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Wednesday, March 11, 2020

चक्रान्त शिला - chakraant shila -sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" #Poem Gazal Shayari

1.

असीम, छा रहा ऊपर
नीचे यह महामौन की सरिता
दिग्विहीन बहती है।

यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
प्रतीकों की परिभाषा
आत्मा में जो अपने ही से
खुलती रहती है।
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,

अनुभव में एक अतीन्द्रिय,
पुरुषों के हर वैभव में ओझल
अपौरुषेय मिलता है।

मैं एक, शिविर का प्रहरी, भोर जगा
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ
मैं, मौन-मुखर, सब छन्दों में
उस एक साथ अनिर्वच, छन्द-मुक्त को गाता हूँ।

2.

वन में एक झरना बहता है
एक नर-कोकिल गाता है
वृक्षों में एक मर्मर
कोंपलों को सिहराता है,

एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे
झरे पत्तों को पचाता है।
अंकुर उगाता है।
मैं सोते के साथ बहता हूँ,
पक्षी के साथ गाता हूँ,

वृक्षों के कोंपलों के साथ थरथराता हूँ,
और उसी अदृश्य क्रम में, भीतर ही भीतर
झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूँ
नये प्राण पाता हूँ।

पर सब से अधिक मैं
वन के सन्नाटे के साथ मौन हूँ-
क्योंकि वही मुझे बतलाता है कि मैं कौन हूँ,
जोड़ता है मुझ को विराट् से

जो मौन, अपरिवर्त है, अपौरुषेय है
जो सब को समोता है।
मौन का ही सूत्र किसी अर्थ को मिटाये बिना
सारे शब्द क्रमागत सुमिरनी में पिरोता है।

3. 

सुनता हूँ गान के स्वर।
बहुत-से दूत, बाल-चपल, तार,
एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर।
मैं वन में हूँ।

सब ओर घना सन्नाटा छाया है।
तब क्वचित् कहीं मेरे भीतर ही यह कोई संगीत-वृन्द आया है।
वन-खंडी की दिशा-दिशा से
गूँज-गूँज कर आते हैं आह्वान के स्वर।

भीतर अपनी शिरा-शिरा से
उठते हैं आह्लाद और सम्मान के स्वर।
पीछे, अध-डूबे, अवसान के स्वर।
फिर सबसे नीचे, पीछे, भीतर, ऊपर,

एक सहस आलोक-विद्ध उन्मेष,
चिरन्तन प्राण के स्वर।
सुनता हूँ गान के स्वर
बहुत से दूत, बाल-चपल, तार;
एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर।

4. 

किरण जब मुझ पर झरी मैं ने कहा
मैं वज्र कठोर हूँ-पत्थर सनातन।
किरण बोली: भला? ऐसा!
तुम्हीं को तो खोजती थी मैं

तुम्हीं से मन्दिर गढ़ूँगी
तुम्हारे अन्तःकरण से
तेज की प्रतिमा उकेरूँगी।
स्तब्ध मुझ को किरण ने
अनुराग से दुलरा लिया।

5. 

एक चिकना मौन जिस में मुखर तपती वासनाएँ
दाह खोती लीन होती हैं।
उसी में रवहीन तेरा गूँजता है
छन्द: ऋत विज्ञप्त होता है।

एक काले घोल की-सी रात
जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्तियाँ
सब पिघल जातीं ओट पातीं
एक स्वप्नातीत, रूपातीत

पुनीत गहरी नींद की।
उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता-गले मिलता है।

6. 

रात में जागा अन्धकार की सिरकी के पीछे से
मुझे लगा, मैं सहसा
सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ
धीमी, रहस, सुरीली,

परम गीतिमय।
और गीत वह मुझ से बोला, दुर्निवार,
अरे, तुम अभी तक नहीं जागे,
और वह मुक्त स्रोत-सा सभी ओर बह चला उजाला!
अरे, अभागे-कितनी बार भरा, अनदेखे,

छलक-छलक बह गया तुम्हारा प्याला?
मैं ने उठ कर खोल दिया वातायन-
और दुबारा चौंका :
वह सन्नाटा नहीं-झरोखे के बाहर

ईश्वर गाता था।
इसी बीच फिर बाढ़ उषा की आयी।

7.

