दिग़ाबाज़ी की सज़ा तो िमल

जायगी। और, यह कुछ न सही, इतनी बडी बदिनामी से तो बच जाऊंगा। यह सब शरारत जरूर करग, लेिकन

झिूठा इलज़ाम लगाने के िसवा और कर ही क्या सकते ह। जब मेरा यहां रहना सािबत ही नहीं तो मुझि पर दिोष

ही क्या लग सकता है। सबों के मुंह में कािलख लग जायगी। मुंह तो िदिखाया न जाएगा, मुकदिमा क्या चलाएंग।

मगर नहीं, इन्होंने मुझिसे चाल चली है, तो मैं भी इनसे वही चाल चलूंगा। कह दूंगा, अगर मुझिे आज कोई

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अच्छी जगह िमल जाएगी, तो मैं शहादित दूंगा, वरना साफ कह दूंगा, इस मामले से मेरा कोई संबंध नहीं। नहीं

तो पीछे से िकसी छोट-मोट थाने में नायब दिारोग़ा बनाकर भेज दें और वहां सडा करूं। लूंगा इंस्पेक्टरी और कल

दिस बजे मेरे पास िनयुिक्त का परवाना आ जाना चािहए।

वह चला िक इसी वक्त दिारोग़ा से कह दूं, लेिकन िफर रूक गया। एक बार जालपा से िमलने के िलए

उसके प्राण तड़प रहे थ। सके प्रित इतना अनुराग, इतनी श्रद्धिा उसे कभी न हुई थी, मानो वह कोई दिैवी-शिक्त

हो िजसे देवताआं ने उसकी रक्षा के िलए भेजा हो दिस बज गए थ। रमानाथ ने िबजली गुल कर दिी और बरामदे

में आकर ज़ोर से िकवाड़ बंदि कर िदिए, िजसमें पहरे वाले िसपाही को मालूम हो, अंदिर से िकवाड़ बंदि करके सो

रहे ह। वह अंधेरे बरामदे में एक िमनट खडा रहा। तब आिहस्ता से उतरा और कांटदिार गंिसग के पास आकर

सोचने लगा, उस पार कैसे जाऊं?’ शायदि अभी जालपा बग़ीचे में हो देवीदिीन जरूर उसके साथ होगा। केवल यही

तार उसकी राह रोके हुए था। उसे गांदि जाना असंभव था। उसने तारों के बीच से होकर िनकल जाने का िनश्चय

िकया। अपने सब कपड़े समेट िलए और कांटों को बचाता हुआ िसर और कंधो को तार के बीच में डाला, पर न

जाने कैसे कपड़े फंस गए। उसने हाथ से कपड़ों को छुडाना चाहा, तो आस्तीन कांटों में फंस गई। धोती भी उलझिी

हुई थी। बेचारा बडे संकट में पड़ा। न इस पार जा सकता था, न उस पारब ज़रा भी असावधानी हुई और कांट

उसकी देह में चुभ जाएंग।

मगर इस वक्त उसे कपड़ों की परवा न थी। उसने गदिर्चन और आग बढ़ाई और कपड़ों में लंबा चीरा लगाता

उस पार िनकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गए। पीठ में भी कुछ खरोंचे लग पर इस समय कोई बंदूक का

िनशाना बांधकर भी उसके सामने खडा हो जाता, तो भी वह पीछे न हटता। फट हुए कुरते को उसने वहीं फेंक

िदिया, गले की चादिर फट जाने पर भी काम दे सकती थी, उसे उसने ओढ़िलया, धोती समेट ली और बग़ीचे में

घूमने लगा। सन्नाटा था। शायदि रखवाला खिटक खाना खाने गया हुआ था। उसने दिो-तीन बार धीरेधीरे जालपा

का नाम लेकर पुकारा भी। िकसी की आहट न िमली, पर िनराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोडा।

उसने एक पेड़ के नीचे जाकर देखा। समझि गया, जालपा चली गई। वह उन्हीं पैरों देवीदिीन के घर की ओर चला।

उसे ज़रा भी शोक न था। बला से िकसी को मालूम हो जाय िक मैं बंगले से िनकल आया हूं, पुिलस मेरा

कर ही क्या सकती है। मैं कैदिी नहीं हूं, गुलामी नहीं िलखाई है।

आधी रात हो गई थी। देवीदिीन भी आधा घंटा पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था िक एक नंगधड़ंग आदिमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने चादिर िसर पर बांधा ली थी और देवीदिीन को डराना चाहता था।

देवीदिीन ने सशंक होकर कहा, ‘कौन है? ‘

सहसा पहचान गया और झिपटकर उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला, ‘तुमने तो भैया खूब भेस बनाया है?

कपड़े क्या हुए? ‘

रमानाथ—‘तार से िनकल रहा था। सब उसके कांटों में उलझिकर फट गए।‘

देवीदिीन—‘राम राम! देह में तो कांट नहीं चुभे? ‘

रमानाथ—‘कुछ नहीं, दिो-एक खरोंचे लग गए। मैं बहुत बचाकर िनकला।‘

देवीदिीन—‘बहू की िचट्ठी िमल गई न? ‘

रमानाथ—‘हां, उसी वक्त िमल गई थी। क्या वह भी तुम्हारे साथ थी? ‘

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देवीदिीन—‘वह मेरे साथ नहीं थीं, मैं उनके साथ था। जब से तुम्हें मोटर पर आते देखा, तभी से जाने-जाने

लगाए हुए थीं।‘

रमानाथ—‘तुमने कोई ख़त िलखा था? ‘

देवीदिीन—‘मैंने कोई ख़त-पत्तिर नहीं िलखा भैया। जब वह आई तो मुझिे आप ही अचंभा हुआ िक िबना

जाने-बूझिे कैसे आ गई। पीछे से उन्होंने बताया। वह सतरंज वाला नकसा उन्हीं ने पराग से भेजा था और इनाम

भी वहीं से आया था।‘

रमा की आंखें फैल गई। जालपा की चतुराई ने उसे िवस्मय में डाल िदिया। इसके साथ ही पराजय के भाव

ने उसे कुछ िखकै कर िदिया। यहां भी उसकी हार हुई! इस बुरी तरह!

बुिढया ऊपर गई हुई थी। देवीदिीन ने जीने के पास जाकर कहा, ‘अरे क्या करती है? बहू से कह दे। एक

आदिमी उनसे िमलने आया है।‘

यह कहकर देवीदिीन ने िफर रमा का हाथ पकड़ िलया और बोला, ‘चलो,अब सरकार में तुम्हारी पेसी

होगी। बहुत भाग थ। िबना वारंट के पकड़े गए। इतनी आसानी से पुिलस भी न पकड़ सकती! ‘

रमा का मनोल्लास किवत हो गया था। लज्जा से गडा जाता था। जालपा के प्रश्नों का उसके पास क्या

जवाब था। िजस भय से वह भागा था, उसने अंत में उसका पीछा करके उसे परास्त ही कर िदिया। वह जालपा के

सामने सीधी आंखें भी तो न कर सकता था। उसने हाथ छुडा िलया और जीने के पास िठठक गया। देवीदिीन ने

पूछा, ‘क्यों रूक गए? ‘

रमा ने िसर खुजलाते हुए कहा, ‘चलो, मैं आता हूं।‘

बुिढया ने ऊपर ही से कहा, ‘पूछो, कौन आदिमी है, कहां से आया है? ‘

देवीदिीन ने िवनोदि िकया, ‘कहता है, मैं जो कुछ कहूंगा, बहू से ही कहूंगा।‘

‘कोई िचट्ठी लाया है?’

‘नहीं!’’

सन्नाटा हो गया। देवीदिीन ने एक क्षण के बादि पूछा, ‘कह दूं, लौट जाय? ‘

जालपा जीने पर आकर बोली, ‘कौन आदिमी है, पूछती तो हूं!‘

‘कहता है, बडी दूर से आया हूं!’

‘है कहां?’

‘यह क्या खडाहै!’

‘अच्छा, बुला लो!’

रमा चादिर ओढ़े, कुछ िझिझिकता, कुछ झिंपता, कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने उसे देखते ही पहचान

िलया। तुरंत दिो कदिम पीछे हट गई। देवीदिीन वहां न होता तो वह दिो कदिम और आग बढ़ी होती। उसकी आंखों में

कभी इतना नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपलता न थी, कपोल कभी इतने न दिमके थ, ह्रदिय में कभी इतना

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मृतदुर् कंपन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई!

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उनतालीस

िवयोिगयों के िमलन की रात बटोिहयों के पडाव की रात है, जो बातों में कट जाती है। रमा और

जालपा,दिोनों ही को अपनी छः महीने की कथा कहनी थी। रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के िलए अपने कष्टों को

खूब बढ़ा-चढ़ाकर बयान िकया। जालपा ने अपनी कथा में कष्टों की चचा तक न आने दिी। वह डरती थी इन्हें दुर्ःख

होगा, लेिकन रमा को उसे रूलाने में िवशष आनंदि आ रहा था। वह क्यों भागा, िकसिलए भागा, कैसे भागा, यह

सारी गाथा उसने करूण शब्दिों में कही और जालपा ने िससक-िससककर सुनीब वह अपनी बातों से उसे प्रभािवत

करना चाहता था। अब तक सभी बातों में उसे परास्त होना पडाथा। जो बात उसे असूझि मालूम हुई, उसे जालपा

ने चुटिकयों में पूरा कर िदिखाया। शतरंज वाली बात को वह खूब नमक-िमचर्च लगाकर बयान कर सकता था,

लेिकन वहां भी जालपा ही ने नीचा िदिखाया। िफर उसकी कीित-लालसा को इसके िसवा और क्या उपाय

था िक अपने कष्टों की राई को पवर्चत बनाकर िदिखाए।

जालपा ने िससककर कहा, ‘तुमने यह सारी आफतें झिंली, पर हमें एक पत्र तक न िलखा। क्यों िलखते,

हमसे नाता ही क्या था! मुंह देखे की प्रीित थी! आंख ओट पहाड़ ओट।‘

रमा ने हसरत से कहा, ‘यह बात नहीं थी जालपा, िदिल पर जो कुछ गुज़रती थी िदिल ही जानता है, लेिकन

िलखने का मुंह भी तो हो जब मुंह िछपाकर घर से भागा, तो अपनी िवपित्ति-कथा क्या िलखने बैठता! मैंने तो

सोच िलया था, जब तक खूब रूपये न कमा लूंगा, एक शब्दि भी न िलखूंगा। ‘

जालपा ने आंसू-भरी आंखों में व्यंग्य भरकर कहा, ‘ठीक ही था, रूपये आदिमी से ज्यादिा प्यारे होते ही ह!

हम तो रूपये के यार ह, तुम चाहे चोरी करो, डाका मारो, जाली नोट बनाओ, झिूठी गवाही दिो या भीख मांगो,

िकसी उपाय से रूपये लाओ। तुमने हमारे स्वभाव को िकतना ठीक समझिा है, िक वाह! गोसाई जी भी तो कह

गए ह,स्वारथ लाइ करिह सब प्रीित।‘

रमा ने झिंपते हुए कहा, ‘नहीं-नहीं िप्रये, यह बात न थी। मैं यही सोचता था िक इन फट-हालों जाऊंगा

कैसे। सच कहता हूं, मुझिे सबसे ज्यादिा डर तुम्हीं से लगता था। सोचता था, तुम मुझिे िकतना कपटी, झिूठा, कायर

समझि रही होगी। शायदि मेरे मन में यह भाव था िक रूपये की थैली देखकर तुम्हारा ह्रदिय कुछ तो नमर्च होगा।‘

जालपा ने व्यिथत कंठ से कहा, ‘मैं शायदि उस थैली को हाथ से छूती भी नहीं। आज मालूम हो गया, तुम

मुझिे िकतनी नीच, िकतनी स्वािथनी, िकतनी लोिभन समझिते हो! इसमें तुम्हारा कोई दिोष नहीं, सरासर मेरा

दिोष है। अगर मैं भली होती, तो आज यह िदिन ही क्यों आता। जो पुरूष तीस-चालीस रूपये का नौकर हो, उसकी

स्त्री अगर दिो-चार रूपये रोज़ ख़चर्च करे, हज़ार-दिो हज़ार के गहने पहनने की नीयत रक्खे, तो वह अपनी और

उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने मुझिे इतना धनलोलुप समझिा, तो कोई अन्याय नहीं िकया।

मगर एक बार िजस आग में जल चुकी, उसमें िफर न यदूंगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायिश्चत्ति

िकया है और शष जीवन के अंत समय तक करूंगी। यह मैं नहीं कहती िक भोग-िवलास से मेरा जी भर गया, या

गहने-कपड़े से मैं ऊब गई, या सैर-तमाश से मुझिे घृतणा हो गई। यह सब अिभलाषाएं ज्यों की त्यों ह। अगर तुम

अपने पुरूषाथर्च से, अपने पिरश्रम से, अपने सदुर्द्यपोग से उन्हें पूरा कर सको तो क्या कहनाऋ लेिकन नीयत खोटी

करके, आत्मा को कलुिषत करके एक लाख भी लाओ, तो मैं उसे ठुकरा दूंगी। िजस वक्त मुझिे मालूम हुआ िक तुम

पुिलस के गवाह बन गए हो, मुझिे इतना दुर्ःख हुआ िक मैं उसी वक्त दिादिा को साथ लेकर तुम्हारे बंगले तक गई,

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मगर उसी िदिन तुम बाहर चले गए थ और आज लौट हो मैं इतने आदििमयों का खून अपनी गदिर्चन पर नहीं लेना

चाहती। तुम अदिालत में साफ-साफ कह दिो िक मैंने पुिलस के चकमे में आकर गवाही दिी थी, मेरा इस मुआमले से

कोई संबंध नहीं है। रमा ने िचितत होकर कहा, ‘जब से तुम्हारा ख़त िमला, तभी से मैं इस प्रश्न पर िवचार कर

रहा हूं, लेिकन समझि में नहीं आता क्या करूं। एक बात कहकर मुकर जाने का साहस मुझिमें नहीं है।‘

‘बयान तो बदिलना ही पड़ेगा।’

‘आिख़र कैसे ?’

‘मुिश्कल क्या है। जब तुम्हें मालूम हो गया िक म्युिनिसपैिलटी तुम्हारे ऊपर कोई मुकदिमा नहीं चला

सकती, तो िफर िकस बात का डर?’

‘डर न हो, झिंप भी तो कोई चीज़ है। िजस मुंह से एक बात कही, उसी मुंह से मुकर जाऊं, यह तो मुझिसे न

होगा। िफर मुझिे कोई अच्छी जगह िमल जाएगी। आराम से िजदिगी बसर होगी। मुझिमें गली-गली ठोकर खाने का

बूता नहीं है।’

जालपा ने कोई जवाब न िदिया। वह सोच रही थी, आदिमी में स्वाथर्च की मात्रा िकतनी अिधक होती है। रमा

ने िफर धृतष्टता से कहा, ’ और कुछ मेरी ही गवाही पर तो सारा फैसला नहीं हुआ जाता। मैं बदिल भी जाऊं, तो

पुिलस कोई दूसरा आदिमी खडाकर देगी। अपरािधयों की जान तो िकसी तरह नहीं बच सकती। हां, मैं मुफ्त में

मारा जाऊंगा।’

जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा, ’ कैसी बेशमी की बातें करते हो जी! क्या तुम इतने गए-बीते हो िक अपनी

रोिटयों के िलए दूसरों का गला काटो। मैं इसे नहीं सह सकती। मुझिे मजदूरी करना, भूखों मर जाना मंजूर है,

बडी-से-बडी िवपित्ति जो संसार में है, वह िसर पर ले सकती हूं, लेिकन िकसी का बुरा करके स्वगर्च का राज भी

नहीं ले सकती।’

रमा इस आदिशर्चवादि से िचढ़कर बोला, ’ तो क्या तुम चाहती िक मैं यहां कुलीगीरी करूं? ’

जालपा—‘नहीं, मैं यह नहीं चाहतीऋ लेिकन अगर कुलीगीरी भी करनी पड़े तो वह खून से तर रोिटयां

खाने से कहीं बढ़कर है।’

रमा ने शांत भाव से कहा, ’ जालपा, तुम मुझिे िजतना नीच समझि रही हो, मैं उतना नीच नहीं हूं। बुरी

बात सभी को बुरी लगती है। इसका दुर्ःख मुझिे भी है िक मेरे हाथों इतने आदििमयों का खून हो रहा है, लेिकन

पिरिस्थित ने मुझिे लाचार कर िदिया है। मुझिमें अब ठोकर खाने की शिक्त नहीं है। न मैं पुिलस से रार मोल ले

सकता हूं। दुर्िनया में सभी थोड़े ही आदिशर्च पर चलते ह। मुझिे क्यों उस ऊंचाई पर चढ़ाना चाहती हो, जहां पहुंचने

की शिक्त मुझिमें नहीं है।’

जालपा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा, ’ िजस आदिमी में हत्या करने की शिक्त हो, उसमें हत्या न करने की शिक्त

का न होना अचंभे की बात है। िजसमें दिौड़ने की शिक्त हो, उसमें खड़े रहने की शिक्त न हो इसे कौन मानेगा।

जब हम कोई काम करने की इच्छा करते ह, तो शिक्त आप ही आप आ जाती है। तुम यह िनश्चय कर लो िक

तुम्हें बयान बदिलना है, बस और बातें आप आ जायंगी।’

रमा िसर झिुकाए हुए सुनता रहा।

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जालपा ने और आवेश में आकर कहा, ’ अगर तुम्हें यह पाप की खेती करनी है, तो मुझिे आज ही यहां से

िवदिा कर दिो। मैं मुंह में कािलख लगाकर यहां से चली जाऊंगी और िफर तुम्हें िदिक करने न आऊंगी। तुम आनंदि से

रहना। मैं अपना पेट मेहनत-मजूरी करके भर लूंगी। अभी प्रायिश्चत्ति पूरा नहीं हुआ है, इसीिलए यह दुर्बर्चलता

हमारे पीछे पड़ी हुई है। मैं देख रही हूं, यह हमारा सवर्चनाश करके छोड़ेगी।’

रमा के िदिल पर कुछ चोट लगी। िसर खुजलाकर बोला, ’ चाहता तो मैं भी हूं िक िकसी तरह इस मुसीबत

से जान बचे।’

‘तो बचाते क्यों नहीं। अगर तुम्हें कहते शमर्च आती हो, तो मैं चलूं। यही अच्छा होगा। मैं भी चली चलूंगी

और तुम्हारे सुपरंडंट साहब से सारा वृतत्तिांत साफ- साफ कह दूंगी।’

रमा का सारा पसोपेश गायब हो गया। अपनी इतनी दुर्गर्चित वह न कराना चाहता था िक उसकी स्त्री जाकर

उसकी वकालत करे। बोला, ’ तुम्हारे चलने की जरूरत नहीं है जालपा, मैं उन लोगों को समझिा दूंगा। ’

जालपा ने ज़ोर देकर कहा, ’ साफ बताओ, अपना बयान बदिलोग या नहीं? ’

रमा ने मानो कोने में दिबकर कहा,कहता तो हूं, बदिल दूंगा। ’

‘मेरे कहने से या अपने िदिल से?’

‘तुम्हारे कहने से नहीं, अपने िदिल सेब मुझिे खुदि ही ऐसी बातों से घृतणा है। िसफर्क ज़रा िहचक थी, वह तुमने

िनकाल दिी।’

िफर और बातें होने लगीं। कैसे पता चला िक रमा ने रूपये उडा िदिए ह? रूपये अदिा कैसे हो गए? और

लोगों को ग़बन की ख़बर हुई या घर ही में दिबकर रह गई?रतन पर क्या गुज़री- गोपी क्यों इतनी जल्दि चला

गया? दिोनों कुछ पढ़ रहे ह या उसी तरह आवारा िफरा करते ह?आिख़र में अम्मां और दिादिा का िज़क आया। िफर

जीवन के मनसूबे बांधो जाने लग। जालपा ने कहा, ‘घर चलकर रतन से थोड़ी-सी ज़मीन ले लें और आनंदि से

खेती-बारी कर।‘

रमा ने कहा, ‘कहीं उससे अच्छा है िक यहां चाय की दुर्कान खोलें।‘ इस पर दिोनों में मुबाहसा हुआ। आिख़र रमा

को हार माननी पड़ी। यहां रहकर वह घर की देखभाल न कर सकता था, भाइयों को िशक्षा न दे सकता था और

न मातािपता की सेवा-सत्कार कर सकता था। आिख़र घरवालों के प्रित भी तो उसका कुछ कतर्चव्य है। रमा

िनरूत्तिर हो गया।

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चालीस

रमा मुंह-अंधेरे अपने बंगले जा पहुंचा। िकसी को कानों-कान ख़बर न हुई। नाश्ता करके रमा ने ख़त साफ

िकया, कपड़े पहने और दिारोग़ा के पास जा पहुंचा। त्योिरयां चढ़ी हुई थीं। दिारोग़ा ने पूछा, ‘ख़ैिरयत तो है,

नौकरों ने कोई शरारत तो नहीं की।‘

रमा ने खड़े-खड़े कहा, ‘नौकरों ने नहीं, आपने शरारत की है, आपके मातहतों, अफसरों और सब ने

िमलकर मुझिे उल्लू बनाया है।‘

दिारोग़ा ने कुछ घबडाकर पूछा, आिख़र बात क्या है, किहए तो? ‘

रमानाथ—‘बात यही है िक इस मुआमले में अब कोई शहादित न दूंगा। उससे मेरा ताल्लुक नहीं। आप ने

मेरे साथ चाल चली और वारंट की धमकी देकर मुझिे शहादित देने पर मजबूर िकया। अब मुझिे मालूम हो गया िक

मेरे ऊपर कोई इलज़ाम नहीं। आप लोगों का चकमा था। पुिलस की तरफ से शहादित नहीं देना चाहता, मैं आज

जज साहब से साफ कह दूंगा। बेगुनाहों का खून अपनी गदिर्चन पर न लूंगा। ‘

दिारोग़ा ने तेज़ होकर कहा, ‘आपने खुदि गबन तस्लीम िकया था।‘

रमानाथ—‘मीजान की ग़लती थी। ग़बन न था। म्युिनिसपैिलटी ने मुझि पर कोई मुकदिमा नहीं चलाया।‘

‘यह आपको मालूम कैसे हुआ? ‘

‘इससे आपको कोई बहस नहीं। मैं शहादित न दूंगा। साफ-साफ कह दूंगा, पुिलस ने मुझिे धोखा देकर

शहादित िदिलवाई है। िजन तारीख़ों का वह वाकया है, उन तारीख़ों में मैं इलाहाबादि में था। म्युिनिसपल आिफस

में मेरी हािजरी मौजूदि है।’

दिारोग़ा ने इस आपित्ति को हंसी में उडाने की चेष्टा करके कहा, ‘अच्छा साहब, पुिलस ने धोखा ही िदिया,

लेिकन उसका ख़ाितरख्वाह इनाम देने को भी तो हािज़र है। कोई अच्छी जगह िमल जाएगी, मोटर पर बैठे हुए

सैर करोग। खुिगया पुिलस में कोई जगह िमल गई, तो चैन ही चैन है। सरकार की नज़रों में इज्जत और रूसूख

िकतना बढ़गया, यों मारे-मारे िफरते। शायदि िकसी दिफ्तर में क्लकी िमल जाती, वह भी बडी मुिश्कल सेब यहां तो

बैठे-िबठाए तरक्की का दिरवाज़ा खुल गया। अच्छी तरह कारगुज़ारी होगी, तो एक िदिन रायबहादुर्र मुंशी

रमानाथ िडप्टी सुपिरटंडंट हो जाओग। तुम्हें हमारा एहसान मानना चािहए और आप उल्ट ख़फा होते ह।‘

रमा पर इस प्रलोभन का कुछ असर न हुआ। बोला, ‘मुझिे क्लकर्क बनना मंजूर है, इस तरह की तरक्की नहीं

चाहता। यह आप ही को मुबारक रहे। इतने में िडप्टी साहब और इंस्पेक्टर भी आ पहुंचे। रमा को देखकर

इंस्पेक्टर साहब ने गरमाया, ‘हमारे बाबू साहब तो पहले ही से तैयार बैठे ह। बस इसी की कारगुज़ारी पर वारा-

न्यारा है। ‘

रमा ने इस भाव से कहा, ‘मानो मैं भी अपना नफा-नुकसान समझिता हूं,जी। हां, आज वारा-न्यारा कर

दूंगा। इतने िदिनों तक आप लोगों के इशारे पर चला, अब अपनी आंखों से देखकर चलूंगा। ‘

इंस्पेक्टर ने दिारोग़ा का मुंह देखा, दिारोग़ा ने िडप्टी का मुंह देखा, िडप्टी ने इंस्पेक्टर का मुंह देखा। यह

कहता क्या है? इंस्पेक्टर साहब िविस्मत होकर बोले, ‘क्या बात है? हलफ से कहता हूं, आप कुछ नाराज मालूम

होते ह! ‘

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रमानाथ—‘मैंने फैसला िकया है िक आज अपना बयान बदिल दूंगा। बेगुनाहों का खून नहीं कर सकता ।‘

इंस्पेक्टर ने दिया-भाव से उसकी तरफ देखकर कहा, ‘आप बेगुनाहों का खून नहीं कर रहे ह, अपनी

तकष्दिीर की इमारत खड़ी कर रहे ह। हलफ से कहता हूं, ऐसे मौके बहुत कम आदििमयों को िमलते ह। आज क्या

बात हुई िक आप इतने खफा हो गए? आपको कुछ मालूम है, दिारोग़ा साहब, आदििमयों ने तो कोई शोखी नहीं

की- अगर िकसी ने आपके िमज़ाज़ के िख़लाफ कोई काम िकया हो, तो उसे गोली मार दिीिजए, हलफ से कहता

हूं!

दिारोग़ा –‘मैं अभी जाकर पता लगाता हूं। ‘

रमानाथ—‘आप तकलीफ न कर। मुझिे िकसी से िशकायत नहीं है। मैं थोड़े से फायदे के िलए अपने ईमान

का खून नहीं कर सकता। ‘

एक िमनट सन्नाटा रहा। िकसी को कोई बात न सूझिी। दिारोग़ा कोई दूसरा चकमा सोच रहे थ, इंस्पेक्टर

कोई दूसरा प्रलोभन। िडप्टी एक दूसरी ही िफक में था। रूखेपन से बोला, ‘रमा बाबू, यह अच्छा बात न होगा। ‘

रमा ने भी गमर्च होकर कहा, ‘आपके िलए न होगी। मेरे िलए तो सबसे अच्छी यही बात है। ‘

िडप्टी, ‘नहीं, आपका वास्ते इससे बुरा दिोसरा बात नहीं है। हम तुमको छोड़ेगा नहीं, हमारा मुकदिमा चाहे

िबगड़ जाय, लेिकन हम तुमको ऐसा लेसन दे देगा िक तुम उिमर भर न भूलेगा। आपको वही गवाही देना होगा

जो आप िदिया। अगर तुम कुछ गड़बड़ करेगा, कुछ भी गोलमाल िकया तो हम तोमारे साथ दिोसरा बताव करेगा।

एक िरपोटर्च में तुम यों (कलाइयों को ऊपर-नीचे रखकर) चला जायगा। ‘

यह कहते हुए उसने आंखें िनकालकर रमा को देखा, मानो कच्चा ही खा जाएगा। रमा सहम उठा। इन

आतंक से भरे शब्दिों ने उसे िवचिलत कर िदिया। यह सब कोई झिूठा मुकदिमा चलाकर उसे फंसा दें, तो उसकी कौन

रक्षा करेगा। उसे यह आशा न थी िक िडप्टी साहब जो शील और िवनय के पुतले बने हुए थ, एकबारगी यह रूद्र

रूप धारणा कर लेंग, मगर वह इतनी आसानी से दिबने वाला न था। तेज़ होकर बोला, ‘आप मुझिसे ज़बरदिस्ती

शहादित िदिलाएंग ?’

िडप्टी ने पैर पटकते हुए कहा, ‘हां, ज़बरदिस्ती िदिलाएगा!’

रमानाथ—‘यह अच्छी िदिल्लगी है!’

