प्रिय दोस्तों! हमारा उद्देश्य आपके लिए किसी भी पाठ्य को सरलतम रूप देकर प्रस्तुत करना है, हम इसको बेहतर बनाने पर कार्य कर रहे है, हम आपके धैर्य की प्रशंसा करते है| मुक्त ज्ञानकोष, वेब स्रोतों और उन सभी पाठ्य पुस्तकों का मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ, जहाँ से जानकारी प्राप्त कर इस लेख को लिखने में सहायता हुई है | धन्यवाद!

Tuesday, October 27, 2020

फ़ना नहीं है मुहब्बत के रंगो बू के लिए - fana nahin hai muhabbat ke rango boo ke lie - बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast

October 27, 2020 0 Comments

 फ़ना नहीं है मुहब्बत के रंगो बू के लिए

बहार आलमे फ़ानी रहे रहे न रहे ।


जुनूने हुब्बे वतन का मज़ा शबाब में है

लहू में फिर ये रवानी रहे रहे न रहे ।


रहेगी आबोहवा में ख़याल की बिजली

ये मुश्त ख़ाक है फ़ानी रहे रहे न रहे ।


जो दिल में ज़ख़्म लगे हैं वो ख़ुद पुकारेंगे

ज़बाँ की सैफ़ बयानी रहे रहे न रहे ।


मिटा रहा है ज़माना वतन के मन्दिर को

ये मर मिटों की निशानी रहे रहे न रहे ।


दिलों में आग लगे ये वफ़ा का जौहर है

ये जमाँ ख़र्च ज़बानी रहे रहे न रहे ।


जो माँगना हो अभी माँग लो वतन के लिए

ये आरज़ू की जवानी रहे रहे न रहे ।


बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast


ज़ुबाँ को बन्द करें या मुझे असीर करें - zubaan ko band karen ya mujhe aseer karen - बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast

October 27, 2020 0 Comments

 ज़ुबाँ को बन्द करें या मुझे असीर करें

मेरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते ।


ये कैसी बज़्म है और कैसे इसके साक़ी हैं

शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते ।


ये बेकसी भी अजब बेकसी है दुनिया में

कोई सताए हमें हम सता नहीं सकते ।


कशिश वफ़ा की उन्हें खींच लाई आख़िरकार

ये था रक़ीब को दावा वे आ नहीं सकते ।


जो तू कहे तो शिकायत का ज़िक्र कम कर दें

मगर यक़ीं तेरे वादों पै ला नहीं सकते ।


चिराग़ क़ौम का रोशन है अर्श पर दिल के

इसे हवा के फ़रिश्ते बुझा नहीं सकते ।


बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast


कहते हैं जिसे अब्र वो मैख़ाना है मेरा - kahate hain jise abr vo maikhaana hai mera - बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast

October 27, 2020 0 Comments

 कहते हैं जिसे अब्र वो मैख़ाना है मेरा

जो फूल खिला बाग़ में पैमाना है मेरा ।


क़ैफ़ीयते गुलशन है मेरे नशे का आलम

कोयल की सदा नार-ए-मस्ताना है मेरा ।


पीता हूँ वो मैं नशा उतरता नहीं जिसका

खाली नहीं होता है वो पैमाना है मेरा ।


दरिया मेरा आईना है लहरें मेरे गेसू

और मौज नसीमे सहरी शाना है मेरा ।


मैं दोस्त भी अपना हूँ अदू भी हूँ मैं अपना

अपना है कोई और न बेगाना है मेरा ।


ख़ामोशी में याँ रहता है तफ़सीर का आलम

मेरे लबे ख़ामोश पै अफ़साना है मेरा ।


मिलता नहीं हर एक को वो नूर है मुझमें

जो साहबे बी निश है वो परवाना है मेरा ।


शायर का सख़ुन कम नहीं मज़ज़ूब की बड़ से

हर एक न समझेगा वो अफ़साना है मेरा ।


बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast


कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पै भी - kabhee tha naaz zamaane ko apane hind pai bhee - बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast

October 27, 2020 0 Comments

 कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पै भी

पर अब उरूज वो इल्मो कमालो फ़न में नहीं ।


रगों में ख़ून वही दिल वही जिगर है वही

वही ज़बाँ है मगर वो असर सख़ुन में नहीं ।


वही है बज़्म वही शम्-अ है वही फ़ानूस

फ़िदाय बज़्म वो परवाने अंजुमन में नहीं ।


वही हवा वही कोयल वही पपीहा है

वही चमन है पर वो बाग़बाँ चमन में नहीं ।


ग़ुरूरों जहल ने हिन्दोस्ताँ को लूट लिया

बजुज़ निफ़ाक़ के अब ख़ाक भी वतन में नहीं ।


बृज नारायण चकबस्त - brij naaraayan chakabast


कोकिल अति सुंदर चिड़िया है - kokil ati sundar chidiya hai - महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahavir Prasad Dwivedi

October 27, 2020 0 Comments

 कोकिल अति सुंदर चिड़िया है,

सच कहते हैं, अति बढ़िया है।

जिस रंगत के कुँवर कन्हाई,

उसने भी वह रंगत पाई।

बौरों की सुगंध की भाँती,

कुहू-कुहू यह सब दिन गाती।

मन प्रसन्न होता है सुनकर,

इसके मीठे बोल मनोहर।

मीठी तान कान में ऐसे,

आती है वंशी-धुनि जैसे।

सिर ऊँचा कर मुख खोलै है,

कैसी मृदु बानी बोलै है!

इसमें एक और गुण भाई,

जिससे यह सबके मन भाई।

यह खेतों के कीड़े सारे,

खा जाती है बिना बिचारे।


महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahavir Prasad Dwivedi

जै जै प्यारे देश हमारे, तीन लोक में सबसे न्यारे - jai jai pyaare desh hamaare, teen lok mein sabase nyaare - महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahavir Prasad Dwivedi

October 27, 2020 0 Comments

 जै जै प्यारे देश हमारे, तीन लोक में सबसे न्यारे ।

हिमगिरी-मुकुट मनोहर धारे, जै जै सुभग सुवेश ।। जै जै भारत देश ।।१।।


हम बुलबुल तू गुल है प्यारा, तू सुम्बुल, तू देश हमारा ।

हमने तन-मन तुझ पर वारा, तेजः पुंज-विशेष ।। जै जै भारत देश ।।२।।


तुझ पर हम निसार हो जावें, तेरी रज हम शीश चढ़ावें ।

जगत पिता से यही मनावें, होवे तू देशेश ।। जै जै भारत देश ।।३।।


जै जै हे देशों के स्वामी, नामवरों में भी हे नामी ।

हे प्रणम्य तुझको प्रणमामी, जीते रहो हमेश ।। जै जै भारत देश ।।४।।


आँख अगर कोई दिखलावे, उसका दर्प दलन हो जावे ।

फल अपने कर्मों का पावे, बने नाम निःशेष ।। जै जै भारत देश ।।५।।


बल दो हमें ऐक्य सिखलाओ, सँभलो देश होश में आवो ।

मातृभूमि-सौभाग्य बढ़ाओ, मेटो सकल कलेश ।। जै जै भारत देश ।।६।।


हिन्दू मुसलमान ईसाई, यश गावें सब भाई-भाई ।

सब के सब तेरे शैदाई, फूलो-फलो स्वदेश ।। जै जै भारत देश ।।७।।


इष्टदेव आधार हमारे, तुम्हीं गले के हार हमारे ।

भुक्ति-मुक्ति के द्वार हमारे, जै जै जै जै देश ।। जै जै भारत देश ।।८।।


महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahavir Prasad Dwivedi

जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान - jahaan hue vyaas muni-pradhaan - महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahavir Prasad Dwivedi