हवा कहीं से उठी, बही-
ऊपर ही ऊपर चली गयी।
पथ सोया ही रहा
किनारे के क्षुप चौंके नहीं

न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी।
अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी।
वन-खंडी में सधे खड़े पर
अपनी ऊँचाई में खोये-से चीड़
जाग कर सिहर उठे सनसना गये।

एक स्वर नाम वही अनजाना
साथ हवा के गा गये।
ऊपर ही ऊपर जो हवा ने गाया
देवदारु ने दुहराया,
जो हिमचोटियों पर झलका,

जो साँझ के आकाश से छलका-वह किस ने पाया
जिस ने आयत्त करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
आह! वह तो मेरे दे दिये गये हृदय में उतरा,
मेरे स्वीकारी आँसू में ढलका:

वह अनजाना अनपहचाना ही आया।
वह इन सब के-और मेरे-माध्यम से
अपने में अपने को लाया, अपने में समाया।

8. 

जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकती है
उतना ही मैं प्रेत हूँ।
जितना रूपाकार-सारमय दीख रहा हूँ
रेत हूँ। फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिमा

मेरे अनजाने, अनपहचाने अपने ही मनमाने
अंकुर उपजाती है-बस, उतना मैं खेत हूँ।

9.

जो बहुत तरसा-तरसा कर मेघ से बरसा
हमें हरसाता हुआ,
-माटी में रीत गया।
आह! जो हमें सरसाता है
वह छिपा हुआ पानी है
हमारा इस जानी-पहचानी

माटी के नीचे का।
-रीतता नहीं बीतता नहीं।

10.

धुन्ध से ढँकी हुई
कितनी गहरी वापिका तुम्हारी
कितनी लघु अंजली हमारी।
कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई
छाया जब-तब दिख जाती है,

उत्कंठा की ओक वही द्रव भर ओठों तक लाती है-
बिजली की जलती रेखा-सी
कंठ चीरती छाती तक खिंच जाती है।
फिर और प्यास तरसाती है, फिर दीठ

धुन्ध में फाँक खोजने को टकटकी लगाती है।
आतुरता हमें भुलाती है
कितनी लघु अंजली हमारी,
कितनी गहरी यह धुन्ध-ढँकी वापिका तुम्हारी।

फिर भरते हैं ओक,
लहर का वृत्त फैल कर हो जाता है ओझल,
इसी भाँति युग-कल्प शिलित कर गये हमारे पल-पल
-वापी को जो धुन्ध ढँके है, छा लेती है

गिरि-गह्वर भी अविरल।
किन्तु एक दिन खुल जाएगा
स्फटिक-मुकुर-सा निर्मल वापी का तल,
आशा का आग्रह हमें किये है बेकल-धुन्ध-ढँकी

कितनी गहरी वापिका तुम्हारी,
कितनी लघु अंजली हमारी।
किन्तु नहीं क्या यही धुन्ध है सदावर्त
जिस में नीरन्ध्र तुम्हारी करुणा

बँटती रहती है दिन-याम?
कभी झाँक जाने वाली छाया ही
अन्तिम भाषा-सम्भव-नाम?
करुणा धाम!

बीज-मन्त्र यह, सार-सूत्र यह, गहराई का एक यही परिमाण,
हमारा यही प्रणाम!
धुन्ध-ढँकी कितनी गहरी वापिका तुम्हारी-
लघु अंजली हमारी।

11.

तू नहीं कहेगा?
मैं फिर भी सुन ही लूँगा।
किरण भोर की पहली भोलेपन से बतलावेगी,
झरना शिशु-सा अनजान उसे दुहरावेगा,

घोंघा गीली-पीली रेती पर धीरे-धीरे आँकेगा,
पत्तों का मर्मर कनबतियों में जहाँ-तहाँ फैलावेगा,
पंछी की तीखी कूक फरहरे-मढ़े शल्य-सी आसमान पर टाँकेगी,
फिर दिन सहसा खुल कर उस को सब पर प्रकटावेगा,

निर्मम प्रकाश से सब कुछ पर सुलझा सब कुछ लिख जावेगा।
मैं गुन लूँगा। तू नहीं कहेगा?
आस्था है, नहीं अनमना हूँगा तब-मैं सुन लूँगा।

12.