िडप्टी—‘तोम पुिलस को धोखा देना िदिल्लगी समझिता है। अभी दिो गवाह देकर सािबत कर सकता है िक

तुम राजकोह की बात कर रहा था। बस चला जायगा सात साल के िलए। चक्की पीसते-पीसते हाथ में घड्डा पड़

जायगा। यह िचकना-िचकना गाल नहीं रहेगा। ‘

रमा जेल से डरता था। जेल-जीवन की कल्पना ही से उसके रोएं खड़े होते थ। जेल ही के भय से उसने यह

गवाही देनी स्वीकार की थी। वही भय इस वक्त भी उसे कातर करने लगा। िडप्टी भाव-िवज्ञान का ज्ञाता था।

आसन का पता पा गया। बोला, ‘वहां हलवा पूरी नहीं पायगा। धूल िमला हुआ आटा का रोटी, गोभी के सड़े हुए

पत्तिों का रसा, और अरहर के दिाल का पानी खाने को पावेगा। काल-कोठरी का चार महीना भी हो गया, तो तुम

बच नहीं सकता वहीं मर जायगा। बात-बात पर वाडर्चर गाली देगा, जूतों से पीटगा, तुम समझिता क्या है! ‘

रमा का चेहरा फीका पड़ने लगा। मालूम होता था, प्रितक्षण उसका खून सूखता चला जाता है। अपनी

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दुर्बर्चलता पर उसे इतनी ग्लािन हुई िक वह रो पड़ा। कांपती हुई आवाज़ से बोला, ‘आप लोगों की यह इच्छा है, तो

यही सही! भेज दिीिजए जेल। मर ही जाऊंगा न, िफर तो आप लोगों से मेरा गला छूट जायगा। जब आप यहां तक

मुझिे तबाह करने पर आमादिा ह, तो मैं भी मरने को तैयार हूं। जो कुछ होना होगा, होगा। ‘

उसका मन दुर्बर्चलता की उस दिशा को पहुंच गया था, जब ज़रा-सी सहानुभूित, ज़रा-सी सह्रदियता सैकड़ों

धामिकयों से कहीं कारगर हो जाती है। इंस्पेक्टर साहब ने मौका ताड़ िलया। उसका पक्ष लेकर िडप्टी से बोले,

हलफ से कहता हूं, ‘आप लोग आदिमी को पहचानते तो ह नहीं, लगते ह रोब जमाने। इस तरह गवाही देना हर

एक समझिदिार आदिमी को बुरा मालूम होगा। यह द्ददिरती बात है। िजसे ज़रा भी इज्जत का खयाल है, वह पुिलस

के हाथों की कठपुतली बनना पसंदि न करेगा। बाबू साहब की जगह मैं होता तो मैं भी ऐसा ही करता, लेिकन

इसका मतलब यह नहीं है िक यह हमारे िखलाफ शहादित देंग। आप लोग अपना काम कीिजए, बाबू साहब की

तरफ से बेिफक रिहए, हलफ से कहता हूं। ‘

उसने रमा का हाथ पकड़ िलया और बोला, ‘आप मेरे साथ चिलए, बाबूजी! आपको अच्छे-अच्छे िरकाडर्च

सुनाऊं। ‘

रमा ने रूठे हुए बालक की तरह हाथ छुडाकर कहा, ‘मुझिे िदिक न कीिजए। इंस्पेक्टर साहबब अब तो मुझिे

जेलखाने में मरना है। ‘

इंस्पेक्टर ने उसके कंधो पर हाथ रखकर कहा, ‘आप क्यों ऐसी बातें मुंह से िनकालते ह साहबब जेलखाने में

मर आपके दुर्श्मन। ‘

िडप्टी ने तसमा भी बाकी न छोड़ना चाहाब बडे कठोर स्वर में बोला, मानो रमा से कभी का पिरचय नहीं

है, ‘साहब, यों हम बाबू साहब के साथ सब तरह का सलूक करने को तैयार ह, लेिकन जब वह हमारा िख़लाफ

गवाही देगा, हमारा जड़ खोदेगा, तो हम भी कारर्चवाई करेगा। जरूर से करेगा। कभी छोड़ नहीं सकता। ‘

इसी वक्त सरकारी एडवोकेट और बैिरस्टर मोटर से उतरे।

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इकतालीस

रतन पत्रों में जालपा को तो ढाढ़स देती रहती थी पर अपने िवषय में कुछ न िलखती थी। जो आप ही

व्यिथत हो रही हो, उसे अपनी व्यथाआं की कथा क्या सुनाती! वही रतन िजसने रूपयों की कभी कोई हैिसयत न

समझिी, इस एक ही महीने में रोिटयों को भी मुहताज हो गई थी। उसका वैवािहक जीवन बहुत सुखी न हो, पर

उसे िकसी बात का अभाव न था। मिरयल घोड़े पर सवार होकर भी यात्रा पूरी हो सकती है अगर सड़क अच्छी

हो, नौकर-चाकर, रूपय-पैसे और भोजन आिदि की सामग्री साथ हो घोडाभी तेज़ हो, तो पूछना ही क्या! रतन

की दिशा उसी सवार की-सी थी। उसी सवार की भांित वह मंदिगित से अपनी जीवन-यात्रा कर रही थी। कभी-

कभी वह घोड़े पर झिुंझिलाती होगी, दूसरे सवारों को उड़े जाते देखकर उसकी भी इच्छा होती होगी िक मैं भी

इसी तरह उड़ती, लेिकन वह दुर्खी न थी, अपने नसीबों को रोती न थी। वह उस गाय की तरह थी, जो एक

पतली-सी पगिहया के बंधन में पड़कर, अपनी नादि के भूसे-खली में मगन रहती है। सामने हरे-हरे मैदिान ह,

उसमें सुगंधमय घासें लहरा रही ह, पर वह पगिहया तुडाकर कभी उधार नहीं जाती। उसके िलए उस पगिहया

और लोहे की जंजीर में कोई अंतर नहीं। यौवन को प्रेम की इतनी क्षुधा नहीं होती, िजतनी आत्म-प्रदिशर्चन की। प्रेम

की क्षुधा पीछे आती है। रतन को आत्मप्रदिशर्चन के सभी उपाय िमले हुए थ। उसकी युवती आत्मा अपने ऋंगार और

प्रदिशर्चन में मग्न थी। हंसी-िवनोदि, सैर-सपाटा, खाना-पीना, यही उसका जीवन था, जैसा प्रायद्यप सभी मनुष्यों का

होता है। इससे गहरे जल में जाने की न उसे इच्छा थी, न प्रयोजनब संपन्नता बहुत कुछ मानिसक व्यथाआं को

शांत करती है। उसके पास अपने दुर्द्यपखों को भुलाने के िकतने ही ढंग ह, िसनेमा है, िथएटर है, देश-भ्रमण है,

ताश है, पालतू जानवर ह, संगीत है, लेिकन िवपन्नता को भुलाने का मनुष्य के पास कोई उपाय नहीं, इसके

िसवा िक वह रोए, अपने भाग्य को कोसे या संसार से िवरक्त होकर आत्म-हत्या कर ले। रतन की तकदिीर ने

पलटा खाया था। सुख का स्वप्न भंग हो गया था और िवपन्नता का कंकाल अब उसे खडा घूर रहा था। और यह

सब हुआ अपने ही हाथों!

पंिडतजी उन प्रािणयों में थ, िजन्हें मौत की िफक नहीं होती। उन्हें िकसी तरह यह भ्रम हो गया था िक

दुर्बर्चल स्वास्थ्य के मनुष्य अगर पथ्य और िवचार से रहें, तो बहुत िदिनों तक जी सकते ह। वह पथ्य और िवचार की

सीमा के बाहर कभी न जाते। िफर मौत को उनसे क्या दुर्श्मनी थी, जो ख्वामख्वाह उनके पीछे पड़ती। अपनी

वसीयत िलख डालने का ख़याल उन्हें उस वक्त आया, जब वह मरणासन्न हुए, लेिकन रतन वसीयत का नाम

सुनते ही इतनी शोकातुर, इतनी भयभीत हुई िक पंिडतजी ने उस वक्त टाल जाना ही उिचत समझिाब तब से

िफर उन्हें इतना होश न आया िक वसीयत िलखवाते। पंिडतजी के देहावसान के बादि रतन का मन इतना िवरक्त

हो गया िक उसे िकसी बात की भी सुध-बुध न रही। यह वह अवसर था, जब उसे िवशष रूप से सावधन रहना

चािहए था। इस भांित सतकर्क रहना चािहए था, मानो दुर्श्मनों ने उसे घेर रक्खा हो, पर उसने सब कुछ मिणभूषण

पर छोड़ िदिया और उसी मिणभूषण ने धीरे-धीरे उसकी सारी संपित्ति अपहरण कर ली। ऐसे-ऐसे षडयंत्र रचे िक

सरला रतन को उसके कपट-व्यवहार का आभास तक न हुआ। फंदिा जब खूब कस गया, तो उसने एक िदिन आकर

कहा, ‘आज बंगला खाली करना होगा। मैंने इसे बेच िदिया है। ‘

रतन ने ज़रा तेज़ होकर कहा, ‘मैंने तो तुमसे कहा था िक मैं अभी बंगला न बेचूंगी। ‘

मिणभूषण ने िवनय का आवरण उतार फेंका और त्योरी चढ़ाकर बोला, ‘आपमें बातें भूल जाने की बुरी

आदित है। इसी कमरे में मैंने आपसे यह िज़क िकया था और आपने हामी भरी थी। जब मैंने बेच िदिया, तो आप

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यह स्वांग खडा करती ह! बंगला आज खाली करना होगा और आपको मेरे साथ चलना होगा।‘

‘मैं अभी यहीं रहना चाहती हूं।’

‘मैं आपको यहां न रहने दूंगा। ‘

‘मैं तुम्हारी लौंडी नहीं हूं।’

‘आपकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है। अपने कुल की मयादिा-रक्षा के िलए मैं आपको अपने साथ ले जाऊंगा। ‘

रतन ने होंठ चबाकर कहा, ‘मैं अपनी मयादिा की रक्षा आप कर सकती हूं। तुम्हारी मदिदि की जरूरत नहीं।

मेरी मज़ी के बगैर तुम यहां कोई चीज़ नहीं बेच सकते। ‘

मिणभूषण ने वज्र-सा मारा, ‘आपका इस घर पर और चाचाजी की संपित्ति पर कोई अिधकार नहीं। वह

मेरी संपित्ति है। आप मुझिसे केवल गुज़ारे का सवाल कर सकती ह। ‘

रतन ने िविस्मत होकर कहा, ‘तुम कुछ भंग तो नहीं खा गए हो? ‘

मिणभूषण ने कठोर स्वर में कहा, ‘मैं इतनी भंग नहीं खाता िक बेिसरपैर की बातें करने लगूंब आप तो

पढ़ी-िलखी ह, एक बडे वकील की धमर्चपत्नी थीं। कानून की बहुत-सी बातें जानती होंगी। सिम्मिलत पिरवार में

िवधवा का अपने पुरूष की संपित्ति पर कोई अिधकार नहीं होता। चाचाजी और मेरे िपताजी में कभी अलगौझिा

नहीं हुआ। चाचाजी यहां थ, हम लोग इंदिौर में थ, पर इससे

यह नहीं िसद्धि होता िक हममें अलगौझिा था। अगर चाचा अपनी संपित्ति आपको देना चाहते, तो कोई

वसीयत अवश्य िलख जाते और यद्यपिपवह वसीयत कानून के अनुसार कोई चीज़ न होती, पर हम उसका सम्मान

करते। उनका कोई वसीयत न करना सािबत कर रहा है िक वह कानून के साधरण व्यवहार में कोई बाधा न

डालना चाहते थ। आज आपको बंगला खाली करना होगा। मोटर और अन्य वस्तुएं भी नीलाम कर दिी जाएंगी।

आपकी इच्छा हो, मेरे साथ चलें या रहें।

यहां रहने के िलए आपको दिस-ग्यारह रूपये का मकान काफी होगा। गुज़ारे के िलए पचास रूपये महीने का

प्रबंध मैंने कर िदिया है। लेना-देना चुका लेने के बादि इससे ज्यादिा की गुंजाइश ही नहीं। ‘

रतन ने कोई जवाब न िदिया। कुछ देर वह हतबुिद्धि-सी बैठी रही, िफर मोटर मंगवाई और सारे िदिन

वकीलों के पास दिौड़ती िफरी। पंिडतजी के िकतने ही वकील िमत्र थ। सभी ने उसका वृतत्तिांत सुनकर खेदि प्रकट

िकया और वकील साहब के वसीयत न िलख जाने पर हैरत करते रहे। अब उसके िलए एक ही उपाय था। वह यह

िसद्धि करने की चेष्टा करे िक वकील साहब और उनके भाई में अलहदिगी हो गई थी। अगर यह िसद्धि हो गया और

िसद्धि हो जाना िबलकुल आसान था, तो रतन उस संपित्ति की स्वािमनी हो जाएगी। अगर वह यह िसद्धि न कर

सकी, तो उसके िलए कोई चारा न था। अभािगनी रतन लौट आई। उसने िनश्चय िकया, जो कुछ मेरा नहीं है, उसे

लेने के िलए मैं झिूठ का आश्रय न लूंगी। िकसी तरह नहीं। मगर ऐसा कानून बनाया िकसने? क्या स्त्री इतनी नीच,

इतनी तुच्छ, इतनी नगण्य है? क्यों?

िदिन-भर रतन िचता में डूबी, मौन बैठी रही। इतने िदिनों वह अपने को इस घर की स्वािमनी समझिती

रही। िकतनी बडी भूल थी। पित के जीवन में जो लोग उसका मुंह ताकते थ, वे आज उसके भाग्य के िवधाता हो

गए! यह घोर अपमान रतन-जैसी मािननी स्त्री के िलए असह्य था। माना, कमाई पंिडतजी की थी, पर यह गांव

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तो उसी ने ख़रीदिा था, इनमें से कई मकान तो उसके सामने ही बने, उसने यह एक क्षण के िलए भी न ख़याल

िकया था िक एक िदिन यह जायदिादि मेरी जीिवका का आधार होगी। इतनी भिवष्य-िचता वह कर ही न सकती

थी। उसे इस जायदिादि के खरीदिने में, उसके संवारने और सजाने में वही आनंदि आता था, जो माता अपनी संतान

को फलते-फलते देखकर पाती है। उसमें स्वाथर्च का भाव न था, केवल अपनेपन का गवर्च था, वही ममता थी, पर

पित की आंखें बंदि होते ही उसके पाले और गोदि के खेलाए बालक भी उसकी गोदि से छीन िलए गए। उसका उन

पर कोई अिधकार नहीं! अगर वह जानती िक एक िदिन यह किठन समस्या उसके सामने आएगी, तो वह चाहे

रूपये को लुटा देती या दिान कर देती, पर संपित्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंिडतजी की ऐसी कौन

बहुत बडी आमदिनी थी। क्या गिमयों में वह िशमले न जा सकती थी? क्या दिो-चार और नौकर न रक्खे जा सकते

थ? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी, पर उसने इन

बातों को कभी उिचत सीमा से आग न बढ़ने िदिया। केवल यही स्वप्न देखने के िलए! यही स्वप्न! इसके िसवा और

था ही क्या! जो कल उसका था उसकी ओर आज आंखें उठाकर वह देख भी नहीं सकती! िकतना महंगा था वह

स्वप्न! हां, वह अब अनािथनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी, आज उसे खुदि भीख मांगनी पड़ेगी। और

कोई आश्रय नहीं! पहले भी वह अनािथनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वािमनी समझि रही थी। अब उस भ्रम

का सहारा भी नहीं रहा!

सहसा िवचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनािथनी समझि रही हूं? क्यों दूसरों के द्वार पर भीख

मांगूं? संसार में लाखों ही िस्त्रयां मेहनत-मजदूरी करके जीवन का िनवाह करती ह। क्या मैं कोई काम नहीं कर

सकती? मैं कपडा क्या नहीं सी सकती? िकसी चीज़ की छोटी-मोटी दूकान नहीं रख सकती? लङके भी पढ़ा

सकती हूं। यही न होगा, लोग हंसेंग, मगर मुझिे उस हंसी की क्या परवा! वह मेरी हंसी नहीं है, अपने समाज की

हंसी है।

शाम को द्वार पर कई ठेले वाले आ गए। मिणभूषण ने आकर कहा, ‘चाचीजी, आप जो-जो चीज़ं कहें

लदिवाकर िभजवा दूं। मैंने एक मकान ठीक कर िलया है।’

रतन ने कहा, ‘मुझिे िकसी चीज़ की जरूरत नहीं। न तुम मेरे िलए मकान लो। िजस चीज़ पर मेरा कोई

अिधकार नहीं, वह मैं हाथ से भी नहीं छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आई थी। उसी तरह लौट

जाऊंगी।’

मिणभूषण ने लिज्जत होकर कहा,’आपका सब कुछ है, यह आप कैसे कहती ह िक आपका कोई अिधकार

नहीं। आप वह मकान देख लें। पंद्रह रूपया िकराया है। मैं तो समझिता हूं आपको कोई कष्ट न होगा। जो -जो चीजें

आप कहें, मैं वहां पहुंचा दूं।’

रतन ने व्यंग्यमय आंखों से देखकर कहा, ‘तुमने पंद्रह रूपये का मकान मेरे िलए व्यथर्च िलया! इतना बडा

मकान लेकर मैं क्या करूंगी! मेरे िलए एक कोठरी काफी है, जो दिो रूपये में िमल जायगी। सोने के िलए जमीन है

ही। दिया का बोझि िसर पर िजतना कम हो, उतना ही अच्छा!

मिणभूषण ने बडे िवनम भाव से कहा, ‘आिख़र आप चाहती क्या ह?उसे किहए तो!’

रतन उत्तिेिजत होकर बोली, ‘मैं कुछ नहीं चाहती। मैं इस घर का एक ितनका भी अपने साथ न ले जाऊंगी।

िजस चीज़ पर मेरा कोई अिधकार नहीं, वह मेरे िलए वैसी ही है जैसी िकसी गैर आदिमी की चीज़ब मैं दिया की

िभखािरणी न बनूंगी। तुम इन चीज़ों के अिधकारी हो, ले जाओ। मैं ज़रा भी बुरा नहीं मानती! दिया की चीज़ न

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जबरदिस्ती ली जा सकती है, न जबरदिस्ती दिी जा सकती है। संसार में हज़ारों िवधवाएं ह, जो मेहनत-मजूरी

करके अपना िनवाह कर रही ह। मैं भी वैसे ही हूं। मैं भी उसी तरह मजूरी करूंगी और अगर न कर सकूंगी, तो

िकसी गडढे में डूब मइर्जंगी। जो अपना पेट भी न पाल सके, उसे जीते रहने का, दूसरों का बोझि बनने का कोई हक

नहीं है।‘ यह कहती हुई रतन घर से िनकली और द्वार की ओर चली। मिणभूषण ने उसका रास्ता रोककर कहा,

‘अगर आपकी इच्छा न हो, तो मैं बंगला अभी न बेचूं।‘

रतन ने जलती हुई आंखों से उसकी ओर देखा। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। आंसुआं के उमड़ते हुए

वेग को रोककर बोली, ‘ मैंने कह िदिया, इस घर की िकसी चीज़ से मेरा नाता नहीं है। मैं िकराए की लौंडी थी।

लौडी का घर से क्या संबंध है! न जाने िकस पापी ने यह कानून बनाया था। अगर ईश्वर कहीं है और उसके यहां

कोई न्याय होता है, तो एक िदिन उसी के सामने उस पापी से पूछूंगी, क्या तेरे घर में मां-बहनें न थीं? तुझिे उनका

अपमान करते लज्जा न आई? अगर मेरी ज़बान में इतनी ताकत होती िक सारे देश में उसकी आवाज़ पहुंचती, तो

मैं सब िस्त्रयों से कहती,बहनो, िकसी सिम्मिलत पिरवार में िववाह मत करना और अगर करना तो जब तक

अपना घर अलग न बना लो, चैन की नींदि मत सोना। यह मत समझिो िक तुम्हारे पित के पीछे उस घर में तुम्हारा

मान के साथ पालन होगा। अगर तुम्हारे पुरूष ने कोई लङका नहीं छोडा, तो तुम अकेली रहो चाहे पिरवार में,

एक ही बात है। तुम अपमान और मजूरी से नहीं बच सकतीं। अगर तुम्हारे पुरूष ने कुछ छोडा है तो अकेली

रहकर तुम उसे भोग सकती हो, पिरवार में रहकर तुम्हें उससे हाथ धोना पड़ेगा। पिरवार तुम्हारे िलए फूलों की

सेज नहीं, कांटों की शय्या है, तुम्हारा पार लगाने वाली नौका नहीं, तुम्हें िनगल जाने वाला जंतु।‘

संध्या हो गई थी। गदिर्च से भरी हुई फागुन की वायु चलने वालों की आंखों में धूल झिोंक रही थी। रतन चादिर

संभालती सड़क पर चली जा रही थी। रास्ते में कई पिरिचत िस्त्रयों ने उसे टोका, कई ने अपनी मोटर रोक ली

और उसे बैठने को कहा, पर रतन को उनकी सह्रदियता इस समय बाण-सी लग रही थी। वह तेज़ी से कदिम

उठाती हुई जालपा के घर चली जा रही थी। आज उसका वास्तिवक जीवन आरंभ हुआ था।

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बयालीस

ठीक दिस बजे जालपा और देवीदिीन कचहरी पहुंच गए। दिशर्चकों की काफी भीड़ थी। ऊपर की गैलरी दिशर्चकों

से भरी हुई थी। िकतने ही आदिमी बरामदिों में और सामने के मैदिान में खड़े थ। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठीब

देवीदिीन बरामदे में खडा हो गया।

इजलास पर जज साहब के एक तरफ अहलमदि था और दूसरी तरफ पुिलस के कई कमर्चचारी खड़े थ। सामने

कठघरे के बाहर दिोनों तरफ के वकील खड़े मुकदिमा पेश होने का इंतज़ार कर रहे थ। मुलिजमों की संख्या पंद्रह से

कम न थी। सब कठघरे के बग़ल में ज़मीन पर बैठे हुए थ। सभी के हाथों में हथकिडयां थीं, पैरों में बेिडयां। कोई

लेटा था, कोई बैठा था, कोई आपस में बातें कर रहा था। दिो पंजे लडा रहे थ। दिो में िकसी िवषय पर बहस हो

रही थी। सभी प्रसन्निचत्ति थ। घबराहट, िनराशा या शोक का िकसी के चेहरे पर िचन्ह भी न था।

ग्यारह बजते-बजते अिभयोग की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बातें हुई, िफर दिो-एक पुिलस की शहादितें

हुई। अंत में कोई तीन बजे रमानाथ गवाहों के कठघरे में लाया गया। दिशर्चकों में सनसनी-सी फैल गई। कोई

तंबोली की दूकान से पान खाता हुआ भागा, िकसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रक्खा और सब इजलास

के कमरे में जमा हो गए। जालपा भी संभलकर बारजे में खड़ी हो गई। वह चाहती थी िक एक बार रमा की आंखें

उठ जातीं और वह उसे देख लेती, लेिकन रमा िसर झिुकाए खडाथा, मानो वह इधर-उधर देखते डर रहा हो उसके

चेहरे का रंग उडाहुआ था। कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खडाथा, मानो उसे िकसी ने बांधा

रक्खा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक कर रहा था, मानो उसके भाग्य का

िनणर्चय हो रहा हो।

रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा िसहर उठी, दूसरे वाक्य ने उसकी त्योिरयों पर

बल डाल िदिए, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फीका कर िदिया और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लंबी

सांस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर िटक गई, मगर िफर िदिल न माना। जंगले पर झिुककर िफर उधर कान

लगा िदिए। वही पुिलस की िसखाई हुई शहादित थी िजसका आशय वह देवीदिीन के मुंह से सुन चुकी थी। अदिालत

में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खांसा िक शायदि अब भी रमा की आंखें ऊपर उठ जाएं, लेिकन

रमा का िसर और भी झिुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज़ पहचान ली या आत्म-ग्लािन का

भाव उदिय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।

एक मिहला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थी, नाक िसकोड़कर कहा, ‘ जी चाहता है, इस दुर्ष्ट को गोली

मार दें। ऐसे-ऐसे स्वाथी भी इस देश में पड़े ह जो नौकरी या थोड़े-से धन के लोभ में िनरपराधों के गले पर छुरी

उधरने से भी नहीं िहचकते! ‘ जालपा ने कोई जवाब न िदिया।

एक दूसरी मिहला ने जो आंखों पर ऐनक लगाए हुए थी, ‘िनराशा के भाव से कहा, ‘ इस अभाग देश का

ईश्वर ही मािलक है। गवनर्चरी तो लाला को कहीं नहीं िमल जाती! अिधक-से-अिधक कहीं क्लकर्क हो जाएंग। उसी के

िलए अपनी आत्मा की हत्या कर रहे ह। मालूम होता है, कोई मरभुखा, नीच आदिमी है,पल्ले िसरे का कमीना

और िछछोरा।‘

तीसरी मिहला ने ऐनक वाली देवी से मुस्कराकर पूछा, ‘ आदिमी फैशनेबुल है और पढ़ा-िलखा भी मालूम

होता है। भला, तुम इसे पा जाओ तो क्या करो?’

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ऐनकबाज़ देवी ने उद्दंडता से कहा, ‘नाक काट लूं! बस नकटा बनाकर छोड़ दूं।’

‘और जानती हो, मैं क्या करूं?’

‘नहीं! शायदि गोली मार दिोगी!’

‘ना! गोली न मारूं। सरे बाज़ार खडा करके पांच सौ जूते लगवाऊं। चांदि गंजी होजाय!’

‘उस पर तुम्हें ज़रा भी दिया नहीं आयगी?’

टयह कुछ कम दिया है? उसकी पूरी सज़ा तो यह है िक िकसी ऊंची पहाड़ी से ढकेल िदिया जाय! अगर यह

महाशय अमेरीका में होते, तो िज़न्दिा जला िदिये जाते!’

एक वृतद्धिा ने इन युवितयों का ितरस्कार करके कहा, ‘ क्यों व्यथर्च में मुंह ख़राब करती हो? वह घृतणा के योग्य

नहीं, दिया के योग्य है। देखती नहीं हो, उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है, जैसे कोई उसका गला दिबाए हुए हो

अपनी मां या बहन को देख ले, तो जरूर रो पड़े। आदिमी िदिल का बुरा नहीं है। पुिलस ने धमकाकर उसे सीधा

िकया है। मालूम होता है, एक-एक शब्दि उसके ह्रदिय को चीर-चीरकर िनकल रहा हो।‘

ऐनक वाली मिहला ने व्यंग िकया, ‘ जब अपने पांव कांटा चुभता है, तब आह िनकलती है? ‘

जालपा अब वहां न ठहर सकी। एक-एक बात िचगारी की तरह उसके िदिल पर गगोले डाले देती थी। ऐसा

जी चाहता था िक इसी वक्त उठकर कह दे, ‘ यह महाशय िबलकुल झिूठ बोल रहे ह, सरासर झिूठ, और इसी वक्त

इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दिबाए हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे िधक्कार

रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृतत्तिांत नहीं कह सुनाती। पुिलस उसकी दुर्श्मन हो जायगी, हो जाय। कुछ तो

अदिालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन ग़रीबों की जान बच जाय! जनता को तो मालूम हो जायगा िक यह

झिूठी शहादित है। उसके मुंह से एक बार आवाज़ िनकलते-िनकलते रह गई। पिरणाम के भय ने उसकी ज़बान पकड़

ली। आिख़र उसने वहां से उठकर चले आने ही में कुशल समझिी।

देवीदिीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दिया से सने हुए स्वर में बोला, ‘ क्या घर चलती

हो, बहूजी?’

जालपा ने आंसुआं के वेग को रोककर कहा, ‘हां, यहां अब नहीं बैठा जाता।‘

हाते के बाहर िनकलकर देवीदिीन ने जालपा को सांत्वना देने के इरादे से कहा, ‘ पुिलस ने िजसे एक बार

बूटी सुंघा दिी, उस पर िकसी दूसरी चीज़ का असर नहीं हो सकता।‘

जालपा ने घृतणा-भाव से कहा, ‘यह सब कायरों के िलए है।’

कुछ दूर दिोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा, ‘क्यों दिादिा, अब और तो कहीं अपील न होगी?

