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Friday, April 24, 2020

हाथ आ कर गया, गया कोई । - haath aa kar gaya, gaya koee . -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
हाथ आ कर गया, गया कोई ।
मेरा छप्पर उठा गया कोई ।

लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई ।

मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई ।

ऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई ।

अब कुछ अरमाँ हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई ।

यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई ।

वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा ख़ुदा गया कोई ।

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई ।


- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा, -shor yoon hee na parindon ne machaaya hoga, -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा।

बानी-ए-जश्ने-बहाराँ ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा।

अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
ये सराब उन को समंदर नज़र आया होगा।

बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी,
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।


- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये - butashikan koee kaheen se bhee na aane paaye -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें

गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद

तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी

वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने - suna karo meree jaan in se un se afasaane -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments

सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने
सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने

यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों
हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने

मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग
सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने

जहाँ से पिछले पहर कोई तश्ना-काम उठा
वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने

बहार आये तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने

सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो
मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi

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क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं - kya jaane kisee kee pyaas bujhaane kidhar gayeen -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं

उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं


दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार

कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ


अब जिस तरफ से चाहे गुजर जाए कारवां

वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गयीं


पैमाना टूटने का कोई गम नहीं मुझे

गम है तो यह के चाँदनी रातें बिखर गयीं


पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी यह हो रहे

इक मुख्तसर सी रात में सदियाँ गुजर गयीं



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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वो भी सरहाने लगे अरबाबे-फ़न के बाद - vo bhee sarahaane lage arabaabe-fan ke baad .- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments

वो भी सरहाने लगे अरबाबे-फ़न के बाद ।
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-सुखन के बाद ।

दीवानावार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद ।

एलाने-हक़ में ख़तरा-ए-दारो-रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दारो-रसन के बाद ।

होंटों को सी के देखिए पछताइयेगा आप
हंगामे जाग उठते हैं अकसर घुटन के बाद ।

गुरबत की ठंडी छाँव में याद आई है उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद

इंसाँ की ख़ाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद ।



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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वो कभी धूप कभी छाँव लगे । - vo kabhee dhoop kabhee chhaanv lage . -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
वो कभी धूप कभी छाँव लगे ।
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे ।

किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।

एक रोटी के त'अक्कुब में चला हूँ इतना
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे ।

रोटि-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे ।

जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे ।



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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यही तोहफ़ा है यही नज़राना - yahee tohafa hai yahee nazaraana -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
यही तोहफ़ा है यही नज़राना
मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ
रंग में तेरे मिलाने के लिये
क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ
ऐ गुलाबों के वतन

पहले कब आया हूँ कुछ याद नहीं
लेकिन आया था क़सम खाता हूँ
फूल तो फूल हैं काँटों पे तेरे
अपने होंटों के निशाँ पाता हूँ
मेरे ख़्वाबों के वतन

चूम लेने दे मुझे हाथ अपने
जिन से तोड़ी हैं कई ज़ंजीरे
तूने बदला है मशियत का मिज़ाज
तूने लिखी हैं नई तक़दीरें
इंक़लाबों के वतन

फूल के बाद नये फूल खिलें
कभी ख़ाली न हो दामन तेरा
रोशनी रोशनी तेरी राहें
चाँदनी चाँदनी आंगन तेरा
माहताबों के वतन



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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वक्त ने किया क्या हंसी सितम - vakt ne kiya kya hansee sitam -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments

वक्त ने किया क्या हंसी सितम
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम ।

बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
इक राह पर चल के दो कदम ।

जायेंगे कहाँ सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं
बुन रहे क्यूँ ख़्वाब दम-ब-दम ।



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में - laee phir ik lagzishe-mastaana tere shahar mein -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में ।
फिर बनेंगी मस्जिदें मयख़ाना तेरे शहर में ।

आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में ।

जुर्म है तेरी गली से सर झुकाकर लौटना
कुफ़्र है पथराव से घबराना तेरे शहर में ।

शाहनामे लिक्खे हैं खंडरात की हर ईंट पर
हर जगह है दफ़्न इक अफ़साना तेरे शहर में ।

कुछ कनीज़ें जो हरीमे-नाज़ में हैं बारयाब
माँगती हैं जानो-दिल नज़्राना तेरे शहर में ।

