ते नर नरकरूप जीवत जग,
भव-भंजन पद बिमुख अभागी।
निसिबासर रुचि पाप, असुचिमन,
खल मति मलिन निगम पथ त्यागी॥१॥
नहिं सतसंग, भजन नहिं हरिको,
स्त्रवन न रामकथा अनुरागी।
सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि,
सोवत अति न कबहुँ मति जागी॥२॥
तुलसिदास हरि नाम सुधा तजि,
सठ, हठि पियत बिषय-बिष मॉंगी।
सूकर-स्वान-सृगाल-सरिस जन,
- तुलसीदास- Tulsidas
#www.poemgazalshayari.in
||Poem|Gazal|Shayari|Hindi Kavita|Shayari|Love||
No comments:
Post a Comment