अरी ओ आत्मा री,
कन्या भोली क्वाँरी
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा-

सम्भ्रम-अवगुंठित अंगों को
उस का ही मृदुतर कौतूहल
प्रकाश की किरण छुआएगा।
तुझ से रहस्य की बात निभृत में

एक वही कर पाएगा तू उतना, वैसा समझेगी वह जैसा जो समझाएगा।
तेरा वह प्राप्य, वरद कर उस का तुझ पर जो बरसाएगा।
उद्देश्य, उसे जो भावे; लक्ष्य, वही जिस ओर मोड़ दे वह-
तेरा पथ मुड़-मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा।

तू अपनी भी उतनी ही होगी जितना वह अपनाएगा।
ओ आत्मा री तू गयी वरी
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
हाँ, छूट चला यह घर, उपवन

परिचित-परिगण, मैं भी, आत्मीय सभी,
पर खेद न कर, हम थे इतने तक के अपने-
हम रचे ही गये थे यथार्थ आधे, आधे सपने-
आँखों भर कर ले फेर, और भर अंजलि दे बिखेर

पीछे को फूल
-स्मरण के, श्रद्धा के, कृतज्ञता के, सब के
हम नहीं पूछते, जो हो, बस मत हो परिताप कभी।
जा आत्मा, जा कन्या-वधुका-उस की अनुगा,

वह महाशून्य ही अब तेरा पथ, लक्ष्य, अन्न-जल, पालक, पति,
आलोक, धर्म : तुझ को वह एकमात्र सरसाएगा।
ओ आत्मा री तू गयी वरी,
ओ सम्पृक्ता, ओ परिणीता :
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।

13.

अकेली और अकेली।
प्रियतम धीर, समुद सब रहने वाला;
मनचली सहेली।
अकेला: वह तेजोमय है जहाँ,

दीठ बेबस झुक जाती है;
वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गूँज
वहाँ चुक जाती है।
शीतलता उस की एक छुअन भर से

सारे रोमांच शिलित कर देती है,
मन के द्रुत रथ की अविश्रान्त गति
कभी नहीं उस का पदनख तक परिक्रान्त कर पाती है।
वह इस लिए अकेला।

अकेला: जो कहना है, वह भाषा नहीं माँगता।
इस लिए किसी की साक्षी नहीं माँगता,
जो सुनना है, वह जहाँ झरेगा तेज-भस्म कर डालेगा-
तब कैसे कोई उसे झेलने के हित पर से साझा पालेगा?

वह इस लिए निरस्त्र, निर्वसन, निस्साधन, निरीह,
इस लिए अकेली।

14.

वह धीरे-धीरे आया
सधे पैरों से चला गया।
किसी ने उस को छुआ नहीं।
उस असंग को अटकाने को
कोई कर न उठा।

उस की आँखें रहीं देखती सब कुछ
सब कुछ को वात्सल्य भाव से सहलाती, असीसती,
पर ऐसे, कि अयाना है सब कुछ, शिशुवत् अबोध।
अटकी नहीं दीठ वह, जैसे तृण-तरु को छूती प्रभात की धूप

दीठ भी आगे चली गयी।
आगे, दूर, पार, आगे को,
जहाँ और भी एक असंग सधा बैठा है,
जिस की दीठ देखती सब कुछ,
सब कुछ को सहलाती, दुलराती, असीसती,

-उस को भी, शिशुवत् अबोध को मानो-
किन्तु अटकती नहीं, चली जाती है आगे।
आगे?

हाँ, आगे, पर उस से आगे सब आयाम
घूम-घूम जाते हैं चक्राकार, उसी तक लौट
समाहित हो जाते हैं।

15.

जो कुछ सुन्दर था, प्रेय, काम्य,
जो अच्छा, मँजा-नया था, सत्य-सार,
मैं बीन-बीन कर लाया।
नैवेद्य चढ़ाया।

पर यह क्या हुआ?
सब पड़ा-पड़ा कुम्हलाया, सूख गया, मुरझाया:
कुछ भी तो उस ने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया।
गोपन लज्जा में लिपटा, सहसा स्वर भीतर से आया:

यह सब मन ने किया,
हृदय ने कुछ नहीं दिया,
थाती का नहीं, अपना हो जिया।
इस लिए आत्मा ने कुछ नहीं छुआ।

केवल जो अस्पृश्य, अगर्ह्य कह
तज आयी मेरे अस्तित्व मात्र की सत्ता,
जिस के भय से त्रस्त, ओढ़ती काली घृणा इयत्ता,
उतना ही, वही हलाहल उसने लिया।

और मुझ को वात्सल्य भरा आशिष दे कर!-
ओक भर पिया।

16. 

