ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त[1]ही सही
तुझको इस वादी-ए-रंगीं[2]से अक़ीदत[3] ही सही
मेरी महबूब[4] कहीं और मिला कर मुझ से!
बज़्म-ए-शाही[5] में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त[6] जिस राह में हों सतवत-ए-शाही[7] के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा[8]
तू ने सतवत[9] के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर[10] से बहलने वाली
अपने तारीक[11] मकानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़[12] न थे जज़्बे[13] उनके
लेकिन उन के लिये तशहीर[14] का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस[15] थे
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर,[16] ये फ़सीलें,[17]ये हिसार[18]
मुतल-क़ुलहुक्म[19] शहंशाहों की अज़मत के सुतूँ[20]
सीना-ए-दहर[21]के नासूर हैं ,कुहना[22] नासूर
जज़्ब है[23] जिसमें तेरे और मेरे अजदाद[24] का ख़ूँ
मेरी महबूब ! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई[25] ने बख़्शी[26] है इसे शक्ल-ए-जमील[27]
उन के प्यारों के मक़ाबिर[28] रहे बेनाम-ओ-नमूद[29]
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील[30]
ये चमनज़ार[31] ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श [32]दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!
-साहिर लुधियानवी - saahir ludhiyaanavee
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