October 27, 2020 0 Comments

 1


जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान,

रामादि राजा अति कीर्तिमान।

जो थी जगत्पूजित धन्य-भूमि ,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि ।।


2


जहाँ हुए साधु हा महान्

थे लोग सारे धन-धर्म्मवान्।

जो थी जगत्पूजित धर्म्म-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


3


जहाँ सभी थे निज धर्म्म धारी,

स्वदेश का भी अभिमान भारी ।

जो थी जगत्पूजित पूज्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


4


हुए प्रजापाल नरेश नाना,

प्रजा जिन्होंने सुत-तुल्य जाना ।

जो थी जगत्पूजित सौख्य- भूमि ,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


5


वीरांगना भारत-भामिली थीं,

वीरप्रसू भी कुल- कामिनी थीं ।

जो थी जगत्पूजित वीर- भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


6


स्वदेश-सेवी जन लक्ष लक्ष,

हुए जहाँ हैं निज-कार्य्य दक्ष ।

जो थी जगत्पूजित कार्य्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


7


स्वदेश-कल्याण सुपुण्य जान,

जहाँ हुए यत्न सदा महान।

जो थी जगत्पूजित पुण्य भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


8


न स्वार्थ का लेन जरा कहीं था,

देशार्थ का त्याग कहीं नहीं था।

जो थी जगत्पूजित श्रेष्ठ-भुमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


9


कोई कभी धीर न छोड़ता था,

न मृत्यु से भी मुँह मोड़ता था।

जो थी जगत्पूजित धैर्य्य- भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

10


स्वदेश के शत्रु स्वशत्रु माने,

जहाँ सभी ने शर-चाप ताने ।

जो थी जगत्पूजित शौर्य्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


11


अनेक थे वर्ण तथापि सारे

थे एकताबद्ध जहाँ हमारे

जो थी जगत्पूजित ऐक्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य भूमि ।।


12


थी मातृभूमि-व्रत-भक्ति भारी,

जहाँ हुए शुर यशोधिकारी ।

जो थी जगत्पूजित कीर्ति-भूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।


13


दिव्यास्त्र विद्या बल, दिव्य यान,

छाया जहाँ था अति दिव्य ज्ञान ।

जो थी जगत्पूजित दिव्यभूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।


14


नए नए देश जहाँ अनेक,

जीत गए थे नित एक एक ।

जो थी जगत्पूजित भाग्यभूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।


15


विचार ऐसे जब चित्त आते,

विषाद पैदा करते, सताते ।

न क्या कभी देव दया करेंगे ?

न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे ?


महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahavir Prasad Dwivedi

Monday, October 19, 2020

गत माह, दो बड़े घाव - gat maah, do bade ghaav -फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 19, 2020 0 Comments

 गत माह, दो बड़े घाव

धरती पर हुए, हमने देखा

नक्षत्र खचित आकाश से

दो बड़े नक्षत्र झरे!!

रस के, रंग के-- दो बड़े बूंद

ढुलक-ढुलक गए।

कानन कुंतला पृथ्वी के दो पुष्प

गंधराज सूख गए!!


(हमारे चिर नवीन कवि,

हमारे नवीन विश्वकवि

दोनों एक ही रोग से

एक ही माह में- गए

आश्चर्य?)


तुमने देखा नहीं--सुना नहीं?

(भारत में) कानपुर की माटी-माँ, उस दिन

लोरी गा-गा कर अपने उस नटखट शिशु को

प्यार से सुला रही थी!


(रूस में)पिरिदेलकिना गाँव के

उस गिरजाघर के पास-

एक क्रास... एक मोमबत्ती

एक माँ... एक पुत्र... अपूर्व छवि

माँ-बेटे की! मिलन की!! ... तुमने देखी?


यह जो जीवन-भर उपेक्षित, अवहेलित

दमित द्मित्रि करमाज़व के

(अर्थात बरीस पस्तेरनाक;

अर्थात एक नवीन जयघोष

मानव का!)के अन्दर का कवि

क्रांतदर्शी-जनयिता, रचयिता

(...परिभू: स्वयंभू:...)

ले आया एक संवाद

आदित्य वर्ण अमृत-पुत्र का :

अमृत पर हमारा

है जन्मगत अधिकार!

तुमने सुना नहीं वह आनंद मंत्र?


[आश्चर्य! लाखों टन बर्फ़ के तले भी

धड़कता रहा मानव-शिशु का हृत-पिंड?

निरंध्र आकाश को छू-छू कर

एक गूंगी, गीत की कड़ी- मंडराती रही

और अंत में- समस्त सुर-संसार के साथ

गूँज उठी!

धन्य हम-- मानव!!]


बरीस

तुमने अपने समकालीन- अभागे

मित्रों से पूछा नहीं

कि आत्महत्या करके मरने से

बेहतर यह मृत्यु हुई या नहीं?

[बरीस

तुम्हारे आत्महंता मित्रों को

तुमने कितना प्यार किया है

यह हम जानते हैं!]


कल्पना कर सकता हूँ उन अभागे पाठकों की

जो एकांत में, मन-ही-मन अपने प्रिय कवि

को याद करते हैं- छिप-छिप कर रोते- अआँसू पोंछते हैं;

पुण्य बःऊमि रूस पर उन्हें गर्व है

जहाँ तुम अवतरे-उनके साथ


विश्वास करो, फिर कोई साधक

साइबेरिया में साधना करने का

व्रत ले रहा है। ...मंत्र गूँज रहा है!!

...बाँस के पोर-पोर को छेदकर

फिर कोई चरवाहा बाँसुरी बजा रहा है।

कहीं कोई कुमारी माँ किसी अस्तबल के पास

चक्कर मार रही है-- देवशिशु को

जन्म देने के लिए!


संत परम्परा के कवि पंत

की साठवीं जन्मतिथि के अवसर पर

(कोई पतियावे या मारन धावे

मैंने सुना है, मैंने देखा है)

पस्तेरनाक ने एक पंक्ति लिख भेजी:

"पिंजड़े में बंद असहाय प्राणी मैं

सुन रहा हूँ शिकारियों की पगध्वनि... आवाज़!

किंतु वह दिन अत्यन्त निकट है

जब घृणित-क़दम-अश्लील पशुता पर

मंगल-कामना का जयघोष गूँजेगा

निकट है वह दिन...

हम उस अलौकिक के सामने

श्रद्धा मॆं प्रणत हैं।"


फिर नवीन ने ज्योति विहग से अनुरोध किया

"कवि तुम ऎसी तान सुनाओ!"


