प्रिय दोस्तों! हमारा उद्देश्य आपके लिए किसी भी पाठ्य को सरलतम रूप देकर प्रस्तुत करना है, हम इसको बेहतर बनाने पर कार्य कर रहे है, हम आपके धैर्य की प्रशंसा करते है| मुक्त ज्ञानकोष, वेब स्रोतों और उन सभी पाठ्य पुस्तकों का मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ, जहाँ से जानकारी प्राप्त कर इस लेख को लिखने में सहायता हुई है | धन्यवाद!

Saturday, May 30, 2020

दुर्दिनों में जब रूठ जाएँगी प्रेमिकाएँ - durdinon mein jab rooth jaengee premikaen -- उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
दुर्दिनों में जब
रूठ जाएँगी प्रेमिकाएँ
शुभचिन्तक तलाश लेंगे
न मिल पाने के अचूक बहाने
हम तब भी नहीं आएँगे कहने कि
आजकल हम अकेले हैं
असंख्य नक्षत्रों के बीच
चाँद की तरह... बिलकुल अकेले!

हमें कहीं भीतर तक
पोर-पोर खण्डहर होते देख
अपनी-अपनी विवशताओं में बँधे
दिवंगत माता-पिता
अनन्त की किसी खिड़की से
बस हाथ हिलाकर सान्त्वना-भर दे सकेंगे
हम तब भी नहीं आएँगे कहने कि
अब हम
सहेजे नहीं जाते कहीं भी!

हमारे दुखों को
और घना कर जाएँगे देवता
मुरझा जाएँगे हमारे नन्हें पौधों के
फूल-से सपने
हम तब भी नहीं आएँगे कहने कि
हमारे बच्चों के आँसुओं में
कोई खिलौना टूटा है!

हम कभी नहीं आएँगे कहने कि
इन दिनों
अन्धेरा हमारे घर के भीतर तक घुस आया है !

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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अपना मकान बेचकर आए पिता - apana makaan bechakar aae pita - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
अपना मकान बेचकर आए पिता
बहुत दिनों तक उदास रहे
बहुत उदास ...

माँ के गुज़रने पर
वह घर फिर ‘घर’ नहीं रहा
महज़ एक ताले में क़ैद होकर रह गया था
उसका सारा उल्लास
दीवारों पर उदासी की काई जम चुकी थी
उनके काले धब्बे पुराने ज़ख़्मों की तरह लगते थे
जिन्हें साफ़ करने की कोशिश करते
तो कच्चे घावों की तरह पलस्तर उखड़ जाता
घने अवसाद की धुन्ध थी
जिसमें झींगुरों का गीत विलाप की तरह लगता
ऐसे घर को बेचकर आए पिता
बहुत दिनों तक घर की ही तरह गुमसुम रहे।

यहाँ अजाने शहर में
कभी-कभार जब कोई उनसे हालचाल पूछता
तो चौंककर कहते -- क्या करें बड़ी मजबूरी थी
इसलिए बेचना पड़ा!!
मुसीबतों में उसी घर ने पनाह दी थी,
अकसर आह भरकर कहते --
यहाँ सबकुछ है -- बेटा बहू पोती प्यारी-सी ...
मगर क्या करें घर की बहुत याद आती है
लगता है नींव में हम ही गड़े हैं
छतें हमारे ही कन्धों पर टिकी हुईं
ध्यान से देखो तो आज भी
सीढ़ियों पर बैठी पत्नी का गुमसुम चेहरा दिखाई देता है
बरसों पहले संगीत सीखते बच्चों की
मद्धिम किलकारियाँ सुनाई देती हैं
और बुधवारिया हाट के पैट्रोमैक्स का उजाला
मन के अन्धेरे में झिलमिला उठता है
लोग आज भी पहचान लेते हैं भीड़ में!

अपनी बेचैनी दूर करने के लिए पिता
टी०वी० चला लेते
उनका टी०वी० देखना एक रस्म की तरह होता
पूछने पर अकसर नहीं बता पाते
कार्यक्रमों के नाम, उनकी विषयवस्तु
और प्रायः टी०वी० बन्द करना भूल कर
कोई किताब पढ़ने लगते,
यह एक भुलावा था ... छल था अपने ही खि़लाफ़,
निर्जन दुपहरी में वे गाते कोई राग
उसकी मिठास में बहुत बारीक़ रुलाई घुली रहती
थकी आँखों में वियोग का झीना प्रतिबिम्ब उभर आता
और पुराने दिनों की स्मृतियाँ आवाज़ काँपतीं।

वे अकसर रात को
अपनी पोती को कहानी सुनाते
और उसके सो जाने के बाद भी
जाने किन स्मृतियों में खोए
आँखें बंद कर देर तक कहानी सुनाते रहते .....!!

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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जनता के लिए धीरे-धीरे एक दिन ख़त्म हो जाएँगे सारे विकल्प - janata ke lie dheere-dheere ek din khatm ho jaenge saare vikalp - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
जनता के लिए
धीरे-धीरे एक दिन ख़त्म हो जाएँगे सारे विकल्प
सिर्फ़ पूँजी तय करेगी विकल्पों का रोज़गार
अच्छे इलाज के विकल्प नहीं रहेंगे
सरकारी अस्पताल,
न ही सरकारी बसें -- सुगम यात्राओं के
सबसे ज़्यादा हिकारत की नज़रों से देखी जाएगी
शिक्षा-व्यवस्था
विश्व बैंक की निर्ममता
नहीं बचने देगी बिजली और पानी के विकल्प
विकल्पहीनता के सतत् अवसाद में डूबे रहते
एक दिन हम इसे ही कहने लगेंगे जीवन
और फिर जब खदेड़ दिए जाएँगे
अपनी ही ज़मीन गाँव और जंगलों से
तो फिर शहरों में आने
और दर-दर की ठोकरें खाकर मर जाने के अलावा
कौन-सा विकल्प बचेगा!!
हर ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेंगी सरकारें
वह कभी नहीं दे पाएगी
सोनागाछियों को जीने का कोई सही विकल्प!