कैिदियों का यहीं फैसला हो जायगा।।‘ देवीदिीन इस प्रश्न का आशय समझि गया।

बोला, ‘नहीं, हाईकोटर्च में अपील हो सकती है।‘

िफर कुछ दूर तक दिोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृतक्ष की छांह में खड़ी हो गई और बोली, ‘दिादिा,

मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से िमलकर सारा हाल कह दूं। शुरू से जो कुछ हुआ, सब कह सुनाऊं। मैं

सबूत दे दूंगी, तब तो मानेंग?’

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देवीदिीन ने आंखें गाड़कर कहा,’जज साहब से!’

जालपा ने उसकी आंखों से आंखें िमलाकर कहा, ’हां!’

देवीदिीन ने दुर्िवधा में पड़कर कहा, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता, बहूजी! हािकम का वास्ताब न

जाने िचत पड़े या पट।‘

जालपा बोली, ‘क्या पुिलस वालों से यह नहीं कह सकता िक तुम्हारा गवाह बनाया हुआ है?‘

‘कह तो सकता है।’

‘तो आज मैं उससे िमलूं। िमल तो लेता है?’

‘चलो, दििरयाित करग, लेिकन मामला जोिखम है।’

‘क्या जोिखम है, बताओ।’

‘भैया पर कहीं झिूठी गवाही का इलजाम लगाकर सज़ा कर दे तो?’

‘तो कुछ नहीं। जो जैसा करे, वैसा भोग।’

देवीदिीन ने जालपा की इस िनमर्चमता पर चिकत होकर कहा, ‘एक दूसरा खटका है। सबसे बडा डर उसी का

है।‘

जालपा ने उद्यपत भाव से पूछा,’वह क्या?’

देवीदिीन—‘पुिलस वाले बडे कायर होते ह। िकसी का अपमान कर डालना तो इनकी िदिल्लगी है। जज

साहब पुिलस किमसनर को बुलाकर यह सब हाल कहेंग जरूर। किमसनर सोचग िक यह औरत सारा खेल िबगाड़

रही है। इसी को िगरफ्तार कर लो। जज अंगरेज़ होता तो िनडर होकर पुिलस की तंबीह करता। हमारे भाई तो

ऐसे मुकदिमों में चूं करते डरते ह िक कहीं हमारे ही ऊपर न बगावत का इलज़ाम लग जाय। यही बात है। जज

साहब पुिलस किमसनर से जरूर कह सुनावग। िफर यह तो न होगा िक मुकदिमा उठा िलया जाय। यही होगा िक

कलई न खुलने पावे। कौन जाने तुम्हीं को िगरफ्तार कर लें। कभी-कभी जब गवाह बदिलने लगता है, या कलई

खोलने पर उताई हो जाता है, तो पुिलस वाले उसके घर वालों को दिबाते ह। इनकी माया अपरंपार है।

जालपा सहम उठी। अपनी िगरफ्तारी का उसे भय न था, लेिकन कहीं पुिलस वाले रमा पर अत्याचार न

कर। इस भय ने उसे कातर कर िदिया। उसे इस समय ऐसी थकान मालूम हुई मानो सैकड़ों कोस की मंिज़ल

मारकर आई हो उसका सारा सत्साहस बफर्क के समान िपघल गया।

कुछ दूर आग चलने के बादि उसने देवीदिीन से पूछा, ‘अब तो उनसे मुलाकात न हो सकेगी?’

देवीदिीन ने पूछा, ‘भैया से?’

‘हां’

‘िकसी तरह नहीं। पहरा और कडाकर िदिया गया होगा। चाहे उस बंगले को ही छोड़ िदिया हो और अब

उनसे मुलाकात हो भी गई तो क्या फायदिा! अब िकसी तरह अपना बयान नहीं बदिल सकते। दिरोगहलगी में फंस

जाएंग।’

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कुछ दूर और चलकर जालपा ने कहा, ‘मैं सोचती हूं, घर चली जाऊं। यहां रहकर अब क्या करूंगी।’

देवीदिीन ने करूणा भरी हुई आंखों से उसे देखकर कहा, ‘नहीं बहू, अभी मैं न जाने दूंगा। तुम्हारे िबना अब

हमारा यहां पल-भर भी जी न लगगा। बुिढया तो रो-रोकर परान ही दे देगी। अभी यहां रहो, देखो क्या फैसला

होता है। भैया को मैं इतना कच्चे िदिल का आदिमी नहीं समझिता था। तुम लोगों की िबरादिरी में सभी सरकारी

नौकरी पर जान देते ह। मुझिे तो कोई सौ रूपया भी तलब दे, तो नौकरी न करूं। अपने रोजगार की बात ही

दूसरी है। इसमें आदिमी कभी थकता

ही नहीं। नौकरी में जहां पांच से छः घंट हुए िक देह टूटने लगी, जम्हाइयां आने लगीं।’

रास्ते में और कोई बातचीत न हुई। जालपा का मन अपनी हार मानने के िलए िकसी तरह राज़ी न होता

था। वह परास्त होकर भी दिशर्चक की भांित यह अिभनय देखने से संतुष्ट न हो सकती थी। वह उस अिभनय में

सिम्मिलत होने और अपना पाटर्च खेलने के िलए िववश हो रही थी। क्या एक बार िफर रमा से मुलाकात न होगी ?

उसके ह्रदिय में उन जलते हुए शब्दिों का एक सागर उमड़ रहा था, जो वह उससे कहना चाहती थी। उसे रमा पर

ज़रा भी दिया न आती थी, उससे रत्तिी-भर सहानुभूित न होती थी। वह उससे कहना चाहती थी, ‘ तुम्हारा धन

और वैभव तुम्हें मुबारक हो, जालपा उसे पैरों से ठुकराती है। तुम्हारे खून से रंग हुए हाथों के स्पशर्च से मेरी देह में

छाले पड़ जाएंग। िजसने धन और पदि के िलए अपनी आत्मा बेच दिी, उसे मैं मनुष्य नहीं समझिती। तुम मनुष्य

नहीं हो, तुम पशु भी नहीं, तुम कायर हो! कायर!’जालपा का मुखमंडल तेजमय हो गया। गवर्च से उसकी गदिर्चन तन

गई। यह शायदि समझिते होंग, जालपा िजस वक्त मुझिे झिब्बेदिार पगड़ी बांध घोड़े पर सवार देखेगी, फली न

समाएगी। जालपा इतनी नीच नहीं है। तुम घोड़े पर नहीं, आसमान में उड़ो, मेरी आंखों में हत्यारे हो, पूरे हत्यारे,

िजसने अपनी जान बचाने के िलए इतने आदििमयों की गदिर्चन पर छुरी चलाई! मैंने चलते-चलते समझिाया था,

उसका कुछ असर न हुआ! ओह, तुम इतने धन-लोलुप हो, इतने लोभी! कोई हरज नहीं। जालपा अपने पालन

और रक्षा के िलए तुम्हारी मुहताज नहीं।’ इन्हीं संतप्त भावनाआं में डूबी हुई जालपा घर पहुंची।

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तैंतालीस

एक महीना गुज़र गया। जालपा कई िदिन तक बहुत िवकल रही। कई बार उन्मादि - सा हुआ िक अभी सारी

कथा िकसी पत्र में छपवा दूं, सारी कलई खोल दूं, सारे हवाई िकले ढा दूं, पर यह सभी उद्वेग शांत हो गए। आत्मा

की गहराइयों में िछपी हुई कोई शिक्त उसकी ज़बान बंदि कर देती थी। रमा को उसने ह्रदिय से िनकाल िदिया था।

उसके प्रित अब उसे कोध न था, द्वेष न था, दिया भी न थी, केवल उदिासीनता थी। उसके मर जाने की सूचना

पाकर भी शायदि वह न रोती। हां, इसे ईश्वरीय िवधान की एक लीला, माया का एक िनमर्चम हास्य, एक कूर कीडा

समझिकर थोड़ी देर के िलए वह दुर्खी हो जाती। प्रणय का वह बंधन जो उसके गले में दिो-ढाई साल पहले पडा

था, टूट चुका था, पर उसका िनशान बाकी था। रमा को इस बीच में उसने कई बार मोटर पर अपने घर के

सामने से जाते देखा। उसकी आंखें िकसी को खोजती हुई मालूम होती थीं। उन आंखों में कुछ लज्जा थी, कुछ

क्षमा-याचना, पर जालपा ने कभी उसकी तरफ आंखें न उठाई। वह शायदि इस वक्त आकर उसके पैरों पर पड़ता,

तो भी वह उसकी ओर न ताकती। रमा की इस घ!िणत कायरता और महान स्वाथर्चपरता ने जालपा के ह्रदिय को

मानो चीर डाला था, िफर भी उस प्रणय-बंधन का िनशान अभी बना हुआ था। रमा की वह प्रेम-िवह्नल मूित,

िजसे देखकर एक िदिन वह गदिगदि हो जाती थी, कभी-कभी उसके ह्रदिय में छाए हुए अंधेरे में क्षीण, मिलन,

िनरानंदि ज्योत्स्ना की भांित प्रवेश करती, और एक क्षण के िलए वह स्मृतितयां िवलाप कर उठतीं। िफर उसी

अंधकारऔर नीरवता का परदिा पड़ जाता। उसके िलए भिवष्य की मृतदुर् स्मृतितयां न थीं, केवल कठोर, नीरस

वतर्चमान िवकराल रूप से खडा घूर रहा था।

वह जालपा, जो अपने घर बात-बात पर मान िकया करती थी, अब सेवा, त्याग और सिहष्णुता की मूित

थी। जग्गो मना करती रहती, पर वह मुंह-अंधेरे सारे घर में झिाडू लगा आती, चौका-बरतन कर डालती, आटा

गूंधकर रख देती, चूल्हा जला देती। तब बुिढया का काम केवल रोिटयां सेंकना था। छूत-िवचार को भी उसने ताक

पर रख िदिया था। बुिढया उसे ठेल-ठालकर रसोई में ले जाती और कुछ न कुछ िखला देती। दिोनों में मां-बेटी का-

सा प्रेम हो गया था।

मुकदिमे की सब कारर्चवाई समाप्त हो चुकी थी। दिोनों पक्ष के वकीलों की बहस हो चुकी थी। केवल फैसला

सुनाना बाकी था। आज उसकी तारीख़ थी। आज बडे सबरे घर के काम-धंधों से फुसर्चत पाकर जालपा दिैिनक-पत्र

वाले की आवाज़ पर कान लगाए बैठी थी, मानो आज उसी का भाग्य-िनणर्चय होने वाला है। इतने में देवीदिीन ने

पत्र लाकर उसके सामने रख िदिया। जालपा पत्र पर टूट पड़ी और फैसला पढ़ने लगी। फैसला क्या था, एक

ख़याली कहानी थी, िजसका प्रधान नायक रमा था। जज ने बार-बार उसकी प्रशंसा की थी। सारा अिभयोग उसी

के बयान पर अवलंिबत था। देवीदिीन ने पूछा, ‘फैसला छपा है?’

जालपा ने पत्र पढ़ते हुए कहा, ‘हां, है तो!’

‘िकसकी सजा हुई?’

‘कोई नहीं छूटा, एक को फांसी की सज़ा िमली। पांच को दिस-दिस साल और आठ को पांच-पांच साल।

उसी िदिनेश को फांसी हुई।’

यह कहकर उसने समाचार-पत्र रख िदिया और एक लंबी सांस लेकर बोली, ‘इन बेचारों के बाल-बच्चों का

न जाने क्या हाल होगा!’

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देवीदिीन ने तत्परता से कहा, ‘तुमने िजस िदिन मुझिसे कहा था, उसी िदिन से मैं इन बातों का पता लगा रहा

हूं। आठ आदििमयों का तो अभी तक ब्याह ही नहीं हुआ और उनके घर वाले मज़े में ह। िकसी बात की तकलीफ

नहीं है। पांच आदििमयों का िववाह तो हो गया है, पर घर के खुश ह। िकसी के घर रोजगार होता है, कोई

जमींदिार है, िकसी के बाप-चचा नौकर ह। मैंने कई आदििमयों से पूछा, यहां कुछ चंदिा भी िकया गया है। अगर

उनके घर वाले लेना चाहें तो तो िदिया जायगा। खाली िदिनेस तबाह है। दिो छोट-छोट बच्चे ह, बुिढया, मां और

औरत, यहां िकसी स्यल में मास्टर था। एक मकान िकराए पर लेकर रहता था। उसकी खराबी है।‘

जालपा ने पूछा, ‘उसके घर का पता लगा सकते हो?’

‘हां, उसका पता कौन मुसिकल है?’

जालपा ने याचना-भाव से कहा, ‘तो कब चलोग? मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अभी तो वक्त है। चलो,

ज़रा देखें।’

देवीदिीन ने आपित्ति करके कहा, ‘पहले मैं देख तो आऊं। इस तरह मेरे साथ कहां-कहां दिौड़ती िफरोगी? ‘

जालपा ने मन को दिबाकर लाचारी से िसर झिुका िलया और कुछ न बोली। देवीदिीन चला गया। जालपा

िफर समाचार-पत्र देखने लगी,पर उसका ध्यान िदिनेश की ओर लगा हुआ था। बेचारा फांसी पा जायगा। िजस

वक्त उसने फांसी का हुक्म सुना होगा, उसकी क्या दिशा हुई होगी। उसकी बूढ़ी मां और स्त्री यह खबर सुनकर

छाती पीटने लगी होंगी। बेचारा स्कूल-मास्टर ही तो था, मुिश्कल से रोिटयां चलती होंगी। और क्या सहारा

होगा? उनकी िवपित्ति की कल्पना करके उसे रमा के प्रित उत्तिेजना, पूणर्च घृतणा हुई िक वह उदिासीन न रह सकी।

उसके मन में ऐसा उद्वेग उठा िक इस वक्त वह आ जायं तो ऐसा िधक्कारूं िक वह भी यादि कर। तुम मनुष्य हो!

कभी नहीं। तुम मनुष्य के रूप में राक्षस हो, राक्षस! तुम इतने नीच हो िक उसको प्रकट करने के िलए कोई शब्दि

नहीं है। तुम इतने नीच हो िक आज कमीने से कमीना आदिमी भी तुम्हारे ऊपर थूक रहा है। तुम्हें िकसी ने पहले

ही क्यों न मार डाला। इन आदििमयों की जान तो जाती ही, पर तुम्हारे मुंह में तो कािलख न लगती। तुम्हारा

इतना पतन हुआ कैसे! िजसका िपता इतना सच्चा, इतना ईमानदिार हो, वह इतना लोभी, इतना कायर!

शाम हो गई, पर देवीदिीन न आया। जालपा बार-बार िखड़की पर खड़ी हो-होकर इधर-उधर देखती थी,

पर देवीदिीन का पता न था। धीरे-धीरे आठ बज गए और देवी न लौटा। सहसा एक मोटर द्वार पर आकर रूकी

और रमा ने उतरकर जग्गो से पूछा, ‘सब कुशल-मंगल है न दिादिी! दिादिा कहां गए ह?’

जग्गो ने एक बार उसकी ओर देखा और मुंह उधर िलया। केवल इतना बोली, ‘कहीं गए होंग, मैं नहीं

जानती।’

रमा ने सोने की चार चूिडयां जेब से िनकालकर जग्गो के पैरों पर रख दिीं और बोला, ‘यह तुम्हारे िलए

लाया हूं दिादिी, पहनो, ढीली तो नहीं ह?’

जग्गो ने चूिडयां उठाकर ज़मीन पर पटक दिीं और आंखें िनकालकर बोली, ‘जहां इतना पाप समा सकता है,

वहां चार चूिडयों की जगह नहीं है! भगवान की दिया से बहुत चूिडयां पहन चुकी और अब भी सेर-दिो सेर सोना

पडा होगा, लेिकन जो खाया, पहना, अपनी िमहनत की कमाई से, िकसी का गला नहीं दिबाया, पाप की गठरी

िसर पर नहीं लादिी, नीयत नहीं िबगाड़ी। उस

कोख में आग लग िजसने तुम जैसे कपूत को जन्म िदिया। यह पाप की कमाई लेकर तुम बहू को देने आए

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होग! समझिते होग, तुम्हारे रूपयों की थैली देखकर वह लट्टू हो जाएगी। इतने िदिन उसके साथ रहकर भी तुम्हारी

लोभी आंखें उसे न पहचान सकीं। तुम जैसे राक्षस उस देवी के जोग न थ। अगर अपनी कुसल चाहते हो, तो

इन्हीं पैरों जहां से आए हो वहीं लौट जाओ, उसके सामने जाकर क्यों अपना पानी उतरवाओग। तुम आज पुिलस

के हाथों जख्मी होकर, मार

खाकर आए होते, तुम्हें सज़ा हो गई होती, तुम जेहल में डाल िदिए गए होते तो बहू तुम्हारी पूजा करती,

तुम्हारे चरन धो-धोकर पीती। वह उन औरतों में है जो चाहे मजूरी कर, उपास कर, फट-चीथड़े पहनें, पर िकसी

की बुराई नहीं देख सकतीं। अगर तुम मेरे लड़के होते, तो तुम्हें जहर दे देती। क्यों खड़े मुझिे जला रहे हो चले क्यों

नहीं जाते। मैंने तुमसे कुछ ले तो नहीं िलया है?

रमा िसर झिुकाए चुपचाप सुनता रहा। तब आहत स्वर में बोला, ‘दिादिी, मैंने बुराई की है और इसके िलए

मरते दिम तक लिज्जत रहूंगा, लेिकन तुम मुझिे िजतना नीच समझि रही हो, उतना नीच नहीं हूं। अगर तुम्हें मालूम

होता िक पुिलस ने मेरे साथ कैसी-कैसी सिख्तयां कीं, मुझिे कैसी-कैसी धमिकयां दिीं, तो तुम मुझिे राक्षस न

कहतीं।’

जालपा के कानों में इन आवाज़ों की भनक पड़ी। उसने जीने से झिांककर देखा। रमानाथ खडा था। िसर पर

बनारसी रेशमी साफा था, रेशम का बिढया कोट, आंखों पर सुनहली ऐनक। इस एक ही महीने में उसकी देह

िनखर आई थी। रंग भी अिधक गोरा हो गया था। ऐसी कांित उसके चेहरे पर कभी न िदिखाई दिी थी। उसके

अंितम शब्दि जालपा के कानों में पड़ गए, बाज की तरह टूटकर धम-धम करती हुई नीचे आई और ज़हर में बुझिे

हुए नोबाणों का उस पर प्रहार करती हुई बोली, ‘अगर तुम सिख्तयों और धमिकयों से इतना दिब सकते हो, तो

तुम कायर हो तुम्हें अपने को मनुष्य कहने का कोई अिधकार नहीं। क्या सिख्तयां की थीं? ज़रा सुनूं! लोगों ने तो

हंसते-हंसते िसर कटा िलए ह, अपने बेटों को मरते देखा है, कोल्हू में पेले जाना मंजूर िकया है, पर सच्चाई से

जौभर भी नहीं हट, तुम भी तो आदिमी हो, तुम क्यों धमकी में आ गए? क्यों नहीं

छाती खोलकर खड़े हो गए िक इसे गोली का िनशाना बना लो, पर मैं झिूठ न बोलूंगा। क्यों नहीं िसर

झिुका िदिया- देह के भीतर इसीिलए आत्मा रक्खी गई है िक देह उसकी रक्षा करे। इसिलए नहीं िक उसका

सवर्चनाश कर दे। इस पाप का क्या पुरस्कार िमला? ज़रा मालूम तो हो!

रमा ने दिबी हुई आवाज़ से कहा, ‘अभी तो कुछ नहीं ।’

जालपा ने सिपणी की भांित फुंकारकर कहा,यह सुनकर मुझिे बडी खुशी हुई! ईश्वर करे, तुम्हें मुंह में

कािलख लगाकर भी कुछ न िमले! मेरी यह सच्चे िदिल से प्राथर्चना है, लेिकन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतलों को

पुिलस वाले कभी नाराज़ न करग। तुम्हें कोई जगह िमलेगी और शायदि अच्छी जगह िमले, मगर िजस जाल में

तुम फंसे हो, उसमें से िनकल नहीं सकते। झिूठी गवाही, झिूठे मुकदिमे बनाना और पाप का व्यापार करना ही

तुम्हारे भाग्य में िलख गया। जाओ शौक

से िजदिगी के सुख लूटो। मैंने तुमसे पहले ही कह िदिया था और आज िफर कहती हूं िक मेरा तुमसे कोई

नाता नहीं है। मैंने समझि िलया िक तुम मर गए। तुम भी समझि लो िक मैं मर गई। बस, जाओ। मैं औरत हूं। अगर

कोई धमकाकर मुझिसे पाप कराना चाहे, तो चाहे उसे न मार सयं, अपनी गदिर्चन पर छुरी चला दूंगी। क्या तुममें

औरतों के बराबर भी िहम्मत नहीं है?

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रमा ने िभक्षुकों की भांित िगड़िगडाकर कहा, ‘तुम मेरा कोई उज्र न सुनोगी?’

जालपा ने अिभमान से कहा,’नहीं!’

‘तो मैं मुंह में कािलख लगाकर कहीं िनकल जाऊं?’’

‘तुम्हारी खुशी!’

‘तुम मुझिे क्षमा न करोगी?’

‘कभी नहीं, िकसी तरह नहीं!’

रमा एक क्षण िसर झिुकाए खडा रहा, तब धीरे-धीरे बरामदे के नीचे जाकर जग्गो से बोला, ‘

दिादिी, दिादिा आएं तो कह देना, मुझिसे ज़रा देर िमल लें। जहां कहें, आ जाऊं?’

जग्गो ने कुछ िपघलकर कहा, ‘कल यहीं चले आना।’

रमा ने मोटर पर बैठते हुए कहा, ‘यहां अब न आऊंगा, दिादिी!’

मोटर चली गई तो जालपा ने कुित्सत भाव से कहा, ‘मोटर िदिखाने आए थ, जैसे

ख़रीदि ही तो लाए हों!’

जग्गो ने भत्सर्चना की, ‘तुम्हें इतना बेलगाम न होना चािहए था, बहू! िदिल पर चोट लगती है, तो आदिमी

को कुछ नहीं सूझिता।’

जालपा ने िनष्ठुरता से कहा, ‘ऐसे हयादिार नहीं ह, दिादिी! इसी सुख के िलए तो आत्मा बेचीब उनसे यह

सुख भला क्या छोडा जायगा। पूछा नहीं, दिादिा से िमलकर क्या करोग? वह होते तो ऐसी फटकार सुनाते िक

छठी का दूध यादि आ जाता।’

जग्गो ने ितरस्कार के भाव से कहा, ‘तुम्हारी जगह मैं होती तो मेरे मुंह से ऐसी बातें न िनकलतीं। तुम्हारा

िहया बडा कठोर है। दूसरा मदिर्च होता तो इस तरह चुपका-चुपका सुनता- मैं तो थर-थर कांप रही थी िक कहीं

तुम्हारे ऊपर हाथ न चला दे, मगर है बडा गमखोर।‘

जालपा ने उसी िनष्ठुरता से कहा, ‘इसे गमखोरी नहीं कहते दिादिी, यह बेहयाई है।’

देवीदिीन ने आकर कहा, ‘क्या यहां भैया आए थ? मुझिे मोटर पर रास्ते में िदिखाई िदिए थ।’

जग्गो ने कहा, ‘हां, आए थ। कह गए ह, दिादिा मुझिसे ज़रा िमल लें।’

देवीदिीन ने उदिासीन होकर कहा, ‘िमल लूंगा। यहां कोई बातचीत हुई?’

जग्गो ने पछताते हुए कहा, ‘बातचीत क्या हुई, पहले मैंने पूजा की, मैं चुप हुई तो बहू ने अच्छी तरह फलमाला चढ़ाई।‘

जालपा ने िसर नीचा करके कहा, ‘आदिमी जैसा करेगा, वैसा भोगगा।’

जग्गो—‘अपना ही समझिकर तो िमलने आए थ।’

जालपा—‘कोई बुलाने तो न गया था। कुछ िदिनेश का पता चला, दिादिा!’

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देवीदिीन—‘हां, सब पूछ आया। हाबडे में घर है। पता-िठकाना सब मालूम हो गया।’

जालपा ने डरते-डरते कहा, ‘इस वक्त चलोग या कल िकसी वक्त?’

देवीदिीन—‘तुम्हारी जैसी मरजीब जी जाहे इसी बखत चलो, मैं तैयार हूं।

जालपा—‘थक गए होग?’

देवीदिीन—‘इन कामों में थकान नहीं होती बेटी।‘

आठ बज गए थ। सड़क पर मोटरों का तांता बंध हुआ था। सड़क की दिोनों पटिरयों पर हज़ारों स्त्री-पुरूष

बने-ठने, हंसते-बोलते चले जाते थ। जालपा ने सोचा, दुर्िनया कैसी अपने राग-रंग में मस्त है। िजसे उसके िलए

मरना हो मरे, वह अपनी टव न छोड़ेगी। हर एक अपना छोटा-सा िमट्टी का घरौंदिा बनाए बैठा है। देश बह जाए,

उसे परवा नहीं। उसका घरौंदिा बच रहे! उसके स्वाथर्च में बाधा न पड़े। उसका भोला-भाला ह्रदिय बाज़ार को बंदि

देखकर खुश होता। सभी आदिमी शोक से िसर झिुकाए, त्योिरयां बदिले उन्मभा-से नज़र आते। सभी के चेहरे भीतर

की जलन से लाल होते। वह न जानती थी िक इस जन-सागर में ऐसी छोटी-छोटी कंकिडयों के िगरने से एक

हल्कोरा भी नहीं उठता, आवाज तक नहीं आती।

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चवालीस

रमा मोटर पर चला, तो उसे कुछ सूझिता न था, कुछ समझि में न आता था, कहां जा रहा है। जाने हुए

रास्ते उसके िलए अनजाने हो गए थ। उसे जालपा पर कोध न था, ज़रा भी नहीं। जग्गो पर भी उसे कोध न था।

कोध था अपनी दुर्बर्चलता पर, अपनी स्वाथर्चलोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुिलस के वातावरण में उसका

औिचत्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था। वह िकतना बडा अन्याय करने जा रहा है, उसका उसे केवल उस िदिन ख़याल

आया था, जब जालपा ने समझिाया था। िफर यह शंका मन में उठी ही नहीं। अफसरों ने बडी-बडी आशाएं बंधकर

उसे बहला रक्खा। वह कहते, अजी बीबी की कुछ िफक न करो। िजस वक्त तुम एक जडाऊ हार लेकर पहुंचोग

और रूपयों की थैली नज़र कर दिोग, बेगम साहब का सारा गुस्सा भाग जायगा। अपने सूबे में िकसी अच्छी-सी

जगह पर पहुंच जाओग, आराम से िजदिगी कटगी। कैसा गुस्सा! इसकी िकतनी ही आंखों देखी िमसालें दिी गई।

रमा चक्कर में फंस गया। िफर उसे जालपा से िमलने का अवसर ही न िमला। पुिलस का रंग जमता गया। आज

वह जडाऊ हार जेब में रखे जालपा को अपनी िवजय की खुशख़बरी देने गया था। वह जानता था जालपा पहले

कुछ नाक-भौं िसकोड़ेगी पर यह भी जानता था िक यह हार देखकर वह जरूर खुश हो जायगी। कल ही संयुक्त

प्रांत के होम सेद्रेटरी के नाम किमश्नर पुिलस का पत्र उसे िमल जाएगा। दिो-चार िदिन यहां खूब सैर करके घर की

राह लेगा। देवीदिीन और जग्गो को भी वह अपने साथ ले जाना चाहता था। उनका एहसान वह कैसे भूल सकता

था। यही मनसूबे मन में बांधकर वह जालपा के पास गया था, जैसे कोई भक्त फल और नैवेद्यप लेकर देवता की

उपासना करने जाय, पर देवता ने वरदिान देने के बदिले उसके थाल को ठुकरा िदिया, उसके नैवेद्यप उसकी ओर

ताकने का साहस न कर सकता था। उसने सोचा, इसी वक्त ज़ज के पास चलूं और सारी कथा कह सुनाऊं। पुिलस

मेरी दुर्श्मन हो जाय, मुझिे जेल में सडा डाले, कोई परवा नहीं। सारी कलई खोल दूंगा। क्या जज अपना फैसला

नहीं बदिल सकता- अभी तो सभी मुिज़लम हवालात में ह। पुिलस वाले खूब दिांत पीसेंग, खूब नाचे-यदेंग, शायदि

मुझिे कच्चा ही खा जायं। खा जायं! इसी दुर्बर्चलता ने तो मेरे मुंह में कािलख लगा दिी।

जालपा की वह कोधोन्मभा मूित उसकी आंखों के सामने िफर गई। ओह, िकतने गुस्से में थी! मैं जानता िक

वह इतना िबगड़ेगी, तो चाहे दुर्िनया इधर से उधर हो जाती, अपना बयान बदिल देता। बडा चकमा िदिया इन

पुिलस वालों ने, अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुिलज़मों को बरी न िकया, तो जालपा मेरा मुंह न

देखेगी। मैं उसके पास कौन मुंह लेकर जाऊंगा। िफर िजदिा रहकर ही क्या करूंगा। िकसके िलए?

उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझि में न आया, कहां आ गया। सहसा एक चौकीदिार

नज़र आया। उसने उससे जज साहब के बंगले का पता पूछाब चौकीदिार हंसकर बोला, ‘हुजूर तो बहुत दूर िनकल

आए। यहां से तो छः-सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगी की ओर रहते ह।‘

रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर िफर चला। नौ बज गए थ। उसने सोचा,जज साहब से मुलाकात न हुई, तो

सारा खेल िबगड़ जाएगा। िबना िमले हटूंगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन िलया तो ठीक ही है, नहीं कल हाईकोटर्च

के जजों से कहूंगा। कोई तो सुनेगा। सारा वृतत्तिांत समाचार-पत्रों में छपवा दूंगा, तब तो सबकी आंखें खुलेंगी।

मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दिस िमनट ही में चौरंगी आ पहुंची। यहां अभी तक वही चहलपहल थी,, मगर रमा उसी ज़न्नाट से मोटर िलये जाता था। सहसा एक पुिलसमैन ने लाल बत्तिी िदिखाई। वह रूक

गया और बाहर िसर िनकालकर देखा, तो वही दिारोग़ाजी!

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दिारोग़ा ने पूछा, ‘क्या अभी तक बंगले पर नहीं गए? इतनी तेज़ मोटर न चलाया कीिजए। कोई वारदिात

हो जायगी। किहए, बेगम साहब से मुलाकात हुई? मैंने तो समझिा था, वह भी आपके साथ होंगी। खुश तो खूब

हुई होंगी!‘

रमा को ऐसा कोध आया िक मूंछें उखाड़ लूं, पर बात बनाकर बोला, ‘जी हां, बहुत खुश हुई।‘

‘मैंने कहा था न, औरतों की नाराज़ी की वही दिवा है। आप कांपे जाते थ। ‘

‘मेरी िहमाकत थी।’

‘चिलए, मैं भी आपके साथ चलता हूं। एक बाज़ी ताश उड़े और ज़रा सरूर जमेब िडप्टी साहब और

इंस्पेक्टर साहब आएंग। ज़ोहरा को बुलवा लेंग। दिो घड़ी की बहार रहेगी। अब आप िमसेज़ रमानाथ को बंगले ही

पर क्यों नहीं बुला लेते। वहां उस खिटक के घर पड़ी हुई ह।’

रमा ने कहा, ‘अभी तो मुझिे एक जरूरत से दूसरी तरफ जाना है। आप मोटर ले जाएं ।मैं पांव-पांव चला

आऊंगा।‘

दिारोग़ा ने मोटर के अंदिर जाकर कहा, ‘नहीं साहब, मुझिे कोई जल्दिी नहीं है। आप जहां चलना चाहें,

चिलए। मैं ज़रा भी मुिख़ल न हूंगा। रमा ने कुछ िचढ़कर कहा,लेिकन मैं अभी बंगले पर नहीं जा रहा हूं।‘

दिारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, ‘मैं समझि रहा हूं, लेिकन मैं ज़रा भी मुिख़ल न हूंगा। वही बेगम साहब---‘

रमा ने बात काटकर कहा, ‘जी नहीं, वहां मुझिे नहीं जाना है।‘

दिारोग़ा –‘तो क्या कोई दूसरा िशकार है? बंगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं आपके िदिलबहलाव का कुछ सामान हािज़र हो जायगा।‘

रमा ने एकबारगी आंखें लाल करके कहा, ‘क्या आप मुझिे शोहदिा समझिते ह?मैं इतना जलील नहीं हूं।‘

दिारोग़ा ने कुछ लिज्जत होकर कहा, ‘अच्छा साहब, गुनाह हुआ, माफ कीिजए। अब कभी ऐसी गुस्ताखी न

होगी लेिकन अभी आप अपने को खतरे से बाहर न समझिंब मैं आपको िकसी ऐसी जगह न जाने दूंगा, जहां मुझिे

पूरा इत्मीनान न होगा। आपको ख़बर नहीं, आपके िकतने दुर्श्मन ह। मैं आप ही के फायदे के ख़याल से कह रहा

हूं।‘

रमा ने होंठ चबाकर कहा, ‘बेहतर हो िक आप मेरे फायदे का इतना ख़याल न कर। आप लोगों ने मुझिे

मिलयामेट कर िदिया और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझिे अब अपने हाल पर मरने दिीिजए।मैं इस गुलामी से

तंग आ गया हूं। मैं मां के पीछे-पीछे चलने वाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते ह, शौक से

ले जाइए। मोटर की सवारी और बंगले में रहने के िलए पंद्रह आदििमयों को कुबान करना पडाहै। कोई जगह पा

जाऊं, तो शायदि पंद्रह सौ आदििमयों को कुबान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मजबूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले

जाइए।‘

यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पडाऔर जल्दिी से आग बढ़गया।

दिारोग़ा ने कई बार पुकारा, ‘ज़रा सुिनए, बात तो सुिनए, ‘ लेिकन उसने पीछे िफरकर देखा तक नहीं।

ज़रा और आग चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सडक। पर जज का बंगला था। सड़क पर कोई आदिमी न

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िमला। रमा कभी इस पटरी पर और कभी उस पटरी पर जा-जाकर बंगलों के नंबर पढ़ता चला जाता था। सहसा

एक नंबर देखकर वह रूक गया। एक िमनट तक खडा देखता रहा िक कोई िनकले तो उससे पूछूं साहब ह या

नहीं। अंदिर जाने की उसकी िहम्मत न पड़ती थी। ख़याल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झिूठी गवाही दिी, तो क्या

जवाब दूंगा। यह कहना िक पुिलस ने मुझिसे जबरदिस्ती गवाही िदिलवाई, प्रलोभन िदिया, मारने की धमकी दिी,

लज्जास्पदि बात है। अगर वह पूछे िक तुमने केवल दिो-तीन साल की सज़ा से बचने के िलए इतना बडा कलंक िसर

पर ले िलया, इतने आदििमयों की जान लेने पर उतारू हो गए, उस वक्त तुम्हारी बुिद्धि कहां गई थी, तो उसका

मेरे पास क्या जवाब है? ख्वामख्वाह लिज्जत होना पड़ेगा।

बेवकूफ बनाया जाऊंगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामथ्यर्च न थी। लज्जा ने

सदिैव वीरों को परास्त िकया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की िहम्मत नहीं

करते। आग में झिुंक जाना, तलवार के सामने खड़े हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के

िलए बड़े-बडे राज्य िमट गए ह, रक्त की निदियां बह गई ह, प्राणों की होली खेल डाली गई है। उसी लाज ने

आज रमा के पग भी पीछे हटा िदिए।

शायदि जेल की सज़ा से वह इतना भयभीत न होता।

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पैंतालीस

रमा आधी रात गए सोया, तो नौ बजे िदिन तक नींदि न खुली ब वह स्वप्न देख रहा था,िदिनेश को फांसी हो

रही है। सहसा एक स्त्री तलवार िलये हुए फांसी की ओर दिौड़ी और फांसी की रस्सी काट दिी चारों ओर हलचल

मच गई। वह औरत जालपा थी । जालपा को लोग घेरकर पकड़ना चाहते थ, पर वह पकड़ में न आती थी। कोई

उसके सामने जाने का साहस न कर सकता था । तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलाई। रमा

घबडाकर उठ बैठा देखा तो दिारोग़ा और इंस्पेक्टर कमरे में खड़े ह, और िडप्टी साहब आरामकुसी पर लेट हुए

िसगार पी रहे ह ।

दिारोग़ा ने कहा, ‘आज तो आप खूब सोए बाबू साहब! कल कब लौट थ ?’

रमा ने एक कुसी पर बैठकर कहा, ‘ज़रा देर बादि लौट आया था। इस मुकदिमे की अपील तो हाईकोटर्च में

होगी न?‘

इंस्पेक्टर, ‘अपील क्या होगी, ज़ाब्ते की पाबंदिी होगी। आपने मुकदिमे को इतना मज़बूत कर िदिया है िक वह

अब िकसी के िहलाए िहल नहीं सकता हलफ से कहता हूं, आपने कमाल कर िदिया। अब आप उधर से बेिफक हो

जाइए। हां, अभी जब तक फैसला न हो जाय, यह मुनािसब होगा िक आपकी िहफाजत का ख़याल रक्खा जाय।

इसिलए िफर पहरे का इंतज़ाम कर िदिया गया है। इधर हाईकोटर्च से फैसला हुआ, उधार आपको जगह िमली।’

िडप्टी साहब ने िसगार का धुआं फेंक कर कहा, यह डी. ओ. किमश्नर साहब ने आपको िदिया है, िजसमें

आपको कोई तरह की शक न हो । देिखए, यू. पी. के होम सेद्रेटरी के नाम है । आप वहां यह डी. ओ. िदिखाएंग,

वह आपको कोई बहुत अच्छी जगह दे देगा । इंस्पेक्टर,किमश्नर साहब आपसे बहुत खुश ह, हलफ से कहता हूं ।

िडप्टी-बहुत खुश ह। वह यू. पी. को अलग डायरेक्ट भी िचटठी िलखेगा। तुम्हारा भाग्य खुल गया।’

यह कहते हुए उसने डी. ओ. रमा की तरफ बढ़ा िदिया। रमा ने िलफाफा खोलकर देखा और एकाएक उसको

फाड़कर पुजे-पुजे कर डाला ब तीनों आदिमी िवस्मय से उसका मुंह ताकने लग ।

दिारोग़ा ने कहा, ‘रात बहुत पी गए थ क्या? आपके हक में अच्छा न होगा!’

इंस्पेक्टर, ‘हलफ से कहता हूं, किमश्नर साहब को मालूम हो जायगा, तो बहुत नाराज होंग।’

िडप्टी, ‘इसका कुछ मतलब हमारे समझि में नहीं आया ।इसका क्या मतलब है?’

रमानाथ—‘इसका यह मतलब है िक मुझिे इस डी. ओ. की जरूरत नहीं है और न मैं नौकरी चाहता हूं। मैं

आज ही यहां से चला जाऊंगा।’

िडप्टी—‘जब तक हाईकोटर्च का फैसला न हो जाय, तब तक आप कहीं नहीं जा सकता।’

रमानाथ—‘क्यों?’

िडप्टी—‘किमश्नर साहब का यह हुक्म है।’

रमानाथ—‘मैं िकसी का गुश्लाम नहीं हूं।

इंस्पेक्टर—‘बाबू रमानाथ, आप क्यों बना-बनाया खेल िबगाड़ रहे ह?जो कुछ होना था, वह हो गया। दिसपांच िदिन में हाईकोटर्च से फैसले की तसदिीक हो जायगी आपकी बेहतरी इसी में है िक जो िसला िमल रहा है, उसे

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खुशी से लीिजए और आराम से िजदिगी के िदिन बसर कीिजए। खुदिा ने चाहा, तो एक िदिन आप भी िकसी ऊंचे

ओहदे पर पहुंच जाएंग। इससे क्या फायदिा िक अफसरों को नाराज़ कीिजए और कैदि की मुसीबतें झिेिलए। हलफ

से कहता हूं, अफसरों की ज़रा-सी िनगाह बदिल जाय, तो आपका कहीं पता न लग। हलफ से कहता हूं, एक इशारे

में आपको दिस साल की सज़ा हो जाय। आप ह िकस ख़याल में? हम आपके साथ शरारत नहीं करना चाहते। हां,

अगर आप हमें सख्ती करने पर मजबूर करग, तो हमें सख्ती करनी पड़ेगी। जेल को आसान न समिझिएगा। खुदिा

दिोज़ख में ले जाए, पर जेल की सज़ा न दे। मार-धाड़, गाली-गुतिर वह तो वहां की मामूली सज़ा है। चक्की में

जोत िदिया तो मौत ही आ गई। हलफ से कहता हूं, दिोज़ख से बदितर है जेल! ’

दिारोग़ा –‘यह बेचारे अपनी बेगम साहब से माज़ूर ह ब वह शायदि इनके जान की गाहक हो रही ह। उनसे

इनकी कोर दिबती है ।’

इंस्पेक्टर, ‘क्या हुआ, कल तो वह हार िदिया था न? िफर भी राज़ी नहीं हुई ?’

रमा ने कोट की जेब से हार िनकालकर मेज़ पर रख िदिया और बोला,वह हार यह रक्खा हुआ है।

इंस्पेक्टर-- ‘अच्छा, इसे उन्होंने नहीं कबूल िकया।’

िडप्टी—‘कोई प्राउड लेडी है ।’

इंस्पेक्टर—‘कुछ उनकी भी िमज़ाज़-पुरसी करने की जरूरत होगी ।’

दिारोग़ा –‘यह तो बाबू साहब के रंग-ढंग और सलीके पर मुनहसर है। अगर आप ख्वामख्वाह हमें मज़बूर न

करग, तो हम आपके पीछे न पडंग ।’

िडप्टी—‘उस खिटक से भी मुचलका ले लेना चािहए ।’

रमानाथ के सामने एक नई समस्या आ खड़ी हुई, पहली से कहीं जिटल, कहीं भीषण। संभव था, वह अपने

को कतर्चव्य की वेदिी पर बिलदिान कर देता, दिो-चार साल की सज़ा के िलए अपने को तैयार कर लेता। शायदि इस

समय उसने अपने आत्म-समपर्चण का िनश्चय कर िलया था, पर अपने साथ जालपा को भी संकट में डालने का

साहस वह िकसी तरह न कर सकता था। वह पुिलस के िशकंजे में कुछ इस तरह दिब गया था िक अब उसे बेदिाग

िनकल जाने का कोई मागर्च िदिखाई न देता था ।उसने देखा िक इस लडाई में मैं पेश नहीं पा सकता पुिलस

सवर्चशिक्तमान है, वह मुझिे िजस तरह चाहे दिबा सकती है । उसके िमज़ाज़ की तेज़ी गायब हो गई। िववश होकर

बोला, ‘आिख़र आप लोग मुझिसे क्या चाहते ह? ‘

इंस्पेक्टर ने दिारोग़ा की ओर देखकर आंखें मारीं, मानो कह रहे हों, ‘आ गया पंजे में’, और बोले, ‘बस इतना

ही िक आप हमारे मेहमान बने रहें, और मुकदिमे के हाईकोटर्च में तय हो जाने के बादि यहां से रूख़सत हो जाएं ।

क्योंिक उसके बादि हम आपकी िहफाज़त के िज़म्मेदिार न होंग। अगर आप कोई सिटिफकेट लेना चाहेंग, तो वह दे

दिी जाएगी, लेिकन उसे लेने या न लेने का आपको पूरा अिख्तयार है। अगर आप होिशयार ह, तो उसे लेकर

फायदिा उठाएंग, नहीं इधरउधर के धक्के खाएंग। आपके ऊपर गुनाह बेलज्ज़त की मसल सािदिक आयगी। इसके

िसवा हम आपसे और कुछ नहीं चाहते ब हलफ से कहता हूं, हर एक चीज़ िजसकी आपको ख्वािहश हो, यहां

हािज़र कर दिी जाएगी, लेिकन जब तक मुकदिमा खत्म हो जाए, आप आज़ादि नहीं हो सकते ।

रमानाथ ने दिीनता के साथ पूछा, ‘सैर करने तो जा सकूंगा, या वह भी नहीं?’

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इंस्पेक्टर ने सूत्र रूप से कहा, ‘जी नहीं! ‘

दिारोग़ा ने उस सूत्र की व्याख्या की, ‘आपको वह आज़ादिी दिी गई थी, पर आपने उसका बेजा इस्तेमाल

िकया ब जब तक इसका इत्मीनान न हो जाय िक आप उसका जायज इस्तेमाल कर सकते ह या नहीं, आप उस

हक से महरूम रहेंग।‘

दिारोग़ा ने इंस्पेक्टर की तरफ देखकर मानो इस व्याख्या की दिादि देनी चाही,जो उन्हें सहषर्च िमल गई। तीनों

अफसर रूख़सत हो गए और रमा एक िसगार जलाकर इस िवकट पिरिस्थित पर िवचार करने लगा ।

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िछयालीस

एक महीना और िनकल गया। मुकदिमे के हाईकोटर्च में पेश होने की ितिथ िनयत हो गई है। रमा के स्वभाव

में िफर वही पहले की-सी भीरूता और खुशामदि आ गई है। अफसरों के इशारे पर नाचता है। शराब की मात्रा

पहले से बढ़ गई है, िवलािसता ने मानो पंजे में दिबा िलया है। कभी-कभी उसके कमरे में एक वेश्या ज़ोहरा भी आ

जाती है, िजसका गाना वह बडे शौक से सुनता है ।

एक िदिन उसने बडी हसरत के साथ ज़ोहरा से कहा, ‘मैं डरता हूं, कहीं तुमसे प्रेम न बढ़ जाय। उसका

नतीजा इसके िसवा और क्या होगा िक रो-रोकर िज़दिगी काटूं, तुमसे वफा की उम्मीदि और क्या हो सकती है!’

ज़ोहरा िदिल में खुश होकर अपनी बडी-बडी रतनारी आंखों से उसकी ओर ताकती हुई बोली,हां साहब, हम

वफा क्या जानें, आिख़र वेश्या ही तो ठहरीं! बेवफा वेश्या भी कहीं वफादिार हो सकती है? ’

रमा ने आपित्ति करके पूछा, ‘क्या इसमें कोई शक है? ’

ज़ोहरा – ‘नहीं, ज़रा भी नहीं ब आप लोग हमारे पास मुहब्बत से लबालब भरे िदिल लेकर आते ह, पर

हम उसकी ज़रा भी कद्र नहीं करतीं ब यही बात है न? ’

रमानाथ—‘बेशक।’

ज़ोहरा--‘मुआफ कीिजएगा, आप मरदिों की तरफदिारी कर रहे ह। हक यह है िक वहां आप लोग िदिलबहलाव के िलए जाते ह, महज़ ग़म ग़लत करने के िलए, महज़ आनंदि उठाने के िलए। जब आपको वफा की तलाश

ही नहीं होती, तो वह िमले क्यों कर- लेिकन इतना मैं जानती हूं िक हममें िजतनी बेचािरयां मरदिों की बेवफाई

से िनराश होकर अपना आराम-चैन खो बैठती ह,उनका पता अगर दुर्िनया को चले, तो आंखें खुल जायं। यह

हमारी भूल है िक तमाशबीनों से वफा चाहते ह, चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते ह, पर प्यासा आदिमी अंधे कुएं की

तरफ दिौडे।, तो मेरे ख़याल में उसका कोई कसूर नहीं।‘

उस िदिन रात को चलते वक्त ज़ोहरा ने दिारोग़ा को खुशख़बरी दिी, ‘आज तो हज़रत खूब मजे में आए ब

खुदिा ने चाहा, तो दिो-चार िदिन के बादि बीवी का नाम भी न लें।’

दिारोग़ा ने खुश होकर कहा, ‘इसीिलए तो तुम्हें बुलाया था। मज़ा तो जब है िक बीवी यहां से चली जाए।

िफर हमें कोई ग़म न रहेगा। मालूम होता है स्वराज्यवालों ने उस औरत को िमला िलया है। यह सब एक ही

शैतान ह।’

ज़ोहरा की आमोदिरफ्त बढ़ने लगी, यहां तक िक रमा खुदि अपने चकमे में आ गया। उसने ज़ोहरा से प्रेम

जताकर अफसरों की नजर में अपनी साख जमानी चाही थी, पर जैसे बच्चे खेल में रो पड़ते ह, वैसे ही उसका

प्रेमािभनय भी प्रेमोन्मादि बन बैठा ज़ोहरा उसे अब वफा और मुहब्बत की देवी मालूम होती थी। वह जालपा की-

सी सुंदिरी न सही, बातों में उससे कहीं चतुर, हाव-भाव में कहीं कुशल, सम्मोहन-कला में कहीं पटु थी। रमा के

ह्रदिय में नए-नए मनसूबे पैदिा होने लग।

एक िदिन उसने ज़ोहरा से कहा, ‘ज़ोहरा –‘ जुदिाई का समय आ रहा है । दिो-चार िदिन में मुझिे यहां से चला

जाना पडेगा । िफर तुम्हें क्यों मेरी यादि आने लगी?’

ज़ोहरा ने कहा, ‘मैं तुम्हें न जाने दूंगी। यहीं कोई अच्छी-सी नौकरी कर लेना। िफर हम-तुम आराम से रहेंग

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।’

रमा ने अनुरक्त होकर कहा, ‘िदिल से कहती हो ज़ोहरा? देखो, तुम्हें मेरे िसर की कसम, दिग़ा मत देना।’

ज़ोहरा—‘अगर यह ख़ौफ हो तो िनकाह पढ़ा लो। िनकाह के नाम से िचढ़ हो, तो ब्याह कर लो। पंिडतों को

बुलाओ। अब इसके िसवा मैं अपनी मुहब्बत का और क्या सबूत दूं।’

रमा िनष्कपट प्रेम का यह पिरचय पाकर िवह्नल हो उठा। ज़ोहरा के मुंह से िनकलकर इन शब्दिों की

सम्मोहक-शिक्त िकतनी बढ़गई थी। यह कािमनी, िजस पर बडे-बडे रईस िफदिा ह, मेरे िलए इतना बडा त्याग

करने को तैयार है! िजस खान में औरों को बालू ही िमलता है, उसमें िजसे सोने के डले िमल जायं, क्या वह परम

भाग्यशाली नहीं है? रमा के मन में कई िदिनों तक संग्राम होता रहा। जालपा के साथ उसका जीवन िकतना

नीरस, िकतना किठन हो जायगा। वह पग-पग पर अपना धमर्च और सत्य लेकर खड़ी हो जाएगी और उसका

जीवन एक दिीघर्च तपस्या, एक स्थायी साधना बनकर रह जाएगा। साित्वक जीवन कभी उसका आदिशर्च नहीं रहा।

साधारण मनुष्यों की भांित वह भी भोग-िवलास करना चाहता था। जालपा की ओर से हटकर उसका

िवलासासक्त मन प्रबल वेग से ज़ोहरा की ओर िखचा। उसको व्रत-धािरणी वेश्याआं के उदिाहरण यादि आने लग।

उसके साथ ही चंचल वृतित्ति की गृतिहिणयों की िमसालें भी आ पहुचीं। उसने िनश्चय िकया, यह सब ढकोसला है। न

कोई जन्म से िनदिोष है, न कोई दिोषी। यह सब पिरिस्थित पर िनभर्चर है।

ज़ोहरा रोज आती और बंधन में एक गांठ और देकर जाती । ऐसी िस्थित में संयमी युवक का आसन भी

डोल जाता। रमा तो िवलासी था। अब तक वह केवल इसिलए इधर-उधर न भटक सका था िक ज्योंही, उसके

पंख िनकले, जािलये ने उसे अपने िपजरे में बंदि कर िदिया। कुछ िदिन िपजरे से बाहर रहकर भी उसे उड़ने का

साहस न हुआ। अब उसके सामने एक नवीन दिृतश्य था, वह छोटा-सा कुिल्हयों वाला िपज़रा नहीं, बिल्क एक

गुलाबों से लहराता हुआ बाग़, जहां की कैदि में स्वाधीनता का आनंदि था। वह इस बाग़ में क्यों न कीडा का आनंदि

उठाए!

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सैंतालीस

रमा ज्यों-ज्यों ज़ोहरा के प्रेम-पाश में फंसता जाता था, पुिलस के अिधकारी वगर्च उसकी ओर से िनश्शंक

होते जाते थ। उसके ऊपर जो कैदि लगाई गई थी, धीरे-धीरे ढीली होने लगी। यहां तक िक एक िदिन िडप्टी साहब

शाम को सैर करने चले तो रमा को भी मोटर पर िबठा िलया। जब मोटर देवीदिीन की दूकान के सामने से होकर

िनकली, तो रमा ने अपना िसर इस तरह भीतर खींच िलया िक िकसी की नज़र न पड़ जाय। उसके मन में बडी

उत्सुकता हुई िक जालपा है या चली गई, लेिकन वह अपना िसर बाहर न िनकाल सका। मन में वह अब भी यही

समझिता था िक मैंने जो रास्ता पकडाहै, वह कोई बहुत अच्छा रास्ता नहीं है, लेिकन यह जानते हुए भी वह उसे

छोड़ना न चाहता था। देवीदिीन को देखकर उसका मस्तक आप-ही-आप लज्जा से झिुक जाता, वह िकसी दिलील से

अपना पक्ष िसद्धि न कर सकता उसने सोचा, मेरे िलए सबसे उत्तिम मागर्च यही है िक इनसे िमलना-जुलना छोड़ दूं।

उस शहर में तीन प्रािणयों को छोड़कर िकसी चौथ आदिमी से उसका पिरचय न था, िजसकी आलोचना या

ितरस्कार का उसे भय होता। मोटर इधर-उधर घूमती हुई हाबडा-िब्रज की तरफ चली जा रही थी, िक सहसा

रमा ने एक स्त्री को िसर पर गंगा-जल का कलसा रक्खे घाटों के ऊपर आते देखा। उसके कपड़े बहुत मैले हो रहे

थ और कृतशांगी ऐसी थी िक कलसे के बोझि से उसकी गरदिन दिबी जाती थी। उसकी चाल कुछ-कुछ जालपा से

िमलती हुई जान पड़ी। सोचा, जालपा यहां क्या करने आवेगी, मगर एक ही पल में कार और आग बढ़गई और

रमा को उस स्त्री का मुंह िदिखाई िदिया। उसकी छाती धक-से हो गई। यह जालपा ही थी। उसने िखड़की के बगल

में िसर िछपाकर गौर से देखा। बेशक जालपा थी, पर िकतनी दुर्बर्चल! मानो कोई वृतद्धिा, अनाथ हो न वह कांित थी,

न वह लावण्य, न वह चंचलता, न वह गवर्च, रमा ह्रदियहीन न था। उसकी आंखें सजल हो गई। जालपा इस दिशा में

और मेरे जीते जी! अवश्य देवीदिीन ने उसे िनकाल िदिया होगा और वह टहलनी बनकर अपना िनवाह कर रही

होगी। नहीं, देवीदिीन इतना बेमुरौवत नहीं है। जालपा ने खुदि उसके आश्रय में रहना स्वीकार न िकया होगा।

मािननी तो है ही। कैसे मालूम हो, क्या बात है? मोटर दूर िनकल आई थी। रमा की सारी चंचलता, सारी

भोगिलप्सा गायब हो गई थी। मिलन वसना, दुर्िखनी जालपा की वह मूित आंखों के सामने खड़ी थी।िकससे कहे?

