सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी
गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी
दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब
ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी
बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली
शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली
झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते
झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली
बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती
उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती
गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी
शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती
मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती
कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती!
घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में
गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!
साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया
हार का प्रतीक - दिया सो दिया, भुला दिया जो किया!
किन्तु शरद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है
प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया!
sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
#Poem Gazal Shayari
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