अभिनेत्रियाँ कहने लगी हैं --
पर्दे और उसके पीछे बेआबरू होने के अलावा
अब कोई विकल्प नहीं बचा,
गाँव में घुसपैठ करते कोला-बर्गर का
हम कौन-सा कारगर विकल्प ला पाए हैं!
उजड़ गई हैं हमारी लोक-कलाएँ
हाट, मेले, तीज, त्योहार
राग, रंग, नेह, व्यवहार सब
बिला गए हैं इस ग्लोबल-अन्धड़ में,
हर शहर बनना चाहता है न्यूयॉर्क
अर्थ के इस भयावह तन्त्र में
महँगी दवाइयों और सस्ती शराब का कोई विकल्प
हमारे पास मौजूद नहीं है।

पैरों तले संसद को कुचलते
ग़ुण्डे और अपराधी सरमायेदारों का
कौन-सा विकल्प ढूँढ़ सकी है जनता!!

आज
आज़ादी की आधी सदी बाद
उस मोटी किताब की ओर देखता हूँ
और सोचता हूँ --
इस तथाकथित प्रजातन्त्र का
क्या कोई विकल्प हो सकता था
हो सकता है?

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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वह प्रेम करेगी - vah prem karegee - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
वह प्रेम करेगी --
और चाँद खिल उठेगा आकाश में
सुनाई देगा बादलों का कोरस,
वह प्रेम करेगी --
और मैं भेज दूँगा बादलों को
जलते हुए रेगिस्तानों में,
वह प्रेम करेगी --
और आकाश में दिखाई देंगे इन्द्रधनुष के सातों रंग
वह प्रेम करेगी --
और थम जाएगा हिरोशिमा का ताण्डव
लातूर का भूकम्प
अफ़्रीका के अरण्य में पहली बार उगेगा सूरज
सागर की छाती पर फिर कोई जहाज़ नहीं डूबेगा
फिर विसुवियस के पहाड़ आग नहीं उगलेंगे,

वह प्रेम करेगी --
और मैं देखूँगा अनन्त में डूबा आकाश
देखूँगा -- मोर के पंखों का रंग,
प्यार करूँगा -- जिन्हें कभी किसी ने प्यार नहीं किया,
देखूँगा -- लहरों के उल्लास में
उफनती मछलियाँ
पंछी ... विषधर साँपों के अनोखे खेल
ऋतुमती पृथ्वी
झीलों का गहरा पानी
अज्ञात की ओर जाती अनन्त चीटियों की कतार,
किसी प्राचीन आकाशगंगा में हम दोनों खेलेंगे
चाँद और सूरज की गेंद से,

वह प्रेम करेगी --
और मैं उसे भेजूँगा
अंजुरी भर धूप
एक मुट्ठी आसमान
एक टुकड़ा चाँद
थोड़े-से तारे,

वह प्रेम करेगी --
और किसी दिन
जाकर न लौट पाने की
असम्भव दूरी से
जो आख़िरी बार हाथ हिलाकर
मन ही मन केवल कह सकूँ विदा ...

जीवन के किसी मधुरतम क्षण में
तिस्ता किनारे सौंपना मुझे
तुम्हारी आँखों का एक बून्द पानी
और हृदय का थोड़ा-सा प्यार!

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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अपनी स्वप्न-छाया में मुदित - apanee svapn-chhaaya mein mudit - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
अपनी स्वप्न-छाया में मुदित
वह खोई हुई थी अपनी कामना के आकाश में
जहाँ पलकों पर तने इन्द्रधनुष की आभा भीग रही थी
मधुरिमा के जल से,
मोम-सी पिघलती आकाशगंगा में
बिखरा हुआ था उसके लहराते केशों का अन्धेरा
जहाँ पूर्वजन्मों की इच्छाएँ जुगनुओं-सी टिमटिमा रही थीं
अपनी निजता के दर्पण में उसने चाँद से उदासी का सबब पूछा था
या कि चाँद ने उससे ....
और कोई कुछ नहीं बता सका था।
अजाने फूलों की कितनी ही गन्ध-स्मृतियाँ थीं
उसकी मुस्कराहट में
जहाँ उजाला कृतज्ञ होता था
उसके प्रेमगीतों से भर गया था पक्षियों का आकाश
जहाँ श्रुतियाँ उसके बहाने पृथ्वी का प्रेमगीत गा रही थीं
समय के कगार पर छूट गए उसके विस्मय
अपनी सात्विक दीप्ति में विसर्जित हो रहे थे
जिन्हें मन्दिर की प्राचीन शुचिता
मेरे विस्मय की दहलीज पर वन्दनवार-सी टाँग रही थी
अपनी नश्वर दुनिया की नश्वर भाषा में
मैंने पूछा था -- कैसा होता है प्रेम!
-- जैसे साँस लेती हूँ, वैसा ...!
कहा था उसने।

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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वह आ रही है - vah aa rahee hai -- उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
वह आ रही है --

स्मृति में बज उठा है देह का बसन्त
हवा में काँप रहा है तिलककामोद
बाँसवन के पीछे खिला है
फ़ॉस्फ़ोरस लिपटा चाँद,

वह आ रही है।

आँगन में फैली है वनतुलसी की गन्ध
जल में डूबी वनस्पति सुगबुगा रही है
उसकी देह की कोजागरी में
सुन्दर हो उठी है पृथ्वी
गाल पर ठहरा आँसू सूखने लगा है
अन्धकार को चीरकर
जा रही हैं प्रार्थनाएँ ऊर्ध्व की ओर

वह आ रही है....

