इस तरफ से गुज़रे थे काफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख्म रहगुज़ारों के
खल्वतों के शैदाई[1] खल्वतों में खुलते हैं
हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दादारों के
पहले हंस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं
आश्ना-सिफ़त[2] हैं लोग अजनबी दियारों के[3]
तुमने सिर्फ चाहा है हमने छू के देखे हैं
पैरहन[4] घटाओं के, जिस्म बर्क-पारों[5] के
शगले-मयपरस्ती[6] गो जश्ने-नामुरादी है
यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों[7] के
-साहिर_लुधियानवी - saahir ludhiyaanavee
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