नंगी सड़कों पर भटककर देख, जब मरती है रात
रेंगता है हर तरफ़ वीराना तेरे शहर में ।



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए - dastoor kya ye shahare-sitamagar ke ho gae -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए
जो सर उठा के निकले थे बे-सर के हो गए

ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए

जब सर ढका तो पाँव खुले फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए

दिल में कोई सनम ही बचा, न ख़ुदा रहा
इस शहर पे ज़ुल्म भी लश्कर के हो गए

हम पे बहुत हँसे थे फ़रिश्ते सो देख लें
हम भी क़रीब गुम्बदे-बेदर के हो गए



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में - bas ik jhijhak hai yahee haal-e-dil sunaane mein -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में
कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में

बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में
वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में

इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में

ये कह के टूट पड़ा शाख़-ए-गुल से आख़िरी फूल
अब और देर है कितनी बहार आने में



- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाये - patthar ke khuda vahaan bhee paaye -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाये
हम चाँद से आज लौट आये

दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं
क्या हो गया मेहरबाँ साये

जंगल की हवायें आ रही हैं
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाये

लैला ने नया जनम लिया है
है कै़स कोई जो दिल लगाये

है आज ज़मीन का गुसल-ए-सहत
जिस दिल में हो जितना ख़ून लाये

सहरा सहरा लहू के ख़ेमे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आये


- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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एक रंगीन झिझक एक सादा पयाम - ek rangeen jhijhak ek saada payaam -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
एक रंगीन झिझक एक सादा पयाम
कैसे भूलूँ किसी का वो पहला सलाम
फूल रुख़्सार के रसमसाने लगे
हाथ उठा क़दम डगमगाने लगे
रंग-सा ख़ाल-ओ-ख़द से छलकने लगा
सर से रंगीन आँचल ढलकने लगा
अजनबियत निगाहें चुराने लगी
दिन धड़कने लगा लहर आने लगी
साँस में इक गुलाबी गिरह पड़ गई
होंठ थरथराये सिमटे नज़र गड़ गई
रह गया उम्र भर के लिये ये हिजाब
क्यों न संभला हुआ दे सका मैं जवाब
क्यों मैं बे-क़स्द बे-अज़्म बे-वास्ता
दूसरी सम्त घबरा के तकने लगा


- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था - main ye soch kar us ke dar se utha tha -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था
कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे
कि वो आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
हवाओं मे लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़ के बिठा लेगी मुझको

मगर उस ने रोका, ना मुझको मनाया
ना आवाज़ ही दी, ना वापस बुलाया
ना दामन ही पकड़ा, ना मुझको बिठाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक कि उस से जुदा हो गया मैं

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाए । - patthar ke khuda vahaan bhee pae . - कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाए ।
हम चाँद से आज लौट आए ।

दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं
क्या हो गया मेहरबान साए ।

जंगल की हवाएँ आ रही हैं
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाए ।

लैला ने नया जन्म लिया है
है क़ैस कोई जो दिल लगाए ।

है आज ज़मीं का गुस्ले-सेहत
जिस दिल में हो जितना ख़ून लाए ।

सहरा-सहरा लहू के ख़ेमे
फिए प्यासे लबे-फ़रात आए ।

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था - main yah sochakar usake dar se utha tha - कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था
कि वह रोक लेगी मना लेगी मुझको ।

हवाओं में लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको ।

क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
कि आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको ।

कि उसने रोका न मुझको मनाया
न दामन ही पकड़ा न मुझको बिठाया ।

न आवाज़ ही दी न मुझको बुलाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया ।

यहाँ तक कि उससे जुदा हो गया मैं
जुदा हो गया मैं, जुदा हो गया मैं ।

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता - main dhoondhata hoon jise vo jahaan nahin milata -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमाँ मिल भी जाये
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिनमें शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे-सा कुछ भी यहाँ नहीं मिलता

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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मेरे दिल में तू ही तू है दिल की दवा क्या करूँ - mere dil mein too hee too hai dil kee dava kya karoon -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
मेरे दिल में तू ही तू है दिल की दवा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

ख़ुद को खोकर तुझको पा कर क्या क्या मिला क्या कहूँ
तेरा होके जीने में क्या क्या आया मज़ा क्या कहूँ
कैसे दिन हैं कैसी रातें कैसी फ़िज़ा क्या कहूँ
मेरी होके तूने मुझको क्या क्या दिया क्या कहूँ
मेरी पहलू में जब तू है फिर मैं दुआ क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