मैं कवि हूँ द्रष्टा, उन्मेष्टा,
सन्धाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय।
मैं सच लिखता हूँ :
लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ।

तू काव्य: सदा-वेष्टित यथार्थ
चिर-तनित, भारहीन, गुरु,
अव्यय। तू छलता है

पर हर छल में
तू और विशद, अभ्रान्त,
अनूठा होता जाता है।

17.

न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर
शून्य में जा विलय होगा
किन्तु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है-
उस में एक रूपातीत ठंडी ज्योति है।

तब फिर शून्य कैसे है-कहाँ है?
मुझे फिर आतंक किस का है?
शून्य को भजता हुआ भी मैं

पराजय बरजता हूँ।
चेतना मेरी बिना जाने
प्रभा में निमजती है
मैं स्वयं उस ज्योति से अभिषिक्त सजता हूँ।

18. 

अन्धकार में चली गयी है
काली रेखा दूर-दूर पार तक।
इसी लीक को थामे मैं बढ़ता आया हूँ
बार-बार द्वार तक : ठिठक गया हूँ वहाँ:
खोज यह दे सकती है मार तक।
चलने की है यही प्रतिज्ञा
पहुँच सकूँगा मैं प्रकाश से पारावार तक;
क्यों चलना यदि पथ है केवल
मेरे अन्धकार से सब के अन्धकार तक?
-या कि लाँघ कर ही उस को पहुँचा जावेगा
सब कुछ धारण करने वाली पारमिता करुणा तक-
निर्वैयक्तिक प्यार तक?

19.


उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त-
वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम
पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर,
जरा-मृत्यु, बनने-मिटने के कल्प, मिलन, बिछुड़न,
गति-निगति-विलय के अन्तहीन चक्रान्त।

इस धवल शिला पर यह आलोक-स्नात,
उजला ईश्वर-योगी, अक्लान्त शान्त,
अपनी स्थिर, धीर, मन्द स्मिति से वह सारी लिखत
मिटाता जाता है। योगी!
वह स्मिति मेरे भीतर लिख दे:
मिट जाए सभी जो मिटता है।
वह अलम् होगी।

20.

ढूह की ओट बैठे
बूढ़े से मैं ने कहा:
मुझे मोती चाहिए।
उस ने इशारा किया:
पानी में कूदो।

मैं ने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या?
उस ने एक मूठ बालू उठा मेरी ओर कर दी।
मैं ने कहा : इस में से मिलेगा मुझे मोती?

उस ने एक कंकड़ उठाया और
अनमने भाव से मुझे दे मारा।
मैं ने बड़ा जतन दिखाते हुए उसे बीन लिया
और कहा : यही क्या मोती है-
आप का?
धीरे-धीरे झुका माथा ऊँचा हुआ,
मुड़ा वह मेरी ओर।
सागर-सी उस की आँखें थीं

सदियों की रेती पर इतिहास की हवाओं की लिखतों-सी
नैन-कोरों की झुर्रियाँ।
बोला वह :
(कैसी एक खोयी हुई हवा उन बालुओं के ढूहों में से, घासों में से सर्पिल-सी फिसली चली गयी)

‘हाँ : या कि नहीं, क्यों?
मिट्टी के भीतर पत्थर था
पत्थर के भीतर पानी था

पानी के भीतर मेंढक था
मेंढक के भीतर अस्थियाँ थीं यानी मिट्टी-पत्थर था,
लहू की धार थी यानी पानी था,
श्वास था यानी हवा थी,
जीव था यानी मेंढक था।

मोती जो चाहते हो
उस की पहचान अगर यह नहीं
तो और क्या है?’

21.  

यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही
उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी :
एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है-
जिसे चाहो तो मान लो कहानी।
और दे भी क्या सकता हूँ हवाला
उस रात का : या प्रमाण अपनी बात का?
उस धूपयुक्त कम्पहीन अपने ही ज्वलन के हुताशन के
ताप-शुभ्र केन्द्र-वृत्त में उस युग-साक्षात् का?
यों कहीं तो था लेखा : पर मैं ने जो दिया, जो पाया,
जो पिया, जो गिराया, जो ढाला, जो छलकाया,
जो नितारा, जो छाना,
जो उतारा, जो चढ़ाया
जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा-
सब का जो कुछ हिसाब रहा, मैं ने देखा
कि उसी यज्ञ-ज्वाला में गिर गया।
और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे, मैं तिर गया
-ठीक है, मेरा सिर फिर गया।
मैं अवाक् हूँ, अपलक हूँ।
मेरे पास और कुछ नहीं है
तुम भी यदि चाहो तो ठुकरा दो:
जानता हूँ कि मैं भी तो ठीकरा हूँ।
और मुझे कहने को क्या हो
जब अपने तईं खरा हूँ?

