जो ज़िन्दा हैं, मैं उनमें हूँ, मुझे मरना नहीं आता।
जो जीना चाहते हैं, फेंक दें अपना बही-खाता।
अगर हम आदमी हैं, ख़ुद ही जीना सीख जाएँगे,
सलीका हमको जीने का कहाँ, कोई है सिखलाता।
सुना है क्या कि पत्थर दिल कहीं मुर्दे भी जीते हैं,
कोई मुर्दा कहाँ इंसानियत के गीत है गाता।
जो अपनी अर्थियाँ ढोता है, कितना बेसहारा है,
रहा उससे नहीं मेरा, कोई रिश्ता, कोई नाता।
हज़ारों साल से जो है, हवा में है, लहर में है,
हक़ीक़त में वो ज़िन्दा है,न मरता है, न पछताता।
- जयप्रकाश त्रिपाठी- Jayprakash Tripathi
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