कई घरों को निगलने के बाद आती है - kaee gharon ko nigalane ke baad aatee hai - -मुनव्वर राना - munavvar raana

कई घरों को निगलने के बाद आती है 
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में 
वही जो दूध उबलने के बाद आती है 

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है 
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

वो नींद जो तेरी पलकों के ख़्वाब बुनती है
यहाँ तो धूप निकलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें[1] हैं 
कलन्दरी[2] यहाँ पलने के बाद आती है 

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है 
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है 

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है 
खिज़ाँ[3] तो फूलने-फलने के बाद आती है

-मुनव्वर राना - munavvar raana

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