हो गई मौन बुलबुले-हिंद!
मधुबन की सहसा रुकी साँस,
सब तरुवर-शाखाएँ उदास,
अपने अंतर का स्वर खोकर
बैठे हैं सब अलि विहग-वृंद!
चुप हुई आज बुलबुले-हिन्द!
स्वर्गिक सुख-सपनों से लाकर
नवजीवन का संदेश अमर
जिसने गाया था जीवन भर
मधु ऋतु की जाग्रत वेला में
कैसे उसका संगीत बन्द!
सो गई आज बुलबुले-हिन्द!
पंछी गाने पर बलिहारी,
पर आज़ादी ज़्यादा प्यारी,
बंदी ही हैं जो संसारी,
तन के पिंजड़े को रिक्त छोड़
उड़ गया मुक्त नभ में परिंद!
उड़ गई आज बुलबुले-हिंद!
- हरिवंशराय बच्चन - harivansharaay bachchan
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