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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कालचक्र में फँसी पृथ्वी - kaalachakr mein phansee prthvee - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
कालचक्र में फँसी पृथ्वी
तब भी रहेगी वैसी की वैसी
अपने ध्रुवों और अक्षांशों पर
वैसी ही अवसन्न और आक्रान्त!

धूसर गलियाँ
अहिंसा सिखाते हत्यारे
असीम कमीनेपन के साथ मुस्कराते
निर्लज्ज भद्रजन,
असमय की धूप और अंधड़...
कुछ भी नहीं बदलेगा!
किसी चमत्कार की तरह नहीं आएंगे देवदूत
अकस्मात हम नहीं पहुँच सकेंगे
किसी स्वर्णिम भविष्य में
सत्ताधीशों के लाख आश्वासनों के बावजूद!

पृथ्वी रहेगी वैसी की वैसी!

रहेंगी --
पतियों से तंग आती स्त्रियाँ
फतवे मूर्खता और गणिकाएँ
बनी रहेंगी बाढ़ और अकाल की समस्याएँ
मठाधीशों की गर्वोक्तियाँ
और कभी पूरी न हो सकने वाली उम्मीदें
शिकायतें... सन्ताप...

बचे रहेंगे --
चीकट भक्ति से भयातुर देवता
सांस्कृतिक चिन्ताओं से त्रस्त
भाण्ड और मसखरे
उदरशूल से हाहाकार करते कर्मचारी!
रह जाएगा --
ज़िन्दगी से बाहर कर दी गईं
बूढ़ी औरतों का दारुण विलाप
एक-दूसरे पर लिखी गईं व्यंग्य-वार्ताओं का टुच्चापन
और विलम्वित रेलगाड़ियों का
अवसाद भरा कोरस...

तिथियों के बदलने से नहीं बदलेंगी आदतें
चेहरे बदलेंगे... रंग-रोग़न बदल जाएगा

सोचो लोगो!
आज इक्कीसवीं सदी की पहली सुबह
क्या तुम ठीक-ठीक कह सकते हो
कि हम किस सदी में जी रहे हैं?

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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जब निराशा का अंधेरा घिरने लगेगा - jab niraasha ka andhera ghirane lagega -- उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
जब
निराशा का अंधेरा घिरने लगेगा
और उग आएंगे दुखों के अभेद्य बीहड़
ऐसे में जब तुम्हारी करुणा का बादल
ढँक लेना चाहेगा मुझे
शीतल आँचल की तरह
मैं लौटा दूंगा उसे
कि मुझे सह लेने दो
जो तुमने अब तक सहा है!

उम्र की दहलीज़ पर
जब थमने लगेगा साँसों का ज्वार
जीवन के निर्जन मरुथल में
अलक्षित कर दी गईं
किन्हीं प्राचीन दंतकथाओं-सी
भटकेंगीं जब कामनाएँ
तब अपनी थकन लिए मैं चला जाऊंगा
तुम्हारी दया की हरीतिमा से भी दूर
वहाँ --
जहाँ कोई नहीं जाना चाहेगा।

अपने अवसाद के घर में
मैं बचाकर रखूंगा
थोड़ा-सा संगीत
किसी याद में लिखी गई पवित्र कविताएँ
कुछ शरारत भरे क्षणों की स्मृति
और धुंधली पड़ गईं कुछ चिट्ठियाँ,
फिर एक दिन
मृत्यु की अनसुनी पुकार पर
चुपचाप उठकर यूँ चल दूंगा
कि किसी को मालूम ही न चले
कि कभी मैं था
कि मेरे साथ दुःखभरी अनेक गाथाएँ थीं
प्रेम था, प्रणति थी.....

मैं इस तरह चला जाऊंगा
कि फिर बहुत दिनों तक
किसी को याद नहीं आऊंगा!!

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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मैं भेजूंगा उसकी ओर - main bhejoonga usakee or - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
मैं भेजूंगा उसकी ओर
प्रार्थना की तरह शुभेच्छाएँ,
किसी प्राचीन स्मृति की प्राचीर से
पुकारूंगा उसे
जिसकी हमें अब कोई ख़बर नहीं,
अपनी अखण्ड पीड़ा से चुनकर
कुछ शब्द और कविताएँ
बहा दूंगा
वर्षा की भीगती हवाओं में
जिसे अजाने देश की किसी अलक्ष्य खिड़की पर बैठा
कोई प्रेमी पक्षी गाएगा,
मैं सहेज कर रखूंगा उन क्षणों को
जब आखि़री बार
अपनी समूची अस्ति से उसने छुआ था मुझे
और धूप के सरोद पर गुनगुना उठा था
हमारा प्रेम,
बार-बार भूलने की कोशिश में
कुछ और अधिक याद करूंगा उसे
छुपाते-छुपाते छलक ही आएंगे आँसू
हर बार दूर जाते-जाते लौट आऊंगा वहीं
जहाँ उसके होने का अहसास
अकस्मात विलीन हो गया था
किसी अधूरे सपने की तरह।

मैं हमेशा की तरह
उसके लिए लेकर आऊंगा
एक कप चाय और थोड़े-से बिस्कुट
और प्रतीक्षा करूंगा उन चिट्ठियों की
जो नहीं आएंगी कभी!!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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एक दिन अचानक - ek din achaanak - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
एक दिन अचानक
हम चले जाएँगे
तुम्हारी इच्छा और घृणा से भी दूर
किसी अनजाने देश में
और शायद तुम जानना भी न चाहो
हमारी विकलता और अनुपस्थिति के बारे में!