सौम्य-शांत-पंत मर्मांत में

स्तब्ध एक आह्वान..??


हमें विश्वास है

गूँजेगा,

गूँजेगा!!


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी - फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 19, 2020 0 Comments

 कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी

इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ

तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से

दरिया औ' दयारों से

सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से

कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से?

कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का?


तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित

सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ

उठाकर चंद ढेले

उठाकर धूल मुट्ठी-भर

कि मिट्टी जी रही है तो!


बला से जलजला आए

बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ

अगर ज़िंदी रही तू

फिर न परवाह है किसी की

नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी'

नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या?

घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो!

सुनाता हूँ नहीं--

गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो!

सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं

सिर्फ़ ज़िंदी रही तू

और हमने सब किया अब तक!


सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही

बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा

कमीनी हरक़तों को रोक लेगा

कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी

(इसी से डर रहा हूँ!)

कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी

शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की

'भगत'


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

साजन! होली आई है - saajan! holee aaee hai | फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 19, 2020 0 Comments

 साजन! होली आई है!

सुख से हँसना

जी भर गाना

मस्ती से मन को बहलाना

पर्व हो गया आज-

साजन! होली आई है!

हँसाने हमको आई है!


साजन! होली आई है!

इसी बहाने

क्षण भर गा लें

दुखमय जीवन को बहला लें

ले मस्ती की आग-

साजन! होली आई है!

जलाने जग को आई है!


साजन! होली आई है!

रंग उड़ाती

मधु बरसाती

कण-कण में यौवन बिखराती,

ऋतु वसंत का राज-

लेकर होली आई है!

जिलाने हमको आई है!


साजन! होली आई है!

खूनी और बर्बर

लड़कर-मरकर-

मधकर नर-शोणित का सागर

पा न सका है आज-

सुधा वह हमने पाई है!

साजन! होली आई है!


साजन! होली आई है!

यौवन की जय!

जीवन की लय!

गूँज रहा है मोहक मधुमय

उड़ते रंग-गुलाल

मस्ती जग में छाई है

साजन! होली आई है!


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

Tuesday, October 13, 2020

दुनिया दूषती है - duniya dooshatee hai - फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 13, 2020 0 Comments

 दुनिया दूषती है

हँसती है

उँगलियाँ उठा कहती है ...

कहकहे कसती है -

राम रे राम!

क्या पहरावा है

क्या चाल-ढाल

सबड़-झबड़

आल-जाल-बाल

हाल में लिया है भेख?

जटा या केश?

जनाना-ना-मर्दाना

या जन .......

अ... खा... हा... हा.. ही.. ही...

मर्द रे मर्द

दूषती है दुनिया

मानो दुनिया मेरी बीवी

हो-पहरावे-ओढ़ावे

चाल-ढाल

उसकी रुचि, पसंद के अनुसार

या रुचि का

सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,

मैं

मेरा पुरुष

बहुरूपिया।


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

कहाँ गायब थे मंगरू?'-किसी ने चुपके से पूछा | kahaan gaayab the mangaroo?-kisee ne chupake se poochha | फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 13, 2020 0 Comments

 कहाँ गायब थे मंगरू? - किसी ने चुपके से पूछा।

वे बोले- यार, गुमनामियाँ जाहिल मिनिस्टर था।

बताया काम अपने महकमे का तानकर सीना-

कि मक्खी हाँकता था सबके छोए के कनस्टर का।


सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी,

कि कब सोया रहूंगा औ' कहाँ जलपान खाऊंगा।

कहाँ 'परमिट' बेचूंगा, कहाँ भाषण हमारा है,

कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊंगा।


'सुना है जाँच होगी मामले की?' -पूछते हैं सब

ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!

मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के,

'अंहिसा लाउंड्री' में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ।


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

Wednesday, October 7, 2020

यह फागुनी हवा - yah phaagunee hava - फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 07, 2020 0 Comments

 यह फागुनी हवा

मेरे दर्द की दवा

ले आई...ई...ई...ई

मेरे दर्द की दवा!


आंगन ऽ बोले कागा

पिछवाड़े कूकती कोयलिया

मुझे दिल से दुआ देती आई

कारी कोयलिया-या

मेरे दर्द की दवा

ले के आई-ई-दर्द की दवा!


वन-वन

गुन-गुन

बोले भौंरा

मेरे अंग-अंग झनन

बोले मृदंग मन--

मीठी मुरलिया!

यह फागुनी हवा

मेरे दर्द की दवा ले के आई

कारी कोयलिया!

अग-जग अंगड़ाई लेकर जागा

भागा भय-भरम का भूत

दूत नूतन युग का आया

गाता गीत नित्य नया

यह फागुनी हवा...!


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

Tuesday, October 6, 2020

मेरे मन के आसमान में पंख पसारे - mere man ke aasamaan mein pankh pasaare -फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 06, 2020 0 Comments

 मेरे मन के आसमान में पंख पसारे

उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!

मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा

थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं

तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा

गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी

यह कौन मीत अगनित अनुनय से

निस दिन किसका नाम उतारे!

हौले, हौले दखिन-पवन-नित

डोले-डोले द्वारे-द्वारे!

बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल

माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई

क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग

सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी

जागो मन के सजग पथिक ओ!

अलस-थकन के हारे-मारे

कब से तुम्हें पुकार रहे हैं

गीत तुम्हारे इतने सारे!


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu


सुंदरियो-यो-यो हो-हो | फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 06, 2020 0 Comments

 सुंदरियो-यो-यो

हो-हो

अपनी-अपनी छातियों पर

दुद्धी फूल के झुके डाल लो !

नाच रोको नहीं।

बाहर से आए हुए

इस परदेशी का जी साफ नहीं।

इसकी आँखों में कोई

आँखें न डालना।

यह ‘पचाई’ नहीं

बोतल का दारू पीता है।

सुंदरियो जी खोलकर

हँसकर मत मोतियों

की वर्षा करना

काम-पीड़ित इस भले आदमी को

विष-भरी हँसी से जलाओ।

यों, आदमी यह अच्छा है

नाच देखना

सीखना चाहता है।



फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

दुनिया दूषती है - फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 06, 2020 0 Comments

 दुनिया दूषती है

हँसती है

उँगलियाँ उठा कहती है ...

कहकहे कसती है -

राम रे राम!

क्या पहरावा है

क्या चाल-ढाल

सबड़-झबड़

आल-जाल-बाल

हाल में लिया है भेख?

जटा या केश?

जनाना-ना-मर्दाना

या जन .......

अ... खा... हा... हा.. ही.. ही...

मर्द रे मर्द

दूषती है दुनिया

मानो दुनिया मेरी बीवी

हो-पहरावे-ओढ़ावे

चाल-ढाल

उसकी रुचि, पसंद के अनुसार

या रुचि का

सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,

मैं

मेरा पुरुष

बहुरूपिया।


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार - फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

October 06, 2020 0 Comments

 इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समने

हर मौसम आकर ठिठक जाता है

सड़क के उस पार

चुपचाप दोनों हाथ

बगल में दबाए

साँस रोके

ख़ामोश

इमली की शाखों पर हवा


'ब्लाक' के अन्दर

एक ही ऋतु


हर 'वार्ड' में बारहों मास

हर रात रोती काली बिल्ली

हर दिन

प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई

रक्तरंजित सुफ़ेद

खरगोश की लाश

'ईथर' की गंध में

ऊंघती ज़िन्दगी


रोज़ का यह सवाल, 'कहिए! अब कैसे हैं?'

