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Sunday, August 11, 2019

क्या लिखूँ की वो परियो का रूप होती है - kya likhoon kee vo pariyo ka roop hotee hai -शैलेश लोढ़ा -shailesh lodha

क्या लिखूँ की वो परियो का रूप होती है
या कड़कती ठण्ड में सुहानी धूप होती है
वो होती है चिड़िया की चहचाहट की तरह
या फिर निच्चल खिलखिलाहट

क्या लिखूँ की वो परियो का रूप होती है
या कड़कती ठण्ड में सुहानी धूप होती है
वो होती है उदासी में हर मर्ज़ की दवा की तरह
या उमस में शीतल हवा की तरह
वो चिड़ियों की चहचाहट है
या फिर निच्चल खिलखिलाहट है

वो आँगन में फैला उजाला है
या मेरे गुस्से पे लगा ताला है
वो पहाड़ की चोटी पर सूरज की किरण है
वो जिंदगी सही जीने का आचरण है
है वो ताकत जो छोटे से घर को महल कर दे
वो काफ़िया जो किसी ग़ज़ल को मुक्कम्मल कर दे
क्या लिखूँ की वो परियो का रूप होती है
या कड़कती ठण्ड में सुहानी धूप होती है
वो होती है चिड़िया की चहचाहट की तरह
या फिर निच्चल खिलखिलाहट

वो अक्क्षर जो न हो तो वर्णमाला अधूरी है
वो जो सबसे जयादा जरूरी है
ये नहीं कहूँगा कि वो हर वक़्त सांस सांस होती है
क्यूकि बेटिया तो सिर्फ अहसास होती है

उसकी आँखें न मुझसे गुड़िया मांगती है ना खिलौना
कब आओगे बस एक छोटा सा सवाल सलोना
जल्दी आऊंगा अपनी मजबूरी को छिपाते हुए मैं देता हूँ जबाब
तारीख बताओ टाइम बताओ ,

वो उंगलियो पर करने लगती है हिसाब
और जब में नहीं दे पता सही सही जबाब,
अपने आंसुओ को छुपाने के लिए वो अपने चहरे पर रख लेती है किताब
वो मुझसे ऑस्ट्रेलिया में छुटिया ,

मर्सर्डीस की ड्राइव ,फाइव स्टार में खाने
नए नए आईपॉड्स नहीं मांगती ,
ना कि वो बहुत सरे पैसे अपने पिग्गी बैग में उड़ेलना चाहती है
वो बस कुछ देर मेरे साथ खेलना चाहती है

वही बेटा काम है बहुत जरूरी काम है में शूटिंग करना जरूरी है
नहीं करूँगा तो कैसे चलेगा ,

जैसे मजबूरी भरे दुनिया दारी के जबाब देने लगता हूँ
वो झूठा ही सही मुझे अहसास कराती है जैसे सब समझ गयी हो
लेकिन आँखें बंद करके रोती है,

सपने में खेलते हुए मेरे साथ सोती है
जिंदगी ना जाने क्यों इतना उलझ जाती है
और हम समझते है कि बेटियां सब समझ जाती है

-शैलेश लोढ़ा -shailesh lodha

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