हो सकता है
इस सुन्दर पृथ्वी को छोड़कर
हम चले जाएँ
दूर... नक्षत्रों के देश में
फिर किसी शाम जब
आँख उठाकर देखो
चमकते नक्षत्रों के बीच
तुम शायद पहचान भी न पाओ
कि तुम्हारी खिड़की के ठीक सामने
हम ही हैं!

अपने वरदानों और अभिशापों में बंधे
हम वहीं दूर से तुम्हें देखते रहेंगे
अपना वर्तमान और अतीत लेकर
अपने उदास अकेलेपन में
भाषा और कविता से बाहर
सृष्टि की अन्तिम रात तक
चाहत के आकाश में

उदास और अकेले ....!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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लड़की को बोलने दो-ladakee ko bolane do- - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
लड़की को बोलने दो
लड़की की भाषा में,
सुदूर नीलाकाश में खोलने दो उसे
मन की खिड़कियाँ,
उस पार
शिरीष की डाल पर बैठा है
भोर का पहला पक्षी
पलाश पर उतर आई है
प्रेमछुई धूप
उसे गुनगुनाने दो कोई प्रेमगीत
सजाने दो सपनों के वन्दनवार
बुनने दो कविता
भाषा के सूर्योदय में
मन की बात कहने दो उसे
अन्तहीन पीड़ा के नेपथ्य से फूटने दो
निशिगन्धा की किलकारियाँ,
सदियों से बंधी नाव को जाने दो
सागर की उत्ताल तरंगों में।

आदर्श शिखरों से उतर आना चाहती है लड़की
भविष्य की पगडंडियों पर
उसे रोको मत
उसे चुनने दो
झरबेरी सीप और मधुरिमा
करने दो उसे उपवास और प्रार्थनाएँ
रखने दो देहरी पर दीप
उसे मत रोको प्रेम करने से।

अगर सचमुच बचाना चाहते हो
सृष्टि की सबसे सुन्दर कविता को
तो, आग की ओर जाती लड़की को रोको
रोको --
उसके जीवन में दोस्त की तरह प्रवेश करते
दुःख और मज़बूरी को
रोको उसे दिशाहीन होकर
नदी में डूबने से
रोको --
‘सबकुछ’ को
‘कुछ नहीं’ हो जाने से!!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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अलमारी में बंद किताबें - alamaaree mein band kitaaben -- उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
अलमारी में बंद किताबें
प्रतीक्षा करती हैं पढ़े जाने की
सुरों में ढलने की प्रतीक्षा करते हैं गीत
प्रतीक्षा करते हैं -- सुने जाने की
अपने असंख्य क़िस्सों का रोमांच लिए
जागते रहते हैं उनके पात्र

जिस तरह दुकानों में
बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं खिलौने
किताबें, पढ़ने वालों की प्रतीक्षा करती हैं
लेकिन जब उन्हें नहीं पढ़ा जाता
जब वे उन हाथों तक नहीं पहुँच पातीं
जो उनकी असली जगह है
तो बेहद उदास हो जाती हैं किताबें

घुटन भरे अँधेरे में हाँफने लगते हैं उनके शब्द
सूखी नदी की तरह आह भरती उनकी साँसें
साफ़ सुनाई देती हैं
उन पर समय की धूल-सा झरता रहता है दुःख
धीरे-धीरे मिटने लगते हैं उनके जीवन के रंग
विवर्ण होते जाते हैं उनके सजीले चेहरे
देह सूखकर धूसर हो जाती है

वे बदरंग साड़ियाँ पहनी स्त्रियाँ हैं
जो जवानी में ही विधवा हो गई हैं,
वे अकसर कोसती हैं अपनी क़िस्मत को
कि आखि़र उन्हें क्यों लिखा गया
और इस तरह घुट-घुट कर
मरने के लिए धकेल दिया गया क़ब्र में,

रात के सन्नाटे में उनका विलाप
नींद की देहरी पर सिर पटकता फ़रियाद करता है,
धीरे-धीरे वे बीमार और जर्जर हो जाती हैं
ज़र्द होती जाती हैं आँखें
फेफड़ों को तार-तार कर देती है सीलन
उपेक्षा की दीमक उन्हें कुतर कर खा जाती हैं

दरअसल वे लावारिश लाशें हैं जिन्हें लेने कोई नहीं आता
किताबें
गाँव जंगलों से खदेड़ दिए गए लोग हैं
जिनका बाज़ार ने आखेट कर लिया है!!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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अभी आता हूँ -- कहकर - abhee aata hoon -- kahakar - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
अभी आता हूँ -- कहकर
हम निकल पड़ते हैं घर से
हालाँकि अपने लौटने के बारे में
किसी को ठीक-ठीक पता नहीं होता
लेकिन लौट सकेंगे की उम्मीद लिए
हम निकल ही पड़ते हैं,

अकसर लौटते हुए
अपने और अपनों के लौट आने का
होने लगता है विश्वास,
जैसे -- अभी आती हूँ कहकर
गई हुई नदी
जंगलों तलहटियों से होती हुई
फिर लौट आती है सावन में,

लेकिन इस तरह हमेशा कहाँ लौट पाते हैं सब!
आने का कहकर गए लोग
हर बार नहीं लौट पाते अपने घर
कितना आसान होता है उनके लिए
अभी आता हूँ -- कहकर
हमेशा के लिए चले जाना!