रोज़ का यह जवाब-- ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी

थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द!


इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ

हड़हड़-भड़भड़ करती

आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी!


सैलाइन और रक्त की

बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी!


-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में

बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी!


सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम

और तमाम चुपचाप हवाएँ

एक साथ

मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी!


फणीश्वर नाथ रेणु - Phanishwar Nath Renu

Thursday, October 1, 2020

अति अनियारे मानों सान दै सुधारे - ati aniyaare maanon saan dai sudhaare -Rahim- abdul rahim khan-i-khana रहीम- अब्दुल रहिम खान-ए-ख़ाना

October 01, 2020 0 Comments

 अति अनियारे मानों सान दै सुधारे,

महा विष के विषारे ये करत पर-घात हैं।

ऐसे अपराधी देख अगम अगाधी यहै,

साधना जो साधी हरि हयि में अन्‍हात हैं॥

बार बार बोरे याते लाल लाल डोरे भये,

तोहू तो 'रहीम' थोरे बिधि ना सकात हैं।

घाइक घनेरे दुखदाइक हैं मेरे नित,

नैन बान तेरे उर बेधि बेधि जात हैं॥1॥


पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन

चाहत है धन, जेती संपदा सराहिबी।

तेरोई कहाय कै 'रहीम' कहै दीनबंधु

आपनी बिपत्ति जाय काके द्वारे काहिबी॥

पेट भर खायो चाहे, उद्यम बनायो चाहे,

कुटुंब जियायो चाहे का‍ढि गुन लाहिबी।

जीविका हमारी जो पै औरन के कर डारो,

ब्रज के बिहारी तो तिहारी कहाँ साहिबी॥2॥


बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम कहा,

जो पै करतार ही न सुख देनहार है।

सीत-हर सूरज सों नेह कियो याही हेत,

ताऊ पै कमल जारि डारत तुषार है॥

नीरनिधि माँहि धस्‍यो शंकर के सीस बस्‍यो,

तऊ ना कलंक नस्‍यो ससि में सदा रहै।

बड़ो रीझिवार है, चकोर दरबार है,

कलानिधि सो यार तऊ चाखत अंगार है॥3॥


मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं,

भले ही निठुर भये काहे को लजाइये॥

तन मन रावरे सो मतों के मगन हेतु,

उचरि गये ते कहा तुम्‍हें खोरि लाइये॥

चित लाग्‍यो जित जैये तितही 'र‍हीम' नित,

धाधवे के हित इत एक बार आइये॥

जान हुरसी उर बसी है तिहारे उर,

मोसों प्रीति बसी तऊ हँसी न कराइये॥4॥


(सवैया)

जाति हुती सखि गोहन में मन मोहन कों लखिकै ललचानो।

नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नूंदलाल को रीझिबो जानो॥

जाति भई फिरि कै चितई तब भाव 'रहीम' यहै उर आनो।

ज्‍यों कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो॥5॥


जिहि कारन बार न लाये कछू गहि संभु-सरासन दोय किया।

गये गेहहिं त्‍यागि के ताही समै सु निकारि पिता बनवास दिया 1।

कहे बीच 'रहीम' रर्यो न कछू जिन कीनो हुतो बिनुहार हिया।

बिधि यों न सिया रसबार सिया करबार सिया पिय सार सिया॥6॥


दीन चहैं करतार जिन्‍हें सुख सो तो 'रहीम' टरै नहिं टारे।

उद्यम पौरुष कीने बिना धन आवत आपुहिं हाथ पसारे॥

दैव हँसे अपनी अपनी बिधि के परपंच न जात बिचारे।

बेटा भयो वसुदेव के धाम औ दुंदुभि बाजत नंद के द्वारे॥7॥


पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै लगि लागि गयो कहुँ काहु करैटो।

हिरदै दहिबै सहिबै ही को है कहिबै को कहा कछु है गहि फेटो॥

सूधे चितै तन हा हा करें हू 'रहीम' इतो दुख जात क्‍यों मेटो।

ऐसे कठोर सों औ चितचोर सों कौन सी हाय घरी भई भेंटो॥8॥


कौन धौं सीख 'रहीम' इहाँ इन नैन अनोखि यै नेह की नाँधनि।

प्‍यारे सों पुन्‍यन भेंट भई यह लोक की लाज बड़ी अपराधिनि॥

स्‍याम सुधानिधि आनन को मरिये सखि सूँधे चितैवे की साधनि।

ओट किए रहतै न बनै कहतै न बनै बिरहानल बाधनि॥9॥


(दोहा)

धर रहसी रहसी धरम खप जासी खुरसाण।

अमर बिसंभर ऊपरै, राखो नहचौ राण॥10॥


तारायनि ससि रैन प्रति, सूर होंहि ससि गैन।

तदपि अँधेरो है सखी, पीऊ न देखे नैन॥11॥


(पद)

छबि आवन मोहनलाल की।

काछनि काछे कलित मुरलि कर पीत पिछौरी साल की॥

बंक तिलक केसर को कीने दुति मानो बिधु बाल की।

बिसरत नाहिं सखि मो मन ते चितवनि नयन बिसाल की॥

नीकी हँसनि अधर सधरनि की छबि छीनी सुमन गुलाल की।

जल सों डारि दियो पुरइन पर डोलनि मुकता माल की॥

आप मोल बिन मोलनि डोलनि बोलनि मदनगोपाल की।

यह सरूप निरखै सोइ जानै इस 'रहीम' के हाल की॥12॥


कमल-दल नैननि की उनमानि।

बिसरत नाहिं सखी मो मन ते मंद मंद मुसकानि॥

यह दसननि दुति चपला हूते महा चपल चमकानि।

बसुधा की बसकरी मधुरता सुधा-पगी बतरानि॥

चढ़ी रहे चित उर बिसाल को मुकुतमाल थहरानि।

नृत्‍य-समय पीतांबर हू की फहरि फहरि फहरानि।

अनुदिन श्री वृन्‍दाबन ब्रज ते आवन आवन जाति।

अब 'रहीम 'चित ते न टरति है सकल स्‍याम की बानि॥13॥


Rahim- abdul rahim khan-i-khana

रहीम- अब्दुल रहिम खान-ए-ख़ाना

सम्पूर्ण रहीम दोहावली - Rahim- abdul rahim khan-i-khana रहीम- अब्दुल रहिम खान-ए-ख़ाना

