किताबें और चिट्ठियाँ
युद्ध और जीवित रहना —
बस, बहुत हो गया प्रिय!
आओ आज इस नदी के घाट पर हम बैठें।
दो-एक दूर्वादल पर आँसुओं की ओसबूँदें
किस तरह गहन रात के आकाश की आभा पाते हैं
आओ हम देखें —
डाइलेक्टिक्स को लेकर
दलीलें देने का क्या फ़ायदा?
पीले चूहे और धूसर बिल्ली पर वाद-विवाद।
मुझे मालूम है कि इस नदी के घाट पर
इस छलछल आवाज़ के अलावा
कोई और प्राण-कविता
इस वक़्त हमारे मर्म और मनन में
नहीं है।
तुम्हें क्या नहीं पता प्रिय
निराकाश का मतलब
क्या आकाश का धूसर निस्सीम होता है?
नई घास के जन्मलग्न में
उसके पास रही इस निर्जन धूल में
क्या कुछ निष्करुण भी होता है?
आँसुओं में रखकर चेहरे
परस्पर शून्य-आँसुओं को पोंछ लेना
यही तो विषाद है!
- अनुराधा महापात्र - Anuradha Mahapatra
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