जनता के लिए धीरे-धीरे एक दिन ख़त्म हो जाएँगे सारे विकल्प - janata ke lie dheere-dheere ek din khatm ho jaenge saare vikalp - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in
जनता के लिए
धीरे-धीरे एक दिन ख़त्म हो जाएँगे सारे विकल्प
सिर्फ़ पूँजी तय करेगी विकल्पों का रोज़गार
अच्छे इलाज के विकल्प नहीं रहेंगे
सरकारी अस्पताल,
न ही सरकारी बसें -- सुगम यात्राओं के
सबसे ज़्यादा हिकारत की नज़रों से देखी जाएगी
शिक्षा-व्यवस्था
विश्व बैंक की निर्ममता
नहीं बचने देगी बिजली और पानी के विकल्प
विकल्पहीनता के सतत् अवसाद में डूबे रहते
एक दिन हम इसे ही कहने लगेंगे जीवन
और फिर जब खदेड़ दिए जाएँगे
अपनी ही ज़मीन गाँव और जंगलों से
तो फिर शहरों में आने
और दर-दर की ठोकरें खाकर मर जाने के अलावा
कौन-सा विकल्प बचेगा!!
हर ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेंगी सरकारें
वह कभी नहीं दे पाएगी
सोनागाछियों को जीने का कोई सही विकल्प!
अभिनेत्रियाँ कहने लगी हैं --
पर्दे और उसके पीछे बेआबरू होने के अलावा
अब कोई विकल्प नहीं बचा,
गाँव में घुसपैठ करते कोला-बर्गर का
हम कौन-सा कारगर विकल्प ला पाए हैं!
उजड़ गई हैं हमारी लोक-कलाएँ
हाट, मेले, तीज, त्योहार
राग, रंग, नेह, व्यवहार सब
बिला गए हैं इस ग्लोबल-अन्धड़ में,
हर शहर बनना चाहता है न्यूयॉर्क
अर्थ के इस भयावह तन्त्र में
महँगी दवाइयों और सस्ती शराब का कोई विकल्प
हमारे पास मौजूद नहीं है।
पैरों तले संसद को कुचलते
ग़ुण्डे और अपराधी सरमायेदारों का
कौन-सा विकल्प ढूँढ़ सकी है जनता!!
आज
आज़ादी की आधी सदी बाद
उस मोटी किताब की ओर देखता हूँ
और सोचता हूँ --
इस तथाकथित प्रजातन्त्र का
क्या कोई विकल्प हो सकता था
हो सकता है?
- उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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