असल में
जाते समय -- अभी आता हूँ... कहना
उन्हें दिलासा देना होता है
जो हर पल इस कश्मकश में रहते हैं
कि शायद इस बार भी हम लौट आएँगे
कि शायद इस बार हम नहीं लौट पाएँगे


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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हमने ऐसा ही चाहा था - hamane aisa hee chaaha tha - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
हमने ऐसा ही चाहा था
कि हम जिएँगे अपनी तरह से
और कभी नहीं कहेंगे -- मज़बूरी थी,
हम रहेंगे गौरैयों की तरह अलमस्त
अपने छोटे-से घर को
कभी ईंट-पत्थरों का नहीं मानेंगे

उसमें हमारे स्पन्दनों का कोलाहल होगा,
दुःख-सुख इस तरह आया-जाया करेंगे
जैसे पतझर आता है, बारिश आती है
कड़ी धूप में दहकेंगे हम पलाश की तरह
तो कभी प्रेम में पगे बह चलेंगे सुदूर नक्षत्रों के उजास में।

हम रहेंगे बीज की तरह
अपने भीतर रचने का उत्सव लिए
निदाघ में तपेंगे.... ठिठुरेंगे पूस में
अंधड़ हमें उड़ा ले जाएँगे सुदूर अनजानी जगहों पर
जहाँ भी गिरेंगे वहीं उसी मिट्टी की मधुरिमा में खोलेंगे आँखें।,

हारें या जीतें -- हम मुक़ाबला करेंगे समय के थपेड़ों का
उम्र की तपिश में झुलस जाएगा रंग-रूप
लेकिन नहीं बदलेगा हमारे आँसुओं का स्वाद
नेह का रंग... वैसी ही उमंग हथेलियों की गर्माहट में
आँखों में चंचल धूप की मुस्कराहट...
कि मानो कहीं कोई अवसाद नहीं
हाहाकार नहीं, रुदन नहीं अधूरी कामनाओं का।

तुम्हें याद होगा
हेमन्त की एक रात प्रतिपदा की चंद्रिमा में
हमने निश्चय किया था --
अपनी अंतिम साँस तक इस तरह जिएँगे हम

कि मानो हमारे जीवन में मृत्यु है ही नहीं!!मैं अपनी कविता में लिखता हूँ ‘घर’
और मुझे अपना घर याद ही नहीं आता
याद नहीं आती उसकी मेहराबें
आले और झरोखे
क्या यह बे-दरो-दीवार का घर है!

बहुत याद करता हूँ तो
टिहरी हरसूद याद आते हैं
याद आती हैं उनकी विवश आँखें
मौत के आतंक से पथराई
हिचकोले खाते छोटे-छोटे घर ... बच्चों-जैसे,
समूचे आसमान को घेरता
बाज़ नज़र आता है... रह-रह कर नाखू़न तेज़ करता हुआ

सपनों को रौंदते टैंक धूल उड़ाते निकल जाते हैं
कहाँ से उठ रही है यह रुलाई
ये जले हुए घरों के ठूँठ .... यह कौन-सी जगह है
किनके रक्त से भीगी ध्वजा
अपनी बर्बरता में लहरा रही है .... बेख़ौफ़

ये बेनाम घर क्या अफ़ग़ानिस्तान हैं
यरुशलम, सोमालिया, क्यूबा
इराक हैं ये घर, चिली कम्बोडिया...!!
साबरमती में ये किनके कटे हाथ
उभर आए हैं .... बुला रहे हैं इशारे से
क्या इन्हें भी अपने घरों की तलाश है?

मैं कविता में लिखता हूँ ‘घर’
तो बेघरों का समुद्र उमड़ आता है
बढ़ती चली आती हैं असंख्य मशालें
क़दमों की धूल में खो गए
मान्यूमेण्ट, आकाश चूमते दंभ के प्रतीक
बदरंग और बेमक़सद दिखाई देते हैं।

जब सूख जाता है आँसुओं का सैलाब
तो पलकों के नीचे कई-कई सैलाब घुमड़ आते हैं
जलती आँखों का ताप बेचैन कर रहा है
विस्फोट की तरह सुनाई दे रहे हैं
खुरदुरी आवाज़ों के गीत
मेरा घर क्या इन्हीं के आसपास है!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
#www.poemgazalshayari.in

मैं अपनी कविता में लिखता हूँ ‘घर’ - main apanee kavita mein likhata hoon ‘ghar’ - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
मैं अपनी कविता में लिखता हूँ ‘घर’
और मुझे अपना घर याद ही नहीं आता
याद नहीं आती उसकी मेहराबें
आले और झरोखे
क्या यह बे-दरो-दीवार का घर है!

