तेरे होंठों पे तबस्सुम[1] की वो हलकी-सी लकीर
मेरे तख़ईल में [2] रह-रह के झलक उठती है
यूं अचानक तिरे आरिज़ का[3] ख़याल आता है
जैसे ज़ुल्मत में[4] कोई शम्अ भड़क उठती है
तेरे पैराहने-रंगीं की[5] ज़ुनुंखेज़[6] महक
ख़्वाब बन-बन के मिरे ज़ेहन में[7] लहराती है
रात की सर्द ख़ामोशी में हर इक झोकें से
तेरे अनफ़ास[8], तिरे जिस्म की आंच आती है
मैं सुलगते हुए राज़ों को अयां[9] तो कर दूं
लेकिन इन राज़ों की तश्हीर[10] से जी डरता है
रात के ख्वाब उजाले में बयां तो कर दूं
इन हसीं ख़्वाबों की ताबीर से[11] जी डरता है
तेरी साँसों की थकन, तेरी निगाहों का सुकूत[12]
दर- हक़ीकत[13] कोई रंगीन शरारत ही न हो
मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ
वो तबस्सुम, वो तकल्लुम[14] तिरी आदत ही न हो
सोचता हूँ कि तुझे मिलके मैं जिस सोच में हूँ
पहले उस सोच का मकसूम[15] समझ लूं तो कहूं
मैं तिरे शहर में अनजान हूँ, परदेसी हूँ
तिरे अल्ताफ़ का[16] मफ़हूम[17] समझ लूं तो कहूं
कहीं ऐसा न हो, पांओं मिरे थर्रा जाए
और तिरी मरमरी[18] बाँहों का सहारा न मिले
अश्क बहते रहें खामोश सियह[19] रातों में
और तिरे रेशमी आंचल का किनारा न मिले
-साहिर लुधियानवी - saahir ludhiyaanavee
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