मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर - mere raushanadaar mein baitha ek kabootar - गुलजार - Gulzar -Poem Gazal Shayari

मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कही।
शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है।
उनका घर है रौशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन
हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है
आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं
हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा
और नीचे गिर के फौत हुए।

बोले गुटरगूँ...
कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें।

आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!

गुलजार - Gulzar

-Poem Gazal Shayari

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