बहुत याद करता हूँ तो
टिहरी हरसूद याद आते हैं
याद आती हैं उनकी विवश आँखें
मौत के आतंक से पथराई
हिचकोले खाते छोटे-छोटे घर ... बच्चों-जैसे,
समूचे आसमान को घेरता
बाज़ नज़र आता है... रह-रह कर नाखू़न तेज़ करता हुआ

सपनों को रौंदते टैंक धूल उड़ाते निकल जाते हैं
कहाँ से उठ रही है यह रुलाई
ये जले हुए घरों के ठूँठ .... यह कौन-सी जगह है
किनके रक्त से भीगी ध्वजा
अपनी बर्बरता में लहरा रही है .... बेख़ौफ़

ये बेनाम घर क्या अफ़ग़ानिस्तान हैं
यरुशलम, सोमालिया, क्यूबा
इराक हैं ये घर, चिली कम्बोडिया...!!
साबरमती में ये किनके कटे हाथ
उभर आए हैं .... बुला रहे हैं इशारे से
क्या इन्हें भी अपने घरों की तलाश है?

मैं कविता में लिखता हूँ ‘घर’
तो बेघरों का समुद्र उमड़ आता है
बढ़ती चली आती हैं असंख्य मशालें
क़दमों की धूल में खो गए
मान्यूमेण्ट, आकाश चूमते दंभ के प्रतीक
बदरंग और बेमक़सद दिखाई देते हैं।

जब सूख जाता है आँसुओं का सैलाब
तो पलकों के नीचे कई-कई सैलाब घुमड़ आते हैं
जलती आँखों का ताप बेचैन कर रहा है
विस्फोट की तरह सुनाई दे रहे हैं
खुरदुरी आवाज़ों के गीत
मेरा घर क्या इन्हीं के आसपास है!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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हे ईश्वर! हम शुद्ध मन और पवित्र आत्मा से प्रार्थना करते हैं - he eeshvar! ham shuddh man aur pavitr aatma se praarthana karate hain - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
हे ईश्वर!
हम शुद्ध मन और पवित्र आत्मा से प्रार्थना करते हैं
तू हमें हुनर दे कि हम
अपने प्रभुओं को प्रसन्न रख सकें
और हमें उनकी करुणा का प्रसाद मिलता रहे,

भीतर-बाहर हम जाने कितने ही शत्रुओं से घिरे हुए हैं
प्रभु के विरोध में बोलने वाले नीचों से
हमारे वैभव की रक्षा कर,
हमें धन और इन्हें पेट की आग दे

ज़मीन की सतह से बहुत-बहुत नीचे
पाताल में धकेल दे इन्हें,
कमज़ोर कर दे इनकी नज़रें
छीन ले इनके सपने और विचार

हमारे प्रभु हम को दीर्घायु कर
दीर्घायु कर उनकी व्यवस्था,
हम तेरी स्तुति करते हैं
तू हमें समुद्रों के उस पार ले चल
भोग के साम्राज्य में
हम भी चख सकें निषिद्ध फलों के स्वाद।

हे ईश्वर!
हम तेरी पूजा करते हैं
तू हमारे भरे-पूरे संसार को सुरक्षा दे
हमारे कोमल मन को
भूखे-नंगों की काली परछाइयों से दूर रख,
दूर रख हमारी कला-वीथिकाओं को
हाहाकार और सिसकियों से
आम आदमी के पसीने की बदबू से दूर रख
संगीत सभाओं को।

हम तुझे अर्ध्य चढ़ाते हैं
तू हमें कवि बना दे,
इन्द्रप्रस्थ का स्वप्न देखते हैं हम
तू हमें चक्रव्यूह भेदने के गुर समझा,
तू अमीर को और अमीर
ग़रीब को और ग़रीब बना
दलित को बना और भी ज़्यादा दलित

तू हमें कुबेर के ऐश्वर्य से सम्पन्न कर
हम तेरी पूजा करते हैं...


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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हममें बहुत कुछ एक-सा - hamamen bahut kuchh ek-sa - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था ...

वन्यपथ पर ठिठक कर
अचानक तुम कह सकती थीं
यह गन्ध वनचम्पा की है
और वह दूधमोगरा की,

ऐसा कहते तुम्हारी आवाज़ में उतर आती थी
वासन्ती आग में लिपटी
मौलसिरी की मीठी मादकता,
सागर की कोख में पलते शैवाल
और गहरे उल्लास में कसमसाते
संतरों का सौम्य उत्ताप

तुम्हें बाढ़ में डूबे गाँवों के अंधकार में खिले
लालटेन-फूलों की याद दिलाता था
जिनमें कभी हार नहीं मानने वाले हौसलों की इबारत
चमक रही होती थी।

मुझे फूल और चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते थे
और न ही उनकी पहचान

लेकिन मैं पहचानता था रंगों की चालाकियाँ
खंजड़ी की ओट में तलवार पर दी जा रही धार की
महीन और निर्मम आवाज़ मुझे सुनाई दे जाती थी
रहस्यमय मुस्कानों के पीछे उठतीं
आग की ऊँची लपटों में झुलस उठता था
मेरा चौकन्नापन

और हलकान होती सम्वेदना का सम्भावित शव
अगोचर में सजता दिखता था मूक चिता पर।

तुम्हें पसन्द थी चैती और भटियाली
मुझे नज़रुल के अग्नि-गीत
तुम्हें खींचती थी मधुबनी की छवि-कविता
मुझे डाली1 का विक्षोभ
रात की देह पर बिखरे हिमशीतल नक्षत्रों की नीलिमा
चमक उठती थी तुम्हारी आँखों के निर्जन में
जहाँ धरती नई साड़ी पहन रही होती थी
और मैं कन्दराओं में छिपे दुश्मनों की आहटों का
अनुमान किया करता था।

हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था...