October 01, 2020 0 Comments


सम्पूर्ण रहीम दोहावली 


तैं रहीम मन आपुनो, कीन्‍हों चारु चकोर।

निसि बासर लागो रहै, कृष्‍णचंद्र की ओर॥1॥


अच्‍युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल।

हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल॥2॥


अधम वचन काको फल्‍यो, बैठि ताड़ की छाँह।

रहिमन काम न आय है, ये नीरस जग माँह॥3॥


अन्‍तर दाव लगी रहै, धुआँ न प्रगटै सोइ।

कै जिय आपन जानहीं, कै जिहि बीती होइ॥4॥


अनकीन्‍हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय।

ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय॥5॥


अनुचित उचित रहीम लघु, क‍रहिं बड़ेन के जोर।

ज्‍यों ससि के संजोग तें, पचवत आगि चकोर॥6॥


अनुचित वचन न मानिए जदपि गुराइसु गाढ़ि।

है र‍हीम रघुनाथ तें, सुजस भरत को बाढ़ि॥7॥


अब रहीम चुप करि रहउ, समुझि दिनन कर फेर।

जब दिन नीके आइ हैं बनत न लगि है देर॥8॥


अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।

साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥9॥


अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।

रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि॥10॥


अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस की गाँस।

जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस॥11॥


अरज गरज मानैं नहीं, रहिमन ए जन चारि।

रिनिया, राजा, माँगता, काम आतुरी नारि॥12॥


असमय परे रहीम कहि, माँगि जात तजि लाज।

ज्‍यों लछमन माँगन गये, पारासर के नाज॥13॥


आदर घटे नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।

जो रहीम कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं॥14॥


आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।

औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल॥15॥


आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।

जीरन होत न पेड़ ज्‍यौं, थामे बरै बरेह॥16॥


उरग, तुरंग, नारी, नृपति, नीच जाति, हथियार।

रहिमन इन्‍हें सँभारिए, पलटत लगै न बार॥17॥


ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही कॉंति।

त्‍यौं रहीम सुख दुख सवै, बढ़त एक ही भाँति॥18॥


एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।

कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड॥19॥


एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।

रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥20॥


ए रहीम दर दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं।

यारो यारी छो‍ड़िये वे रहीम अब नाहिं॥21॥


ओछो काम बड़े करैं तौ न बड़ाई होय।

ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय॥22॥


अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय।

जिन आँखिन सों हरि लख्‍यो, रहिमन बलि बलि जाय॥23॥


अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक्‍कन पान।

हस्‍ती-ढक्‍का, कुल्‍हड़िन, सहैं ते तरुवर आन॥24॥


कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।

जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥25॥


कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।

पुरुष पुरातन की बधू, क्‍यों न चंचला होय॥26॥


कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय।

प्रभु की सो अपनी कहै, क्‍यों न फजीहत होय॥27॥


करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर।

मानहु टेरत बिटप चढ़ि मोहि समान को कूर॥28॥


करम हीन रहिमन लखो, धँसो बड़े घर चोर।

चिंतत ही बड़ लाभ के, जागत ह्वै गौ भोर॥29॥


कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।

तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय॥30॥


कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।

घटै बढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जे खात॥31॥


कहि रहीम य जगत तैं, प्रीति गई दै टेर।

रहि रहीम नर नीच में, स्‍वारथ स्‍वारथ हेर॥32॥


कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत॥33॥


कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय।

माया ममता मोह परि, अंत चले पछिताय॥34॥


कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।

वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥35॥


कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्वै जाय।

मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय॥36॥


कागद को सो पूतरा, सहजहि मैं घुलि जाय।

रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय॥37॥


काज परै कछु और है, काज सरै कछु और।

रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर॥38॥


काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई।

बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई॥39॥


कहा करौं बै‍कुंठ लै, कल्‍प बृच्‍छ की छाँह।

रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह॥40॥


काह कामरी पामरी, जाड़ गए से काज।

रहिमन भूख बुताइए, कैस्‍यो मिलै अनाज॥41॥


कुटिलन संग रहीम क‍हि, साधू बचते नाहिं।

ज्‍यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहिं॥42॥


कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर।

रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगर सों वैर॥43॥


कोउ रहीम जनि काहु के, द्वार गये पछिताय।

संपति के सब जात हैं, विपति सबै लै जाय॥44॥


कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।

केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गये रहीम॥45॥


खरच बढ्यो, उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।

कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥46॥


खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय।

रहिमन करुए मुखन को, चहिअत इहै सजाय॥47॥


खैंचि चढ़नि, ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति।

आज काल मोहन गही, बंस दिया की रीति॥48॥


खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।

रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान॥49॥


गरज आपनी आपसों, रहिमन कही न जाय।

जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जाय लजाय॥50॥


गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।

रहिमन जगत उधार कर, और न कछू उपाव॥51॥


गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते का‍ढ़ि।

कूपहु ते कहुँ होत है, मन काहू को बा‍ढ़ि॥52॥


गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि।

उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतोरी आहि॥53॥


चरन छुए मस्‍तक छुए, तेहु नहिं छाँड़ति पानि।

हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि॥54॥


चारा प्‍यारा जगत में, छाला हित कर लेय।

ज्‍यों रहीम आटा लगे, त्‍यों मृदंग स्‍वर देय॥55॥


चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह॥56॥


चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।

जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥57॥


चिंता बुद्धि परेखिए, टोटे परख त्रियाहि।

उसे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनी किआहि॥58॥


छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात।

का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥59॥


छोटेन सो सोहैं बड़े, कहि रहीम यह रेख।

सहसन को हय बाँधियत, लै दमरी की मेख॥60॥



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जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट।