क्या कहे?यहां कौन अपना है? जालपा का नाम ज़बान पर आ जाय, तो सब-के-सब चौंक पड़ं और िफर घर से

िनकलना बंदि कर दें। ओह! जालपा के मुख पर शोक की िकतनी गहरी छाया थी, आंखों में िकतनी िनराशा! आह,

उन िसमटी हुई आंखों में जले हुए ह्रदिय से िनकलने वाली िकतनी आहें िसर पीटती हुई मालूम होती थीं, मानो

उन पर हंसी कभी आई ही नहीं, मानो वह कली िबना िखले ही मुरझिा गई। कुछ देर के बादि ज़ोहरा आई,

इठलाती, मुस्कराती, लचकती, पर रमा आज उससे भी कटा-कटा रहा।

ज़ोहरा ने पूछा, ‘आज िकसी की यादि आ रही है क्या?’यह कहते हुए उसने अपनी गोल नमर्च मक्खन-सी

बांह उसकी गरदिन में डालकर उसे अपनी ओर खींचा। रमा ने अपनी तरफ ज़रा भी ज़ोर न िकया। उसके ह्रदिय

पर अपना मस्तक रख िदिया, मानो अब यही उसका आश्रय है। ज़ोहरा ने कोमलता में डूबे हुए स्वर में पूछा, ‘सच

बताओ, आज इतने उदिास क्यों हो? क्या मुझिसे िकसी बात पर नाराज़ हो?’

रमा ने आवेश से कांपते हुए स्वर में कहा, ‘नहीं ज़ोहरा –‘ तुमने मुझि अभाग पर िजतनी दिया की है, उसके

िलए मैं हमेशा तुम्हारा एहसानमंदि रहूंगा। तुमने उस वक्त मुझिे संभाला, जब मेरे जीवन की टूटी हुई िकश्ती गोते

खा रही थी, वे िदिन मेरी िजदिगी के सबसे मुबारक िदिन ह और उनकी स्मृतित को मैं अपने िदिल में बराबर पूजता

रहूंगा। मगर अभागों को मुसीबत बार-बार अपनी तरफ खींचती है! प्रेम का बंधन भी उन्हें उस तरफ िखच जाने

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से नहीं रोक सकता

मैंने जालपा को िजस सूरत में देखा है, वह मेरे िदिल को भालों की तरह छेदि रहा है। वह आज फट-मैले

कपड़े पहने, िसर पर गंगा-जल का कलसा िलये जा रही थी। उसे इस हालत में देखकर मेरा िदिल टुकडे।-टुकडे।

हो गया। मुझिे अपनी िजदिगी में कभी इतना रंज न हुआ था। ज़ोहरा –‘ कुछ नहीं कह सकता, उस पर क्या बीत

रही है।’

ज़ोहरा ने पूछा, ‘वह तो उस बुडढे मालदिार खिटक के घर पर थी?’

रमानाथ—‘हां थी तो, पर नहीं कह सकता, क्यों वहां से चली गई। इंस्पेक्टर साहब मेरे साथ थ। उनके

सामने मैं उससे कुछ पूछ तक न सका। मैं जानता हूं, वह मुझिे देखकर मुंह उधर लेती और शायदि मुझिे जलील

समझिती, मगर कमसे- कम मुझिे इतना तो मालूम हो जाता िक वह इस वक्त इस दिशा में क्यों है। हरा, तुम मुझिे

चाहे िदिल में जो कुछ समझि रही हो, लेिकन मैं इस ख़याल में मगन हूं िक तुम्हें मुझिसे प्रेम है। और प्रेम करने वालों

से हम कम-से-कम हमदिदिी की आशा करते ह ब यहां एक भी ऐसा आदिमी नहीं, िजससे मैं अपने िदिल का कुछ

हाल कह सयं ब तुम भी मुझिे रास्ते पर लाने ही के िलए भेजी गई थीं, मगर तुम्हें मुझि पर दिया आई। शायदि तुमने

िगरे हुए आदिमी पर ठोकर मारना मुनािसब न समझिा, अगर आज हम और तुम िकसी वजह से रूठ जायं, तो क्या

कल तुम मुझिे मुसीबत में देखकर मेरे साथ ज़रा भी हमदिदिी न करोगी? क्या मुझिे भूखों मरते देखकर मेरे साथ

उससे कुछ भी ज्यादिा सलूक न करोगी, जो आदिमी कुत्तिों के साथ करता है? मुझिे तो ऐसी आशा नहीं। जहां एक

बार प्रेम ने वास िकया हो, वहां उदिासीनता और िवराग चाहे पैदिा हो जाय, िहसा का भाव नहीं पैदिा हो सकता

क्या तुम मेरे साथ ज़रा भी हमदिदिी न करोगी ज़ोहरा? तुम अगर चाहो, तो जालपा का पूरा पता लगा सकती

हो,वह कहां है, क्या करती है, मेरी तरफ से उसके िदिल में क्या ख़याल है, घर क्यों नहीं जाती, यहां कब तक

रहना चाहती है? अगर तुम िकसी तरह जालपा को प्रयाग जाने पर राज़ी कर सको ज़ोहरा –‘ तो मैं उम-भर

तुम्हारी गुलामी करूंगा। इस हालत में मैं उसे नहीं देख सकता शायदि आज ही रात को मैं यहां से भाग जाऊं। मुझि

पर क्या गुज़रेगी, इसका मुझिे ज़रा भी भय नहीं ह। मैं बहादुर्र नहीं हूं, बहुत ही कमज़ोर आदिमी हूं। हमेशा ख़तरे

के सामने मेरा हौसला पस्त हो जाता है, लेिकन मेरी बेगैरती भी यह चोट नहीं सह सकती।’

ज़ोहरा वेश्या थी, उसको अच्छे-बुरे सभी तरह के आदििमयों से सािबका पड़ चुका था। उसकी आंखों में

आदििमयों की परख थी। उसको इस परदेशी युवक में और अन्य व्यिक्तयों में एक बडा फकर्क िदिखाई देता था ।पहले

वह यहां भी पैसे की गुलाम बनकर आई थी, लेिकन दिो-चार िदिन के बादि ही उसका मन रमा की ओर आकिषत

होने लगा। प्रौढ़ा िस्त्रयां अनुराग की अवहेलना नहीं कर सकतीं। रमा में और सब दिोष हों, पर अनुराग था। इस

जीवन में ज़ोहरा को यह पहला आदिमी ऐसा िमला था िजसने उसके सामने अपना ह्रदिय खोलकर रख िदिया,

िजसने उससे कोई परदिा न रक्खा। ऐसे अनुराग रत्न को वह खोना नहीं चाहती थी। उसकी बात सुनकर उसे ज़रा

भी ईष्या न हुई, बिल्क उसके मन में एक स्वाथर्चमय सहानुभूित उत्पन्न हुई। इस युवक को, जो प्रेम के िवषय में

इतना सरल था, वह प्रसन्न करके हमेशा के िलए अपना गुलाम बना सकती थी। उसे जालपा से कोई शंका न थी।

जालपा िकतनी ही रूपवती क्यों न हो, ज़ोहरा अपने कला-कौशल से, अपने हाव-भाव से उसका रंग फीका कर

सकती थी। इसके पहले उसने कई महान सुंदिरी खत्रािनयों को रूलाकर छोड़ िदिया था , िफर जालपा िकस िगनती

में थी। ज़ोहरा ने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘तो इसके िलए तुम क्यों इतनारंज करते हो, प्यारे! ज़ोहरा

तुम्हारे िलए सब कुछ करने को तैयार है। मैं कल ही जालपा का पता लगाऊंगी और वह यहां रहना चाहेगी, तो

उसके आराम के सब सामान कर दूंगी । जाना चाहेगी, तो रेल पर भेज दूंगी।‘

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रमा ने बडी दिीनता से कहा, ‘एक बार मैं उससे िमल लेता, तो मेरे िदिल का बोझि उतर जाता।‘

ज़ोहरा िचितत होकर बोली, ‘यह तो मुिश्कल है प्यारे! तुम्हें यहां से कौन जाने देगा?‘

रमानाथ—‘कोई तदिबीर बताओ।‘

ज़ोहरा –‘मैं उसे पाकर्क में खड़ी कर आऊंगी। तुम िडप्टी साहब के साथ वहां जाना और िकसी बहाने से

उससे िमल लेना। इसके िसवा तो मुझिे और कुछ नहीं सूझिता।

रमा अभी कुछ कहना ही चाहता था िक दिारोग़ाजी ने पुकारा, ‘मुझिे भी िखलवत में आने की इजाज़त है? ‘

दिोनों संभल बैठे और द्वार खोल िदिया। दिारोग़ाजी मुस्कराते हुए आए और ज़ोहरा की बग़ल में बैठकर बोले,

‘यहां आज सन्नाटा कैसा! क्या आज खजाना खाली है? ज़ोहरा –‘ आज अपने दिस्ते-िहनाई से एक जाम भर कर

दिो।‘

रमानाथ—‘ भाईजान नाराज़ न होना।‘ रमा ने कुछ तुशर्च होकर कहा, ‘इस वक्त तो रहने दिीिजए,

दिारोग़ाजी, आप तो िपए हुए नजर आते ह।‘

दिारोग़ा ने ज़ोहरा का हाथ पकड़कर कहा, ‘बस, एक जाम ज़ोहरा –‘ और एक बात और, आज मेरी

मेहमानी कबूल करो! ‘

रमा ने तेवर बदिलकर कहा, ‘दिारोग़ाजी, आप इस वक्त यहां से जायं। मैं यह गवारा नहीं कर सकता

दिारोग़ा ने नशीली आंखों से देखकर कहा, ‘क्या आपने पट्टा िलखा िलया है? ‘

रमा ने कड़ककर कहा, ‘जी हां, मैंने पट्टा िलखा िलया है!‘

दिारोग़ा –‘तो आपका पट्टा खािरज़! ‘

रमानाथ—‘मैं कहता हूं, यहां से चले जाइए।‘

दिारोग़ा –‘अच्छा! अब तो मेंढकी को भी जुकाम पैदिा हुआ! क्यों न हो, चलो ज़ोहरा –‘ इन्हें यहां बकने

दिो।‘

यह कहते हुए उन्होंने जोहरा का हाथ पकड़कर उठाया। रमा ने उनके हाथ को झिटका देकर कहा, ‘मैं कह

चुका, आप यहां से चले जाएं ।ज़ोहरा इस वक्त नहीं जा सकती। अगर वह गई, तो मैं उसका और आपका-दिोनों

का खून पी जाऊंगा। ज़ोहरा मेरी है, और जब तक मैं हूं, कोई उसकी तरफ आंख नहीं उठा सकता।‘

यह कहते हुए उसने दिारोग़ा साहब का हाथ पकड़कर दिरवाज़े के बाहर िनकाल िदिया और दिरवाज़ा ज़ोर से

बंदि करके िसटकनी लगा दिी। दिारोग़ाजीबिलष्ठ आदिमी थ, लेिकन इस वक्त नश ने उन्हें दुर्बर्चल बना िदिया था ।

बाहर बरामदे में खड़े होकर वह गािलयां बकने और द्वार पर ठोकर मारने लग।

रमा ने कहा, ‘कहो तो जाकर बचा को बरामदे के नीचे ढकेल दूं। शैतान का बच्चा! ‘

ज़ोहरा –‘ ‘बकने दिो, आप ही चला जायगा। ‘

रमानाथ—‘चला गया।‘

ज़ोहरा ने मगन होकर कहा, ‘तुमने बहुत अच्छा िकया, सुअर को िनकाल बाहर िकया। मुझिे ले जाकर िदिक

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करता। क्या तुम सचमुच उसे मारते? ‘

रमानाथ—‘मैं उसकी जान लेकर छोड़ता। मैं उस वक्त अपने आपे में न था। न जाने मुझिमें उस वक्त क़हां

से इतनी ताकत आ गई थी।‘

ज़ोहरा –‘ और जो वह कल से मुझिे न आने दे तो?’

रमानाथ—‘कौन, अगर इस बीच में उसने ज़रा भी भांजी मारी, तो गोली मार दूंगा। वह देखो, ताक पर

िपस्तौल रक्खा हुआ है। तुम अब मेरी हो, ज़ोहरा! मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे कदिमों पर िनसार कर िदिया और

तुम्हारा सब कुछ पाकर ही मैं संतुष्ट हो सकता हूं। तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा हूं। िकसी तीसरी औरत या मदिर्च को

हमारे बीच में आने का मजाज़ नहीं है,जब तक मैं मर न जाऊं।’

ज़ोहरा की आंखें चमक रही थीं , उसने रमा की गरदिन में हाथ डालकर कहा, ‘ऐसी बात मुंह से न

िनकालो, प्यारे! ‘

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अड़तालीस

सारे िदिन रमा उद्वेग के जंगलों में भटकता रहा। कभी िनराशा की अंधाकारमय घािटयां सामने आ जातीं,

कभी आशा की लहराती हुई हिरयाली । ज़ोहरा गई भी होगी ? यहां से तो बडे। लंबे-चौड़े वादे करके गई थी।

उसे क्या ग़रज़ है? आकर कह देगी, मुलाकात ही नहीं हुई। कहीं धोखा तो न देगी? जाकर िडप्टी साहब से सारी

कथा कह सुनाए। बेचारी जालपा पर बैठे-िबठाए आफत आ जाय। क्या ज़ोहरा इतनी नीच प्रकृतित की हो सकती

है? कभी नहीं, अगर ज़ोहरा इतनी बेवफा, इतनी दिग़ाबाज़ है, तो यह दुर्िनया रहने के लायक ही नहीं। िजतनी

जल्दि आदिमी मुंह में कािलख लगाकर डूब मरे, उतना ही अच्छा। नहीं, ज़ोहरा मुझिसे दिग़ा न करेगी। उसे वह िदिन

यादि आए, जब उसके दिफ्तर से आते ही जालपा लपककर उसकी जेब टटोलती थी और रूपये िनकाल लेती थी।

वही जालपा आज इतनी सत्यवािदिनी हो गई। तब वह प्यार करने की वस्तु थी, अब वह उपासना की वस्तु है।

जालपा मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूं। िजस ऊंचाई पर तुम मुझिे ले जाना चाहती हो, वहां तक पहुंचने की शिक्त मुझिमें

नहीं है। वहां पहुंचकर शायदि चक्कर खाकर िफर पडूंब मैं अब भी तुम्हारे चरणों में िसर झिुकाता हूं। मैं जानता हूं,

तुमने मुझिे अपने ह्रदिय से िनकाल िदिया है, तुम मुझिसे िवरक्त हो गई हो, तुम्हें अब मेरे डूबने का दुर्ःख है न तैरने

की खुशी, पर शायदि अब भी मेरे मरने या िकसी घोर संकट में फंस जाने की ख़बर पाकर तुम्हारी आंखों से आंसू

िनकल आएंग। शायदि तुम मेरी लाश देखने आओ। हा! प्राण ही क्यों नहीं िनकल जाते िक तुम्हारी िनगाह में

इतना नीच तो न रहूं। रमा को अब अपनी उस ग़लती पर घोर पश्चाताप हो रहा था, जो उसने जालपा की बात

न मानकर की थी।अगर उसने उसके आदेशानुसार जज के इजलास में अपना बयान बदिल िदिया होता, धामिकयों

में न आता, िहम्मत मज़बूत रखता, तो उसकी यह दिशा क्यों होती? उसे िवश्वास था, जालपा के साथ वह सारी

किठनाइयां झिेल जाता। उसकी श्रद्धिा और प्रेम का कवच पहनकर वह अजेय हो जाता। अगर उसे फांसी भी हो

जाती, तो वह हंसते-खेलते उस पर चढ़जाता। मगर पहले उससे चाहे जो भूल हुई, इस वक्त तो वह भूल से नहीं,

जालपा की ख़ाितर ही यह कष्ट भोग रहा था। कैदि जब भोगना ही है, तो उसे रो-रोकर भोगने से तो यह कहीं

अच्छा है िक हंस-हंसकर भोगा जाय। आिख़र पुिलसअिधकािरयों के िदिल में अपना िवश्वास जमाने के िलए वह

और क्या करता! यह दुर्ष्ट जालपा को सताते, उसका अपमान करते, उस पर झिूठे मुकदिमे चलाकर उसे सज़ा

िदिलाते। वह दिशा तो और भी असह्य होती। वह दुर्बर्चल था, सब अपमान सह सकता था, जालपा तो शायदि प्राण

ही दे देती।

उसे आज ज्ञात हुआ िक वह जालपा को छोड़ नहीं सकता, और ज़ोहरा को त्याग देना भी उसके िलए

असंभव-सा जान पड़ता था। क्या वह दिोनों रमिणयों को प्रसन्न रख सकता था?क्या इस दिशा में जालपा उसके

साथ रहना स्वीकार करेगी? कभी नहीं। वह शायदि उसे कभी क्षमा न करेगी! अगर उसे यह मालूम भी हो जाये

िक उसी के िलए वह यह यातना भोग रहा है, तो वह उसे क्षमा न करेगी। वह कहेगी, मेरे िलए तुमने अपनी

आत्मा को क्यों कलंिकत िकया-

मैं अपनी रक्षा आप कर सकती थी। वह िदिनभर इसी उधोड़-बुन में पडारहा। आंखें सड़क की ओर लगी हुई

थीं। नहाने का समय टल गया, भोजन का समय टल गया ब िकसी बात की परवा न थी। अख़बार से िदिल

बहलाना चाहा, उपन्यास लेकर बैठा, मगर िकसी काम में भी िचत्ति न लगा। आज दिारोग़ाजी भी नहीं आए। या

तो रात की घटना से रूष्ट या लिज्जत थ। या कहीं बाहर चले गए। रमा ने िकसी से इस िवषय में कुछ पूछा भी

नहीं ।

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सभी दुर्बर्चल मनुष्यों की भांित रमा भी अपने पतन से लिज्जत था। वह जब एकांत में बैठता, तो उसे अपनी

दिशा पर दुर्ःख होता,क्यों उसकी िवलासवृतित्ति इतनी प्रबल है? वह इतना िववेक-शून्य न था िक अधोगित में भी

प्रसन्न रहता, लेिकन ज्योंही और लोग आ जाते, शराब की बोतल आ जाती, ज़ोहरा सामने आकर बैठ जाती,

उसका सारा िववेक और धमर्च-ज्ञान भ्रष्ट हो जाता। रात के दिस बज गए, पर ज़ोहरा का कहीं पता नहीं। फाटक

बंदि हो गया। रमा को अब उसके आने की आशा न रही, लेिकन िफर भी उसके कान लग हुए थ। क्या बात हुईक्या जालपा उसे िमली ही नहीं या वह गई ही नहीं?

उसने इरादिा िकया अगर कल ज़ोहरा न आई, तो उसके घर पर िकसी को भेजूंगा। उसे दिो-एक झिपिकयां

आइ और सबेरा हो गया। िफर वही िवकलता शुरू हुई। िकसी को उसके घर भेजकर बुलवाना चािहए। कम-से-

कम यह तो मालूम हो जाय िक वह घर पर है या नहीं।

दिारोग़ा के पास जाकर बोला, ‘रात तो आप आपे में न थ।’

दिारोग़ा ने ईष्याको िछपाते हुए कहा, ‘यह बात न थी। मैं महज़ आपको छेड़ रहा था।’

रमानाथ—‘ज़ोहरा रात आई नहीं , ज़रा िकसी को भेजकर पता तो लगवाइए, बात क्या है। कहीं नाराज़

तो नहीं हो गई?’

दिारोग़ा ने बेिदिली से कहा, ‘उसे गरज़ होगा खुदि आएगी। िकसी को भेजने की जरूरत नहीं है।’

रमा ने िफर आग्रह न िकया। समझि गया, यह हज़रत रात िबगड़ गए। चुपके से चला आया। अब िकससे

कहे, सबसे यह बात कहना लज्जास्पदि मालूम होता था। लोग समझिंग, यह महाशय एक ही रिसया िनकले।

दिारोग़ा से तो थोड़ीसी घिनष्ठता हो गई थी।

एक हफ्ते तक उसे ज़ोहरा के दिशर्चन न हुए। अब उसके आने की कोई आशा न थी। रमा ने सोचा, आिख़र

बेवफा िनकली। उससे कुछ आशा करना मेरी भूल थी। या मुमिकन है, पुिलस-अिधकािरयों ने उसके आने की

मनाही कर दिी हो कम-से-कम मुझिे एक पत्र तो िलख सकती थी। मुझिे िकतना धोखा हुआ। व्यथर्च उससे अपने िदिल

की बात कही। कहीं इन लोगों से न कह दे, तो

उल्टी आंतें गले पड़ जायं, मगर ज़ोहरा बेवफाई नहीं कर सकती। रमा की अंतरात्मा इसकी गवाही देती

थी।इस बात को िकसी तरह स्वीकार न करती थी। शुरू के दिस-पांच िदिन तो जरूर ज़ोहरा ने उसे लुब्ध करने की

चेष्टा की थी। िफर अनायास ही उसके व्यवहार में पिरवतर्चन होने लगा था। वह क्यों बार-बार सजल-नो होकर

कहती थी, देखो बाबूजी, मुझिे भूल न जाना। उसकी वह हसरत भरी बातें यादि आ-आकर कपट की शंका को िदिल

से िनकाल देतीं। जरूर कोई न कोई नई बात हो गई है। वह अक्सर एकांत में बैठकर ज़ोहरा की यादि करके बच्चों

की तरह रोता। शराब से उसे घृतणा हो गई। दिारोग़ाजी आते, इंस्पेक्टर साहब आते पर, रमा को उनके साथ दिसपांच िमनट बैठना भी अखरता। वह चाहता था, मुझिे कोई न छेडे।, कोई न बोले। रसोइया खाने को बुलाने आता,

तो उसे घुड़क देता। कहीं घूमने या सैर करने की उसकी इच्छा ही न होती। यहां कोई उसका हमदिदिर्च न था, कोई

उसका िमत्र न था, एकांत में मन-मारे बैठे रहने में ही उसके िचत्ति को शांित होती थी। उसकी स्मृतितयों में भी अब

कोई आनंदि न था। नहीं, वह स्मृतितयां भी मानो उसके ह्रदिय से िमट गई थीं। एक प्रकार का िवराग उसके िदिल पर

छाया रहता था।

सातवां िदिन था। आठ बज गए थ। आज एक बहुत अच्छा िफल्म होने वाला था। एक प्रेम-कथा थी।

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दिारोग़ाजी ने आकर रमा से कहा, तो वह चलने को तैयार हो गया। कपड़े पहन रहा था िक ज़ोहरा आ पहुंची।

रमा ने उसकी तरफ एक बार आंख उठाकर देखा, िफर आईने में अपने बाल संवारने लगा। न कुछ बोला, न कुछ

कहा। हां, ज़ोहरा का वह सादिा, आभरणहीन स्वरूप देखकर उसे कुछ आश्चयर्च अवश्य हुआ। वह केवल एक सफेदि

साड़ी पहने हुए थी। आभूषण का एक तार भी उसकी देह पर न था। होंठ मुरझिाए हुए और चेहरे पर कीडामय

चंचलता की जगह तेजमय गंभीरता झिलक रही थी। वह एक िमनट खड़ी रही, तब रमा के पास जाकर बोली,

‘क्या मुझिसे नाराज़ हो? बेकसूर, िबना कुछ पूछे-गछे ?’

रमा ने िफर भी कुछ जवाब न िदिया। जूते पहनने लगा। ज़ोहरा ने उसका हाथ पकड़कर कहा, ‘क्या यह

खफगी इसिलए है िक मैं इतने िदिनों आई क्यों नहीं!’

रमा ने रूखाई से जवाब िदिया, ‘अगर तुम अब भी न आतीं, तो मेरा क्या अिख्तयार था। तुम्हारी दिया थी

िक चली आई!’ यह कहने के साथ उसे ख़याल आया िक मैं इसके साथ अन्याय कर रहा हूं। लिज्जत नजरों से

उसकी ओर ताकने लगा। ज़ोहरा ने मुस्कराकर कहा, ‘यह अच्छी िदिल्लगी है। आपने ही तो एक काम सौंपा और

जब वह काम करके लौटी तो आप िबगड़ रहे ह। क्या तुमने वह काम इतना आसान समझिा था िक चुटकी बजाने

में पूरा हो जाएगा। तुमने मुझिे उस देवी से वरदिान लेने भेजा था, जो ऊपर से फल है, पर भीतर से पत्थर, जो

इतनी नाजुक होकर भी इतनी मज़बूत है।‘

रमा ने बेिदिली से पूछा, ‘है कहां? क्या करती है? ‘

ज़ोहरा—‘उसी िदिनेश के घर ह, िजसको फांसी की सज़ा हो गई है। उसके दिो बच्चे ह, औरत है और मां है।

िदिनभर उन्हीं बच्चों को िखलाती है, बुिढया के िलए नदिी से पानी लाती है। घर का सारा काम-काज करती है

और उनके िलए बडे।-बडे आदििमयों से चंदिा मांग लाती है। िदिनेश के घर में न कोई जायदिादि थी, न रूपये थ।

लोग बडी तकलीफ में थ। कोई मदिदिगार तक न था, जो जाकर उन्हें ढाढ़स तो देता। िजतने साथी-सोहबती थ,

सब-के-सब मुंह िछपा बैठे। दिो-तीन फाके तक हो चुके थ। जालपा ने जाकर उनको िजला िलया।’

रमा की सारी बेिदिली काफूरहो गई। जूता छोड़ िदिया और कुसी पर बैठकर बोले, ‘तुम खड़ी क्यों हो, शुरू

से बताओ, तुमने तो बीच में से कहना शुरू िकया। एक बात भी मत छोड़ना। तुम पहले उसके पास कैसे पहुंची-

पता कैसे लगा?’

ज़ोहरा—‘कुछ नहीं, पहले उसी देवीदिीन खिटक के पास गई। उसने िदिनेश के घर का पता बता िदिया।

चटपट जा पहुंची।‘

रमानाथ—‘तुमने जाकर उसे पुकारा- तुम्हें देखकर कुछ चौंकी नहीं? कुछ िझिझिकी तो जरूर होगी!

ज़ोहरा मुस्कराकर बोली,मैं इस रूप में न थी। देवीदिीन के घर से मैं अपने घर गई और ब्रह्मा-समाजी लेडी

का स्वांग भरा। न जाने मुझिमें ऐसी कौनसी बात है, िजससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है िक मैं कौन हूं, या

क्या हूं। और ब्रह्माणों- लेिडयों को देखती हूं, कोई उनकी तरफ आंखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढ़ावा

वही है, मैं भड़कीले कपड़े या फजूल के गहने िबलकुल नहीं पहनती। िफर भी सब मेरी तरफ आंखें फाड़- फाड़कर

देखते ह। मेरी असिलयत नहीं िछपती। यही खौफ मुझिे था िक कहीं जालपा भांप न जाय, लेिकन मैंने दिांत खूब

साफ कर िलए थ। पान का िनशान तक न था। मालूम होता था िकसी कालेज की लेडी टीचर होगी। इस शक्ल में

मैं वहां पहुंची। ऐसी सूरत बना ली िक वह क्या, कोई भी न भांप सकता था। परदिा ढंका रह गया। मैंने िदिनेश की

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मां से कहा, ‘मैं यहां यूिनविसटी में पढ़ती हूं। अपना घर मुंगर बतलाया। बच्चों के िलए िमठाई ले गई थी। हमदिदिर्च

का पाटर्च खेलने गई थी, और मेरा ख़याल है िक मैंने खूब खेला, दिोनों औरतें बेचारी रोने लगीं। मैं भी जब्त न कर

सकी। उनसे कभी-कभी िमलते रहने का वादिा िकया। जालपा इसी बीच में गंगाजल िलये पहुंची। मैंने िदिनेश की

मां से बंगला में पूछा, ‘क्या यह कहािरन है? उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी ही तरह हम लोगों के दुर्ःख में

शरीक होने आ गई है। यहां इनका शौहर िकसी दिफ्तर में नौकर है। और तो कुछ नहीं मालूम, रोज़ सबेरे आ

जाती ह और बच्चों को खेलाने ले जाती ह। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझिे रोक िदिया और खुदि

लाती ह। हमें तो इन्होंने जीवन-दिान िदिया। कोई आग-पीछे न था। बच्चे दिाने-दिाने को तरसते थ। जब से यह आ

गई ह, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने िकस शुभ कमर्च का यह वरदिान हमें िमला है।

उस घर के सामने ही एक छोटा-सा पाकर्क है। महल्ले-भर के बच्चे वहीं खेला करते ह। शाम हो गई थी,

जालपा देवी ने दिोनों बच्चों को साथ िलया और पाकर्क की तरफ चलीं। मैं जो िमठाई ले गई थी, उसमें से बूढ़ी ने

एक- एक िमठाई दिोनों बच्चों को दिी थी। दिोनों कूदि-कूदिकर नाचने लग। बच्चों की इस खुशी पर मुझिे रोना आ

गया। दिोनों िमठाइयां खाते हुए जालपा के साथ हो िलए। जब पाकर्क में दिोनों बच्चे खेलने लग, तब जालपा से मेरी

बातें होने लगीं! रमा ने कुसी और करीब खींच ली, और आग को झिुक गया। बोला,तुमने िकस तरह बातचीत शुरू

की।

ज़ोहरा –‘ ‘कह तो रही हूं। मैंने पूछा, ‘जालपा देवी, तुम कहां रहती हो? घर की दिोनों औरतों से तुम्हारी

बडाई सुनकर तुम्हारे ऊपर आिशक हो गई हूं।‘

रमानाथ—‘यही लफ्ज कहा था तुमने?’