एक थी हमारी धड़कनें
सपनों के इंद्रधनुष का सबसे उजला रंग ... एक था।
अकसर एक-सी परछाइयाँ थीं मौत की
घुटनों और कंधों में धँसी गोलियों के निशान एक-से थे
एक-से आँसू, एक-सी निरन्तरता थी
भूख और प्यास की,
जिन मुद्दों पर हमने चुना था यह जीवन
उनमें आज भी कोई दो-राय नहीं थी।


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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अपनी ही आग में झुलसती है कविता - apanee hee aag mein jhulasatee hai kavita - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
अपनी ही आग में झुलसती है कविता
अपने ही आँसुओं में डूबते हैं शब्द।
जिन दोस्तों ने
साथ जीने-मरने की क़समें खाई थीं
एक दिन वे ही हो जाते हैं लापता
और फिर कभी नहीं लौटते,
धीरे-धीरे धूसर और अपाठ्य हो जाती हैं
उनकी अनगढ़ कविताएँ और दुःख,
उनके चेहरे भी ठीक-ठीक याद नहीं रहते।
अँधेरा बढ़ता ही जाता है
स्याह पड़ते जाते हैं उजाले के मानक,
जगर-मगर पृथ्वी के ठीक पीछे
भूख की काली परछाई अपने थके पंख फड़फड़ाती है,
ताउम्र हौसलों की बात करने वाले
एक दिन आकंठ डूबे मिलते हैं समझौतों के दलदल में,
पुराने पलस्तर की मानिन्द भरभराकर ढह जाता है भरोसा
चालाक कवि अकेले में मुट्ठियाँ लहराते हैं।
प्रतीक्षा के अवसाद में डूबा कोई प्राचीन राग
एक दिन चुपके से बिला जाता है विस्मृति के गहराई में,
उपेक्षित लहूलुहान शब्द शब्दकोशों की बंद कोठरियों में
ले लेते हैं समाधि,
शताब्दियों पुरानी सभ्यता को अपने आग़ोश में लेकर
मर जाता है बाँध,
जीवन और आग के उजले बिम्ब रह-रह कर दम तोड़ देते हैं।
धीरे-धीरे मिटती जाती हैं मंगल-ध्वनियाँ
पवित्रता की ओट से उठती है झुलसी हुई देहों की गन्ध,
नापाक इरादे शीर्ष पर जा बैठते हैं,
मीठे ज़हर की तरह फैलाता जाता है बाज़ार
और हुनर को सफ़े से बाहर कर देता है,
दलाल पथ में बदलती जाती हैं गलियाँ
सपनों में कलदार खनकते हैं,
अपने ही घर में अपना निर्वासन देखती हैं किसान-आँखें
उनकी आत्महत्याएँ कहीं भी दर्ज़ नहीं होतीं।
अकेलापन समय की पहचान बनता जाता है
दुत्कार दी गई किंवदंतियाँ राजपथ पर लगाती हैं गुहार
वंचना से धकिया देने में खुलते जाते हैं उन्नति के रास्ते
रात में खिन्न मन से बड़बड़ाती हैं कविताएँ
निःसंग रात करवट बदल कर सो जाती है!!

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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लाल हरे पीले टापुओं की तरह - laal hare peele taapuon kee tarah - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
लाल हरे पीले टापुओं की तरह
होते थे बर्फ़ के लड्डू
बचपन के उदास मौसम में
खिलते पलाश की तरह।

सुर्ख़ रंगों के इस पार से
बहुत रंगीन दिखती थी दुनिया
हालाँकि उस पार का यथार्थ बहुत बदरंग हुआ करता था,
गर्दन तिरछी कर जब हम लड्डू चूसते
तो माँ हमें कान्हा पुकारती
तब पैसों की बहुत किल्लत थी
और बमुश्किल एक लड्डू मिल पाता था
जिसे हम बहुत धीरे-धीरे चूसते
तो लड्डूवाला कह उठता -- बाबू, लड्डू बहा जा रहा है,
और सचमुच हम पाते कि
हमारे तिरंगे की त्रिवेणी कोहनी से बही जा रही है
हम तेज़ी से सोख लेते सारा रंग
तो छोटा-सा हिमालय उभर आता
हमारे फूल तितली और पतंगों के सपनों में
अकसर एक सपना लड्डुओं का भी शामिल हो जाया करता था
जहाँ बर्फ़ के पेड़ों पर लड्डुओं के फूल खिला करते थे।

लेकिन समय के साथ धूमिल होते गए रंग
जगमग दुकानों में अब
खनकने लगी हैं शीतल पेय की बोतलें
बर्फ़ की यह छोटी-सी दुनिया
धीरे-धीरे ओझल होती चली गई है
लड्डुओं के साथ ही ओझल हो गए वे क़िस्से
जिनमें एक दिन लड्डूवाले ने बताया था कि
किस तरह धरती और सूरज ने लड्डुओं से
चुरा लिया था हरा और लाल रंग!

अब अपने बच्चों के संग
कोल्ड-ड्रिंक्स पीते हैं हम
और जब कसैली डकार तार-तार कर देती है गले को
बरबस हमें याद आ जाते हैं
बर्फ़ के लड्डू!

