भारत की गलियों में भटकती हवा - bhaarat kee galiyon mein bhatakatee hava -- अमृता प्रीतम - Amrita Pritam #www.poemgazalshayari.in

भारत की गलियों में भटकती हवा
चूल्हे की बुझती आग को कुरेदती
उधार लिए अन्न का
एक ग्रास तोड़ती
और घुटनों पे हाथ रखके
फिर उठती है...

चीन के पीले
और ज़र्द होंटों के छाले
आज बिलखकर
एक आवाज़ देते हैं
वह जाती और
हर गले में एक सूखती
और चीख मारकर
वह वीयतनाम में गिरती है...

श्मशान-घरों में से
एक गन्ध-सी आती
और सागर पार बैठे –
श्मशान-घरों के वारिस
बारूद की इस गन्ध को
शराब की गन्ध में भिगोते हैं।

बिलकुल उस तरह, जिस तरह –
कि श्मशान-घरों के दूसरे वारिस
भूख की एक गन्ध को
तक़दीर की गन्ध में भिगोते हैं
और लोगों के दुःखों की गन्ध को –
तक़रीर की गन्ध में भिगोते हैं।

और इज़राइल की नयी-सी माटी
या पुरानी रेत अरब की
जो खून में है भीगती
और जिसकी गन्ध –
ख़ामख़ाह शहादत के जाम में है डूबती...

छाती की गलियों में भटकती हवा
यह सभी गन्धें सूंघती और सोचती –
कि धरती के आंगन से
सूतक की महक कब आएगी?
कोई इड़ा – किसी माथे की नाड़ी
– कब गर्भवती होगी?
गुलाबी माँस का सपना –
आज सदियों के ज्ञान से
वीर्य की बूंद मांगता...

- अमृता प्रीतम - Amrita Pritam
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