केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो।
छल मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो।
साँप के विष-दाँत तोड़ उघाड़ दो।
आजकल यह चलन है, सब जंतुओं की खाल पहने हैं-
गले गीदड़ लोमड़ी की
बाघ की है खाल काँधों पर
दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से
हाथ में थैला मगर की खाल का
और पैरों में
जगमगाती साँप की केंचुल
बनी है श्रीचरण का सैंडल
किंतु भीतर कहीं
भेड़-बकरी, बाघ-गीदड़, साँप के बहुरूप के अंदर
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पता है
सनातन मानव-
खरा इनसान-
क्षण भर रुको उसको जगा लें।
नहीं है यह धर्म, ये तो पैंतरे हैं उन दरिंदों के
रूढ़ि के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ाकर
यों विचारों पर झपट्टा मारते हैं-
बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें
साथ आओ-
गिलगिले ये साँप बैरी हैं हमारे
इन्हें आज पछाड़ दो
यह मगर की तनी झिल्ली फाड़ दो
केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो।
sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
#Poem Gazal Shayari
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