 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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वहाँ डबडबाती आँखों में -vahaan dabadabaatee aankhon mein - - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
वहाँ डबडबाती आँखों में
उम्मीद का बियाबान था
किसी विलुप्त होते धीरज की तरह
थरथरा रही थी कातर तरलता
दूर तक अव्यक्त पीड़ा का संसार
बदलते दृश्य-सा फैलता जा रहा था
गहरे अविश्वास और धूसर भरोसे में बुदबुदाते होंठ
पता नहीं प्रार्थना या कि अभिशाप में काँप रहे थे!
ऐश्वर्य को भेदती स्याह खोखल आँखों में
अभियोग के बुझते अंगार की राख उड़ रही थी
कि मानो हम ही इस दुनिया के ठेकेदार हैं
कि हमारी ही वजह से
पश्चिमों से घिर गया है उनका दिनमान
या कि हमीं ने उनकी क़िस्मत को बेवा बना रखा है!

मन ही मन पिण्ड छुड़ाने की तरकीब सोचते
क्षण-भर को अचकचा कर ठिठक गए थे हम
निथर आई करुणा और निर्मम तटस्थता की
दुविधा को सम्हालते हुए पैंतरा बदल चुके थे हम
कि यह अनवरत त्रासदी कहीं ख़त्म नहीं होने वाली
नियति के रक्तबीज भला कभी ख़त्म होते हैं!
एक त्वरित खिन्नता में
कुछ पिघलकर स्थगित हो गई थी सदाशयता!

दूर तक पीछा करती पुकार को अनसुना कर
बढ़ गए थे हम निःसंग रास्ते पर
व्याकुल लहरें तटबंध से टकरा कर
बिखर गई थीं, बिला गई थीं!!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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जब नींद के निचाट अँधेरे में - jab neend ke nichaat andhere mein -- उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
जब नींद के निचाट अँधेरे में
सेंध लगा रहे थे सपने
और बच्चों की हँसी से गुदगुदा उठी थी
मन की देह,
हम जाने किन षड़यंत्रों की ओट में बैठे
मंत्रणा करते रहे!
व्यंजना के लुब्ध पथ पर
क्रियापदों के झुण्ड और धूल भरे रूपकों से बचते
जब उभर रहे थे दीप्त विचार
तब हम कविता के गेस्ट-हाउस में
पान-पात्र पर भिनभिनाती मक्खियाँ उड़ा रहे थे!
जब मशालें लेकर चलने का वक़्त आया
वक़्त आया रास्ता तय करने का
जब लपटों और धुएँ से भर गए रास्ते
हमने कहा -- हमें घर जाने दो
हमें दंगों पर कविता लिखनी है!


 - उत्पल बैनर्जी - Utpal Banerjee
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किताबें और चिट्ठियाँ - kitaaben aur chitthiyaan - - अनुराधा महापात्र - Anuradha Mahapatra #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
किताबें और चिट्ठियाँ
युद्ध और जीवित रहना —
बस, बहुत हो गया प्रिय!
आओ आज इस नदी के घाट पर हम बैठें।
दो-एक दूर्वादल पर आँसुओं की ओसबूँदें
किस तरह गहन रात के आकाश की आभा पाते हैं
आओ हम देखें —

डाइलेक्टिक्स को लेकर
दलीलें देने का क्या फ़ायदा?
पीले चूहे और धूसर बिल्ली पर वाद-विवाद।
मुझे मालूम है कि इस नदी के घाट पर
इस छलछल आवाज़ के अलावा
कोई और प्राण-कविता
इस वक़्त हमारे मर्म और मनन में
नहीं है।
तुम्हें क्या नहीं पता प्रिय
निराकाश का मतलब
क्या आकाश का धूसर निस्सीम होता है?
नई घास के जन्मलग्न में
उसके पास रही इस निर्जन धूल में
क्या कुछ निष्करुण भी होता है?
आँसुओं में रखकर चेहरे
परस्पर शून्य-आँसुओं को पोंछ लेना
यही तो विषाद है!




 - अनुराधा महापात्र - Anuradha Mahapatra
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नींद और नींद के उस पार - neend aur neend ke us paar -- अनुराधा महापात्र - Anuradha Mahapatra #www.poemgazalshayari.in

May 30, 2020 0 Comments
नींद और नींद के उस पार
वह अग्निगुफ़ा सुलग रही है।
मैं नीहारिका के प्रवाह में
छलाँग लगाना चाहती हूँ,
प्रलय-सुर के शीर्ष पर
केवल अपमान और मृत्यु के चक्रवात उठते हैं।
सोचती हूँ कि शायद
मुक्ति का तूफ़ान आ रहा है
सोचती हूँ मस्तक के चूल्हे से
ब्रह्मकमल और ऊर्ध्वगामी आकाश का आभास
उतर रहे हैं समतल की ओर।
मैं केवल उसकी अग्निशोक शिल्पमय
असीम आँखों के बारे में सोचती हूँ
और वह वृक्ष जड़ें ऊपर करके उड़ता रहता है।
इस धरती पर स्पन्दित
कलियों की ख़ुशबू
प्रलय के वेग से माथे के भीतर तक उतर जाती है।
और दीवार वाले रास्तों पर
सन्तान की मृत्यु की तसवीर दिखाई देती है
उसके हृदय के झुलसे हुए नीलमणी फूल
उड़ते दिखाई देते हैं,
लगातार उड़ रही है पृथ्वी
उसकी अनन्त रक्तवर्णी कविता
आन्ना अख़्मातवा की बेकबुल उँगली का
आहुतिविस्मय!



 - अनुराधा महापात्र - Anuradha Mahapatra
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