दीवार-ओ-दर से उतर के परछाइयाँ बोलती हैं - deevaar-o-dar se utar ke parachhaiyaan bolatee hain - - निदा फ़ाज़ली - Nida Fazli
दीवार-ओ-दर से उतर के परछाइयाँ बोलती हैं
कोई नहीं बोलता जब तनहाइयाँ बोलती हैं
परदेस के रास्ते में लुटते कहाँ हैं मुसाफ़िर
हर पेड़ कहता है क़िस्सा पुरवाईयाँ बोलती हैं
मौसम कहाँ मानता है तहज़ीब की बन्दिशों को
जिस्मों से बाहर निकल के अंगड़ाइयाँ बोलती हैं
सुन ने की मोहलत मिले तो आवाज़ है पतझरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं
- निदा फ़ाज़ली - Nida Fazli
ऊपर की दो पंक्तिया निदा फ़ाज़ली की नहीं बल्कि स्वाति शकुंत की है।
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