रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है - raat chupachaap dabe paanv chalee jaatee hai - - गुलज़ार – gulazaar –Poem Gazal Shayari
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है
चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है
- गुलज़ार - gulazaar
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