22. 


ओ मूर्ति!
वासनाओं के विलय
अदम आकांक्षा के विश्राम।
वस्तु-तत्त्व के बन्धन से छुटकारे के
ओ शिलाभूत संकेत,
ओ आत्म-साक्ष्य के मुकुर,
प्रतीकों के निहितार्थ।
सत्ता-करुणा, युगनद्ध!
ओ मन्त्रों के शक्ति-स्रोत,
साधना के फल के उत्सर्ग
ओ उद्गतियों के आयाम!
और निश्छाय, अरूप,
अप्रतिम प्रतिमा,
ओ निःश्रेयस स्वयंसिद्ध!

23.

व्यथा सब की, निविडतम एकान्त मेरा।
कलुष सब का स्वेच्छया आहूत;
सद्यधौत अन्तःपूत बलि मेरी।
ध्वान्त इस अनसुलझ संसृति के
सकल दौर्बल्य का, शक्ति तेरे तीक्ष्णतम, निर्मम, अमोघ
प्रकाश-सायक की।

24. 

उसी एकान्त में घर दो
जहाँ पर सभी आवें:
वही एकान्त सच्चा है
जिसे सब छू सकें।
मुझ को यही वर दो
उसी एकान्त में घर दो
कि जिस में सभी आवें-मैं न आऊँ।
नहीं मैं छू भी सकूँ जिस को
मुझे ही जो छुए, घेरे समो ले।
क्यों कि जो कुछ मुझ से छुआ जा सका-
मेरे स्पर्श से चटका-न ही है आसरा, वह छत्र कच्चा है:
वही एकान्त सच्चा है
जिसे छूने मैं चलूँ तो मैं पलट कर टूट जाऊँ।
लौट कर फिर वहीं आऊँ किन्तु पाऊँ
जो उसे छू रहा है वह मैं नहीं हूँ :
सभी हैं वे। सभी : वह भी जो कि इस का बोध
मुझ तक ला सका।
उसी एकन्त में घर दो-यही वर दो।

25.

सागर और धरा मिलते थे जहाँ
सन्धि-रेखा पर मैं बैठा था।
नहीं जानता क्यों सागर था मौन
क्यों धरा मुखर थी।
सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना
देखता था सागर को किन्तु धरा को सुनता था।
सागर की लहरों में जो कुछ पढ़ता था
रेती की लहरों पर लिखता जाता था।
नहीं जानता क्यों
मैं बैठा था।
पर वह सब तब था जब दिन था।
फिर जब धरती से उठा हुआ सूरज
तपते-तपते हो जीर्ण गिरा सागर में-
तब सन्ध्या की तीखी किरण एक उठ
मुझे विद्ध करती सायक-सी
उसी सन्धि-रेखा से बाँध अचानक डूब गयी।
फिर धीरे-धीरे रात घेरती आयी, फैल गयी
फिर अन्धकार में मौन हो गयी धरा,
मुखर हो सागर गाने लगा गान।
मुझे और कुछ लखने-सुनने
पढ़ने-लिखने को नहीं रहा:
अपने भीतर गहरे में मैं ने पहचान लिया
है यही ठीक। सागर ही गाता रहे
धरा हो मौन, यही सम्यक् स्थिति है।
यद्यपि क्यों मैं नहीं जानता।
फिर मैं सपने से जाग गया
हाँ, जाग गया।
पर क्या यह जगा हुआ मैं
अब से युग-युग
उसी सन्धि-रेखा पर वैसा
किरण-विद्ध ही बँधा रहूँगा?

26.

आँगन के पार द्वार खुले
द्वार के पार आँगन।
भवन के ओर-छोर
सभी मिले-उन्हीं में कहीं खो गया भवन।
कौन द्वारी कौन आगारी, न जाने,
पर द्वार के प्रतिहारी को
भीतर के देवता ने
किया बार-बार पा-लागन।

27.

दूज का चाँद-
मेरे छोटे घर-कुटीर का दीया
तुम्हारे मन्दिर के विस्तृत आँगन में
सहमा-सा रख दिया गया।

sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

#Poem Gazal Shayari

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