ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा - zabaan sukhan ko sukhan baankapan ko tarasega - - नासिर काज़मी- Nasir Kazmi

ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा 
सुख़नकदा मेरी तर्ज़-ए-सुख़न को तरसेगा 

नये प्याले सही तेरे दौर में साक़ी 
ये दौर मेरी शराब-ए-कोहन को तरसेगा 

मुझे तो ख़ैर वतन छोड़ के अमन न मिली
वतन भी मुझ से ग़रीब-उल-वतन को तरसेगा 

उन्हीं के दम से फ़रोज़ाँ हैं मिल्लतों के चराग़ 
ज़माना सोहबत-ए-अरबाब-ए-फ़न को तरसेगा 

बदल सको तो बदल दो ये बाग़बाँ वरना 
ये बाग़ साया-ए-सर्द-ओ-समन को तरसेगा 

हवा-ए-ज़ुल्म यही है तो देखना एक दिन 
ज़मीं पानी को सूरज किरन को तरसेगा

- नासिर काज़मी- Nasir Kazmi


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