रहिमन फूटे गोट ज्‍यों, परत दुहुँन सिर चोट॥61॥


जब लगि बित्‍त न आपुने, तब लगि मित्र न कोय।

रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय॥62॥


ज्‍यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात।

अपने हाथ रहीम ज्‍यों, नहीं आपुने हाथ॥63॥


जलहिं मिलाय रहीम ज्‍यों, कियो आपु सम छीर।

अँगवहि आपुहि आप त्‍यों, सकल आँच की भीर॥64॥


जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।

मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥65॥


जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोइ।

ताहि सिखाइ जगाइबो, रहिमन उचित न होइ॥66॥


जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।

रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह॥67॥


जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।

कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्‍ण मिताई जोग॥68॥


जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूषन का‍ढ़ि।

चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बा‍ढि॥69॥


जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।

रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥70॥


जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्‍यो सो ताही गात।

रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात॥71॥


जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन।

तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन॥72॥


जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।

ताकों बुरा न मानिए, लेन कहाँ सो जाय॥73॥


जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।

धरती पर ही परत है, शीत घाम औ मेह॥74॥


जैसी तुम हमसों करी, करी करो जो तीर।

बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर॥75॥


जो अनुचितकारी तिन्‍हैं, लगै अंक परिनाम।

लखे उरज उर बेधियत, क्‍यों न होय मुख स्‍याम॥76॥


जो घर ही में घुस रहे, कदली सुपत सुडील।

तो रहीम तिनतें भले, पथ के अपत करील॥77॥


जो पुरुषारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम।

पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम॥78॥


जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि।

गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥79॥


जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराय।

जो जल उमगै पारतें, सो रहीम बहि जाय॥80॥


जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।

चंदन विष व्‍यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥81॥


जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।

प्‍यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय॥82॥


जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल।

तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल॥83॥


जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।

बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥84॥


जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय।

बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥84॥


जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट।

भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट॥ 86॥


जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट।

समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥87॥


जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस।

निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस॥88॥


जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं।

जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं॥89॥


जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ।

राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ॥90॥


जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ।

तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ॥91॥


जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय।

ज्‍यों नर डारत वमन कर, स्‍वान स्‍वाद सों खाय॥92॥


टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।

रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार॥93॥


तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।

जल में उलटी नाव ज्‍यों, खैंचत गुन के जोर॥94॥


तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम।

जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥95॥


तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान।

कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥96॥


तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।

रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥97॥


तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ।

उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ॥98॥


तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय।

खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय॥99॥


थोथे बादर क्वाँर के, ज्‍यों रहीम घहरात।

धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात॥100॥


थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय।

ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय॥101॥


दादुर, मोर, किसान मन, लग्‍यो रहै घन माँहि।

रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं॥102॥


दिव्‍य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु।

भली बिचारी दीनता, दीनबन्‍धु से बन्‍धु॥103॥


दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय॥104॥


दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।

ज्‍यों रहीम नट कुण्‍डली, सिमिटि कूदि च‍ढ़ि जाहिं॥105॥


दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर।

कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥106॥


दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि।

ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि॥107॥


दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि।

सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि॥108॥


देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।

लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन॥109॥


दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं।

जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं॥110॥


धन थोरो इज्‍जत बड़ी, कह रहीम का बात।

जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥111॥


धन दारा अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्‍त।

नहिं रहीम कोउ लख्‍यो, गाढ़े दिन को मित्‍त॥112॥


धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।

उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥114॥


धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।

जैसी परे सो सहि रहै, त्‍यों रहीम यह देह॥115॥


धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज।

जेहि रज मुनिपत्‍नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज॥116॥


नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग।

देसी स्‍वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥117॥


नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जानि।

निकट निरादर होत है, ज्‍यों गड़ही को पानि॥118॥


नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।

ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥119॥


निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ।

पाँसे अपने हाथ में, दॉंव न अपने हाथ॥120॥


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नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।

मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लौन॥121॥


पन्‍नग बेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान।

हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान॥122॥


परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेस।

बामन है बलि को छल्‍यो, भलो दियो उपदेस॥123॥


पसरि पत्र झँपहि पितहिं, सकुचि देत ससि सीत।

कहु र‍हीम कुल कमल के, को बैरी को मीत॥124॥


पात पात को सींचिबो, बरी बरी को लौन।

रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बरैगो कौन॥125॥


पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।

अब दादुर बक्‍ता भए, हमको पूछत कौन॥126॥


पिय बियोग तें दुसह दुख, सूने दुख ते अंत।

होत अंत ते फिर मिलन, तोरि सिधाए कंत॥127॥


पुरुष पूजें देवरा, तिय पूजें रघुनाथ।

कहँ रहीम दोउन बनै, पॅंड़ो बैल को साथ॥128॥


प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छवि कहाँ समाय।

भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय॥129॥


प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं।

रहिमन मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पाठक माहिं॥130॥


फरजी सह न ह्य सकै, गति टेढ़ी तासीर।

रहिमन सीधे चालसों, प्‍यादो होत वजीर॥131॥


बड़ माया को दोष यह, जो कबहूँ घटि जाय।

तो रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जिय बलाय॥132॥


बड़े दीन को दुख सुनो, लेत दया उर आनि।

हरि हाथी सो कब हुतो, कहु र‍हीम पहिचानि॥133॥


बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बा‍ढ़ि।

यातें हाथी हहरि कै, दयो दाँत द्वै का‍ढ़ि॥134॥


बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ।

राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ॥135॥


बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल।

रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल॥1361।


बढ़त रहीम धनाढ्य धन, धनौ धनी को जाइ।

घटै बढ़ै बाको कहा, भीख माँगि जो खाइ॥137॥


बसि कुसंग चाहत कुसल, यह र‍हीम जिय सोस।

महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्‍यो परोस॥138॥


बाँकी चितवन चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम।

गाँसी ते बढ़ि होत दुख, का‍ढ़ि न कढ़त रहीम॥139॥


बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।

रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥140॥


बिपति भए धन ना रहे, रहे जो लाख करोर।

नभ तारे छिपि जात हैं, ज्‍यों रहीम भए भोर॥141॥


भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन।

भजन तजन ते बिलग हैं, तेहि रहीम तू जान॥142॥


भलो भयो घर ते छुट्यो, हँस्‍यो सीस परिखेत।

काके काके नवत हम, अपन पेट के हेत॥143॥


भार झोंकि के भार में, रहिमन उतरे पार।

पै बूड़े मझधार में, जिनके सिर पर भार॥144॥


भावी काहू ना दही, भावी दह भगवान।

भावी ऐसी प्रबल है, कहि रहीम यह जान॥145॥


भावी या उनमान को, पांडव बनहि रहीम।

जदपि गौरि सुनि बाँझ है, बरु है संभु अजीम॥146॥


भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम।

अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम॥147॥


भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप।

रहिमन गिर तें भूमि लौं, लखों तो एकै रूप॥148॥


मथत मथत माखन रहै, दही मही बिलगाय।

रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥149॥


मनिसिज माली की उपज, कहि रहीम नहिं जाय।

फल श्‍यामा के उर लगे, फूल श्‍याम उर आय॥150॥


मन से कहाँ रहिम प्रभु, दृग सो कहाँ दिवान।

देखि दृगन जो आदरै, मन तेहि हाथ बिकान॥151॥


मंदन के मरिहू गये, औगुन गुन न सिराहिं।

ज्‍यों रहीम बाँधहु बँधे, मराह ह्वै अधिकाहिं॥1521।


मनि मनिक महँगे किये, ससतो तृन जल नाज।

याही ते हम जानियत, राम गरीब निवाज॥153॥


महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष।

सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष॥154॥


माँगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बढ़ि काम।

तीन पैग बसुधा करो, तऊ बावनै नाम॥155॥


माँगे मुकरि न को गयो, केहि न त्‍यागियो साथ।

माँगत आगे सुख लह्यो, ते रहीम रघुनाथ॥156॥


मान सरोवर ही मिले, हंसनि मुक्‍ता भोग।

सफरिन भरे रहीम सर, बक-बालकनहिं जोग॥157॥


मान सहित विष खाय के, संभु भये जगदीस।

बिना मान अमृत पिये, राहु कटायो सीस॥158॥


माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और।

त्‍यों रहीम जग जानिये, छुटे आपुने ठौर॥159॥


मीन कटि जल धोइये, खाये अधिक पियास।

रहिमन प्रीति सराहिये, मुयेउ मीन कै आस॥160॥


मुकता कर करपूर कर, चातक जीवन जोय।

एतो बड़ो रहीम जल, ब्‍याल बदन विष होय॥161॥


मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग।

तीनों तारे राम जू, तीनों मेरे अंग॥162॥


मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं बिसेषि।

स्‍याम कचन में सेत ज्‍यों, दूरि कीजिअत देखि॥163॥


यह न रहीम सराहिये, देन लेन की प्रीति।

प्रानन बाजी राखिये, हारि होय कै जीति॥165॥


यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय।

बैर, प्रीति, अभ्‍यास, जस, होत होत ही होय॥166॥


यह रहीम मानै नहीं, दिल से नवा जो होय।

चीता, चोर, कमान के, नये ते अवगुन होय॥167॥


याते जान्‍यो मन भयो, जरि बरि भस्‍म बनाय।

रहिमन जाहि लगाइये, सो रूखो ह्वै जाय॥168॥


ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु।

ज्‍यों तिय कुच आपुन गहे, आप बड़ाई आपु॥169॥


ये रहीम दर-दर फिरै, माँगि मधुकरी खाहिं।

यारो यारी छाँडि देउ, वे रहीम अब नाहिं॥170॥


यों रहीम गति बड़ेन की, ज्‍यों तुरंग व्‍यवहार।

दाग दिवावत आपु तन, सही होत असवार॥171॥


यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय।

ज्‍यों जल में छाया परे, काया भीतर नॉंय॥172॥


यों रहीम सुख दुख सहत, बड़े लोग सह साँति।

उवत चंद जेहि भाँति सो, अथवत ताही भाँति॥173॥


रन, बन, ब्‍याधि, विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय।

जो रच्‍छक जननी जठर, सो हरि गये कि सोय॥174॥


रहिमन अती न कीजिये, गहि रहिये निज कानि।

सैजन अति फूले तऊ डार पात की हानि॥175॥


रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उत्‍साह।

मृ्ग उछरत आकाश को, भूमी खनत बराह॥176॥


रहिमन अपने पेट सौ, बहुत कह्यो समुझाय।

जो तू अन खाये रहे, तासों को अनखाय॥177॥


रहिमन अब वे बिरछ कहँ, जिनकी छॉह गंभीर।

बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड़, कुंज, करीर॥178॥


रहिमन असमय के परे, हित अनहित ह्वै जाय।

बधिक बधै मृग बानसों, रुधिरे देत बताय॥179॥


रहिमन अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ।

जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देइ॥180॥


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रहिमन आँटा के लगे, बाजत है दिन राति।

