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Wednesday, March 11, 2020

ज़िंदगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे - zindagee har mod par karatee rahee hamako ishaare -sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" #Poem Gazal Shayari

ज़िंदगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे
जिन्हें हमने नहीं देखा।
क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की
और हमने बाँधने से पूर्व देखा था-
हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं
ज़िंदगी करती रही नीरव इशारे :
हम छली थे शब्द के।
'शब्द ईश्वर है, इसी में वह रहस्य है :
शब्द अपने आप में इति है-
हमें यह मोह अब छलता नहीं था।
शब्द-रत्नों की लड़ी हम गूँथकर माला पिन्हाना चाहते थे
नए रूपाकार को
और हमने यही जाना था
कि रूपाकार ही तो सार है।
एक नीरव नदी बहती जा रही थी
बुलबुले उसमें उमड़ते थे
रह: संकेत के :
हर उमडऩे पर हमें रोमांच होता था।
फूटना हर बुलबुले का हमें तीखा दर्द होता था।
रोमांच! तीखा दर्द!
नीरव रह : संकेत-हाय।
ज़िंदगी करती रही
नीरव इशारे
हम पकड़े रहे रूपाकार को।
किंतु रूपाकार
चोला है
किसी संकेत शब्दातीत का,
ज़िंदगी के किसी
गहरे इशारे का।
शब्द :
रूपाकार :
फिर संकेत
ये हर मोड़ पर बिखरे हुए संकेत-
अनगिनती इशारे ज़िंदगी के
ओट में जिनकी छिपा है
अर्थ।
हाय, कितने मोह की कितनी दिवारें भेदने को-
पूर्व इसके, शब्द ललके।
अंक भेंटे अर्थ को
क्या हमारे हाथ में वह मंत्र होगा, हम इन्हें संपृक्त कर दें।
अर्थ दो अर्थ दो
मत हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो।
हम समझते हैं इशारा ज़िंदगी का-
हमें पार उतार दो-
रूप मत, बस सार दो।
मुखर वाणी हुई : बोलने हम लगे :
हमको बोध था वे शब्द सुंदर हैं-
सत्य भी हैं, सारमय हैं।
पर हमारे शब्द
जनता के नहीं थे,
क्योंकि जो उन्मेष हम में हुआ
जनता का नहीं था,
हमारा दर्द
जनता का नहीं था
संवेदना ने ही विलग कर दी
हमारी अनुभूति हमसे।
यह जो लीक हमको मिली थी-
अंधी गली थी।
चुक गई क्या राह! लिख दें हम
चरम लिखतम् पराजय की?
इशारे क्या चुक गए हैं
ज़िंदगी के अभिनयांकुर में?
बढ़े चाहे बोझ जितना
शास्त्र का, इतिहास,
रूढ़ि के विन्यास का या सूक्त का-
कम नहीं ललकार होती ज़िंदगी।
मोड़ आगे और है-
कौन उसकी ओर देखो, झाँकता है?

sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

#Poem Gazal Shayari

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