है ये दुनिया दिल की दुनिया, मिलके रहेंगे यहाँ
लूटेंगे हम ख़ुशियाँ हर पल, दुख न सहेंगे यहाँ
अरमानों के चंचल धारे ऐसे बहेंगे यहाँ
ये तो सपनों की जन्नत है सब ही कहेंगे यहाँ
ये दुनिया मेरे दिल में बसी है दिल से जुदा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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ये आँधी ये तूफ़ान ये तेज़ धारे - ye aandhee ye toofaan ye tez dhaare -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
पीरी:
ये आँधी ये तूफ़ान ये तेज़ धारे
कड़कते तमाशे गरजते नज़ारे
अंधेरी फ़ज़ा साँस लेता समन्दर
न हमराह मिशाल न गर्दूँ पे तारे

मुसाफ़िर ख़ड़ा रह अभी जी को मारे

शबाब:
उसी का है साहिल उसी के कगारे
तलातुम में फँसकर जो दो हाथ मारे
अंधेरी फ़ज़ा साँस लेता समन्दर
यूँ ही सर पटकते रहेंगे ये धारे

कहाँ तक चलेगा किनारे-किनारे


- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है - aaj kee raat bahut garm hava chalatee hai -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी

ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाख़ों से उतारे हम ने
इन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हम ने

हाथ ढलते गये साँचे में तो थकते कैसे
नक़्श के बाद नये नक़्श निखारे हम ने
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द
बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने

आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शमों की लौएं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिये

अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ए-पैहम की थकन
बंद आँखों में इसी क़स्र की तस्वीर लिये
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आँखों में ख़टकती है स्याह तीर लिये

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी


- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं - jhukee jhukee see nazar beqaraar hai ki nahin -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments


झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं

तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं

वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं

तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं


- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi

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तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो - tum pareshaan na ho baab-e-karam va na karo -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं
शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा चला जाऊँगा

रास्ता भूल गया या यहाँ मंज़िल है मेरी
कोई लाया है या ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न कि नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं

यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिये आँखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

एक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो रसमन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है

गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की इक आँच से हर रूह पिघल जाती है
मैं ने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या साँचे में ढल जाती है

क्या कमी है जो करोगी मेरा नज़राना क़ुबूल
चाहने वाले बहुत चाह के अफ़साने बहुत
एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क़
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत

फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तनहाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो

आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है
मैं किस तरह गुज़ारूँगा चला जाऊँगा
तुम परेशाँ न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi

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लो पौ फटी वह छुप गई तारों की अंज़ुमन - lo pau phatee vah chhup gaee taaron kee anzuman -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
लो पौ फटी वह छुप गई तारों की अंज़ुमन
लो जाम-ए-महर से वह छलकने लगी किरन