ज़ोहरा—‘हां, जरा मज़ाक करने की सूझिी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली,तुम तो बंगािलन नहीं

मालूम होतीं। इतनी साफ िहदिी कोई बंगािलन नहीं बोलती। मैंने कहा, ‘मैं मुंगर की रहने वाली हूं और वहां

मुसलमानी औरतों के साथ बहुत िमलती-जुलती रही हूं। आपसे कभी-कभी िमलने का जी चाहता है। आप कहां

रहती ह। कभी-कभी दिो घड़ी के िलए चली आऊंगी। आपके

साथ घड़ी भर बैठकर मैं भी आदिमीयत सीख जाऊंगी। जालपा ने शरमाकर कहा, ‘तुम तो मुझिे बनाने लगीं,

कहां तुम कालेजकी पढ़ने वाली, कहां मैं अपढ़गंवार औरत। तुमसे िमलकर मैं अलबत्तिा आदिमी बन जाऊंगी। जब

जी चाहे, यहीं चले आना। यही मेरा घर समझिो।

मैंने कहा, ‘तुम्हारे स्वामीजी ने तुम्हें इतनी आजादिी दे रक्खी है। बडे। अच्छे ख़यालों के आदिमी होंग। िकस

दिफ्तर में नौकर ह?’

जालपा ने अपने नाखूनों को देखते हुए कहा, ‘पुिलस में उम्मेदिवार ह।’

मैंने ताज्जुब से पूछा, ‘पुिलस के आदिमी होकर वह तुम्हें यहां आने की आज़ादिी देते ह?’

जालपा इस प्रश्न के िलए तैयार न मालूम होती थी। कुछ चौंककर बोली, ‘वह मुझिसे कुछ नहीं कहते---

मैंने उनसे यहां आने की बात नहीं कही--वह घर बहुत कम आते ह। वहीं पुिलस वालों के साथ रहते ह।’

उन्होंने एक साथ तीन जवाब िदिए। िफर भी उन्हें शक हो रहा था िक इनमें से कोई जवाब इत्मीनान के

लायक नहीं है। वह कुछ िखिसयानी-सी होकर दूसरी तरफ ताकने लगी। मैंने पूछा, ‘तुम अपने स्वामी से कहकर

िकसी तरह मेरी मुलाकात उस मुख़िबर से करा सकती हो, िजसने इन कैिदियों के िख़लाफ गवाही दिी है? रमानाथ

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की आंखें फैल गई और छाती धक-धक करने लगी। जोहरा बोली, ‘यह सुनकर जालपा ने मुझिे चुभती हुई आंखों से

देखकर पूछा,तुम उनसे िमलकर क्या करोगी?’

मैंने कहा, ‘तुम मुलाकात करा सकती हो या नहीं, मैं उनसे यही पूछना चाहती हूं िक तुमने इतने आदििमयों

को फंसाकर क्या पाया? देखूंगी वह क्या जवाब देते ह?’

जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया। बोली, ‘वह यह कह सकता है, मैंने अपने फायदे के िलए िकया! सभी

आदिमी अपना फायदिा सोचते ह। मैंने भी सोचा।’ जब पुिलस के सैकड़ों आदििमयों से कोई यह प्रश्न नहीं करता,

तो उससे यह प्रश्न क्यों िकया जाय? इससे कोई फायदिा नहीं।

मैंने कहा, ‘अच्छा, मान लो तुम्हारा पित ऐसी मुख़िबरी करता, तो तुम क्या करतीं?

जालपा ने मेरी तरफ सहमी हुई आंखों से देखकर कहा, ‘तुम मुझिसे यह सवाल क्यों करती हो, तुम खुदि

अपने िदिल में इसका जवाब क्यों नहीं ढूंढ़तीं?’

मैंने कहा,’मैं तो उनसे कभी न बोलती, न कभी उनकी सूरत देखती।’

जालपा ने गंभीर िचता के भाव से कहा, ‘शायदि मैं भी ऐसा ही समझिती,या न समझिती,कुछ कह नहीं

सकती। आिख़र पुिलस के अफसरों के घर में भी तो औरतें ह, वे क्यों नहीं अपने आदििमयों को कुछ कहतीं, िजस

तरह उनके ह्रदिय अपने मरदिों के-से हो गए ह, संभव है, मेरा ह्रदिय भी वैसा ही हो जाता।’

इतने में अंधेरा हो गया। जालपादेवी ने कहा, ‘मुझिे देर हो रही है। बच्चे साथ ह। कल हो सके तो िफर

िमिलएगा। आपकी बातों में बडा आनंदि आता है।’

मैं चलने लगी, तो उन्होंने चलते-चलते मुझिसे कहा,’जरूर आइएगा। वहीं मैं िमलूंगी। आपका इंतज़ार

करती रहूंगी।’लेिकन दिस ही कदिम के बादि िफर रूककर बोलीं, ‘मैंने आपका नाम तो

पूछा ही नहीं। अभी तुमसे बातें करने से जी नहीं भरा। देर न हो रही हो तो आओ, कुछ देर गप-शप कर।’

मैं तो यह चाहती ही थी। अपना नाम ज़ोहरा बतला िदिया। रमा ने पूछा, ‘सच!’

ज़ोहरा- ‘हां, हरज क्या था। पहले तो जालपा भी ज़रा चौंकी, पर कोई बात न थी। समझि गई, बंगाली

मुसलमान होगी। हम दिोनों उसके घर गई। उस ज़रासे कठघरे में न जाने वह कैसे बैठती ह। एक ितल भी जगह

नहीं। कहीं मटके ह, कहीं पानी, कहीं खाट, कहीं िबछावनब सील और बदिबू से नाक फटी जाती थी। खाना तैयार

हो गया था। िदिनेश की बहू बरतन धो रही थी। जालपा ने उसे उठा िदिया,जाकर बच्चों को िखलाकर सुला दिो, मैं

बरतन धोए देती हूं। और

खुदि बरतन मांजने लगीं। उनकी यह िखदिमत देखकर मेरे िदिल पर इतना असर हुआ िक मैं भी वहीं बैठ गई

और मांजे हुए बरतनों को धोने लगी। जालपा ने मुझिे वहां से हट जाने के िलए कहा, पर मैं न हटीब, बराबर

बरतन धोती रही। जालपा ने तब पानी का मटका अलग हटाकर कहा, ‘मैं पानी न दूंगी, तुम उठ जाओ, मुझिे बडी

शमर्च आती है, तुम्हें मेरी कसम, हट जाओ, यहां आना तो तुम्हारी सजा हो गई, तुमने ऐसा काम अपनी िजदिगी में

क्यों िकया होगा! मैंने कहा, ‘तुमने भी तो कभी नहीं िकया होगा, जब तुम करती हो, तो मेरे िलए क्या हरज है।’

जालपा ने कहा, ‘मेरी और बात है।’

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मैंने पूछा, ‘क्यों? जो बात तुम्हारे िलए है, वही मेरे िलए भी है। कोई महरी क्यों नहीं रख लेती हो?’

जालपा ने कहा, ‘महिरयां आठ-आठ रूपये मांगती ह।’

मैं बोली, ‘मैं आठ रूपये महीना दे िदिया करूंगी।’

जालपा ने ऐसी िनगाहों से मेरी तरफ देखा, िजसमें सच्चे प्रेम के साथ सच्चा उल्लास, सच्चा आशीवादि

भरा हुआ था। वह िचतवन! आह! िकतनी पाकीजा थी, िकतनी पाक करने वाली। उनकी इस बेगरज िखदिमत के

सामने मुझिे अपनी िजदिगी िकतनी जलील, िकतनी कािबले नगरत मालूम हो रही थी। उन बरतनों के धोने में मुझिे

जो आनंदि िमला, उसे मैं बयान नहीं कर सकती।

बरतन धोकर उठीं, तो बुिढया के पांव दिबाने बैठ गई। मैं चुपचाप खड़ी थी। मुझिसे बोलीं, ‘तुम्हें देर हो रही

हो तो जाओ, कल िफर आना। मैंने कहा, ‘नहीं, मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचाकर उधर ही से िनकल जाऊंगी। गरज

नौ बजे के बादि वह वहां से चलीं। रास्ते में मैंने कहा, ‘जालपा—‘ तुम सचमुच देवी हो।’

जालपा ने छूटते ही कहा, ‘ज़ोहरा –‘ ऐसा मत कहो मैं िख़दिमत नहीं कर रही हूं, अपने पापों का

प्रायिश्चत्तिा कर रही हूं। मैं बहुत दुर्द्यपखी हूं। मुझिसे बडी अभािगनी संसार में न होगी।’

मैंने अनजान बनकर कहा, ‘इसका मतलब मैं नहीं समझिी।’

जालपा ने सामने ताकते हुए कहा, ‘कभी समझि जाओगी। मेरा प्रायिश्चत्ति इस जन्म में न पूरा होगा। इसके

िलए मुझिे कई जन्म लेने पड़ंग।’

‘मैंने कहा,तुम तो मुझिे चक्कर में डाले देती हो, बहन! मेरी समझि में कुछ नहीं आ रहा है। जब तक तुम इसे

समझिा न दिोगी, मैं तुम्हारा गला न छोडूंगी।’ जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा, ‘ज़ोहरा –‘ िकसी बात को

खुदि िछपाए रहना इससे ज्यादिा आसान है िक दूसरों पर वह बोझि रक्खूं।’ मैंने आतर्च कंठ से कहा, ‘हां, पहली

मुलाकात में अगर आपको मुझि पर इतना एतबार न हो, तो मैं आपको इलज़ाम न दूंगी, मगर कभी न कभी

आपको मुझि पर एतबार करना पड़ेगा। मैं आपको छोडूंगी नहीं।’

कुछ दूर तक हम दिोनों चुपचाप चलती रहीं, एकाएक जालपा ने कांपती हुई आवाज़ में कहा, ‘ज़ोहरा –‘

अगर इस वक्त तुम्हें मालूम हो जाय िक मैं कौन हूं, तो शायदि तुम नफरत से मुंह उधर लोगी और मेरे साए से भी

दूर भागोगी।’

इन लिजंशों में न मालूम क्या जादू था िक मेरे सारे रोएं खड़े हो गए। यह एक रंज और शमर्च से भरे हुए

िदिल की आवाज़ थी और इसने मेरी स्याह िजदिगी की सूरत मेरे सामने खड़ी कर दिी। मेरी आंखों में आंसू भर

आए। ऐसा जी में आया िक अपना सारा स्वांग खोल दूं। न जाने उनके सामने मेरा िदिल क्यों ऐसा हो गया था।

मैंने बड़े-बडे काइएं और छंट हुए शोहदिों और पुिलस-अफसरों को चपर-गट्टू बनाया है, पर उनके सामने मैं जैसे

भीगी िबल्ली बनी हुई थी। िफर मैंने जाने कैसे अपने को संभाल िलया। मैं बोली तो मेरा गला भी भरा हुआ था,

‘यह तुम्हारा ख़याल फलत है देवी!’

‘शायदि तब मैं तुम्हारे पैरों पर िफर पडूंगी। अपनी या अपनों की बुराइयों पर शिमन्दिा होना सच्चे िदिलों

का काम है।’

जालपा ने कहा, ‘लेिकन तुम मेरा हाल जानकर करोगी क्या बस, इतना ही समझि लो िक एक ग़रीब

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अभािगन औरत हूं, िजसे अपने ही जैसे अभाग और ग़रीब आदििमयों के साथ िमलने-जुलने में आनंदि आता है।’

‘इसी तरह वह बार-बार टालती रही, लेिकन मैंने पीछा न छोडा, आिख़र उसके मुंह से बात िनकाल ही

ली।’

रमा ने कहा, ‘यह नहीं, सब कुछ कहना पड़ेगा।’

ज़ोहरा—‘अब आधी रात तक की कथा कहां तक सुनाऊं। घंटों लग जाएंग। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो

उन्होंने आिख़र में कहा,मैं उसी मुखिबर की बदिनसीब औरत हूं, िजसने इन कैिदियों पर यह आगत ढाई है। यह

कहते-कहते वह रो पड़ीं। िफर ज़रा आवाज़ को संभालकर बोलीं,हम लोग इलाहाबादि के रहने वाले ह। एक ऐसी

बात हुई िक इन्हें वहां से भागना पड़ा। िकसी से कुछ कहा न सुना, भाग आए। कई महीनों में पता चला िक वह

यहां ह।’

रमा ने कहा, ‘इसका भी िकस्सा है। तुमसे बताऊंगा कभी, जालपा के िसवा और िकसी को यह न सूझिती।

ज़ोहरा बोली,’यह सब मैंने दूसरे िदिन जान िलया। अब मैं तुम्हारे रगरग से वािकफ हो गई। जालपा मेरी

सहेली है। शायदि ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझिसे िछपाई हो कहने लगीं,ज़ोहरा –‘ मैं बडी मुसीबत में फंसी

हुई हूं। एक तरफ तो एक आदिमी की जान और कई खानदिानों की तबाही है, दूसरी तरफ अपनी तबाही है। मैं

चाहूं, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूं। मैं अदिालत को ऐसा सबूत दे सकती हूं िक िफर मुखिबर की

शहादित की कोई हैिसयत ही न रह जायगी, पर मुखिबर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुर्िवधा में मैं

पड़ी नरक का कष्ट झिेल रही हूं। न यही होता है िक इन लोगों को मरने दूं, और न यही हो सकता है िक रमा को

आग में झिोंक दूं। यह कहकर वह रो पड़ीं और बोलीं, बहन, मैं खुदि मर जाऊंगी, पर उनका अिनष्ट मुझिसे न होगा।

न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूं, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर

बैठूं। शायदि वहीं हाईकोटर्च में सारा िकस्सा कह सुनाऊं, शायदि उसी िदिन जहर खाकर सो रहूं।‘

इतने में देवीदिीन का घर आ गया। हम दिोनों िवदिा हुई। जालपा ने मुझिसे बहुत इसरार िकया िक कल इसी

वक्त िग़र आना। िदिन?भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती। बस वही शाम को मौका िमलता था। वह

इतने रूपये जमा कर देना चाहती ह िक कम-से-कम िदिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो दिो सौ रूपये से

ज्यादिा जमा कर चुकी ह। मैंने भी पांच रूपये िदिए। मैंने दिो-एक बार िजक िकया िक आप इन झिगड़ों में न पिडए,

अपने घर चली जाइए,

लेिकन मैं साफ-साफ कहती हूं, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जबजब मैंने इसका इशारा िकया,

उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, गोया वह यह बात सुनना भी नहीं चाहतीं। मेरे मुंह से पूरी बात कभी न िनकलने पाई।

एक बात है, ‘कहो तो कहूं?’

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा, ‘क्या बात है?’

ज़ोहरा—‘िडप्टी साहब से कह दूं, वह जालपा को इलाहाबादि पहुंचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस

दिो औरतें उन्हें स्टशन तक बातों में लगा ले जाएंगी। वहां गाड़ी तैयार िमलेगी, वह उसमें बैठा दिी जाएंगी, या

कोई और तदिबीर सोचो।’

रमा ने ज़ोहरा की आंखों से आंख िमलाकर कहा, ‘क्या यह मुनािसब होगा?’

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ज़ोहरा ने शरमाकर कहा, ‘मुनािसब तो न होगा।’

रमा ने चटपट जूते पहन िलए और ज़ोहरा से पूछा, ‘देवीदिीन के ही घर पर रहती है न?’

ज़ोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली, ‘तो क्या इस वक्त जाओग?’

रमानाथ—‘हां ज़ोहरा –‘ इसी वक्त चला जाऊंगा। बस, उनसे दिो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा जहां

मुझिे अब से बहुत पहले चला जाना चािहए था।’

ज़ोहरा—‘मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।’

रमानाथ—‘सब सोच चुका, ज्यादिा-से ज्यादिा तीन?चार साल की कैदि दिरोगबयानी के जुमर्च में, बस अब

रूख़सत, भूल मत जाना ज़ोहरा –‘ शायदि िफर कभी मुलाकात हो!’

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दिरबान ने कहा, ‘हुजूर ने

दिारोग़ाजी को इत्तिला कर दिी है?’

रमनाथ—‘इसकी कोई जरूरत नहीं।’

चौकीदिार—‘मैं ज़रा उनसे पूछ लूं। मेरी रोज़ी क्यों ले रहे ह, हुजूर?’

रमा ने कोई जवाब न िदिया। तेज़ी से सड़क पर चल खडा हुआ। ज़ोहरा िनस्पंदि खड़ी उसे हसरत-भरी

आंखों से देख रही थी। रमा के प्रित ऐसा प्यार, ऐसा िवकल करने वाला प्यार उसे कभी न हुआ था। जैसे कोई

वीरबाला अपने िप्रयतम को समरभूिम की ओर जाते देखकर गवर्च से फली न समाती हो चौकीदिार ने लपककर

दिारोग़ा से कहा। वह बेचारे खाना खाकर लेट ही थ। घबराकर िनकले, रमा के पीछे दिौड़े और पुकारा, ‘बाबू

साहब, ज़रा सुिनए तो, एक िमनट रूक जाइए, इससे क्या फायदिा,कुछ मालूम तो हो, आप कहां जा रहे ह?

आिख़र बेचारे एक बार ठोकर खाकर िगर पड़े। रमा ने लौटकर उन्हें उठाया और पूछा, ‘कहीं चोट तो नहीं आई?’

दिारोग़ा –‘कोई बात न थी, ज़रा ठोकर खा गया था। आिख़र आप इस वक्त कहां जा रहे ह?सोिचए तो

इसका नतीज़ा क्या होगा?’

रमानाथ—‘मैं एक घंट में लौट आऊंगा। जालपा को शायदि मुख़ािलफों ने बहकाया है िक हाईकोटर्च में एक

अजी दे दे। ज़रा उसे जाकर समझिाऊंगा।’

दिारोग़ा –‘यह आपको कैसे मालूम हुआ?’

रमानाथ—‘ज़ोहरा कहीं सुन आई है।’

दिारोग़ा –‘बडी बेवफा औरत है। ऐसी औरत का तो िसर काट लेना चािहए।’

रमानाथ—‘इसीिलए तो जा रहा हूं। या तो इसी वक्त उसे स्टशन पर भेजकर आऊंगा, या इस बुरी तरह

पेश आऊंगा िक वह भी यादि करेगी। ज्यादिा बातचीत का मौका नहीं है। रात-भर के िलए मुझिे इस कैदि से आज़ादि

कर दिीिजए। ’

दिारोग़ा –‘मैं भी चलता हूं, ज़रा ठहर जाइए।’

रमानाथ—‘जी नहीं, िबलकुल मामला िबगड़ जाएगा। मैं अभी आता हूं।’

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दिारोग़ा लाजवाब हो गए। एक िमनट तक खड़े सोचते रहे, िफर लौट पड़े और ज़ोहरा से बातें करते हुए

पुिलस स्टशन की तरफ चले गए। उधर रमा ने आग बढ़कर एक तांगा िकया और देवीदिीन के घर जा पहुंचा।

जालपा िदिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गो और देवीदिीन से बातें कर रही थी। वह इन िदिनों एक ही वक्त

ख़ाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज़ दिी। देवीदिीन उसकी आवाज़ पहचान गया। बोला, ‘भैया

ह सायत।’

जालपा—‘कह दिो, यहां क्या करने आए ह। वहीं जायं।’

देवीदिीन—‘नहीं बेटी, ज़रा पूछ तो लूं, क्या कहते ह। इस बख़त कैसे उन्हें छुटटी िमली?’

जालपा—‘मुझिे समझिाने आए होंग और क्या! मगर मुंह धो रक्खें।’

देवीदिीन ने द्वार खोल िदिया। रमा ने अंदिर आकर कहा, ‘दिादिा, तुम मुझिे यहां देखकर इस वक्त ताज्जुब कर

रहे होग। एक घंट की छुटटी लेकर आया हूं। तुम लोगों से अपने बहुत से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा

ऊपर ह?’

देवीदिीन बोला, ‘हां, ह तो। अभी आई ह, बैठो, कुछ खाने को लाऊं!’

रमानाथ—‘नहीं, मैं खाना खा चुका हूं। बस, जालपा से दिो बातें करना चाहता हूं।’

देवीदिीन—‘वह मानेंगी नहीं, नाहक शिमऊदिा होना पड़ेगा। मानने वाली औरत नहीं है।’

रमानाथ—‘मुझिसे दिो-दिो बातें करगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहतीं?ज़रा जाकर पूछ लो।’

देवीदिीन—‘इसमें पूछना क्या है, दिोनों बैठी तो ह, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था वैसे अब भी है।’

रमानाथ—‘नहीं दिादिा, उनसे पूछ लो। मैं यों न जाऊंगा।’

देवीदिीन ने ऊपर जाकर कहा,’तुमसे कुछ कहना चाहते ह, बहू!’

जालपा मुंह लटकाकर बोली,’तो कहते क्यों नहीं, मैंने कुछ ज़बान बंदि कर दिी है? जालपा ने यह बात इतने

ज़ोर से कही थी िक नीचे रमा ने भी सुन ली। िकतनी िनमर्चमता थी! उसकी सारी िमलन-लालसा मानो उड़ गई।

नीचे ही से खड़े-खड़े बोला, ‘वह अगर मुझिसे नहीं बोलना चाहतीं, तो कोई जबरदिस्ती नहीं। मैंने जज साहब से

सारा कच्चा िचटठा कह सुनाने का िनश्चय कर िलया है। इसी इरादे से इस वक्त चला हूं। मेरी वजह से इनको

इतने कष्ट हुए, इसका मुझिे खेदि है। मेरी अक्ल पर परदिा पडाहुआ था। स्वाथर्च ने मुझिे अंधा कर रक्खा था। प्राणों के

मोह ने, कष्टों के भय ने बुिद्धि हर ली थी। कोई ग्रह िसर पर सवार था। इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शांत कर

िदिया। शायदि दिो-चार साल के िलए सरकार की मेहमानी खानी पड़े। इसका भय नहीं। जीता रहा तो िफर भेंट

होगी। नहीं मेरी बुराइयों को माफ करना और मुझिे भूल जाना। तुम भी देवी दिादिा और दिादिी, मेरे अपराध क्षमा

करना। तुम लोगों ने मेरे ऊपर जो दिया की है, वह मरते दिम तक न भूलूंगा। अगर जीता लौटा, तो शायदि तुम

लोगों की कुछ सेवा कर सकूं। मेरी तो िज़दिगी सत्यानाश हो गई। न दिीन का हुआ न दुर्िनया का। यह भी कह देना

िक उनके गहने मैंने ही चुराए थ। सराफ को देने के िलए रूपये न थ। गहने लौटाना ज़रूरी था, इसीिलए वह

कुकमर्च करना पड़ा। उसी का फल आज तक भोग रहा हूं और शायदि जब तक प्राण न िनकल जाएंग, भोगता

रहूंगा। अगर उसी वक्त सगाई से सारी कथा कह दिी होती, तो चाहे उस वक्त इन्हें बुरा लगता, लेिकन यह

िवपित्ति िसर पर न आती। तुम्हें भी मैंने धोखा िदिया था। दिादिा, मैं ब्राह्मण नहीं हूं, कायस्थ हूं, तुम जैसे देवता से

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मैंने कपट िकया। न जाने इसका क्या दिंड िमलेगा। सब कुछ क्षमा करना। बस, यही कहने आया था।’

रमा बरामदे के नीचे उतर पडाऔर तेज़ी से कदिम उठाता हुआ चल िदिया। जालपा भी कोठे से उतरी,

लेिकन नीचे आई तो रमा का पता न था। बरामदे के नीचे उतरकर देवीदिीन से बोली, ‘िकधर गए ह दिादिा?’

देवीदिीन ने कहा, ‘मैंने कुछ नहीं देखा, बहू! मेरी आंखें आंसू से भरी हुई थीं। वह अब न िमलेंग। दिौड़ते हुए गए

थ।’

जालपा कई िमनट तक सड़क पर िनस्पंदि-सी खड़ी रही। उन्हें कैसे रोक लूं! इस वक्त वह िकतने दुर्खी ह,

िकतने िनराश ह! मेरे िसर पर न जाने क्या शैतान सवार था िक उन्हें बुला न िलया। भिवष्य का हाल कौन

जानता है। न जाने कब भेंट होगी। िववािहत जीवन के इन दिो-ढाई सालों में कभी उसका ह्रदिय अनुराग से इतना

प्रकंिपत न हुआ था। िवलािसनी रूप में वह केवल प्रेम आवरण के दिशर्चन कर सकती थी। आज त्यािगनी बनकर

उसने उसका असली रूप देखा, िकतना मनोहर, िकतना िवशु', िकतना िवशाल, िकतना तेजोमय। िवलािसनी ने

प्रेमोद्यपान की दिीवारों को देखा था, वह उसी में खुश थी। त्यािगनी बनकर वह उस उद्यपान के भीतर पहुंच गई

थी,िकतना रम्य दिृतश्य था, िकतनी सुगंध, िकतना वैिचत्र्य, िकतना िवकास, इसकी सुगंध में, इसकी रम्यता का

देवत्व भरा हुआ था। प्रेम अपने उच्चतर स्थान पर पहुंचकर देवत्व से िमल जाता है। जालपा को अब कोई शंका

नहीं है, इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी। इस प्रेम ने उसे िवयोग, पिरिस्थित

और मृतत्यु के भय से मुक्त कर िदिया,उसे अभय प्रदिान कर िदिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका

अखंड वैभव तुच्छ है।

इतने में ज़ोहरा आ गई। जालपा को पटरी पर खड़े देखकर बोली,’वहां कैसे खड़ी हो, बहन, आज तो मैं न

आ सकी। चलो, आज मुझिे तुमसे बहुत - सी बातें करनी ह।’

दिोनों ऊपर चली गई।

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पचास

दिारोग़ा को भला कहां चैन? रमा के जाने के बादि एक घंट तक उसका इंतज़ार करते रहे, िफर घोड़े पर

सवार हुए और देवीदिीन के घर जा पहुंचेब वहां मालूम हुआ िक रमा को यहां से गए आधा घंट से ऊपर हो गया।

िफर थाने लौट। वहां रमा का अब तक पता न था। समझिे देवीदिीन ने धोखा िदिया। कहीं उन्हें िछपा रक्खा होगा।

सरपट साइिकल दिौडाते हुए िफर देवीदिीन के घर पहुंचे और धमकाना शुरू िकया। देवीदिीन ने कहा,िवश्वास न हो,

घर की खाना-तलाशी ले लीिजए और क्या कीिजएगा। कोई बहुत बडा घर भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है,

एक ऊपर।

दिारोग़ा ने साइिकल से उतरकर कहा, तुम बतलाते क्यों नहीं, ‘वह कहां गए?’

देवीदिीन—‘मुझिे कुछ मालूम हो तब तो बताऊं साहब! यहां आए, अपनी घरवाली से तकरार की और चले

गए।’

दिारोग़ा –‘वह कब इलाहाबादि जा रही ह?’