घिउ शक्‍कर जे खात हैं, तिनकी कहा बिसाति॥181॥


रहिमन उजली प्रकृत को, नहीं नीच को संग।

करिया बासन कर गहे, कालिख लागत अंग॥182॥


रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार।

वायु जो ऐसी बह गई, वीचन परे पहार॥183॥


रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति।

काटे चाटै स्‍वान के, दोऊ भाँति विपरीति॥184॥


रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत।

चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत॥185॥


रहिमन कबहुँ बड़ेन के, नाहिं गर्व को लेस।

भार धरैं संसार को, तऊ कहावत सेस॥186॥


रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की धाक।

दाँत दिखावत दीन ह्वै, चलत घिसावत नाक॥187॥


रहिमन कहत सुपेट सों, क्‍यों न भयो तू पीठ।

रहते अनरीते करै, भरे बिगारत दीठ॥188॥


रहिमन कुटिल कुठार ज्‍यों, करत डारत द्वै टूक।

चतुरन के कसकत रहे, समय चूक की हूक॥189॥


रहिमन को कोउ का करै, ज्‍वारी, चोर, लबार।

जो पति-राखनहार हैं, माखन-चाखनहार॥190॥


रहिमन खोजे ऊख में, जहाँ रसन की खानि।

जहाँ गॉंठ तहँ रस नहीं, यही प्रीति में हानि॥191॥


रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय।

जैसे दीपक तम भखै, कज्‍जल वमन कराय॥192॥


रहिमन गली है साँकरी, दूजो ना ठहराहिं।

आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं॥192॥


रहिमन घरिया रहँट की, त्‍यों ओछे की डीठ।

रीतिहि सनमुख होत है, भरी दिखावै पीठ॥194॥


रहिमन चाक कुम्‍हार को, माँगे दिया न देइ।

छेद में डंडा डारि कै, चहै नॉंद लै लेइ॥195॥


रहिमन छोटे नरन सो, होत बड़ो नहीं काम।

मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम॥196॥


रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि।

प्रीति करै मुख चाटई, बैर करे तन हानि॥197॥


रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन।

जाय दशानन अछत ही, कपि लागे गथ लेन॥198॥


रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय।

ताकी गैल आकाश लौं, क्‍यो न कालिमा होय॥199॥


रहिमन जा डर निसि परै, ता दिन डर सिय कोय।

पल पल करके लागते, देखु कहाँ धौं होय॥200॥


रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल।

आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥201॥


रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।

बीच उखारी रमसरा, रस काहे ना होय॥202॥


रहिमन जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाँव।

जो बासर को निस कहै, तौ कचपची दिखाव॥203॥


रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।

गाँठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि॥204॥


रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान सनमान।

घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान॥205॥


रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि।

पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि॥ 206॥


रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय।

नैन बान की चोट ते, चोट परे मरि जाय॥207॥


रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुँह स्‍याह।

नहीं छलन को परतिया, नहीं करन को ब्‍याह॥208॥


रहिमन दानि दरिद्र तर, तऊ जाँचबे योग।

ज्‍यों सरितन सूखा परे, कुआँ खनावत लोग॥209॥


रहिमन दुरदिन के परे, बड़ेन किए घटि काज।

पाँच रूप पांडव भए, रथवाहक नल राज॥210॥


रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।

जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥211॥


रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।

टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥212॥


रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम।

पावत पूरन परम गति, कामादिक को धाम॥213॥


रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।

सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥214॥


रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।

बिनु पानी ज्‍यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।1215॥


रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।

दूध कलारी कर गहे, मद समुझै सब ताहि॥216॥


रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार।

नीर चोरावै संपुटी, मारु सहै घरिआर॥217॥


रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच।

मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्‍हों हाड़ दधीच॥218॥


रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥219॥


रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फाँकें तीन॥220॥


रहिमन पेटे सों कहत, क्‍यों न भये तुम पीठि।

भूखे मान बिगारहु, भरे बिगारहु दीठि॥221॥


रहिमन पैंड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।

बिछलत पाँव पिपीलिका, लोग लदावत बैल॥222॥


रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रँग दून।

ज्‍यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून॥223॥


रहिमन ब्‍याह बिआधि है, सकहु तो जाहु बचाय।

पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय॥224॥


रहिमन बहु भेषज करत, ब्‍याधि न छाँड़त साथ।

खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ॥225॥


रहिमन बात अगम्‍य की, कहन सुनन को नाहिं।

जे जानत ते कहत नाहिं, कहत ते जानत नाहिं॥226॥


रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम।

हरि बाढ़े आकाश लौं, तऊ बावनै नाम॥227॥


रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात।

बड़े बड़े समरथ भए, तौ न कोउ मरि जात॥228॥


रहिमन मनहिं लगाइ के, देखि लेहु किन कोय।

नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय॥229॥


रहिमन मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव।

जो डिगिहै तो फिर कहूँ, नहिं धरने को पाँव॥230॥


रहिमन माँगत बड़ेन की, लघुता होत अनूप।

बलि मख माँगत को गए, धरि बावन को रूप॥231॥


रहिमन यहि न सराहिये, लैन दैन कै प्रीति।

प्रानहिं बाजी राखिये, हारि होय कै जीति॥232॥


रहिमन यहि संसार में, सब सौं मिलिये धाइ।

ना जानैं केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ॥233॥


रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट ह्वै जात।

नारायन हू को भयो, बावन आँगुर गात॥234॥


रहिमन या तन सूप है, लीजै जगत पछोर।

हलुकन को उड़ि जान दै, गरुए राखि बटोर॥235॥


रहिमन यों सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत।

ज्‍यों बड़री अँखियाँ निरखि, आँखिन को सुख होत॥236॥


रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप।

खरो दिवस किहि काम को रहिबो आपुहि आप॥237॥


रहिमन रहिबो वा भलो, जो लौं सील समूच।

सील ढील जब देखिए, तुरत कीजिए कूच॥238॥


रहिमन रहिला की भली, जो परसै चित लाय।

परसत मन मैलो करे, सो मैदा जरि जाय॥239॥


रहिमन राज सराहिए, ससिसम सूखद जो होय।

कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय॥240॥


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रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय।

पसु खर खात सवादसों, गुर गुलियाए खाय॥241॥


रहिमन रिस को छाँड़ि कै, करौ गरीबी भेस।

मीठो बोलो नै चलो, सबै तुम्‍हारो देस।1242॥


रहिमन रिस सहि तजत नहीं, बड़े प्रीति की पौरि।

मूकन मारत आवई, नींद बिचारी दौरी॥243॥


रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।

भीति आप पै डारि कै, सबै पियावै तोय॥244॥


रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय।

राग सुनत पय पिअत हू, साँप सहज धरि खाय॥245॥


रहिमन वहाँ न जाइये, जहाँ कपट को हेत।

हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥2461।


रहिमन वित्‍त अधर्म को, जरत न लागै बार।

चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार॥247॥


रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान।

भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥248॥


रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय।

हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥249॥


रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।

उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥250॥


रहिमन सीधी चाल सों, प्‍यादा होत वजीर।

फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर॥251॥


रहिमन सुधि सबतें भली, लगै जो बारंबार।

बिछुरे मानुष फिरि मिलें, यहै जान अवतार॥252॥


रहिमन सो न कछू गनै, जासों, लागे नैन।

सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन॥253॥


राम नाम जान्‍यो नहीं, भइ पूजा में हानि।

कहि रहीम क्‍यों मानिहैं, जम के किंकर कानि॥254॥


राम नाम जान्‍यो नहीं, जान्‍यो सदा उपाधि।

कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गँवायो बादि॥255॥


रीति प्रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत।

रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत॥256॥


रूप, कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल।

ज्‍यों ज्‍यों निरखत सूक्ष्‍मगति, मोल रहीम बिसाल॥257॥


रूप बिलोकि रहीम तहँ, जहँ जहँ मन लगि जाय।

थाके ताकहिं आप बहु, लेत छौड़ाय छोड़ाय॥258॥


रोल बिगाड़े राज नै, मोल बिगाड़े माल।

सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल॥259॥


लालन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माँहिं।

प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥260॥


लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन।

पद कर काटि बनारसी, पहुँचे मगरु स्‍थान॥261॥


लोहे की न लोहार का, रहिमन कही विचार।

जो हनि मारे सीस में, ताही की तलवार॥262॥


बरु रहीम कानन भलो, बास करिय फल भोग।

बंधु मध्‍य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग॥263॥


बहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।

घटत घटत रहिमन घटै, ज्‍यों कर लीन्‍हें रेत॥264॥


बिधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिये न कान।

धरा मेरु सब डोलि हैं, तानसेन के तान॥265॥


बिरह रूप धन तम भयो, अवधि आस उद्योत।

ज्‍यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्योत॥266॥


वे रहीम नर धन्‍य हैं, पर उपकारी अंग।

बाँटनेवारे को लगे, ज्‍यों मेंहदी को रंग॥267॥


सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम।

रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम॥268॥


सब को सब कोऊ करै, कै सलाम कै राम।

हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम॥269॥


सबै कहावै लसकरी, सब लसकर कहँ जाय।

रहिमन सेल्‍ह जोई सहै, सो जागीरैं खाय॥270॥


समय दसा कुल देखि कै, सबै करत सनमान।

रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥271॥


समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम।

सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम॥272॥


समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।

सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताय॥273॥


समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।

चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक॥274॥


सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम।

पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम॥275॥


सर सूखे पच्‍छी उड़ै, औरे सरन समाहिं।

दीन मीन बिन पच्‍छ के, कहु र‍हीम कहँ जाहिं॥276॥


स्‍वारथ रचन रहीम सब, औगुनहू जग माँहि।

बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छाँहि॥277॥


स्‍वासह तुरिय उच्‍चरै, तिय है निहचल चित्‍त।

पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्‍त॥278॥


साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान।

रहिमन साँचै सूर को, बैरी करै बखान॥279॥


सौदा करो सो करि चलौ, रहिमन याही बाट।

फिर सौदा पैहो नहीं, दूरी जान है बाट॥280॥


संतत संपति जानि कै, सब को सब कुछ देत।

दीनबंधु बिनु दीन की, को रहीम सुधि लेत॥281॥


संपति भरम गँवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं।

ज्‍यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं॥282॥


ससि की सीतल चाँदनी, सुंदर, सबहिं सुहाय।

लगे चोर चित में लटी, घटी रहीम मन आय॥283॥


ससि, सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम।

बढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, घटत घटत घटि सीम॥284॥


सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।

रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥285॥


हरि रहीम ऐसी करी, ज्‍यों कमान सर पूर।

खैंचि अपनी ओर को, डारि दियो पुनि दूर॥286॥


हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर।

जब डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर॥287॥


हित रहीम इतऊ करै, जाकी जिती बिसात।

नहिं यह रहै न वह रहै, रहै कहन को बात॥288॥


होत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय।

तौ रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय॥289॥


होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम अति दूर।

बढ़िहू सो बिनु काज ही, जैसे तार खजूर॥290॥


सोरठा


ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्‍यों।

तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥291॥


रहिमन कीन्‍हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं।

जिनके अगनित मीत, हमैं गीरबन को गनै॥292॥


रहिमन जग की रीति, मैं देख्‍यो रस ऊख में।

ताहू में परतीति, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं॥293॥


जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस।

रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥294॥


रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं।

तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥295॥


रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्‍यों तिरै।

पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥296॥


रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।

बरु विष देय, बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥297॥


बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।

हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥298॥


चूल्‍हा दीन्‍हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो।

रहिमन उतरे पार, भर झोंकि सब भार में॥299॥


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सम्पूर्ण रहीम दोहावली 

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Rahim- abdul rahim khan-i-khana

रहीम- अब्दुल रहिम खान-ए-ख़ाना

लिनक्स OS क्या है ? लिनेक्स कई विशेषता और उसके प्रकारों के बारे में विस्तार समझाइए ?

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