खुपने लगा निगाह में फितरत का बाँकपन
जलवे ज़मीं पे बरसे ज़मीं बन गई दुल्हन

गूँजे तराने सुबह के इक शोर हो गया
आलम तमाम रस में सराबोर हो गया

फूली शफ़क फ़ज़ा में हिना तिलमिला गई
इक मौज़-ए-रंग काँप के आलम पे छा गई

कुल चाँदनी सिमट के गिलो में समा गई
ज़र्रे बने नुजूम ज़मीं जगमगा गई

छोड़ा सहर ने तीरगी-ए-शब को काट के
उड़ने लगी हवा में किरन ओस चाट के

मचली जबीने-शर्क पे इस तरह मौज-ए-नूर
लहरा के तैरने लगी आलम में बर्क-ए-तूर

उड़ने लगी शमीय छलकने लगा सुरूर
खिलने लगे शिगूके चहकने लगे तयूर

झोंके चले हवा के शजर झूमने लगे
मस्ती में फूल काँटों का मुँह चूमने लगे

थम थम के जूफ़िशाँ हुआ ज़र्रों पे आफ़ताब
छिड़का हवा ने सब्जा-ए-ख्वाबीदा पर गुलाब

मुरझायी पत्तियों में मचलने लगा शबाब
लर्ज़िश हुई गुलों में बरसने लगी शराब

रिन्दाने-मस्त और भी बदमस्त हो गये
थर्रा के होंठ ज़ाम में पेवस्त हो गये

दोशीज़ा एक खुशकदो-खुशरंगो-खूबरू
मालिन की नूरे-दीद गुलिस्ताँ की आबरू

महका रही है फूलों से दामान-ए-आरजू
तिफ़ली लिये है गोद में तूफ़ाने-रंगो-बू

रंगीनियों में खेली, गुलों में पली हुई
नौरस कली में कौसे-कज़ह है ढली हुई

मस्ती में रुख पे बाल-ए-परीशाँ किये हुये
बादल में शमा-ए-तूर फ़रोज़ाँ किये हुये

हर सिम्त नक्शे-पा से चरागाँ किये हुये
आँचल को बारे-गुल से गुलिस्ताँ किये हुये

लहरा रही है बादे-सहर पाँव चूम के
फिरती है तीतरी सी गज़ब झूम झूम के

ज़ुल्फ़ों में ताबे-सुंबुले-पेचाँ लिये हुये
आरिज़ पे शोख रंगे-गुलिस्ताँ लिये हुये

आँखों में बोलते हुये अरमाँ लिये हुये
होठों पे आबे-लाले-बदख्शाँ लिये हुये

फितरत ने तौल तौल के चश्मे-कबूल में
सारा चमन निचोड़ दिया एक फूल में

ऐ हुस्ने-बेनियाज़ खुदी से न काम ले
उड़ कर शमीमे-गुल कहीं आँचल न थाम ले

कलियों का ले पयाम गुलों का सलाम ले
कैफ़ी से हुस्ने-दोस्त का ताज़ा कलाम ले

शाइर का दिल है मुफ़्त में क्यों दर्दमंद हो
इक गुल इधर भी नज़्म अगर यह पसंद हो

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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ये जीत-हार तो इस दौर का मुक्द्दर है - ye jeet-haar to is daur ka mukddar hai - - कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
ये जीत-हार तो इस दौर का मुक्द्दर है
ये दौर जो के पुराना नही नया भी नहीं
ये दौर जो सज़ा भी नही जज़ा भी नहीं
ये दौर जिसका बा-जहिर कोइ खुदा भी नहीं

तुम्हारी जीत अहम है ना मेरी हार अहम
के इब्तिदा भी नहीं है ये इन्तेहा भी नहीं
शुरु मारका-ए-जान अभी हुआ भी नहीं
शुरु तो ये हंगाम-ए-फ़ैसला भी नहीं

पयाम ज़ेर-ए-लब अब तक है सूर-ए-इसराफ़ील
सुना किसी ने किसी ने अभी सुना भी नहीं
किया किसी ने किसी ने यकीं किया भी नहीं
उठा जमीं से कोई, कोई उठा भी नहीं

[पयाम = संदेसा ]

कदम कदम पर दिया है रहज़नों ने फ़रेब
के अब निगाह मे तौकीर-ए-रहनुमा भी नहीं
उसे समझते है मंजिल जो रास्ता भी नहीं
वहाँ लगाते हैं डेरा जहाँ वफ़ा भी नही

[रहज़न = चोर ]


ये कारवाँ है तो अनज़ाम-ए-कारवाँ मालूम
के अजनबी भी नहीं कोई आशना भी नहीं
किसी से खुश भी नहीं कोई खफ़ा भी नहीं
किसी का हाल मुड़ कर कोइ पूछता भी नहीं

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे - roz badhata hoon jahaan se aage -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ
बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को
इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ
रोज़ बसते हैं कई शहर नये
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह
वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं

जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब
कितने अरमाँ है किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब
नफ़्ज़ बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा
इक आदत है जिये जाना भी

क़ौस एक रंग की होती है तुलू'अ
एक ही चाल भी पैमाना भी
गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद
मुश्किल क्या हो गई मयख़ाने की
कोई कहता था समंदर हूँ मैं
और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं
ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ
अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं

अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ
कभी क़ुरान कभी गीता की तरह
चंद रेखाओं में समाऊँ मैं
ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश रावन ही कोई आ जाता

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi

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दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए । - dastoor kya ye shahare-sitamagar ke ho gae . -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए ।
जो सर उठा के निकले थे बे सर के हो गए ।

ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए ।

जब सर ढका तो पाँव खुले फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए ।

दिल में कोई सनम ही बचा, न ख़ुदा रहा
इस शहर पे ज़ुल्म भी लश्कर के हो गए ।

हम पे बहुत हँसे थे फ़रिश्ते सो देख लें
हम भी क़रीब गुम्बदे-बेदर के हो गए ।

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो - tum pareshaan na ho baab-e-karam-va na karo -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा
इसी कूचे में जहां चांद उगा करते थे
शब-ए-तारीक गुज़ारूंगा चला जाऊंगा