देवीदिीन—‘इलाहाबादि जाने की तो बाबूजी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोटर्च का फैसला न हो

जायगा, वह यहां से न जाएंगी।’

दिारोग़ा –‘मुझिे तुम्हारी बातों का यकीन नहीं आता।’यह कहते हुए दिारोग़ा नीचे की कोठरी में घुस गए और

हर एक चीज़ को ग़ौर से देखा। िफर ऊपर चढ़गए। वहां तीन औरतों को देखकर चौंके, ज़ोहरा को शरारत सूझिी,

तो उसने लंबा-सा घूंघट िनकाल िलया और अपने हाथ साड़ी

में िछपा िलए। दिारोग़ाजी को शक हुआ। शायदि हजरत यह भेस बदिले तो नहीं बैठे ह!

देवीदिीन से पूछा, ‘यह तीसरी औरत कौन है? ’

देवीदिीन ने कहा, ‘मैं नहीं जानता। कभी-कभी बहू से िमलने आ जाती है।’

दिारोग़ा –‘मुझिी से उड़ते हो बचा! साड़ी पहनाकर मुलिज़म को िछपाना चाहते हो! इनमें कौन जालपा

देवी ह। उनसे कह दिो, नीचे चली जायं। दूसरी औरत को यहीं रहने दिो।’

जालपा हट गई, तो दिारोग़ाजी ने ज़ोहरा के पास जाकर कहा, ‘क्यों हजरत, मुझिसे यह चालें! क्या कहकर

वहां से आए थ और यहां आकर मजे में आ गए । सारा गुस्सा हवा हो गया। अब यह भेस उतािरए और मेरे साथ

चिलए, देर हो रही है।’

यह कहकर उन्होंने ज़ोहरा का घूंघट उठा िदिया। ज़ोहरा ने ठहाका मारा। दिारोग़ाजी मानो िफसलकर

िवस्मय-सागर में पड़े । बोले- अरे, तुम हो ज़ोहरा! तुम यहां कहां ? ’

ज़ोहरा –‘अपनी डयूटी बजा रही हूं।’

‘और रमानाथ कहां गए ? तुम्हें तो मालूम ही होगा?’

‘वह तो मेरे यहां आने के पहले ही चले गए थ। िफर मैं यहीं बैठ गई और जालपा देवी से बात करने लगी।’

‘अच्छा, ज़रा मेरे साथ आओ। उनका पता लगाना है।’

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ज़ोहरा ने बनावटी कौतूहल से कहा, ‘क्या अभी तक बंगले पर नहीं पहुंचे ?’

‘ना! न जाने कहां रह गए। ‘

रास्ते में दिारोग़ा ने पूछा, ‘जालपा कब तक यहां से जाएगी ?’

ज़ोहरा—‘मैंने खूब पट्टी पढ़ाई है। उसके जाने की अब जरूरत नहीं है। शायदि रास्ते पर आ जाय। रमानाथ

ने बुरी तरह डांटा है। उनकी धमिकयों से डर गई है। ’

दिारोग़ा –‘तुम्हें यकीन है िक अब यह कोई शरारत न करेगी? ’

ज़ोहरा –‘हां, मेरा तो यही ख़याल है। ’

दिारोग़ा –‘तो िफर यह कहां गया? ’

ज़ोहरा –‘कह नहीं सकती।’

दिारोग़ा –‘मुझिे इसकी िरपोटर्च करनी होगी। इंस्पेक्टर साहब और िडप्टी साहब को इत्तिला देना जरूरी है।

ज्यादिा पी तो नहीं गया था? ’

ज़ोहरा –‘िपए हुए तो थ। ’

दिारोग़ा –‘तो कहीं िफर-िगरा पडाहोगा। इसने बहुत िदिक िकया! तो मैं ज़रा उधर जाता हूं। तुम्हें पहुंचा

दूं, तुम्हारे घर तक।’

ज़ोहरा –‘बडी इनायत होगी।’

दिारोग़ा ने ज़ोहरा को मोटर साइिकल पर िबठा िलया और उसको ज़रा देर में घर के दिरवाजे पर उतार

िदिया, मगर इतनी देर में मन चंचल हो गया। बोले, ‘अब तो जाने का जी नहीं चाहता, ज़ोहरा! चलो, आज कुछ

गप-शप हो । बहुत िदिन हुए, तुम्हारी करम की िनगाह नहीं हुई।‘

ज़ोहरा ने जीने के ऊपर एक कदिम रखकर कहा, ‘जाकर पहले इंस्पेक्टर साहब से इत्तिला तो कीिजए। यह

गप-शप का मौका नहीं है।‘

दिारोग़ा ने मोटर साइिकल से उतरकर कहा, ‘नहीं, अब न जाऊंगा, ज़ोहरा!सुबह देखी जायगी। मैं भी आता

हूं।‘

ज़ोहरा –‘आप मानते नहीं ह। शायदि िडप्टी सािहब आते हों। आज उन्होंने कहला भेजा था।‘

दिारोग़ा-‘मुझिे चकमा दे रही हो ज़ोहरा, देखो, इतनी बेवफाई अच्छी नहीं।‘

ज़ोहरा ने ऊपर चढ़कर द्वार बंदि कर िलया और ऊपर जाकर िखड़की से िसर िनकालकर बोली, ‘आदिाब

अजर्च।‘

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इक्यावन

दिारोग़ा घर जाकर लेट रहे। ग्यारह बज रहे थ। नींदि खुली, तो आठ बज गए थ। उठकर बैठे ही थ िक

टलीगषेन पर पुकार हुई। जाकर सुनने लग। िडप्टी साहब बोल रहे थ,इस रमानाथ ने बडा गोलमाल कर िदिया है।

उसे िकसी दूसरी जगह ठहराया जायगा। उसका सब सामान किमश्नर साहब के पास भेज देना होगा। ‘रात को

वह बंगले पर था या नहीं ?’

दिारोग़ा ने कहा, ‘जी नहीं, रात मुझिसे बहाना करके अपनी बीवी के पास चला गया था।’

टलीफोन-- ‘तुमने उसको क्यों जाने िदिया? हमको ऐसा डर लगता है, िक उसने जज से सब हाल कह िदिया

है। मुकदिमा का जांच िफर से होगा। आपसे बडा भारी ब्लंडर हुआ है। सारा मेहनत पानी में िफर गया। उसको

जबरदिस्ती रोक लेना चािहए था।’

दिारोग़ा –‘तो क्या वह जज साहब के पास गया था? ‘

िडप्टी, ‘हां साहब, वहीं गया था, और जज भी कायदिा को तोड़ िदिया। वह िफर से मुकदिमा का पेशी

करेगा। रमा अपना बयान बदिलेगा। अब इसमें कोई डाउट नहीं है और यह सब आपका बंगिलग है। हम सब उस

बाढ़ में बह जायगा। ज़ोहरा भी दिगा िदिया।‘

दिारोग़ा उसी वक्त रमानाथ का सब सामान लेकर पुिलस-किमश्नर के बंगले की तरफ चले। रमा पर ऐसा

गुस्सा आ रहा था िक पाव तो समूचा ही िनगल जाएं । कमबख्त को िकतना समझिाया, कैसी-कैसी खाितर की,

पर दिगा कर ही गया। इसमें ज़ोहरा की भी सांठ-गांठ है। बीवी को डांट-फटकार करने का महज बहाना था।

ज़ोहरा बेगम की तो आज ही ख़बर लेता हूं। कहां जाती है। देवीदिीन से भी समझिूंगा। एक हफ्ते तक पुिलसकमर्चचािरयों में जो हलचल रही उसका िज़क करने की कोई जरूरत नहीं। रात की रात और िदिन के िदिन इसी

िफक में चक्कर खाते रहते थ। अब मुकदिमे से कहीं ज्यादिा अपनी िफक थी। सबसे ज्यादिा घबराहट दिारोग़ा को

थी। बचने की कोई उम्मीदि नहीं नज़र आती थी। इंस्पेक्टर और िडप्टी,दिोनों ने सारी िजम्मेदिारी उन्हीं के िसर

डाल दिी और खुदि िबलकुल अलग हो गए।

इस मुकदिमे की िफर पेशी होगी, इसकी सारे शहर में चचा होने लगी। अंगरेज़ी न्याय के इितहास में यह

घटना सवर्चथा अभूतपूवर्च थी। कभी ऐसा नहीं हुआ। वकीलों में इस पर कानूनी बहसें होतीं। जज साहब ऐसा कर

भी सकते ह?मगर जज दिृतढ़था। पुिलसवालों ने बड़े-बडे। ज़ोर लगाए, पुिलस किमश्नर ने यहां तक कहा िक इससे

सारा पुिलस-िवभाग बदिनाम हो जायगा, लेिकन जज ने िकसी की न सुनी। झिूठे सबूतों पर पंद्रह आदििमयों की

िजदिगी बरबादि करने की िजम्मेदिारी िसर पर लेना उसकी आत्मा के िलए असह्य था। उसने हाईकोटर्च को सूचना दिी

और गवनर्चमेंट को भी।

इधर पुिलस वाले रात-िदिन रमा की तलाश में दिौड़-धूप करते रहते थ, लेिकन रमा न जाने कहां जा िछपा

था िक उसका कुछ पता ही न चलता था। हफ्तों सरकारी कमर्चचािरयों में िलखा-पढ़ी होती रही। मनों काग़ज़

स्याह कर िदिए गए। उधार समाचार-पत्रों में इस मामले पर िनत्य आलोचना होती रहती थी। एक पत्रकार ने

जालपा से मुलाकात की और उसका बयान छाप िदिया। दूसरे ने ज़ोहरा का बयान छाप िदिया। इन दिोनों बयानों ने

पुिलस की बिखया उधेङ दिी। ज़ोहरा ने तो िलखा था िक मुझिे पचास रूपये रोज़ इसिलए िदिए जाते थ िक

रमानाथ को बहलाती रहूं और उसे कुछ सोचने या िवचार करने का अवसर न िमले। पुिलस ने इन बयानों को

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पढ़ा, तो दिांत पीस िलए। ज़ोहरा और जालपा दिोनों कहीं और जा िछपीं, नहीं तो पुिलस ने जरूर उनकी शरारत

का मज़ा चखाया होता।

आिख़र दिो महीने के बादि फैसला हुआ। इस मुकदिमे पर िवचार करने के िलए एक िसिविलयन िनयुक्त

िकया गया। शहर के बाहर एक बंगले में िवचार हुआ, िजसमें ज्यादिा भीड़-भाड़ न हो िफर भी रोज़ दिस-बारह

हज़ार आदिमी जमा हो जाते थ। पुिलस ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया िक मुलिज़मों में कोई मुखिबर बन जाए,

पर उसका उद्यपोग न सफल हुआ। दिारोग़ाजी चाहते तो नई शहादितें बना सकते थ, पर अपने अफसरों की

स्वाथर्चपरता पर वह इतने िखन्न हुए िक दूर से तमाशा देखने के िसवा और कुछ न िकया। जब सारा यश अफसरों

को िमलता और सारा अपयश मातहतों को, तो दिारोग़ाजी को क्या गरज़ पड़ी थी िक नई शहादितों की िफक में

िसर खपाते। इस मुआमले में अफसरों ने सारा दिोष दिारोग़ा ही के िसर मढ़ाब उन्हीं की बेपरवाही से रमानाथ

हाथ से िनकला। अगर ज्यादिा सख्ती से िनगरानी की जाती, तो जालपा कैसे उसे ख़त िलख सकती, और वह कैसे

रात को उससे िमल सकता था। ऐसी दिशा में मुकदिमा उठा लेने के िसवा और क्या िकया जा सकता था। तबेले की

बला बदिंर के िसर गई। दिारागा तनज्ज़ुल हो गए और नायब दिारागा का तराई में तबादिला कर िदिया गया।

िजस िदिन मुलिज़मों को छोडागया, आधा शहर उनका स्वागत करने को जमा था। पुिलस ने दिस बजे रात

को उन्हें छोडा, पर दिशर्चक जमा हो ही गए। लोग जालपा को भी खींच ले गए। पीछे-पीछे देवीदिीन भी पहुंचा।

जालपा पर फलों की वषा हो रही थी और ‘जालपादेवी की जय!’ से आकाश गूंज रहा था। मगर रमानाथ की

परीक्षा अभी समाप्त न हुई थी। उस पर दिरोग़-बयानी का अिभयोग चलाने का िनश्चय हो गया।

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बावन

उसी बंगले में ठीक दिस बजे मुकदिमा पेश हुआ। सावन की झिड़ी लगी हुई थी। कलकत्तिा दिलदिल हो रहा था,

लेिकन दिशर्चकों का एक अपार समूह सामने मैदिान में खडाथा। मिहलाआं में िदिनेश की पत्नी और माता भी आई

हुई थीं। पेशी से दिस-पंद्रह िमनट पहले जालपा और ज़ोहरा भी बंदि गािडयों में आ पहुंचीं। मिहलाआं को अदिालत

के कमरे में जाने की आज्ञा िमल गई। पुिलस की शहादितें शुरू हुई। िडप्टी सुपिरटंडंट, इंस्पेक्टर, दिारोग़ा, नायब

दिारोग़ा –‘सभी के बयान हुए। दिोनों तरफ के वकीलों ने िजरहें भी कीं, पर इन कारर्चवाइयों में उल्लेखनीय कोई

बात न थी। जाब्ते की पाबंदिी की जा रही थी। रमानाथ का बयान हुआ, पर उसमें भी कोई नई बात न थी। उसने

अपने जीवन के गत एक वषर्च का पूरा वृतत्तिांत कह सुनाया। कोई बात न िछपाई, वकील के पूछने पर उसने

कहा,जालपा के त्याग, िनष्ठा और सत्य-प्रेम ने मेरी आंखें खोलीं और उससे भी ज्यादिा ज़ोहरा के सौजन्य और

िनष्कपट व्यवहार ने, मैं इसे अपना सौभाग्य समझिता हूं िक मुझिे उस तरफ से प्रकाश िमला िजधर औरों को

अंधकार िमलता है। िवष में मुझिे सुधा प्राप्त हो गई।

इसके बादि सफाई की तरफ से देवीदिीन—‘ जालपा और ज़ोहरा के बयान हुए। वकीलों ने इनसे भी सवाल

िकया, पर सच्चे गवाह क्या उखड़ते। ज़ोहरा का बयान बहुत ही प्रभावोत्पादिक था। उसने देखा, िजस प्राणी को

जष्जीरों से जकड़ने के िलए वह भेजी गई है, वह खुदि दिदिर्च से तड़प रहा है, उसे मरहम

की जईरत है, जंज़ीरों की नहीं। वह सहारे का हाथ चाहता है, धक्के का झिोंका

नहीं। जालपा देवी के प्रित उसकी श्रद्धिा, उसका अटल िवश्वास देखकर मैं अपने

को भूल गई। मुझिे अपनी नीचता, अपनी स्वाथाऊधाता पर लज्जा आई। मेरा जीवन

िकतना अधाम, िकतना पितत है, यह मुझि पर उस वक्त खुला, और जब मैं जालपा

से िमली, तो उसकी िनष्काम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहेसहे

संस्कार भी िमट गए। िवलास-युक्त जीवन से मुझिे घृतणा हो गई। मैंने िनश्चय

कर िलया, इसी अंचल में मैं भी आश्रय लूंगी।

मगर उससे भी ज्यादिा माकर्के का बयान जालपा का था। उसे सुनकर दिशर्चकों की आंखों में आंसू आ गए। उसके

अंितम शब्दि ये थ, ‘मेरे पित िनदिोष ह! ईश्वर की दिृतिष्ट में ही नहीं, नीित की दिृतिष्ट में भी वह िनदिोष ह।

उनके भाग्य में मेरी िवलासासिक्त का प्रायिश्चत्ति करना िलखा था, वह उन्होंने िकया। वह बाज़ार

से मुंह छुपाकर भाग। उन्होंने मुझि पर अगर कोई अत्याचार िकया, तो वह यही िक मेरी इच्छाआं

को पूरा करने में उन्होंने सदिैव कल्पना से काम िलया। मुझिे प्रसन्न करने के िलए, मुझिे सुखी रखने के

िलए उन्हांने अपने ऊपर बडे से बडा भार लेने में कभी संकोच नहीं िकया। वह यह भूल गए िक

िवलास-वृतित्ति संतोष करना नहीं जानती। जहां मुझिे रोकना उिचत था, वहां उन्होंने मुझिे प्रोत्सािहत

िकया, और इस अवसर पर भी मुझिे पूरा िवश्वास है, मुझि पर अत्याचार करने की धमकी

देकर ही उनकी ज़बान बंदि की गई थी। अगर अपरािधनी हूं, तो मैं हूं, िजसके

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कारण उन्हें इतने कष्ट झिेलने पडे। मैं मानती हूं िक मैंने उन्हें अपना बयान बदिलने

के िलए मज़बूर िकया। अगर मुझिे िवश्वास होता िक वह डाकों में शरीक हुए,

तो सबसे पहले मैं उनका ितरस्कार करती। मैं यह नहीं सह सकती थी िक वह

िनरपरािधयों की लाश पर अपना भवन खडाकर। िजन िदिनों यहां डाके पड़े,

उन तारीख़ों में मेरे स्वामी प्रयाग में थ। अदिालत चाहे तो टलीफोन द्वारा इसकी जांच कर सकती है। अगर

जरूरत हो, तो म्युिनिसपल बोडर्च के अिधकािरयों का बयान िलया जा सकता है। ऐसी दिशा में मेरा कतर्चव्य इसके

िसवा कुछ और हो ही नहीं सकता था, जो मैंने िकया।

अदिालत ने सरकारी वकील से पूछा,क्या प्रयाग से इस मुआमले की कोई िरपोटर्च मांगी गई थी?

वकील ने कहा,जी हां, मगर हमारा उस िवषय पर कोई िववादि नहीं है। सफाई के वकील ने कहा,इससे यह

तो िसद्धि हो जाता है िक मुलिज़म डाके में शरीक नहीं था। अब केवल यह बात रह जाती है िक वह मुख़िबर क्यों

बना- वादिी वकील,स्वाथर्च-िसिद्धिके िसवा और क्या हो सकता है!

सफाई का वकील,मेरा कथन है, उसे धोखा िदिया गया और जब उसे मालूम हो गया िक िजस भय से उसने

पुिलस के हाथों की कठपुतली बनना स्वीकार िकया था। वह उसका भ्रम था, तो उसे धामिकयां दिी गई। अब

सफाई का कोई गवाह न था।

सरकारी वकील ने बहस शुरू की,योर आरुनर, आज आपके सम्मुख एक ऐसा अिभयोग उपिस्थत हुआ है

जैसा सौभाग्य से बहुत कम हुआ करता है। आपको जनकपुर की डकैती का हाल मालूम है। जनकपुर के आसपास

कई गांवों में लगातार डाके पड़े और पुिलस डकैतों की खोज करने लगी। महीनों पुिलस कमर्चचारी अपनी जान

हथिलयों पर िलए, डकैतों को ढूंढ़ िनकालने की कोिशश करते रहे। आिखर उनकी मेहनत सफल हुई और डाकुआं

की ख़बर िमली। यह लोग एक घर के अंदिर बैठे पाए गए। पुिलस ने एकबारगी सबों को पकड़ िलया, लेिकन आप

जानते ह, ऐसे मामलों में अदिालतों के िलए सबूत पहुंचाना िकतना मुिश्कल होता है। जनता इन लोगों से िकतना

डरती है। प्राणों के भय से शहादित देने पर तैयार नहीं होती। यहां तक िक िजनके घरों में डाके पड़े थ, वे भी

शहादित देने का अवसर आया तो साफ िनकल गए। महानुभावो, पुिलस इसी उलझिन में पड़ी हुई थी िक एक

युवक आता है और इन डाकुआं का सरगना होने का दिावा करता है। वह उन डकैितयों का ऐसा सजीव, ऐसा

प्रमाणपूणर्च वणर्चन करता है िक पुिलस धोखे में आ जाती है। सपुिलस ऐसे अवसर पर ऐसा आदिमी पाकर गैबी मदिदि

समझिती है। यह युवक इलाहाबादि से भाग आया था और यहां भूखों मरता था। अपने भाग्य-िनमाण का ऐसा

सुअवसर पाकर उसने अपना स्वाथर्च-िसद्धि करने का िनश्चय कर िलया। मुख़िबर बनकर सज़ा का तो उसे कोई भय

था ही नहीं, पुिलस की िसफािरश से कोई अच्छी नौकरी पा जाने का िवश्वास था। पुिलस ने उसका खूब

आदिरसत्कार िकया और उसे अपना मुख़िबर बना िलया। बहुत संभव था िक कोई शहादित न पाकर पुिलस इन

मुलिजमों को छोड़ देती और उन पर कोई मुकदिमा न चलाती, पर इस युवक के चकमे में आकर उसने अिभयोग

चलाने का िनश्चय कर िलया। उसमें चाहे और कोई गुण हो या न हो, उसकी रचना-शिक्त की प्रखरता से इनकार

नहीं िकया जा सकता उसने डकैितयों का ऐसा यथाथर्च वणर्चन िकया िक जंजीर की एक कड़ी भी कहीं से गायब न

थी। अंकुर से फल िनकलने तक की सारी बातों की उसने कल्पना कर ली थी। पुिलस ने मुकदिमा चला िदिया।

पर ऐसा मालूम होता है िक इस बीच में उसे स्वभाग्य-िनमाण का इससे भी अच्छा अवसर िमल गया।

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बहुत संभव है, सरकार की िवरोिधनी संस्थाआं ने उसे प्रलोभन िदिए हों और उन प्रलोभनों ने उसे स्वाथर्च-िसिद्धिका

यह नया रास्ता सुझिा िदिया हो, जहां धन के साथ यश भी था, वाहवाही भी थी, देश-भिक्त का गौरव भी था।

वह अपने स्वाथर्च के िलए सब कुछ कर सकता है। वह स्वाथर्च के िलए िकसी के गले पर छुरी भी चला सकता है और

साधु-वेश भी धारण कर सकता है, यही उसके जीवन का लक्ष्य है। हम खुश ह िक उसकी सदिबुिद्धिने अंत में उस

पर िवजय पाई, चाहे उनका हेतु कुछ भी क्यों न हो िनरपरािधयों को दिंड देना पुिलस के िलए उतना ही

आपित्तिजनक है, िजतना अपरािधयों को छोड़ देना। वह अपनी कारगुजारी िदिखाने के िलए ही ऐसे मुकदिमे नहीं

चलाती। न गवनर्चमेंट इतनी न्याय-शून्य है िक वह पुिलस के बहकावे में आकर सारहीन मुकदिमे चलाती िगरे

लेिकन इस युवक की चकमेबािज़यों से पुिलस की जो बदिनामी हुई और सरकार के हज़ारों रूपये खचर्च हो गए,

इसका िजम्मेदिार कौन है? ऐसे आदिमी को आदिशर्च दिंड िमलना चािहए, तािक िफर िकसी को ऐसी चकमेबाज़ी का

साहस न हो ऐसे िमथ्या का संसार रचने वाले प्राणी के िलए मुक्त रहकर समाज को ठगने का मागर्च बंदि कर देना

चािहए। उसके िलए इस समय सबसे उपयुक्त स्थान वह है, जहां उसे कुछ िदिन आत्म-िचतन का अवसर िमले।

शायदि वहां के एकांतवास में उसको आंतिरक जागृतित प्राप्त हो जाय। आपको केवल यह िवचार करना है िक उसने

पुिलस को धोखा िदिया या नहीं। इस िवषय में अब कोई संदेह नहीं रह जाता िक उसने धोखा िदिया। अगर

धमिकयां दिी गई थीं, तो वह पहली अदिालत के बादि जज की अदिालत में अपना बयान वापस ले सकता था, पर

उस वक्त भी उसने ऐसा नहीं िकया। इससे यह स्पष्ट है िक धामिकयों का आक्षेप िमथ्या है। उसने जो कुछ िकया,

स्वेच्छा से िकया। ऐसे आदिमी को यिदि दिंड न िदिया गया, तो उसे अपनी कुिटल नीित से काम लेने का िफर साहस

होगा और उसकी िहसक मनोवृतित्तियां और भी बलवान हो जाएंगी।

िफर सफाई के वकील ने जवाब िदिया, ‘यह मुकदिमा अंगरेज़ी इितहास ही में नहीं, शायदि सवर्चदेशीय न्याय

के इितहास में एक अदिभुत घटना है। रमानाथ एक साधरण युवक है। उसकी िशक्षा भी बहुत मामूली हुई है। वह

ऊंचे िवचारों का आदिमी नहीं है। वह इलाहाबादि के म्युिनिसपल आिफस में नौकर है। वहां उसका काम चुंगी के

रूपये वसूल करना है। वह व्यापािरयों से प्रथानुसार िरश्वत लेता है और अपनी आमदिनी की परवा न करता हुआ

अनाप-शनाप खचर्च करता है। आिख़र एक िदिन मीज़ान में गलती हो जाने से उसे शक होता है िक उससे कुछ रूपये

उठ गए। वह इतना घबडा जाता है िक िकसी से कुछ नहीं कहता, बस घर से भाग खडा होता है। वहां दिफ्तर में

उस पर शुबहा होता है और उसके िहसाब की जांच होती है। तब मालूम होता है िक उसने कुछ ग़बन नहीं िकया,

िसफर्क िहसाब की भूल थी।

िफर रमानाथ के पुिलस के पंजे में फंसने, गरजी मुख़िबर बनने और शहादित देने का िज़क करते हुए उसने

कहा, अब रमानाथ के जीवन में एक नया पिरवतर्चन होता है, ऐसा पिरवतर्चन जो एक िवलास-िप्रय, पदि-लोलुप

युवक को धमर्चिनष्ठ और कतर्चव्यशील बना देता है। उसकी पत्नी जालपा, िजसे देवी कहा जाए तो अितशयोिक्त न

होगी, उसकी तलाश में प्रयाग से यहां आती है और यहां जब उसे मालूम होता है िक रमा एक मुकदिमे में पुिलस

का मुख़िबर हो गया है, तो वह उससे िछपकर िमलने आती है। रमा अपने बंगले में आराम से पडा हुआ है। फाटक

पर संतरी पहरा दे रहा है। जालपा को पित से िमलने में सफलता नहीं होती। तब वह एक पत्र िलखकर उसके

सामने फेंक देती है और देवीदिीन के घर चली जाती है। रमा यह पत्र पढ़ता है और उसकी आंखों के सामने से

परदिा हट जाता है। वह िछपकर जालपा के पास जाता है। जालपा उससे सारा वृतत्तिांत कह सुनाती है और उससे

अपना बयान वापस लेने पर ज़ोर देती है। रमा पहले शंकाएं करता है, पर बादि को राज़ी हो जाता है और अपने

बंगले पर लौट जाता है। वहां वह पुिलस-अफसरों से साफ कह देता है, िक मैं अपना बयान बदिल दूंगा। अिधकारी

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उसे तरह-तरह के प्रलोभन देते ह, पर जब इसका रमा पर कोई असर नहीं होता और उन्हें मालूम हो गया है िक

उस पर ग़बन का कोई मुकदिमा नहीं है, तो वे उसे जालपा को िगरफ्तार करने की धमकी देते ह। रमा की िहम्मत

टूट जाती है। वह जानता है, पुिलस जो चाहे कर सकती है, इसिलए वह अपना इरादिा तबदिील कर देता है और

वह जज के इजलास में अपने बयान का समथर्चन कर देता है। अदिालत में रमा से सफाई ने कोई िजरह नहीं की

थी। यहां उससे िजरहें की गई, लेिकन इस मुकदिमे से कोई सरोकार न रखने पर भी उसने िजरहों के ऐसे जवाब

िदिए िक जज को भी कोई शक न हो सका और मुलिज़मों को सज़ा हो गई। रमानाथ की और भी खाितरदिािरयां

होने लगीं। उसे एक िसफािरशी ख़त िदिया गया और शायदि उसकी यू.पी. गवनर्चमेंट से िसफािरश भी की गई। िफर

जालपादेवी ने फांसी की सज़ा पाने वाले मुिलज़म िदिनेश के बाल- बच्चों का पालन-पोषण करने का िनश्चय

िकया। इधर-उधर से चंदे मांग-मांगकर वह उनके िलए िजदिगी की जरूरतें पूरी करती थीं। उसके घर का

कामकाज अपने हाथों करती थीं। उसके बच्चों को िखलाने को ले जाती थीं।

एक िदिन रमानाथ मोटर पर सैर करता हुआ जालपा को िसर पर एक पानी का मटका रक्खे देख लेता है।

उसकी आत्म-मयादिा जाग उठती है। ज़ोहरा को पुिलस-कमर्चचािरयों ने रमानाथ के मनोरंजन के िलए िनयुक्त कर

िदिया है। ज़ोहरा युवक की मानिसक वेदिना देखकर द्रिवत हो जाती है और वह जालपा का पूरा समाचार लाने के

इरादे से चली जाती है। िदिनेश के घर उसकी जालपा से भेंट होती है। जालपा का त्याग, सेवा और साधना देखकर

इस वेश्या का ह्रदिय इतना प्रभािवत हो जाता है िक वह अपने जीवन पर लिज्जत हो जाती है और दिोनों में

बहनापा हो जाता है। वह एक सप्ताह के बादि जाकर रमा से सारा वृतत्तिांत कह सुनाती है। रमा उसी वक्त वहां से

चल पड़ता है और जालपा से दिो-चार बातें करके जज के बंगले पर चला जाता है। उसके बादि जो कुछ हुआ, वह

हमारे सामने है।

मैं यह नहीं कहता िक उसने झिूठी गवाही नहीं दिी, लेिकन उस पिरिस्थित और उन प्रलोभनों पर ध्यान

दिीिजए, तो इस अपराध की गहनता बहुत कुछ घट जाती है। उस झिूठी गवाही का पिरणाम अगर यह होता, िक

िकसी िनरपराध को सज़ा िमल जाती तो दूसरी बात थी। इस अवसर पर तो पंद्रह युवकों की जान बच गई। क्या

अब भी वह झिूठी गवाही का अपराधी है? उसने खुदि ही तो अपनी झिूठी गवाही का इकबाल िकया है। क्या इसका

उसे दिंड िमलना चािहए? उसकी सरलता और सज्जनता ने एक वेश्या तक को मुग्ध कर िदिया और वह उसे

बहकाने और बहलाने के बदिले उसके मागर्च का दिीपक बन गई। जालपादेवी की कतर्चव्यपरायणता क्या दिंड के योग्य

है? जालपा ही इस ड्रामा की नाियका है। उसके सदिनुराग, उसके सरल प्रेम, उसकी धमर्चपरायणता, उसकी

पितभिक्त, उसके स्वाथर्च-त्याग, उसकी सेवा-िनष्ठा, िकस-िकस गुण की प्रशंसा की जाय! आज वह रंगमंच पर न

आती, तो पंद्रह पिरवारों के िचराग गुल हो जाते। उसने पंद्रह पिरवारों को अभयदिान िदिया है।

उसे मालूम था िक पुिलस का साथ देने से सांसािरक भिवष्य िकतना उज्ज्वल हो जाएगा, वह जीवन की

िकतनी ही िचताआं से मुक्त हो जायगी। संभव है, उसके पास भी मोटरकार हो जायगी, नौकर-चाकर हो जायंग,

अच्छा-सा घर हो जायगा, बहुमूल्य आभूषण होंग। क्या एक युवती रमणी के ह्रदिय में इन सुखों का कुछ भी मूल्य

नहीं है? लेिकन वह यह यातना सहने के िलए तैयार हो जाती है। क्या यही उसके धमानुराग का उपहार होगा िक

वह पित-वंिचत होकर जीवन? पथ पर भटकती िगरे- एक साधरण स्त्री में, िजसने उच्चकोिट की िशक्षा नहीं

पाई, क्या इतनी िनष्ठा, इतना त्याग, इतना िवमशर्च िकसी दिैवी प्रेरणा का पिरचायक नहीं है? क्या एक पितता का

ऐसे कायर्च में सहायक हो जाना कोई महत्व नहीं रखता- मैं तो समझिता हूं, रखता है। ऐसे अिभयोग रोज़ नहीं पेश

होते। शायदि आप लोगों को अपने जीवन में िफर ऐसा अिभयोग सुनने का अवसर न िमले।

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यहां आप एक अिभयोग का फैसला करने बैठे हुए ह, मगर इस कोटर्च के बाहर एक और बहुत बडा

न्यायालय है, जहां आप लोगों के न्याय पर िवचार होगा। जालपा का वही फैसला न्यायानुयल होगा िजसे बाहर

का िवशाल न्यायालय स्वीकार करे। वह न्यायालय कानूनों की बारीिकयों में नहीं पड़ता िजनमें उलझिकर, िजनकी

पेचीदििगयों में फंसकर, हम अकसर पथ-भ्रष्ट हो जाया करते ह, अकसर दूध का पानी और पानी का दूध कर बैठते

ह। अगर आप झिूठ पर पश्चाताप करके सच्ची बात कह देने के िलए, भोग-िवलासयुक्त जीवन को ठुकराकर

फटहालों जीवन व्यतीत करने के िलए िकसी को अपराधी ठहराते ह, तो आप संसार के सामने न्याय का काई

ऊंचा आदिशर्च नहीं उपिस्थत कर रहे ह। सरकारी वकील ने इसका प्रत्युत्तिर देते हुए कहा,मामर्च और आदिशर्च अपने

स्थान पर बहुत ही आदिर की चीजें ह, लेिकन िजस आदिमी ने जान-बूझिकर झिूठी गवाही दिी, उसने अपराध अवश्य

िकया और इसका उसे दिंड िमलना चािहए। यह सत्य है िक उसने प्रयाग में कोई ग़बन नहीं िकया था और उसे

इसका भ्रम-मात्र था, लेिकन ऐसी दिशा में एक सच्चे आदिमी का यह कतर्चव्य था िक वह िगरफ्तार हो जाने पर

अपनी सफाई देता। उसने सज़ा के भय से झिूठी गवाही देकर पुिलस को क्यों धोखा िदिया- यह िवचार करने की

बात है। अगर आप समझिते ह िक उसने अनुिचत काम िकया, तो आप उसे अवश्य दिंड देंग।

अब अदिालत के फैसला सुनाने की बारी आई। सभी को रमा से सहानुभूित हो गई था, पर इसके साथ ही

यह भी मानी हुई बात थी िक उसे सज़ा होगी। क्या सज़ा होगी, यही देखना था। लोग बडी उत्सुकता से फैसला

सुनने के िलए और िसमट आए, कुिसयां और आग खींच ली गई, और कनबितयां भी बंदि हो गई।

‘मुआमला केवल यह है िक एक युवक ने अपनी प्राण-रक्षा के िलए पुिलस का आश्रय िलया और जब उसे

मालूम हो गया िक िजस भय से वह पुिलस का आश्रय ले रहा है, वह सवर्चथा िनमूर्चल है, तो उसने अपना बयान

वापस ले िलया। रमानाथ में अगर सत्यिनष्ठा होती, तो वह पुिलस का आश्रय ही क्यों लेता, लेिकन इसमें कोई

संदेह नहीं िक पुिलस ने उसे रक्षा का यह उपाय सुझिाया और इस तरह उसे झिूठी गवाही देने का प्रलोभन िदिया।

मैं यह नहीं मान सकता िक इस मुआमले में गवाही देने का प्रस्ताव स्वप्तः उसके मन में पैदिा हो गया। उसे

प्रलोभन िदिया गया, िजसे उसने दिंड-भय से स्वीकार कर िलया। उसे यह भी अवश्य िवश्वास िदिलाया गया होगा

िक िजन लोगों के िवरुद्धि उसे गवाही देने के िलए तैयार िकया जा रहा था, वे वास्तव में अपराधी थ। क्योंिक

रमानाथ में जहां दिंड का भय है, वहां न्यायभिक्त भी है। वह उन पेशवर गवाहों में नहीं है, जो स्वाथर्च के िलए

िनरपरािधयों को फंसाने से भी नहीं िहचकते। अगर ऐसी बात न होती, तो वह अपनी पत्नी के आग्रह से बयान

बदिलने पर कभी राजी न होता। यह ठीक है िक पहली अदिालत के बादि ही उसे मालूम हो गया था िक उस पर

ग़बन का कोई मुकदिमा नहीं है और जज की अदिालत में वह अपने बयान को वापस न ले सकता था। उस वक्त

उसने यह इच्छा प्रकट भी अवश्य की, पर पुिलस की धामिकयों ने िफर उस पर िवजय पाई। पुिलस को बदिनामी

से बचने के िलए इस अवसर पर उसे धामिकयां देना स्वाभािवक है, क्योंिक पुिलस को मुलिज़मों के अपराधी होने

के िवषय में कोई संदेह न था। रमानाथ धामिकयों में आ गया, यह उसकी दुर्बर्चलता अवश्य है, पर पिरिस्थित को

देखते हुए क्षम्य है। इसिलए मैं रमानाथ को बरी करता हूं।’

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तरेपन

चौ की शीतल, सुहावनी, स्फूितमयी संध्या, गंगा का तट, टसुआं से लहलहाता हुआ ढाक का मैदिान, बरगदि

का छायादिार वृतक्ष, उसके नीचे बंधी हुई गाएं, भैंसें, कद्दू और लौकी की बेलों से लहराती हुई झिोंपिडयां, न कहीं

गदिर्च न गुबार, न शोर न गुल, सुख और शांित के िलए क्या इससे भी अच्छी जगह हो सकती है? नीचे स्वणर्चमयी

गंगा लाल, काले, नीले आवरण से चमकती हुई, मंदि स्वरों में गाती, कहीं लपकती, कहीं िझिझिकती, कहीं चपल,

कहीं गंभीर, अनंत अंधकारकी ओर चली जा रही है, मानो बहुरंिजत बालस्मृतित कीडा और िवनोदि की गोदि में

खेलती हुई, िचतामय, संघषर्चमय, अंधाकारमय भिवष्य की ओर चली जा रही हो देवी और रमा ने यहीं, प्रयाग के

समीप आकर आश्रय िलया है।

तीन साल गुज़र गए ह, देवीदिीन ने ज़मीन ली, बाग़ लगाया, खेती जमाई, गाय-भैंसें खरीदिीं और कमर्चयोग

में, अिवरत उद्यपोग में सुख, संतोष और शांित का अनुभव कर रहा है। उसके मुख पर अब वह जदिी, झिुिरयां नहीं

ह, एक नई स्फूित, एक नई कांित झिलक रही है। शाम हो गई है, गाएं-भैंसें हार से लौटींब जग्गो ने उन्हें खूंट से

बांधा और थोडा-थोडा भूसा लाकर उनके सामने डाल िदिया। इतने में देवी और गोपी भी बैलगाड़ी पर डांठं लादे

हुए आ पहुंचेब दियानाथ ने बरगदि के नीचे ज़मीन साफ कर रखी है। वहीं डांठं उतारी गई। यही इस छोटी-सी

बस्ती का खिलहान है।

दियानाथ नौकरी से बरख़ास्त हो गए थ और अब देवी के अिसस्टंट ह। उनको समाचार-पत्रों से अब भी

वही प्रेम है, रोज कई पत्र आते ह, और शाम को फुसर्चत पाने के बादि मुंशीजी पत्रों को पढ़कर सुनाते और समझिाते

ह। श्रोताआं में बहुधा आसपास के गांवों के दिस-पांच आदिमी भी आ जाते ह और रोज़ एक छोटीमोटी सभा हो

जाती है।

रमा को तो इस जीवन से इतना अनुराग हो गया है िक अब शायदि उसे थानेदिारी ही नहीं, चुंगी की

इंस्पेक्टरी भी िमल जाय, तो शहर का नाम न ले। प्रातःकाल उठकर गंगा-स्नान करता है, िफर कुछ कसरत करके

दूध पीता है और िदिन िनकलते-िनकलते अपनी दिवाआं का संदूक लेकर आ बैठता है। उसने वैद्यप की कई िकताबें

पढ़ली ह और छोटी-मोटी बीमािरयों की दिवा दे देता है। दिस-पांच मरीज़ रोज़ आ जाते ह और उसकी कीित

िदिन-िदिन बढ़ती जाती है। इस काम

से छुट्टी पाते ही वह अपने बगीचे में चला जाता है। वहां कुछ साफ-भाजी भी लगी हुई है, कुछ फल-फलों

के वृतक्ष ह और कुछ जड़ी-बूिटयां ह। अभी तो बाग़ से केवल तरकारी िमलती है, पर आशा है िक तीन-चार साल

में नींबू, अमरूदि,बेर, नारंगी, आम, केले, आंवले, कटहल, बेल आिदि फलों की अच्छी आमदिनी होने लगगी।

देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूंट से बांधा िदिया और दियानाथ से बोला,’अभी भैया नहीं लौट?’

दियानाथ ने डांठों को समेटते हुए कहा, ‘अभी तो नहीं लौट। मुझिे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं

है। ज़माने का उधार है। िकतने सुख से रहती थीं, गाड़ी थी, बंगला था, दिरजनों नौकर थ। अब यह हाल है।

सामान सब मौजूदि है, वकील साहब ने अच्छी संपित्ति छोड़ी था, मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली। देवीदिीन—‘

‘भैया कहते थ, अदिालत करतीं तो सब िमल जाता, पर कहती ह, मैं अदिालत में झिूठ न बोलूंगी। औरत बडे ऊंचे

िवचार की है।’

सहसा जागश्वरी एक छोट-से िशशु को गोदि में िलये हुए एक झिोंपड़े से िनकली और बच्चे को दियानाथ की

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गोदि में देती हुई देवीदिीन से बोली, ‘भैया, ज़रा चलकर रतन को देखो, जाने कैसी हुई जाती है। ज़ोहरा और बहू,

दिोनों रो रही ह! बच्चा न जाने कहां रह गए!

देवीदिीन ने दियानाथ से कहा, ‘चलो लाला, देखें।’

जागश्वरी बोली, ‘यह जाकर क्या करग, बीमार को देखकर तो इनकी नानी पहले ही मर जाती है।’

देवीदिीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा। रतन बांस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गई थी। वह

सूयर्चमुखी का-सा िखला हुआ चेहरा मुरझिाकर पीला हो गया था। वह रंग िजन्होंने िचत्र को जीवन और स्पंदिन

प्रदिान कर रक्खा था, उड़ गए थ, केवल आकार शष रह गया था। वह श्रवण-िप्रय, प्राणप्रदि, िवकास और आह्लादि

में डूबा हुआ संगीत मानो आकाश में िवलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदिास प्रितध्विन रह गई थी। ज़ोहरा

उसके ऊपर झिुकी उसे करूण, िववश, कातर, िनराश तथा तृतष्णामय नजरों से देख रही थी। आज साल-भर से

उसने रतन की सेवा-शुश्रूषा में िदिन को िदिन और रात को रात न समझिा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह िकया

था, उस अिवश्वास और बिहष्कार के वातावरण में िजस खुले िनःसंकोच भाव से उसके साथ बहनापा िनभाया

था, उसका एहसान वह और िकस तरह मानती। जो सहानुभूित उसे जालपा से भी न िमली, वह रतन ने प्रदिान

की। दुर्ःख और पिरश्रम ने दिोनों को िमला िदिया, दिोनों की आत्माएं संयुक्त हो गई। यह घिनष्ठ स्नेह उसके िलए

एक नया ही अनुभव था, िजसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। इस मौके में उसके वंिचत ह्रदिय ने पित-प्रेम

और पुत्र-स्नेह दिोनों ही पा िलया। देवीदिीन ने रतन के चेहरे की ओर सिचत नजरों से देखा, तब उसकी नाड़ी हाथ

में लेकर पूछा,‘िकतनी देर से नहीं बोलीं ?’

जालपा ने आंखें पोंछकर कहा, ‘अभी तो बोलती थीं। एकाएक आंखें ऊपर चढ़गई और बेहोश हो गई। वैद्यप

जी को लेकर अभी तक नहीं आए?’

देवीदिीन ने कहा, ‘इनकी दिवा वैद्यप के पास नहीं है। ’यह कहकर उसने थोड़ी-सी राख ली, रतन के िसर पर

हाथ फेरा, कुछ मुंह में बुदिबुदिाया और एक चुटकी राख उसके माथ पर लगा दिी। तब पुकारा, ‘रतन बेटी, आंखें

खोलो।’

रतन ने आंखें खोल दिीं और इधर-उधर सकपकाई हुई आंखों से देखकर बोली,‘मेरी मोटर आई थी न? कहां

गया वह आदिमी? उससे कह दिो, थोड़ी देर के बादि लाए। ज़ोहरा –‘ आज मैं तुम्हें अपने बग़ीचे की सैर कराऊंगी।

हम दिोनों झिूले पर बैठंगी।’

ज़ोहरा िफर रोने लगी। जालपा भी आंसुआं के वेग को न रोक सकी। रतन एक क्षण तक छत की ओर

देखती रही। िफर एकाएक जैसे उसकी स्मृतित जाग उठी हो, वह लिज्जत होकर एक उदिास मुस्कराहट के साथ

बोली, ‘मैं सपना देख रही थी, दिादिा!’

लोिहत आकाश पर कािलमा का परदिा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृतत्यु ने परदिा डाल

िदिया।

रमानाथ वैद्यपजी को लेकर पहर रात को लौट, तो यहां मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृतत्यु का

शोक वह शोक न था, िजसमें आदिमी हाय- हाय करता है, बिल्क वह शोक था िजसमें हम मूक रूदिन करते ह,

िजसकी यादि कभी नहीं भूलती, िजसका बोझि कभी िदिल से नहीं उतरता।

रतन के बादि ज़ोहरा अकेली हो गई। दिोनों साथ सोती थीं, साथ बैठती थीं, साथ काम करती थीं। अकेले

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ज़ोहरा का जी िकसी काम में न लगता। कभी नदिी-तट पर जाकर रतन को यादि करती और रोती, कभी उस आम

के पौधो के पास जाकर घंटों खड़ी रहती, िजसे उन दिोनों ने लगाया था। मानो उसका सुहाग लुट गया हो जालपा

को बच्चे के पालन और भोजन बनाने से इतना अवकाश न िमलता था िक उसके साथ बहुत उठती-बैठती, और

बैठती भी तो रतन की चचा होने लगती और दिोनों रोने लगतीं।

भादिों का महीना था। पृतथ्वी और जल में रण िछडाहुआ था। जल की सेनाएं वायुयान पर चढ़कर आकाश से

जल-शरों की वषा कर रही थीं। उसकी थल-सेनाआं ने पृतथ्वी पर उत्पात मचा रक्खा था। गंगा गांवों और कस्बों

को िनफल रही थी। गांव के गांव बहते चले जाते थ। ज़ोहरा नदिी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी। वह

कृतशांगी गंगा इतनी िवशाल हो सकती है, इसका वह अनुमान भी न कर सकती थी। लहर उन्मभा होकर गरजतीं,

मुंह से फन िनकालतीं, हाथों उछल रही थीं। चतुर डकैतों की तरह पैंतरे बदिल रही थीं। कभी एक कदिम आतीं,

िफर पीछे लौट पड़तीं और चक्कर खाकर िफर आग को लपकतीं। कहीं कोई झिोंपडा डगमगाता तेज़ी से बहा जा

रहा था, मानो कोई शराबी दिौडा जाता हो कहीं कोई वृतक्ष डाल-पत्तिों समेत डूबता-उतराता िकसी पाषाणयुग के

जंतु की भांित तैरता चला जाता था। गाएं और भैंसें, खाट और तख्ते मानो ितलस्मी िचत्रों की भांित आंखों के

सामने से िनकले जाते थ। सहसा एक िकश्ती नज़र आई। उस पर कई स्त्री-पुरूष बैठे थ। बैठे क्या थ, िचमट हुए

थ। िकश्ती कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती। बस यही मालूम होता था िक अब उलटी, अब उलटी। पर वाह रे

साहस सब अब भी ‘गंगा माता की जय’ पुकारते जाते थ। िस्त्रयां अब भी गंगा के यश के गीत गाती थीं।

जीवन और मृतत्यु का ऐसा संघषर्च िकसने देखा होगा। दिोनों तरफ के आदिमी िकनारे पर, एक तनाव की दिशा

में ह्रदिय को दिबाए खड़े थ। जब िकश्ती करवट लेती, तो लोगों के िदिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते।

रिस्सयां फेंकने की कोिशश की जाती, पर रस्सी बीच ही में िफर पड़ती थी। एकाएक एक बार िकश्ती उलट ही

गई। सभी प्राणी लहरों में समा गए। एक क्षण कई स्त्री-पुरूष, डूबते-उतराते िदिखाई िदिए, िफर िनगाहों से ओझिल

हो गए। केवल एक उजली-सी चीज़ िकनारे की ओर चली आ रही थी। वह एक रेले में तट से कोई बीस गज़ तक

आ गई। समीप से मालूम हुआ, स्त्री है। ज़ोहरा –‘ जालपा और रमा, तीनों खड़े थ। स्त्री की गोदि में एक बच्चा

भी नज़र आता था। दिोनों को िनकाल लाने के िलए तीनों िवकल हो उठे, पर बीस गज़ तक तैरकर उस तरफ

जाना आसान न था। िफर रमा तैरने में बहुत कुशल न था। कहीं लहरों के ज़ोर में पांव उखड़ जाएं, तो िफर

बंगाल की खाड़ी के िसवा और कहीं िठकाना न लग।

ज़ोहरा ने कहा, ‘मैं जाती हूं!’

रमा ने लजाते हुए कहा,‘जाने को तो मैं तैयार हूं, लेिकन वहां तक पहुंच भी सकूंगा, इसमें संदेह है। िकतना

तोड़ है!’

ज़ोहरा ने एक कदिम पानी में रखकर कहा,‘नहीं, मैं अभी िनकाल लाती हूं।’

वह कमर तक पानी में चली गई। रमा ने सशंक होकर कहा,’क्यों नाहक जान देने जाती हो वहां शायदि एक

गड्ढा है। मैं तो जा ही रहा था।’

ज़ोहरा ने हाथों से मना करते हुए कहा, ’नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, तुम न आना। मैं अभी िलये आती हूं।

मुझिे तैरना आता है।’

जालपा ने कहा, ‘लाश होगी और क्या! ’

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रमानाथ-- ‘शायदि अभी जान हो’

जालपा--‘अच्छा, तो ज़ोहरा तो तैर भी लेती है। जभी िहम्मत हुई। ’

रमा ने ज़ोहरा की ओर िचितत आंखों से देखते हुए कहा, हां, कुछ-कुछ जानती तो ह। ईश्वर करे लौट आएं।

मुझिे अपनी कायरता पर लज्जा आ रही है।

जालपा ने बेहयाई से कहा,‘इसमें लज्जा की कौन?सी बात है। मरी लाश के िलए जान को जोिखम में

डालने से फायदिा, जीती होती, तो मैं खुदि तुमसे कहती, जाकर िनकाल लाओ।’

रमा ने आत्म-िधक्कार के भाव से कहा, ‘यहां से कौन जान सकता है, जान है या नहीं। सचमुच बालबच्चों वाला आदिमी नामदिर्च हो जाता है। मैं खडा रहा और ज़ोहरा चली गई।’

सहसा एक ज़ोर की लहर आई और लाश को िफर धारा में बहा ले गई। ज़ोहरा लाश के पास पहुंच चुकी

थी। उसे पकड़कर खींचना ही चाहती थी िक इस लहर ने उसे दूर कर िदिया। ज़ोहरा खुदि उसके ज़ोर में आ गई

और प्रवाह की ओर कई हाथ बह गई। वह िफर संभली पर एक दूसरी लहर ने उसे िफर ढकेल िदिया। रमा व्यग्र

होकर पानी में यदि पडा और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगा, ‘ज़ोहरा ज़ोहरा! मैं आता हूं।’

मगर ज़ोहरा में अब लहरों से लड़ने की शिक्त न थी। वह वेग से लाश के साथ ही धारे में बही जा रही

थी। उसके हाथ-पांव िहलना बंदि हो गए थ। एकाएक एक ऐसा रेला आया िक दिोनों ही उसमें समा गई। एक

िमनट के बादि ज़ोहरा के काले बाल नज़र आए। केवल एक क्षण तक यही अंितम झिलक थी। िफर वह नजर न

आई।

रमा कोई सौ गज़ तक ज़ोरों के साथ हाथ-पांव मारता हुआ गया, लेिकन इतनी ही दूर में लहरों के वेग के

कारण उसका दिम फूल गया। अब आग जाय कहां? ज़ोहरा का तो कहीं पता भी न था। वही आिख़री झिलक आंखों

के सामने थी। िकनारे पर जालपा खड़ी हाय-हाय कर रही थी। यहां तक िक वह भी पानी में कूदि पड़ी। रमा अब

आग न बढ़सका। एक शिक्त आग खींचती थी, एक पीछे। आग की शिक्त में अनुराग था, िनराशा थी, बिलदिान

था। पीछे की शिक्त में कतर्चव्य था, स्नेह था, बंधन था। बंधन ने रोक िलया। वह लौट पड़ा। कई िमनट तक जालपा

और रमा घुटनों तक पानी में खड़े उसी तरफ ताकते रहे। रमा की ज़बान आत्म-िधक्कार ने बंदि कर रक्खी थी,

जालपा की, शोक और लज्जा ने। आिख़र रमा ने कहा, ‘पानी में क्यों खड़ी हो? सदिी हो जाएगी।

जालपा पानी से िनकलकर तट पर खड़ी हो गई, पर मुंह से कुछ न बोली,मृतत्युके इस आघात ने उसे

पराभूत कर िदिया था। जीवन िकतना अिस्थर है, यह घटना आज दूसरी बार उसकी आंखों के सामने चिरताथर्च

हुई। रतन के मरने की पहले से आशंका थी। मालूम था िक वह थोड़े िदिनों की मेहमान है, मगर ज़ोहरा की मौत

तो वज्राघात के समान थी। अभी आधा घड़ी पहले तीनों आदिमी प्रसन्निचत्ति, जल-कीडा देखने चले थ। िकसे

शंका थी िक मृतत्यु की ऐसी भीषण पीडा उनको देखनी पड़ेगी। इन चार सालों में जोहरा ने अपनी सेवा,

आत्मत्याग और सरल स्वभाव से सभी को मुग्ध कर िलया था। उसके अतीत को िमटाने के िलए, अपने िपछले

दिागों को धो डालने के िलए, उसके पास इसके िसवा और क्या उपाय था। उसकी सारी कामनाएं, सारी वासनाएं

सेवा में लीन हो गई। कलकत्तिा में वह िवलास और मनोरंजन की वस्तु थी। शायदि कोई भला आदिमी उसे अपने

घर में न घुसने देता। यहां सभी उसके साथ घर के प्राणी का-सा व्यवहार करते थ। दियानाथ और जागश्वरी को

यह कहकर शांत कर िदिया गया था िक वह देवीदिीन की िवधवा बहू है। ज़ोहरा ने कलकत्तिा में जालपा से केवल

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उसके साथ रहने की िभक्षा मांगी थी। अपने जीवन से उसे घृतणा हो गई थी। जालपा की िवश्वासमय उदिारता ने

उसे आत्मशुिद्धि के पथ पर डाल िदिया। रतन का पिवत्र,िनष्काम जीवन उसे प्रोत्सािहत िकया करता था। थोड़ी देर

के बादि रमा भी पानी से िनकला और शोक में डूबा हुआ घर की ओर चला। मगर अकसर वह और जालपा नदिी

के िकनारे आ बैठते और जहां ज़ोहरा डूबी थी उस तरफ घंटों देखा करते। कई िदिनों तक उन्हें यह आशा बनी रही

िक शायदि ज़ोहरा बच गई हो और िकसी तरफ से चली आए। लेिकन धीरे-धीरे यह क्षीण आशा भी शोक के

अंधकार में खो गई। मगर अभी तक ज़ोहरा की सूरत उनकी आंखों के सामने िगरा करती है। उसके लगाए हुए

पौधे, उसकी पाली हुई िबल्ली, उसके हाथों के िसले हुए कपड़े, उसका कमरा, यह सब उसकी स्मृतित के िचन्ह

उनके पास जाकर रमा की आंखों के सामने ज़ोहरा की तस्वीर खड़ी हो जाती है।

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