रास्ता भूल गया या यहां मंज़िल है मेरी
कोई लाया है या ख़ुद आया हूं मालूम नहीं
कहते हैं कि नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूं क्या लाया मालूम नहीं

यूं तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिए आंखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

फिर भी इक राह में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तन्हाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो

आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है
मैं किसी तरह गुज़ारूंगा चला जाऊंगा
तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi

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तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो - tum itana jo muskura rahe ho -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो

आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो

बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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शगुफ्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम - shaguphtagee ka lataafat ka shaahakaar ho tum -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
शगुफ्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम,
फ़क़त बहार नहीं हासिल-ऐ-बहार हो तुम,
जो इक फूल में है क़ैद वो गुलिस्तान हो,
जो इक कली में है पिन्हाँ वो लाला-ज़ार हो तुम.

हलावतों की तमन्ना मलाहतों की मुराद,
ग़रूर कलियों का कलियों का इंकिसार हो तुम,
जिसे तरंग में फ़ितरत ने गुनगुनाया है,
वो भैरवी हो, वो दीपक हो, वो मल्हार हो तुम.

तुम्हारे जिस्म में ख्वाबीदा हैं हज़ारों राग,
निगाह छेड़ती है जिसको वो सितार हो तुम,
जिसे उठा न सकी जुस्तजू वो मोती हो,
जिसे न गूँथ सकी आरज़ू वो हार हो तुम.

जिसे न बूझ सका इश्क़ वो पहेली हो,
जिसे समझ न सका प्यार वो प्यार हो तुम
खुदा करे किसी दामन में जज़्ब हो न सके
ये मेरे अश्क-ऐ-हसीं जिन से आशकार हो तुम.

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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एक दो भी नहीं छब्बीस दिये - ek do bhee nahin chhabbees diye -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
एक दो भी नहीं छब्बीस दिये
एक इक करके जलाये मैंने

इक दिया नाम का आज़ादी के
उसने जलते हुये होठों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है

इक दिया नाम का खुशहाली के
उस के जलते ही यह मालूम हुआ
कितनी बदहाली है
पेत खाली है मिरा, ज़ेब मेरी खाली है

इक दिया नाम का यक़जिहती के
रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची
क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के आँचल में हैं जितने पैबंद
सब को इक साथ उधड़ते देखा

दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महँगा भी है, मिलता भी नहीं
क्यों दिये इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में झरोखा न मुन्डेर
ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं

आया गुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गये सारे दिये-
हाँ मगर एक दिया, नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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आज अन्धेरा मिरी नस-नस में उतर जाएगा - aaj andhera miree nas-nas mein utar jaega -- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi #poemgazalshayari.in

April 24, 2020 0 Comments
आज अन्धेरा मिरी नस-नस में उतर जाएगा
आँखें बुझ जाएँगी बुझ जाएँगे एहसास ओ शुऊर
और ये सदियों से जलता-सा सुलगता-सा वजूद
इस से पहले कि सहर माथे पे शबनम छिड़के
इस से पहले कि मिरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म रुख़्सार को ठण्डक बख़्शें
इस से पहले कि मिरे बेटे का मज़बूत बदन
तन-ए-मफ़्लूज में शक्ति भर दे
इस से पहले कि मिरी बीवी के होंट
मेरे होंटों की तपिश पी जाएँ
राख हो जाएगा जलते-जलते
और फिर राख बिखर जाएगी

ज़िन्दगी कहने को बे-माया सही
ग़म का सरमाया सही
मैं ने इस के लिए क्या-क्या न किया
कभी आसानी से इक साँस भी यमराज को अपना न दिया
आज से पहले, बहुत पहले
इसी आँगन में
धूप-भरे दामन में
मैं खड़ा था मिरे तलवों से धुआँ उठता था
एक बे-नाम सा बे-रंग सा ख़ौफ़
कच्चे एहसास पे छाया था कि जल जाऊँगा
मैं पिघल जाऊँगा
और पिघल कर मिरा कमज़ोर सा मैं
क़तरा-क़तरा मिरे माथे से टपक जाएगा
रो रहा था मगर अश्कों के बग़ैर
चीख़ता था मगर आवाज़ न थी
मौत लहराती थी सौ शक़्लों में
मैं ने हर शक़्ल को घबरा के ख़ुदा मान लिया
काट के रख दिए सन्दल के पुर-असरार दरख़्त
और पत्थर से निकाला शोला
और रौशन किया अपने से बड़ा एक अलाव
जानवर ज़ब्ह किए इतने कि ख़ूँ की लहरें
पाँव से उठ के कमर तक आईं

और कमर से मिरे सर तक आईं
सोम-रस मैं ने पिया
रात दिन रक़्स किया
नाचते-नाचते तलवे मिरे ख़ूँ देने लगे
मिरे आज़ा की थकन
बन गई काँपते होंटों पे भजन
हड्डियाँ मेरी चटख़ने लगीं ईंधन की तरह
मन्तर होंटों से टपकने लगे रोग़न की तरह
अग्नि माता मिरी अग्नि माता
सूखी लकड़ी के ये भारी कुन्दे
जो तिरी भेंट को ले आया हूँ
उन को स्वीकार कर और ऐसे धधक
कि मचलते शोले खींच लें जोश में
सूरज की सुनहरी ज़ुल्फ़ें
आग में आग मिले
जो अमर कर दे मुझे
ऐसा कोई राग मिले

अग्नि माँ से भी न जीने की सनद जब पाई
ज़िन्दगी के नए इम्कान ने ली अंगड़ाई
और कानों में कहीं दूर से आवाज़ आई
बुद्धम् शरणम् गच्छामि
धम्मम् शरणम् गच्छामि
संघम् शरणम् गच्छामि
चार अबरू का सफ़ाया कर के
बे-सिले वस्त्र से ढाँपा ये बदन
पोंछ के पत्नी के माथे से दमकती बिन्दिया
सोते बच्चों को बिना प्यार किए
चल पड़ा हाथ में कश्कोल लिए
चाहता था कहीं भिक्षा ही में जीवन मिल जाए
जो कभी बन्द न हो दिल को वो धड़कन मिल जाए
मुझ को भिक्षा में मगर ज़हर मिला
होंट थर्राने लगे जैसे करे कोई गिला
झुक के सूली से उसी वक़्त किसी ने ये कहा
तेरे इक गाल पे जिस पल कोई थप्पड़ मारे
दूसरा गाल भी आगे कर दे
तेरी दुनिया में बहुत हिंसा है
उस के सीने में अहिंसा भर दे
कि ये जीने का तरीक़ा भी है अन्दाज़ भी है
तेरी आवाज़ भी है मेरी आवाज़ भी है
मैं उठा जिस को अहिंसा का सबक़ सिखलाने
मुझ को लटका दिया सूली पे उसी दुनिया ने

आ रहा था मैं कई कूचों से ठोकर खा कर
एक आवाज़ ने रोका मुझ को
किसी मीनार से नीचे आ कर
अल्लाहु-अकबर अल्लाहु-अकबर
हुआ दिल को ये गुमाँ
कि ये पुर-जोश अज़ाँ
मौत से देगी अमाँ
फिर तो पहुँचा मैं जहाँ
मैं ने दोहराई कुछ ऐसे ये अज़ाँ
गूँज उठा सारा जहाँ
अल्लाहु-अकबर अल्लाहु-अकबर
इसी आवाज़ में इक और भी गूँजा एलान
कुल्लो-मन-अलैहा-फ़ान
इक तरफ़ ढल गया ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का सर
हुआ फ़ालिज का असर
फट गई नस कोई शिरयानों में ख़ूँ जम-सा गया
हो गया ज़ख़्मी दिमाग़
ऐसा लगता था कि बुझ जाएगा जलता है जो सदियों से चराग़
आज अन्धेरा मिरी नस नस में उतर जाएगा
ये समुन्दर जो बड़ी देर से तूफ़ानी था
ऐसा तड़पा कि मिरे कमरे के अन्दर आया
आते-आते वो मिरे वास्ते अमृत लाया
और लहरा के कहा
शिव ने ये भेजवाया है लो पियो और
आज शिव इल्म है अमृत है अमल
अब वो आसाँ है जो दुश्वार था कल
रात जो मौत का पैग़ाम लिए आई थी
बीवी बच्चों ने मिरे
उस को खिड़की से परे फेंक दिया
और जो वो ज़हर का इक जाम लिए आई थी
उस ने वो ख़ुद ही पिया
सुब्ह उतरी जो समुन्दर में नहाने के लिए
रात की लाश मिली पानी में

- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi


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